Tuesday, 8 October 2019

राष्ट्रवाद-विमर्श भाग 1: भारतीय राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथ


हिंदुत्व-आधारित राष्ट्रवाद

1.  धर्म-आधारित राष्ट्रवाद का उभार:
2.  सावरकर और हिन्दू राष्ट्रवाद:
a.  हिन्दू धर्म की जगह हिंदुत्व को तरजीह
b.  हिन्दुत्व की कसौटी
c.  पितृभूमि और पुण्यभूमि की संकल्पना
d.  हिंदुत्व-आधारित पहचान के प्रति आग्रहशीलता और अंतर्जातीय विवाह
e.  हिन्दुत्व की उदार संकल्पना
f.   सावरकर का अंतर्विरोध
3.     दीनदयाल उपाध्याय और उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
4.  गोलवलकर और हिन्दू राष्ट्रवाद:
a.  सावरकर का प्रभाव
b.  हिन्दुस्थान की संकल्पना
c.  पितृभूमि की संकल्पना को विस्तार
d.  राष्ट्र के अंतर्तत्वों के सन्दर्भ में स्टालिन का प्रभाव
e.  बहुसंख्यकों का वर्चस्व और मुस्लिम-विरोधी मानसिकता
f.   जर्मन राष्ट्रवाद के करीब
5.  विवेकानन्द और राष्ट्रवाद की दक्षिणपंथी संकल्पना:
a.  सांस्कृतिक खुलेपन के हिमायती
b.  बहुलतावादी राष्ट्रवाद के पक्षधर
c.  देशप्रेम का पर्याय
d.  मानवतावादी स्वरुप
e.  राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक-दार्शनिक सन्दर्भ
f.   नववेदांतवाद पश्चिमी उदारवादी चिंतन के करीब
6.     ऋग्वेद में राष्ट्र की संकल्पना और इसकी वास्तविकता
7.  विश्लेषण

धर्म-आधारित राष्ट्रवाद का उभार:
औपनिवेशिक गुलामी के दौर में जब राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा और उसके मूल्यों को स्वर दे रहा था, उस समय मुसलमानों और हिन्दुओं के एक तबके ने स्वयं को उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलन से अलग रखते हुए क्रमशः मुस्लिम राष्ट्रवाद एवं हिन्दू राष्ट्रवाद के पक्ष में आवाज़ बुलंद की, इससे जुड़े हुए मूल्यों पर जोर दिया, ज़रुरत पड़ने पर औपनिवेशिक सत्ता के साथ सहयोग किया और यहाँ तक कि काँग्रेस का विरोध करने के लिए एक-दूसरे से हाथ तक मिलाया। इस पृष्ठभूमि में यदि मुस्लिम लीग ने मुस्लिम राष्ट्रवाद के प्रतिनिधित्व का दावा किया, तो हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतिनिधित्व का दावा; लेकिन ये दोनों ही संगठन आजादी के उस आंदोलन से अलग ही रहे जो धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक मूल्यों की वकालत करता था और अपनी प्रकृति में  समावेशी था। काँग्रेस की विडंबना यह रही कि मुस्लिम लीग उसे हिन्दुओं की पार्टी कहकर उस पर प्रहार करती रही, और हिन्दू महासभा उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाती रही। हिन्दुत्व की विचारधारा को हिन्दू राष्ट्रवादियों ने अपना आधार बनाया, जिसका प्रतिपादन सन् 1923 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष विनायकराव  दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू’ में किया। आगे चलकर, सन् 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघ-चालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी किताब ‘नेशनलिस्ट थॉट ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में इसे विस्तार देते हुए सैद्धांतिक जामा पहनाया। अंग्रेज जानते थे कि ये संगठन राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करेंगे, अतः उन्होंने पर्दे के पीछे से हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों को समर्थन देना जारी रखा। ध्यातव्य है कि सन् 1925 में हिन्दुत्व की विचारधारा से प्रेरित होकर ही हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते पर चलकर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लक्ष्य के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS) का गठन किया गया।

सावरकर और हिन्दू राष्ट्रवाद
हिन्दू धर्म की जगह हिंदुत्व को तरजीह:
सन् 1923 में सावरकर ने अपने लेख ‘हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू’ में यह कहते हुए हिन्दूवाद (Hinduism) की जगह हिन्दुत्व (Hindutva) को तरजीह दी। उनका यह मानना था कि हिन्दू धर्म हिन्दुत्व के कुछ ही मूल्यों को अभिव्यक्त कर पाता है और इसीलिए बिना हिन्दुत्व को समझे ‘हिन्दू’ या ‘हिन्दू धर्म’ को समझना नामुमकिन है। उन्होंने हिन्दू-धर्म को ‘हिंदुत्व’ रूपी पेड़ की शाखा बतलायी और ‘हिन्दू’ शब्द की जगह ‘वैदिक’ शब्द के प्रयोग की आवश्यकता पर बल दिया, ताकि वैदिक काल के बाद उपजे पंथ या धार्मिक समूह के हिन्दुत्व के साथ घालमेल से बचा जाए। मतलब यह कि वे ‘हिन्दू-बौद्ध’ और ‘हिन्दू-जैन’ के बजाय ‘वैदिक-बौद्ध’ और ‘वैदिक-जैन’ का व्यवहार किया जाए।
