समावेशी राष्ट्रवाद की भारतीय संकल्पना
प्रमुख आयाम
1. समावेशी
राष्ट्रवाद की अवधारणा
2. समावेशी राष्ट्रवाद और विवेकानन्द
3. रविन्द्र नाथ टैगोर: राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद:
a. राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर
टैगोर की दुविधा
b. टैगोर का युगीन परिदृश्य
c. राष्ट्रवाद और टैगोर
d. राष्ट्रवाद
का विध्वंसक रूप: फासीवाद
e. समाज को राज्य से अधिक
महत्व
f. मानवता
पर देशभक्ति को तरजीह
g. राष्ट्रवाद और भारत
h. राष्ट्रवाद का स्विस-मॉडल भी अनुकरणीय नहीं
i. आलोचना के प्रमुख आधार
j. राष्ट्रीय आन्दोलन में
टैगोर की भूमिका
k. राष्ट्रीय
आन्दोलन को सशर्त समर्थन
4. गाँधी और राष्ट्रवाद:
a. विवेकानन्द और गाँधी का राष्ट्रवाद
b. गाँधी का राष्ट्रवाद और ‘हिन्द स्वराज’
c.
राष्ट्रवाद
और धर्म
d. राष्ट्र और भाषा का प्रश्न
e.
संकीर्ण
राष्ट्रवादी मानसिकता के विरोधी
f.
राष्ट्रवाद
मानवतावाद का पर्याय
g.
राष्ट्रवाद
अंतर्राष्ट्रवाद की अनिवार्य शर्त
h. समावेशी राष्ट्रवाद और अस्पृश्यता
i. समावेशी राष्ट्रवाद और मुसलमान
j.
समावेशी
राष्ट्रवाद और महिलाएँ
k.
पश्चिमी
उदारवादी चिंतन और गाँधी
l.
राष्ट्रवाद:
गाँधी बनाम् टैगोर
5. नेहरु और राष्ट्रवाद:
a.
अन्तर्राष्ट्रवाद और
मानवतावाद
b.
राष्ट्रवाद को प्राथमिकता
c.
राष्ट्रवाद की प्रकृति
d.
घृणा पर आधारित दर्शन
e.
पश्चिमी
राष्ट्रवाद से भिन्नता
6. अम्बेडकर और राष्ट्रवाद:
a. बहुसंख्यक वर्चस्ववाद का विरोध
b. हिंदुत्व-आधारित राष्ट्रवाद के प्रबल विरोधी
c. राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के सिद्धांत के हिमायती
d. अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए वैकल्पिक प्रस्ताव
e. राष्ट्रवाद के आलोचक: भारत
को राष्ट्र न मानना
7. विश्लेषण
समावेशी
राष्ट्रवाद की अवधारणा:
चूँकि भारत अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता के लिए
जाना जाता है, इसीलिए ‘एक भाषा, एक जाति, एक धर्म’ पर आधारित पश्चिमी राष्ट्रवाद
का मॉडल न तो भारत को औपनिवेशिक पराधीनता से मुक्ति दिला पाने में समर्थ था और न
ही भविष्य में इसकी राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुरक्षित रख पाने में समर्थ। शायद यही कारण है कि बीसवीं
सदी के दौरान भारतीय चिंतकों ने या तो पश्चिमी राष्ट्रवाद के इस मॉडल को खारिज करते
हुए उसे भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढ़ालने का प्रयास किया, या फिर राष्ट्रवाद
के भारतीय मॉडल को विकसित करने की कोशिश की। इस क्रम में जहाँ रविन्द्र नाथ टैगोर ने राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद की धारणा को
खारिज करते हुए अंतर्राष्ट्रीय मानवतावाद की वकालत की, वहीँ अम्बेडकर ने
राष्ट्रवाद की तुलना में सामाजिक न्याय को कहीं अधिक तरजीह दिया। यदि गाँधी ने राष्ट्रवाद
की संकल्पना को सर्वधर्मसमभाव पर आधारित बनाते हुए राष्ट्र की मुख्यधारा में
मुसलमानों के लिए स्पेस सृजित किया, तो नेहरु ने राष्ट्रवाद के
अंतर्राष्ट्रीयतावाद एवं मानवतावाद के साथ सामंजस्य की संभावनाओं की पड़ताल की। राष्ट्रवाद
की यह धारणा अपनी प्रकृति में समावेशी, धर्मनिरपेक्ष एवं समतामूलक है, और पूरे
राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान काँग्रेस