हिन्दुत्व की कसौटी:
इस लेख में सावरकर ने हिन्दुत्व की कसौटी निर्धारित करते हुए कहा कि हिन्दू वह है:
1.  जिसकी रगों में ‘हिन्दू’ का खून दौड़ रहा है। उनकी नज़रों में हिन्दू एक जाति है जिसकी शुरुआत वैदिक-युग के भी पूर्व हुई है।
2.  जो हिन्दुस्तान को अपनी पितृभूमि समझता हो, जहाँ से उसके पूर्वज जुड़े हुए हों।
3.  जो सांस्कृतिक तौर पर हिंदुस्तान का हो, अर्थात् हिन्दुस्तान की सर-ज़मीन को पावन धरती की तरह पूजता हो।
मतलब यह कि सावरकर के अनुसार जाति, राष्ट्र और संस्कृति हिंदुत्व के तीन अनिवार्य पहलू हैं।
पितृभूमि और पुण्यभूमि की संकल्पना:
आगे चलकर, सन् 1937 में कर्णावती,अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर ने कहा था कि वे सभी लोग हिन्दू हैं जो सिंधु नदी से हिंद महासागर तक फैली भारतभूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानते हैं। सावरकर के अनुसार, जिनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि एक ही हो, वही राष्ट्र के असली वारिस हैं। इसीलिए सामान्य स्थिति में, न तो कोई सिर्फ इसलिए हिन्दू होगा कि भारत-भूमि उसके लिए पुण्यभूमि है, या फिर वह भारत-भूमि में उत्पन्न किसी धर्म को धारण करता है और न ही सिर्फ इसलिए कि भारत में जन्म के कारण पितृभूमि का वारिस है।
स्पष्ट है कि सावरकर ने कुछ धार्मिक पहचानों को यत्नपूर्वक राष्ट्र की परिधि से बाहर रखने के लिए पितृभूमि के साथ पुण्यभूमि का विचार जोड़ा और इसी आलोक में हिन्दुस्थान की भौगोलिक सीमा तय की। उनका यह मानना था कि किसी मुसलमान, ईसाई या पारसी भारतवासी के लिए पावन-धरती ‘हिंदुस्थान’ नहीं है, बल्कि दूर देशों में है क्योंकि ये धर्म हिंदुस्तान की ज़मीन से नहीं उपजे हैं, बल्कि बाहर से आये हैं। उनके अनुसार, हर मुसलमान भारत और अरब के बीच युद्ध की स्थिति में उस देश के प्रति सहानुभूति दिखायेगा जहाँ पर मक्का-मदीना हो। इन्हीं कारणों से कोई ईसाई या मुसलमान ‘हिन्दू’ नहीं कहलाया जा सकता क्योंकि वो पितृभूमि अर्थात् हिन्दुस्तान की सरज़मीं को पावन भूमि एवं पूज्य मानने की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। लेकिन, सावरकर को बौद्ध, जैन और सिख को हिन्दू मानने में ऐतराज़ नहीं है क्योंकि इन तीनों धर्मों की उत्पत्ति भारत में ही हुई है और इनका इतिहास एवं इनकी संस्कृति इसी से सम्बद्ध है। स्पष्ट है कि सावरकर की नज़रों में, भारत में वैदिक या सनातनी, बौद्ध, जैन, सिख और आर्य-समाजी आदि तो ‘हिंदुत्व’ की परिधि में आते हैं, लेकिन मुस्लिम, ईसाई और यहूदी नहीं। इस प्रकार उन्होंने बड़ी कुशलता से मुसलमानों और ईसाईयों को ‘हिंदुस्थान’ में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया। आगे चलकर, गोलवलकर ने भी यह विचार व्यक्त किया कि  “धार्मिक अल्पसंख्यक सिर्फ परदेसियों की तरह इस देश में रह सकते हैं…. बिना किसी अधिकार के।”
हिंदुत्व-आधारित पहचान के प्रति आग्रहशीलता और अंतर्जातीय विवाह:
सावरकर हिंदुत्व-आधारित पहचान को मजबूती प्रदान करने के प्रति कहीं अधिक आग्रहशील हैं। इसी आग्रहशीलता के कारण सावरकर संघ की विचारधारा और उसके ब्राह्मणवादी आग्रहों के विपरीत अंतर्जातीय विवाह की हिमायत करते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में, इससे राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया को गति मिलेगी। खुद सावरकर के शब्दों में, दो प्रेमियों के बीच समाज की किसी तरह की वर्ण-व्यवस्था नहीं आ सकती। उनका मानना था कि अंतर्वर्णीय एवं अंतर्जातीय विवाह की स्थिति में वर्णीय एवं जातीय पहचान के लोप की प्रक्रिया तो तेज़ होगी, पर हिंदुत्व वाली पहचान को कहीं और अधिक दृढ़ होगी। उनका यह भी मानना है कि आर्यन और द्रविड़ जातियाँ एक समान हिन्दू हैं।
हिन्दुत्व की उदार संकल्पना:
सावरकर के मुताबिक ‘हिन्दू’ होने के नियम न ज़्यादा सख्त होने चाहिए और न ज़्यादा नर्म। उन्होनें काँग्रेस की अध्यक्ष रही एनी बेसंट और स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता को अपवादस्वरूप ही सही, ‘हिन्दू’ करार दिया, इस तथ्य के बावजूद कि उन दोनों की रगों में ना ही किसी हिन्दू का खून बह रहा था और ना ही उनके पूर्वज हिन्दू थे। सावरकर ने अमरीका या इंग्लैंड में रहने वाले अप्रवासी भारतीयों की संतानों को हिन्दू माना है क्योंकि वे उनकी तीनों कसौटियों पर खरे उतरते हैं।
सावरकर का अंतर्विरोध:
सावरकर के राष्ट्रवाद का अंतर्विरोध यह है कि एक ओर ये भगिनी निवेदिता और एनी बेसेन्ट जैसे विदेश से आएलोगों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे हिन्दू बनने के लिए अपना सब कुछ त्याग कर इस देश की सेवा में लग जाएँ, दूसरी ओर अप्रवासी भारतीयों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनकी निष्ठा भारत के प्रति बनी रहे। सावरकर के अनुसार, अगर कोई इन्सान खून से आधा हिन्दू अर्थात् किसी के माँ-बाप में से सिर्फ एक ही हिन्दू हो, तो वो भी इस कसौटी पर खरा उतरता है। सावरकर के अनुसार, हिन्दू ‘सबसे श्रेष्ठ’ जाति हैं, पर कैसे और क्यों, उनके यहाँ इसका जवाब नहीं मिलता। सावरकर के राष्ट्रवाद के साथ समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है, वरन् समस्या यह भी है कि उनके हिंदुत्व और उनके ‘हिन्दुस्थान’ की परिभाषा में उत्तर-पूर्व के उन लोगों के लिए भी जगह नहीं बन पाती है जो पितृभूमि एवं पुण्यभूमि की उनकी कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते हैं। इसकी तीसरी सीमा यह है कि यह उन लोगों के प्रति घृणा एवं नफ़रत को प्रोत्साहित करती है जो इसके हिंदुत्व के दायरे में नहीं समा पाते हैं। इसीलिए यह भारत जैसे बहुजातीय एवं बहुधार्मिक देश के लिए अनुपयुक्त है क्योंकि विविधता के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर ही भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को मजबूती प्रदान की जा सकती है, अन्यथा नहीं।
सावरकर ने हिंदुत्व के आधार पर देश को जोड़े रखने के लिए अंतर्जातीय विवाह की तरह ही हिंदी भाषा को भी बहुत ज़रूरी बताया है, लेकिन सन् 1965 का हिंदी-विरोधी आन्दोलन इस बात का संकेत देता है कि ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ के प्रति आग्रहशीलता और इसके कारण भाषा-सम्बन्धी एकता का राजनीतिक मुद्दा भारत जैसे बहुभाषी देश की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए खतरा बन सकती है, क्योंकि इसके लिए हज़ारों साल पुरानी ज़बान को नहीं मिटाया जा सकता। स्पष्ट है कि हिंदुत्व को किसी भाषा से जोड़ना हिन्दुतान की बहुसंख्या को छेड़ने समान है।
गोलवलकर और हिन्दू राष्ट्रवाद
सावरकर का प्रभाव:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने सावरकर के हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत को अपनाया। सन् 1939 में अपनी किताब ‘नेशनलिस्ट थॉट ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के सिद्धांतकार गोलवलकर ने जिस राष्ट्र को परिभाषित किया, वह हिंदुत्व के मूल्यों को धारण करने वाला है। इनके राष्ट्रवाद की बुनियाद ही सावरकर के द्वारा हिन्दू और हिंदुत्व की दी गयी परिभाषा है। यद्यपि कई मसलों पर गोलवलकर सावरकर से भिन्न मत रखते थे, तथापि गोलवलकर सावरकर की परिभाषा को न केवल विस्तार देते हैं, वरन् उसे सूत्रबद्ध करते हुए राष्ट्र के अंतर्तत्वों को भी रेखांकित करते हैं। जहाँ सावरकर का यह मानना था कि बिना राजनीति के कोई भी चीज़ संभव नहीं है और इसके मद्देनज़र वे हिन्दुओं का नेता होने का दावा करते थे, वहीँ गोलवलकर संघ की राजनीति से दूरी बनाये रखने के प्रति आग्रहशील थे उनका यह भी मानना था कि जब सारा देश हिंदू है, तो कोई हिंदुओं के प्रतिनिधित्व का दावा कैसे कर सकता है
हिन्दुस्थान की संकल्पना:
गोलवलकर ने सावरकर के ‘हिन्दुस्थान’ को भी पुनर्परिभाषित किया। जहाँ सावरकर ने ‘हिन्दुस्थान’ को सिंधु से हिंद महासागर तक की चौहद्दी में बाँधते हुए यहाँ के निवासियों को कुछ शर्तों के साथ हिन्दू माना, वहीं गोलवलकर ने ‘हिन्दुस्थान’ की चौहद्दी को सागर से सागर तक का विस्तार दिया। गोलवलकर ने राष्ट्र के अर्थ को नेशन से व्यापक माना, और ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया है जो राष्ट्रीय जाति की स्वतंत्रता की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है।
पितृभूमि की संकल्पना को विस्तार:
सावरकर ने ‘पितृभूमि’ की संकल्पना दी थी, पर गोलवलकर ने उनकी इस संकल्पना को विस्तार देते हुए यह स्पष्ट किया कि ‘पितृभूमि’ पर गर्व होने के साथ ‘मातृभूमि’ से प्रेम हमारी राष्ट्रीय चेतना को प्रदर्शित करती है। जहाँ पितृभूमि वर्चस्व एवं सत्ता का वाहक है, वहीं मातृभूमि एक भावनात्मक विषय है जो देश से भावनात्मक लगाव को दर्शाता है। यही कारण रहा कि सावरकर की पितृभूमि गोलवलकर के यहाँ आकर मातृभूमि में परिणत हो गई। गोलवलकर ने अतीत की समृद्ध विरासत को प्राचीन भारत के दायरे में सीमित करते हुए हिंदुत्व में विसर्जित कर दिया, मध्यकालीन विरासत को इसके दायरे से बाहर कर दिया तथा मेलजोल एवं साथ रहने की इच्छा के लिए इसी को कसौटी बना दिया। यह गोलवलकर की ही नहीं, भारतीय नवजागरण और भारतीय राष्ट्रवाद की सीमा रही, यद्यपि इस सीमा को सावरकर एवं गोलवलकर ने विभाजनकारी भूमिका की परिणति तक पहुँचा दिया। एडवर्ड सईद ने कहा था कि नया या पुनर्जागृत राष्ट्रवाद आख्यान का सहारा लेता है। इसी तर्ज़ पर गोलवलकर ने भी रामायण के आख्यानों: “लक्ष्मण, अपि स्वर्णमयी लंका मे न रोचते/जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” का हवाला देते हुए बतलाया कि मातृभूमि से प्रेम हमेशा से हिंदू जाति में मौजूद रहा है। इसी संदर्भ में इस प्रकार राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद की सैद्धांतिक रूपरेखा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने देश एवं जाति की संकल्पना को मिला दिया और देश-प्रेम को इसकी बुनियादी शर्त बतलाया।
राष्ट्र के अंतर्तत्वों के सन्दर्भ में स्टालिन का प्रभाव:
स्टालिन ने रूस की सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता के मद्देनज़र पश्चिमी राष्ट्रवाद की संकल्पना को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की, और इस क्रम में भाषा, आवास, भूमि, आर्थिक जीवन एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को राष्ट्र के अंतर्तत्वों के रूप में रेखांकित किया इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के मद्देनज़र राष्ट्रवाद का यह मॉडल भारत के लिए उपयोगी हो सकता था, पर व्यावहारिक धरातल पर इसमें एकाधिकारवाद के तत्व समाहित थे, जबकि भारतीय राष्ट्रवाद का रुझान पश्चिमी उदारवादी चिंतन की और था। इसीलिए यह समावेशी राष्ट्रवाद की धारा को अपनी ओर आकृष्ट कर पाने में असमर्थ रहा। लेकिन, भारत के दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी स्टॅलिन से प्रभावित हुए। स्टालिन से प्रभावित होकर गोलवलकर ने भाषा, आवास, भूमि, और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को राष्ट्र के अंतर्तत्वों के रूप में अपने यहाँ भी बनाये रखा, लेकिन ‘आर्थिक जीवन’ (Economic Life) को उन्होंने जाति (Ethnicity) एवं धर्म (Religion) के जरिये प्रतिस्थापित किया। स्पष्ट है कि गोलवलकर ने भौगोलिक (Country), जातीय (Race), धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषिक एकता: इन पाँच तत्वों को राष्ट्र के अंतर्तत्वों के रूप में रेखांकित किया।
शायद यह वामपंथ एवं दक्षिणपंथ की ज़रूरतों और इसके परिणामस्वरूप दृष्टि की भिन्नता का परिणाम है। जहाँ वामपंथ का जोर तर्क एवं बौद्धिकता पर है और यह अर्थ-केन्द्रित चिंतन लेकर उपस्थित होता है, वहीं दक्षिणपंथ का पूरा-का-पूरा अस्तित्व ही भावना पर निर्भर करता है और इसीलिए दक्षिणपंथी चिंतन भावना के इर्द-गिर्द घूमता रहता है जिसका तर्क एवं बौद्धिकता से स्वाभाविक वैर है।
बहुसंख्यकों का वर्चस्व और मुस्लिम-विरोधी मानसिकता:
राष्ट्र के लिए गोलवलकर द्वारा प्रस्तावित तत्वों में से जातीय और धार्मिक तत्वों ने सबसे ज्यादा समस्या उत्पन्न की है क्योंकि उन्होंने यह स्पष्ट किया कि समान उत्पत्ति से ही जाति तय होगी, और इस रूप में उन्होंने जाति को नस्ल के कहीं ज्यादा करीब पहुँचा दिया। ऐसा माना जाता है कि गोलवलकर सावरकर से प्रभावित थे, और मुस्लिम-विरोधी मानसिकता के कारण ही उन्होंने धर्म को राष्ट्र के तत्व के रूप रेखांकित किया। गोलवलकर का ‘हिंदुस्थान’ अवधारणा के स्तर पर यूटोपिया है, तो मंशा के तौर पर राजसत्ता का औजार, जिसमें हिंदू होना राष्ट्रवादी एवं देशभक्त होने का पैमाना बन गया और फिर यह मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत एवं घृणा फ़ैलाने के साधन में तब्दील हो गया। गोलवलकर के मुस्लिम-विरोध के मूल की ओर इशारा करते हुए ज्योतिर्मय शर्मा सावरकर के पितृभूमि एवं पुण्य भूमि सिद्धांत में गोलवालकर की आस्था का हवाला देते हैं उनके अनुसार, "गोलवलकर कहते भी थे कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है कि मुसलमान जुमे की नमाज़ अता करें या मस्जिद बनाएँ, बशर्ते वे स्वीकार करें कि वो हिंदू सभ्यता की उत्पत्ति हैं वो ये भी कहते हैं कि भले ही आप अपना पहला नाम मुस्लिम रख ले, लेकिन सर नेम हिंदू रखें" गोलवलकर का यह भी कहना था, 'मुसलमानों को सबसे पहले भूलना होगा कि उन्होंने भारत पर कभी राज किया था दूसरे, उन्हें विदेशी मुस्लिम राष्ट्रों को अपनी जन्मभूमि मानना बंद करना होगा और तीसरे उन्हें भारत की मुख्यधारा से जुड़ना होगा"
जर्मन राष्ट्रवाद के करीब:
जर्मनी का राष्ट्रवाद जातीय श्रेष्ठता की भावना को आधार बनाकर विकसित हुआ। वर्साय की सन्धि की पृष्ठभूमि में जातीय श्रेष्ठता की इसी भावना को उभारते हुए हिटलर ने न केवल जर्मनी के आहत राष्ट्रवाद को अभिव्यक्ति दी और उसे राष्ट्र को एकताबद्ध करने का सूत्र बनाया, वरन् उसे नाजीवाद की परिणति तक पहुँचाया। उनके निशाने पर यहूदी थे और उसने यहूदी-विरोधी भावनाओं को न केवल जर्मन जनता में संपोषित किया, वरन् उसे घृणा की परिणति तक पहुँचाया। भारत के परिप्रेक्ष्य में यही कम हिन्दू महासभा और संघ के द्वारा किया गया और आज भी किया जा रहा है। बस फर्क यह है कि यहाँ निशाने पर मुसलमान हैं और इनका अपने विरोधियों पर मुस्लिम-तुष्टिकरण का आरोप है। इस आरोप का इस्तेमाल ये अपने विरोधियों की हिन्दू-विरोधी छवि निर्मित करने और उन्हें राजनीतिक दृष्टि से कमजोर करने के लिए कर रहे हैं। इनकी यह सोच उन्हें हिटलर के कहीं करीब लाकर खड़ी कर देती है जिसने रक्त की शुद्धता पर बल देते हुए यहूदियों के खिलाफ घृणा का खुलकर इजहार किया था और उनके विरुद्ध नरसंहार को अंजाम दिया था। इसीलिए यह कहा जाता है कि गोलवलकर के राष्ट्रवाद ने टकराव को बढ़ावा दिया।
स्पष्ट है कि गोलवलकर का राष्ट्र-चिंतन अकादमिक या सांस्कृतिक से कहीं ज्यादा राजनीतिक चिंतन है, और इसमें भारतीय सामासिक संस्कृति एवं इसकी ज़रूरतों की समझ का स्पष्ट अभाव है। शायद जाति और धर्म पर ज्यादा जोर देने के कारण ही गोलवलकर आर्थिक तंत्र को तरजीह नहीं दे पाए, और इसी कारण उनकी राष्ट्रीयता की संकल्पना एकाँगी स्वरुप धारण करती है।
दीनदयाल उपाध्याय और उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकल्पना प्रस्तुत की। उन्होंने ऐसे राष्ट्रवाद की हिमायत की जिसका विस्तार व्यष्टि से समष्टि तक होता, जो आत्म-उत्थान के विभिन्न चरणों में एक पड़ाव भर होता और जिसकी परिणति अंत में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के रूप में होती है। इसीलिए वर्तमान में भाजपा और संघ का राष्ट्रवाद ‘एकात्म मानववाद’ के प्रतिपादक दीन दयाल उपाध्याय की उस संकल्पना के भी प्रतिकूल है जिसकी रूपरेखा तैयार करते हुए उन्होंने कानपुर में आयोजित भारतीय जनसंघ के पहले अधिवेशन में कहा था,
‘हिंदू समाज का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है कि भारतीय जनजीवन और अपने उन अंगों के भारतीयकरण का महान कार्य अपने हाथ में ले जो विदेशियों द्वारा विदेशाभिमुख बना दिए गए हैं। हिंदू समाज को चाहिए कि उन्हें स्नेहपूर्वक आत्मसात करे। केवल इसी प्रकार सांप्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण और दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है।’
आगे चलकर अप्रैल,1965 में जनसंघ कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए उन्होंने ‘विविधता में एकता’ को भारतीय संस्कृति का मूल तत्व बतलाया और प्रेम एवं भाईचारे पर जोर देते हुए कहा, “विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में प्रकटीकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया, तो विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है, तो वह प्रकृति या संस्कृति का द्योतक नहीं, बल्कि विकृति का द्योतक है.... देखने को तो जीवन में भाई-भाई में प्रेम और बैर दोनों ही मिलते हैं, किंतु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं। बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है। बैर को मानव-व्यवहार का आधार बना कर यदि इतिहास का विश्लेषण किया जाए और फिर उसमें एक आदर्श जीवन का स्वप्न देखा जाए, यह आश्चर्य की ही बात होगी।” लेकिन, आज भाजपा एवं संघ का राष्ट्रवाद उपाध्याय के एकात्म मानववाद की संकल्पना से भटक कर सावरकर और गोलवलकर के संकीर्णतावादी नज़रिए को आत्मसात करता हुआ उससे भी दो कदम आगे बढ़ चुका है और इसीलिए विविधता से भरे भारतीय समाज एवं भारतीय संस्कृति में  इसकी विभाजनकारी भूमिका प्रबल हो चुकी है।   

विवेकानंद और राष्ट्रवाद की दक्षिणपंथी संकल्पना

स्वामी विवेकानंद को आधुनिक भारत का आध्यात्मिक पिता और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का जनक माना जाता है। धर्मनिरपेक्ष भारत की विडंबना यह रही कि दक्षिणपंथ ने विवेकानंद को न केवल हाईजैक कर लिया, वरन् अपने पोस्टर-ब्वाय के रूप में भी प्रचारित किया; और धर्मनिरपेक्ष एवं समावेशी राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दलों ने उसे ऐसा करने दिया। आज ऐसी ही कोशिश भगत सिंह, सरदार बल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और यहाँ तक की गाँधी के साथ भी हो रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि इन सबने संकीर्णताओं से मुक्त रहते हुए राष्ट्रवाद की उस धारा का प्रतिनिधित्व किया जो अपनी प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष एवं समावेशी है।