राष्ट्रवाद की इस धारा का प्रतिनिधित्व कराती रही और उसके नेतृत्व में राष्ट्रवाद
की यह धारा मुख्यधारा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रही। आज भी, अपनी तमाम सीमाओं
के बावजूद काँग्रेस राष्ट्रवाद की इस धारा का प्रतिनिधित्व करती है।
समावेशी राष्ट्रवाद और
विवेकानन्द:
भले ही हिंदुत्व की ओर रुझान रखने वाले दक्षिणपंथी संगठनों
ने विवेकानन्द को अपना रोल-मॉडल बनाया हो, पर अपने दर्शन में अन्तर्निहित
संभावनाओं के कारण विवेकानन्द हिंदुत्व की ओर रुझानों के बावजूद ‘एक भाषा, एक
जाति, एक धर्म’ पर आधारित पश्चिमी राष्ट्रवाद की संकल्पना के बजाय समावेशी
राष्ट्रवाद की संकल्पना, जिसमें भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के प्रति
संवेदनशीलता का संकेत मिलता है, के कहीं अधिक करीब पहुँचते हुए दिखाई पड़ते हैं। शायद यही कारण है कि बीसवीं
शताब्दी में भारत में राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद को लेकर चलने वाले विमर्श की
मुख्यधारा विवेकानन्द से प्रत्यक्षतः या परोक्षतः प्रभाव ग्रहण करती हुई आती है। टैगोर और गाँधी से लेकर
नेहरु, अम्बेडकर और दीनदयाल उपाध्याय तक उनसे प्रेरित एवं प्रभावित दिखाई पड़ते हैं।
टैगोर: राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद
राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर
टैगोर की दुविधा:
राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर टैगोर की दुविधा और उनके रुख
को देशभक्ति की रूमानियत पर आधारित उनके बांग्ला उपन्यास ‘घर-बाइरे’ के
परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। इस उपन्यास का नायक निखिल प्रगतिशील सामाजिक
सुधारों का समर्थक है, पर जब मसला राष्ट्रवाद का आता है, तो उसका रुख थोड़ा नरम
पड़ जाता है। इस मसले पर उसकी प्रेमिका बिमला
अपने फैसले बदलने के लिए उस पर दबाव डालती है और यहाँ तक कि उसे छोड़ कर चली जाती
है। लेकिन, प्रेमिका के दबाव के बावजूद निखिल अपने विचार नहीं बदलता और कहता है “मैं देश की सेवा करने के लिए हमेशा तैयार हूँ, लेकिन मेरी पूजा
का हकदार सत्य है, जो मेरे लिए देश से भी ऊपर है। अपने
देश को ईश्वर की तरह पूजने का मतलब है, उसे अभिशाप देना।” बिमला को भी राष्ट्रवादी
भावनाओं और हिंसक गतिविधियों के बीच के सूक्ष्म सम्बन्ध-सूत्र का अहसास होता है और
इसकी पृष्ठभूमि में मोहभंग टैगोर की तरह बिमला को भी राजनीति से उदासीन बना देता है।
स्पष्ट है कि टैगोर ने इस उपन्यास के जरिये अति-राष्ट्रवाद
के उन खतरों की ओर इशारा किया है जो बुनियादी मानवीय मूल्य एवं
विश्व-बंधुत्व की भावना के प्रतिकूल है।
टैगोर का युगीन परिदृश्य:
टैगोर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत औपनिवेशिक पराधीनता का शिकार था। 20वीं सदी के पहले दशक के
दौरान देश के भीतर एवं बाहर भारतीय राष्ट्रवाद ने भी क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के
उभार को देखा जिसका स्वरुप हिंसक था और जिसने कितने निर्दोषों की सिर्फ इसलिए बलि
ली क्योंकि वे अँग्रेज थे। इस स्थिति ने टैगोर को भी विचलित किया। उन्होंने महसूस
किया कि राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की
अवधारणा के मूल में घृणा है जो बुनियादी
मानवीय मूल्यों के प्रतिकूल है।
उस समय का वैश्विक
परिदृश्य तो और भी विचलित करने वाला था। उन्होंने देखा कि 17-20वीं सदी
के दौरान वाणिज्यवाद एवं औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि में पश्चिमी देशों में
राष्ट्रवाद ने किस प्रकार उपनिवेशवाद एवं
साम्राज्यवाद का रूप ले लिया और इसकी पृष्ठभूमि में इसने अफ्रीकी एवं
एशियाई देशों को गुलामी की ओर धकेलते हुए मानव एवं मानवता के इतिहास को कलंकित
किया। इतना ही नहीं, इसने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोपीय देशों को जिस
राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा की ओर धकेला, उसकी परिणति प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में
हुई। लेकिन, राष्ट्रवाद का यह ज्वार यहीं पर नहीं थमा। यह इसके बाद भी जारी रहा और
1920 के दशक एवं इसके बाद इसने जर्मनी में
नाजीवाद, इटली में फासीवाद एवं जापान में सैन्यवाद के रूप में राजनीतिक
सर्वसत्तावादी निरंकुशता को जन्म देते हुए हिटलर एवं मुसोलिनी के राजनीतिक उभार को
संभव बनाया। अंततः इसकी परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुई।
वैचारिक धरातल पर देखें, तो पश्चिमी राष्ट्रवाद की सीमाओं ने भी टैगोर को
राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के प्रश्न पर पुनर्विचार के लिए उत्प्रेरित किया। ध्यातव्य
है कि इटली के छोटे-छोटे नगर-राज्यों (City States) की पृष्ठभूमि में विकसित पश्चिमी राष्ट्रवाद की संकल्पना ‘एक भाषा, एक जाति एवं एक
राष्ट्र’ की संकल्पना पर आधारित है। यह संकल्पना भारतीय परिस्थितियों के लिए बहुत
उपयुक्त नहीं थी क्योंकि भारत एक बहुभाषा-भाषी देश था जहाँ विभिन्न
धर्मों के अनुयायी रहते आये हैं और जहाँ पर्याप्त सांस्कृतिक वैविध्य है। ऐसी
स्थिति में पश्चिमी राष्ट्रवाद की संकल्पना भारत के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं रह
जाती है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें
टैगोर की राष्ट्र-विषयक् धारणा ने आकार ग्रहण किया।
राष्ट्रवाद और टैगोर:
राष्ट्रवाद की
संकल्पना एक सांस्कृतिक संकल्पना है। इसके अनुसार समान
भौगोलिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के उस समूह को राष्ट्र कहते हैं
जो समान सांस्कृतिक विरासत धारण करते हैं और इसके कारण एक-दूसरे के साथ भावनात्मक
रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं; जिन्हें लगता है कि वे एक ही नियति से बँधे हैं, जो
एकसमान सामूहिक लक्ष्यों से प्रेरित होते हैं और उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील
रहते हैं। लेकिन, टैगोर ने राष्ट्रवाद को देशभक्ति से भिन्न
माना।
टैगोर
ने राष्ट्रवाद की संकल्पना को यूरोपीय देन मानते
हुए इसे सांस्कृतिक की बजाय एक राजनीतिक-आर्थिक संकल्पना के रूप में
देखा। सन् 1913 में नोबल पुरस्कार
मिलने के बाद टैगोर को विश्व-भ्रमण का अवसर मिला और इसी क्रम में सन् 1917 में राष्ट्रवाद के बुखार में तड़प रहे जापान की यात्रा के दौरान उन्होंने राष्ट्रवाद की तीखी
आलोचना की थी जिसके कारण उन्हें
जापान से बगैर भाषण दिए वापस आना पड़ा। इस
यात्रा के दौरान जारी वक्तव्यों और भाषणों को सन् 2003 में