सांस्कृतिक खुलेपन के हिमायती:
विवेकानंद का मानना था कि ‘नैसर्गिक और स्वस्थ राष्ट्रवाद का विकास तभी होगा, जब न सिर्फ धर्मों के बीच, बल्कि पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों के बीच बराबरी का आदान-प्रदान हो।’ वे सांस्कृतिक खुलेपन के हिमायती थे, न कि बन्द दृष्टि की वकालत करने वाले। शेष दुनिया से कटने के लिए उन्होंने भारत की आलोचना करते हुए इसे भारत के पतन का कारण बतलाया और कहा, “दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रों से अलगाव ही हमारे पतन का कारण है, और शेष दुनिया की धरा में समा जाना ही इसका एकमात्र समाधान है।” यही कारण है कि सिस्टर निवेदिता ने अपनी किताब नोट्स ऑफ सम वांडरिंग विद स्वामी विवेकानंदमें उनको सांस्कृतिक संश्लेषक की उपाधि दी है।
बहुलतावादी राष्ट्रवाद के पक्षधर:
अपने आलेख ‘स्वामी विवेकानंद और राष्ट्रवाद’ में गोपाल मिश्रा ने  विवेकानंद को हर तरह की विविधता का समर्थक मानते हुए यह बताया है कि विवेकानंद का राष्ट्रवाद मिश्रित एवं बहुलतावादी था और इसी लक्ष्य से ये परिचालित थे। इतिहासकार बिपनचन्द्र उनके बारे में लिखते हैं, अपने गुरु की तरह उन्होंने भी सभी धर्मों की बुनियादी एकता की घोषणा की और धार्मिक बातों में संकुचित दृष्टिकोण की निंदा की।सन् 1896 में शिकागो धर्म-संसद में उन्होंने कहा था, धर्मों के बीच एकता के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन अगर कोई ये सोचता है कि एक धर्म के दूसरे धर्म पर जीत स्थापित करने से एकता स्थापित होगी, तो ये गलत है।” अपनी पुस्तक स्वामी विवेकानंदमें इतिहासकार अमिय पी. सेन ने लिखा है, “विवेकानन्द हिंदू शब्द का इस्तेमाल व्यापक और सांस्कृतिक संदर्भों में किया करते थे।” सन् 1898 में विवेकानन्द ने लिखा, “हमारी अपनी मातृभूमि के लिए दो महान धर्मों: हिंदुत्व तथा इस्लाम का संयोग ही एकमात्र आशा है।” स्पष्ट है कि उनका राष्ट्रवाद गंगा-जमुनी तहजीब की पृष्ठभूमि में आकर ग्रहण करता है
देशप्रेम का पर्याय:
दरअसल विवेकानन्द सच्चे देशभक्त थे। उनके लिए देशप्रेम का मतलब था भारत से प्रेम, और भारत का मतलब था उसकी मिटटी से प्रेम, वर्ण-जाति, धर्म-संप्रदाय और लिंग से परे यहाँ के लोगों से प्रेम, उसके कण-कण से प्रेम। उनका कहना था, “मैं भारतीय हूँ और हर भारतीय मेरा भाई है। अज्ञानी हो या फिर गरीब हो, अभावग्रस्त हो या ब्राह्मण या फिर अछूत हो, वो मेरा भाई है। भारत का समाज मेरे बचपन का पालना है और मेरे जवानी के आनंद का बगीचा है। मेरे बुढापे की काशी है। भारत की मिट्टी मेरे लिये सबसे बङा स्वर्ग है।” दूसरे शब्दों में कहें, तो उनके लिए भारत के वही मायने थे, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिए।
मानवतावादी स्वरुप:
विवेकानन्द अपनी मातृभूमि के उत्थान के लिये जिस राष्ट्रवाद की कल्पना करते हैं, उसके मूल में मानवतावाद, आध्यात्मिक विकास और सांस्कृतिक नवजागरण है। विवेकानंद ने केवल यह बात कही नहीं, कि मानव-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, वरन् इसे अपने जीवन में भी उतारा। उन्होंने भारत की गरीब, अभावग्रस्त एवं बदहाल जनता की पीड़ा से व्यथित होकर लिखा, “मैं एक ही ईश्वर को मानता हूँ जो सभी आत्माओं की आत्मा है और सबसे ऊपर है। मेरा ईश्वर दुखी मानव है, मेरा ईश्वर पीड़ित मानव है, मेरा ईश्वर हर जाति का पीड़ित मनुष्य है।” इसी आलोक में इन्होने शिक्षित भारतीयों का दायित्व निर्धारित करते हुए  कहा, ”जब तक लाखों-लाख लोग भूख तथा अज्ञान से ग्रस्त हैं, मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहूँगा जो उसके खर्च पर शिक्षा पाकर भी उन पर कोई ध्यान नहीं देता।”
दरअसल वे मानवतावादी थे, और उनकी मानवतावादी चेतना ने धर्म को लेकर उनकी सोच को संकीर्ण बनने से रोका। उन्होंने धर्म को व्यापक नज़रिए से देखा, और इसीलिए वे यह कह सके, “हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में न बन्द हो जाए। हम, अर्थात् हममें से अधिकांश न वेदांती हैं, न पौराणिक हैं और न ही तांत्रिक। हम केवल ‘हमें मत छूओ’ के समर्थक हैं। हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि ‘हम पवित्र हैं, हमें छूना मत।’ अगर यही सब कुछ एक शताब्दी और चलता रहा, तो हममें से हर एक व्यक्ति पागलखाने में होगा।” विवेकानंद ने जो चेतावनी आज से करीब सवा सौ साल पहले दी थी, हमारे द्वारा उसकी अनसुनी की गयी और आज बहुत ही तेजी से हम उस पागलखाने की तरफ बढ़ रहे हैं।    
राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक-दार्शनिक सन्दर्भ: नववेदांतवाद
मानवतावाद के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये ही उन्होंने आधुनिकता एवं आधुनिक मानवतावादी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में नववेदांतवाद के रूप में वेदांत-दर्शन की पुनर्व्याख्या की। वे विश्वबंधुत्व के प्रति आग्रहशील थे और अक्सर कहा करते थे कि पूरी दुनिया मेरा देश है। इसीलिए उनकी राष्ट्रीयता की सीमा में अंतर्राष्ट्रीयता भी समा जाती है। स्पष्ट है कि उनके लिए राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता किसी संकीर्णता का नाम नहीं था, वरन् इसके मूल में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का आदर्श मौजूद था और इसीलिए यह मानवतावाद का पर्याय था।
पश्चिमी उदारवादी चिंतन के करीब:
विवेकानंद ने आधुनिक भारत के निर्माण में पश्चिमी उदारवादी चिंतन एवं इसके मूल्यों की भूमिका को रेखांकित करते हुए करुणा, व्यक्तिगत स्वतंत्रतासमानता और विश्वबंधुत्व पर जोर दिया। उन्होंने विचारों की स्वतंत्रता की हिमायत करते हुए कहा, “विचार और कर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की अकेली शर्त है। जहाँ यह न हो, वहाँ मनुष्य, जाति तथा राष्ट्र सभी पतन के शिकार होते हैं।” उन्होंने कर्मकांड, पूजा-पाठ, और अन्धविश्वास पर हिन्दू धर्म के नवश्यक जोर की निंदा करते हुए भारतीयों से स्वाधीनता, स्वतंत्रता एवं स्वतंत्र चिंतन को अपनाने का आग्रह किया। इसलिए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि विवेकानन्द से प्रेरित हिंदुत्व-आधारित राष्ट्रवाद पर बल देने वालों और हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न देखने वालों की उनके मूल्यों एवं आदर्शों में कितनी गहरी आस्था है, और अगर आज विवेकानन्द जीवित होते, तो इनके रवैये से कितने खुश होते।
संक्षेप में कहें, तो विवेकानन्द की मानवतावादी चेतना, सांस्कृतिक मानवतावादी चेतना में उनकी गहरी आस्था, सांस्कृतिक खुलापन के प्रति उनकी पक्षधरता, पश्चिमी उदारवादी चिंतन के प्रति उनका रुझान, और विश्वबंधुत्व के प्रति उनकी आग्रहशीलता उन्हें हिंदुत्व-आधारित दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के ढाँचे में फिट नहीं होने देती है; बस शर्त यह है कि विवेकानन्द को समग्रता में जानने और समझने की कोशिश की जाए।
ऋग्वेद में राष्ट्र की संकल्पना और इसकी वास्तविकता:
‘ऋग्वेद’ में ‘राष्ट्र’ शब्द के उल्लेख के मद्देनज़र संघ और उससे जुड़े लोगों ने यह दावा किया है कि आधुनिक अर्थ में हम जिसे ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ समझते हैं, वह ऋग्वेद-काल में भी अस्तित्व में था। प्रोफेसर अजय तिवारी ने ऋग्वेद में राष्ट्र के उल्लेख का जिक्र करते हुए कहा है कि “’अहं राष्ट्री संगमनी जनानाम्’ राष्ट्र के अस्तित्व का प्राचीनतम प्रमाण है। महाभारत में द्राविड़ से उत्कल तक का मानचित्र उसी ‘राष्ट्र’ का वर्णन है जिसके आधार पर भारत की संकल्पना हमारे सामने है। इसके बिना तुलसीदास यह कभी न कह पाते कि ‘भलि भारत भूमि भले कुल जन्म समाज सरीरु भले लहि कै।’ यहाँ स्पष्ट रूप में राष्ट्रीयता का बोध होता है।” इसी प्रकार महाभारत के ’शांति-पर्व’ में युधिष्ठिर-भीष्म संवाद में राष्ट्र शब्द के प्रयोग का भी हवाला दिया जाता है:
“एवं मयूरवद्राजा स्वराष्ट्रं परिपालयेत्।”
और यह दावा किया जाता है कि भारत में ऋग्वैदिक काल और महाभारत काल से ही राष्ट्र की संकल्पना मौजूद थी और इसीलिए राष्ट्रीयता-बोध भी।