संकलित करते हुए ‘नेशनलिज्म’ के नाम से प्रकाशित किया गया। सन् 1917 की जापान-यात्रा के दौरान ‘नेशनलिज्म इन इंडिया’ नामक निबंध में टैगोर ने राष्ट्र-राज्य (Nation-State) की आलोचना करते हुए
लिखा कि “राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में
वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल प्राप्त करने का
प्रयास है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में
प्रयुक्त हुई हैं। शक्ति की वृद्धि
की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का
वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है। यह
सीधे-सीधे जीवन के साथ खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ
राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसी
परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है। फलस्वरूप, समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह
नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है। दुर्बल और असंगठित पड़ोसी
राज्यों पर अधिकार करने
की कोशिश
राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इससे
पैदा हुआ
साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता
है।”
राष्ट्रवाद का विध्वंसक
रूप: फासीवाद:
फासीवाद तथा साम्यवाद की तुलना करते
हुए उन्होंने फासीवाद को साम्यवाद से कहीं अधिक
खतरनाक माना और उसे ‘असह्य निरंकुशवाद’
की संज्ञा दी, क्योंकि उस व्यवस्था में हर चीज नियंत्रित होती है। उन्होंने फासीवादियों
को राष्ट्रवाद के पागलपन का प्रतीक मानते हुए वे कहते हैं कि फासीवाद के प्रवर्तन से पहले राष्ट्रवाद आर्थिक विस्तारवाद
तथा उपनिवेशवाद से जुड़ा हुआ था। पर, बाद में मशीनीकरण के
साथ यांत्रिक सभ्यता के विकास ने राजनीतिक सर्वसत्तावाद के उदय के लिए अनुकूल
परिस्थितियाँ निर्मित की। इसके परिणामस्वरूप
एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें बहुत हद तक न तो मानवीय मूल्यों के लिए जगह रह
गयी और न ही मानवीय संवेदनाओं के लिए। इस
संदर्भ में देखें, तो टैगोर बेनितो मुसोलिनी की इस बात से बहुत हद तक सहमत प्रतीत
होते हैं कि “राष्ट्र राज्य का निर्माण नहीं
करता, अपितु राज्य द्वारा राष्ट्र का निर्माण होता है।” उन्होंने देखा कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किस
प्रकार राष्ट्रवाद ने राज्य की शक्ति को बढ़ाया और तदनुरूप राज्य के द्वारा राष्ट्रवाद
को काफी सराहा गया। इस बात की पुष्टि आज के
परिप्रेक्ष्य से भी होती है। आज भी राष्ट्र
एवं राष्ट्रवाद शासन में मौजूद लोगों के हाथों को मजबूती प्रदान करने का साधन है
और उनके द्वारा अक्सर इसका इस्तेमाल अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए
किया जाता है।
समाज को राज्य से अधिक
महत्व:
आधुनिक उदारवादी चिन्तक टैगोर
व्यक्ति-स्वातंत्र्य के प्रबल हिमायती हैं और शायद इसलिए भी उन्होंने राष्ट्रवाद
को व्यक्ति की स्वतंत्रता के रास्ते में बाधक मानते हुए उसकी आलोचना की है। वे समाज को मानवीय
विकास के लिए आवश्यक बतलाते हुए उसे
राष्ट्र की तुलना में कहीं अधिक प्रमुखता देते हैं। उनका मानना है कि जहाँ राष्ट्र व्यक्ति की
रचनात्मकता को बाधित करता है, वहीं समाज इसे प्रोत्साहित करता है।
मानवता पर देशभक्ति को
तरजीह:
टैगोर राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति को मानवता एवं विश्वबंधुत्व की
संकल्पना के प्रतिकूल मानते थे। उनका मानना था कि “देशभक्ति चहारदिवारी से बाहर के विचारों से जुड़ने की
आजादी से हमें रोकती है। साथ ही, दूसरे देशों की जनता के
दुख-दर्द को समझने की स्वतंत्रता भी सीमित कर देती है।” उन्होंने इसके लिए अपनी आलोचना का जवाब देते हुए कहा था कि “देशभक्ति
हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता
है।” टैगोर मानवता को
राष्ट्रीयता से ऊपर रखते थे और उनका टैगोर का
कहना था कि “जब तक मैं जिंदा हूँ, मानवता
के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूँगा।”
यही कारण है कि उन्होंने
एशिया की आजादी की हिमायत तो की, पर आज़ादी उनकी प्राथमिकता में शीर्ष पर नहीं थी। उन्होंने
नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के प्रश्न को कहीं अधिक महत्व दिया और राजनीतिक आज़ादी
के प्रश्न को उन्होंने उसकी तुलना में कहीं कम महत्व दिया। उस समय चल रहे राष्ट्रीय
आन्दोलन को लेकर भी वे बहुत उत्साहित नहीं थे, क्योंकि उनका यह विश्वास था कि भारत राजनीतिक
आजादी से शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। उनका मानना था कि आर्थिक रूप से भारत भले ही पिछड़ा हो, पर उसे मानवीय मूल्यों की दृष्टि से पिछड़ा नहीं होना
चाहिए। उन्होंने राष्ट्र की धारणा को भारत के
साथ-साथ वैश्विक स्तर पर खारिज करने की आवश्यकता पर बल दिया और भारत से यह अपेक्षा
की कि वह पश्चिमी राष्ट्रवाद से दूर रहते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में अपनी महती
भूमिका का निर्वाह करे और पूर्व की तरह मानवीय एकता के आदर्शों को हासिल करने के
लिए समस्त विश्व का मार्गदर्शन करे।
राष्ट्रवाद और भारत:
रवींद्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के खिलाफ
थे और उन्होंने राष्ट्रवाद को बहुत बड़ा खतरा मानते हुए कहा कि यह भारत की कई समस्याओं की जड़ है। उन्होंने भारत
में राष्ट्रवाद की संभावनाओं को खारिज करते हुए इसे राष्ट्र-रहित देश माना और यूरोप से भारतीय परिस्थितियों की भिन्नता की ओर
इशारा करते हुए कहा कि भारत विभिन्न प्रजातियों का देश था और इसके सामने इन
प्रजातियों में समन्वय बनाए रखने की चुनौती थी, जबकि यूरोपीय देशों के सामने
प्रजातियों के समन्वय की ऐसी कोई चुनौती नहीं थी। इस भिन्नता के मद्देनज़र ही टैगोर
ने राष्ट्रवाद को भारतीय परिस्थितियों के प्रतिकूल
माना। उन्होंने यूरोपीय राष्ट्रों के लिए भविष्य के खतरों के रूप में
इसकी पहचान करते हुए कहा कि इस भिन्नता के बावजूद यूरोपीय राष्ट्र राष्ट्रवाद
रूपी मदिरा का सेवन कर अपनी आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक एकता को खतरे में डाल
रहे हैं और भविष्य में उन्हें भी प्रजातीय समन्वय की उन चुनौतियों का सामना करना
होगा जिसका सामना सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैविध्य के मद्देनज़र भारत को करना पड़ रहा
था। उस स्थिति में उन्हें या तो अन्य प्रजातियों के लिए अपने दरवाज़े बंद करने
होंगे, या फिर उन्हें कुचलते हुए अधीनस्थ प्रजाति का रूप देना होगा। इससे भिन्न भारतीय समाज में मौजूद आत्मसातीकरण की प्रक्रिया की ओर
इशारा करते हुए टैगोर ने बंग-भंग आन्दोलन(1905) के समय लिखे गए निबंध ‘स्वदेशी समाज’
में यह कहा कि “आर्यों ने जब भारत पर आक्रमण किया, तब किस