लेकिन, इस प्रकार का दावा करते हुए इस बात को भुला दिया जाता है कि यहाँ इस शब्द का प्रयोग ‘स्वराष्ट्र’ अर्थात् केवल राजा के राज्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, आज के आधुनिक राष्ट्र-राज्य के अर्थ में नहीं। इसका आधुनिक राष्ट्र की परिकल्पना से दूर-दूर का संबंध भी नहीं है। अगर थोड़ी देर के लिए इस दावे को स्वीकार भी कर लिया जाए, तो यह प्रश्न सहज ही उठता है कि यदि ऋग्वेद एवं महाभारत में ही राष्ट्र और राष्ट्रीयता की संकल्पना मौजूद थी, तो फिर भारत के तत्कालीन नेतृत्व में इस राष्ट्रीय चेतना की मौजूदगी क्यों नहीं दिखाई पड़ती, और कैसे पहले मुसलमानों ने और फिर अँग्रेजों ने तद्युगीन भारतीय नेतृत्व को हाशिये पर धकेलते हुए उनका एक दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल किया? इसीलिए इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब ने “गाँधी जी और राष्ट्रीय प्रश्न” विषय पर अपने व्याख्यान में यूरोपीय राष्ट्रवाद से भारतीय रह्स्त्रवाद को अलगाते हुए कहा कि “जहाँ यूरोप में आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रवाद का उभार फ्रांसीसी क्रांति के साथ हुआ, वहीं भारतीय राष्ट्रवाद के उदय और विकास इससे भिन्न परिदृश्य में, क्योंकि वह ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ चले स्वाधीनता संघर्ष के दौरान विकसित हुआ। एक राष्ट्र के रूप में भी भारत इसी दौरान अस्तित्व में आया, न कि ऋग्वेदकाल में जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दावा करता है।”
विश्लेषण:
अपनी पुस्तक 'आरएसएस-आइकन्स ऑफ़ इंडियन राइट' के लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय के अनुसार, संघ ने आरम्भ से ही राजनीति से दूरी बनायी इनके अनुसार, "उपनिवेशवाद का विरोध करना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्य लक्ष्य नहीं था उनका मानना था कि अगर हम अंग्रेज़ों को किसी कारण से नाराज़ करेंगे, तो उनके हिंदू ध्रुवीकरण के उद्देश्य पर आँच आएगी और अंग्रेज़ उनके ख़िलाफ़ हो जायेंगे और मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदुओं को खड़ा करने की उनकी मुहिम को धक्का लगेगाइसके विपरीत वे चाहते थे कि वो हिंदू समाज को मज़बूत करें, ताकि उनकी नज़रों में मुसलमानों ने हिंदू समाज का जो अपमान किया, उसका वो बदला ले सके" इसी आलोक में न तो संघ और उसके प्रमुख हेडगेवार ने सन् 1930-31 में दांडी मार्च के बाद गाँधी के द्वारा चलाये गए असहयोग आन्दोलन में भाग लेने की अनुमति संघ को दी और न ही भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने की अनुमति
इसी आलोक में राष्ट्रवाद के बारे में होमी जहाँगीर भाभा की टिप्पणी को भी देखा जाना अपेक्षित है भाभा का यह कहना था कि राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद को या तो राजसत्ता के औजार के रूप में देखा गया है, या फिर आदर्शवादी यूटोपिया के तौर पर। स्टालिन ने इसे राजसत्ता के औजार के रूप में देखा, तो सावरकर और गोलवलकर ने राजसत्ता के औजार के साथ-साथ आदर्शवादी यूटोपिया के रूप में। शायद यही कारण है कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद की खतरनाक राजनीतिक मंशा को पहचानते हुए इसे मानवतावाद के रास्ते में बड़ी बाधा के रूप में रेखांकित किया था और इसे भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रतिकूल बतलाया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर और गाँधी को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने राष्ट्र-राज्यों की राजनीतिक संस्कृति से सम्बद्ध उन समस्याओं का बहुत पहले ही अनुमान लगा लिया था जो समस्याएँ पूर्व एवं पश्चिम में आकार ग्रहण कर रही थीं और भविष्य में उभरने वाली थीं। अपने निबंध ‘नेशनलिज़्म’ में टैगोर ने लिखा है, “राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ा संकट है। यह विशेष बात है, जो सालों से भारत की समस्याओं का कारण रही है। हम एक ऐसे राष्ट्र द्वारा शासित एवं उसके प्रभुत्व में रहे हैं, जिसकी अभिव्यक्ति पूरी तरह राजनीतिक रही है। हमने अतीत की विरासत के बावजूद अपनी नियति के राजनीतिक स्वरूप को स्वीकार करने के लिए विवश कर लिया है।” इसीलिए टैगोर वह सभी राष्ट्रों के आधार में निहित आम विचार के ही ख़िलाफ़ हैं क्योंकि उनकी नज़रों में राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ी बुराई थी। इस सन्दर्भ में उन्होंने जो आशंका प्रदर्शित की, 1930 के दशक तक आते-आते भारतीय राजनीति में वे आशंकाएं सच साबित होने लगी, और शायद उससे कहीं अधिक आज उनकी प्रासंगिकता समझ में आ रही है। हिंदुत्व की पहचान पर आधारित दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद के इसी विकृत रूप का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता तक को खतरे में डालने की सारी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।



1 comment:

  1. bahut hi behtareen,gyanvardhak aur sargarbhit vishleshan.....aap ka aabhaar....

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