तरह यहाँ की स्थानीय जातियों ने उन्हें अपने भीतर समा लिया। बाद में फिर मुसलमान
आएँ, उन्हें भी इसी तरह अपना लिया गया।”
टैगोर ने एक राष्ट्र के रूप में भारत में
अन्तर्निहित संभावनाओं को खारिज करते हुए कहा कि “भारत
की समस्या राजनीतिक नहीं, सामाजिक है। यहाँ राष्ट्रवाद
नहीं के बराबर है।” उन्होंने भारत की सामाजिक रूढ़ियों को राष्ट्रवाद के विकास में बाधक
मानते हुए यह कहा कि “भारत में पश्चिमी
देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक काम
में अपनी रूढ़िवादिता का हवाला देने वाले लोग जब राष्ट्रवाद की बात करें, तो वह
कैसे प्रसारित होगा?” इस सन्दर्भ में अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि “भारत में कभी सही मायने में
देशभक्ति की भावना नहीं रही। बचपन से
ही मुझे सिखाया गया था कि देश का सम्मान करना ईश्वर की पूजा और मानवता का आदर करने
से ज्यादा जरूरी है। मैंने अब उस सबक को छोड़ दिया है
और मेरा मानना है कि मेरे देशवासी अपने भारत को सही मायने में तभी आगे ला
पायेंगे, जब वे अपने शिक्षकों की उस शिक्षा का विरोध करेंगे कि देश मानवता के
आदर्शों से ज्यादा बड़ा है।”
राष्ट्रवाद का स्विस-मॉडल
भी अनुकरणीय नहीं:
भारतीय समाज की बहुधार्मिकता, बहुभाषीयता
एवं बहुजातीयता को ध्यान में रखते हुए अक्सर राष्ट्रवाद के स्विस-मॉडल की
प्रासंगिकता की बात की जाती है, लेकिन टैगोर ने इसे खारिज करते हुए कहा कि “स्विटजरलैंड तथा
भारत में काफी फ़र्क एवं भिन्नताएँ हैं।
वहाँ व्यक्तियों में जातीय भेदभाव नहीं है और वे आपसी मेल-जोल रखते हैं
तथा आपस में विवाह करते हैं, क्योंकि वे अपने को एक ही रक्त के
मानते हैं। लेकिन, भारत में जन्माधिकार समान नहीं है। जातीय विभिन्नता तथा पारस्परिक भेद-भाव के कारण भारत में उस
प्रकार की राजनीतिक एकता की स्थापना करना कठिन दिखाई देता है, जो किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत आवश्यक है।” वर्ण
एवं जाति की रूढ़ियों और इसके रोटी-बेटी के संबंध पर आधारित होने के कारण भारत में
वैसी एकता मुश्किल है। इसी आलोक में टैगोर का
मानना है कि समाज द्वारा बहिष्कृत होने के भय से भारतीय डरपोक एवं कायर हो गए हैं।
ऐसी स्थिति में राजनीतिक स्वतंत्रता उस समाज
के प्रभुत्वशाली समूह के पक्ष में साबित होगी और यह एक ऐसे निरंकुश राज्य की
संभावनाओं को बल प्रदान करेगा जिसमें राजनीतिक मतभेद रखने वाले भिन्न मतों के
लोगों का जीना दूभर हो जाएगा। टैगोर की इस आशंका को आज के परिप्रेक्ष्य में देखें,
तो यह शत-प्रतिशत सत्य साबित हो रही है। इसीलिए टैगोर
का यह निष्कर्ष है कि न तो भारत में यूरोप जैसा राष्ट्रवाद है और न ही भारत
में यूरोप जैसा राष्ट्रवाद कभी पनप सकता है।
राष्ट्रवाद की आलोचना
के प्रमुख आधार:
राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के सन्दर्भ
में टैगोर की धारणा भी अल्बर्ट आइंस्टाइन से
मिलती-जुलती है। अल्बर्ट
आइंस्टाइन के अनुसार, “राष्ट्रवाद एक बचकाना बीमारी है और यह मानव जाति का चेचक
है।” टैगोर विश्व-बंधुत्व के प्रबल हिमायती थे और इसीलिए उन्होंने
राष्ट्रवाद की बजाय अन्तर्राष्ट्रवाद की वकालत की। उन्होंने
राष्ट्रवाद को इसके रास्ते में मौजूद महत्वपूर्ण अवरोध के रूप में देखा और इसे
मानव एवं मानवता के लिए खतरा बतलाया। उन्होंने
तीन आधारों पर राष्ट्रवाद की आलोचना की:
1. राष्ट्र-राज्य
की आक्रामक नीति,
2. प्रतिस्पर्धी
वाणिज्यवाद की अवधारणा, और
3. प्रजातिवाद।
उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के
स्वार्थ का ऐसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता और
आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं रह पाता है। उनकी दृष्टि में, न तो राष्ट्र की शक्ति में
वृद्धि पर कोई नियंत्रण संभव है और न ही इसके विस्तार की कोई सीमा है। उसकी इस
अनियांत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित हैं। इसीलिए यह निर्माण
का मार्ग नहीं, बल्कि विनाश का मार्ग है जो विभिन्न
मानव-समुदायों के बीच घृणा, वैमनस्य और टकराव को उत्पन्न करता है। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद
के खतरों की दिशा में संकेत करते हुए कहा कि “मानव
की सहिष्णुता तथा उसमें स्थित नैतिकताजन्य परमार्थ की भावना राष्ट्र की
स्वार्थपरायण नीति के चलते समाप्त हो जायेंगे।” उन्होंने
शोषण के अमानवीय उपकरण के रूप में राष्ट्रवाद के
इसी रूप की आलोचना की, जिसमें नृशंसता, रुग्णता तथा पृथकता दिखाई देती है। चूँकि
राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य-शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता
है, इसीलिए युद्धोन्माद को बढ़ाता हुआ राष्ट्रवाद
अपने समाज-विरोधी रूप में उपस्थित होता है। लेकिन, यह समाज का ही नहीं, व्यक्ति का
भी विरोधी है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य के
समर्थक टैगोर को राष्ट्र के समक्ष व्यक्ति एवं उसकी स्वतंत्रता का समर्पण
स्वीकार्य नहीं था। इसीलिए वे संकीर्ण राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए इसे मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं
आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा मानते हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन में
टैगोर की भूमिका:
टैगोर राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और
राष्ट्रवाद की संकल्पना के मुखर विरोधी थे, इसीलिए राष्ट्रीय आन्दोलन से उनकी दूरी
स्वाभाविक थी। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति वे उदासीन रहे। उन्होंने वैचारिक एवं सांस्कृतिक धरातल
पर विमर्श को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व को प्रभावित करते हुए उसके वैचारिक आधार को निर्मित
करने में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभायी। दिसंबर,1911 में कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस
के अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया था और इसी अधिवेशन के दौरान उन्होंने पहली बार
राष्ट्रगान गाया था।
इससे पूर्व सन् 1905 में बंग-भंग आन्दोलन का विरोध करते हुए उन्होंने स्वदेशी
आन्दोलन में भाग लिया और इसके विरोध में रक्षा-बंधन दिवस मनाते हुए विरोध-प्रदर्शन
का आह्वान किया। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन के दौरान सन्
1905 में ही ‘आमार सोनार बांग्ला’ लिखकर जन्मभूमि के प्रति अपने प्रेम का इज़हार
किया और बांग्ला एकता का आह्वान किया। जब रौलट एक्ट के विरोध में आन्दोलन उठ
खड़ा हुआ, तो उन्होंने अपने भाषणों और लेखों के माध्यम
से ब्रिटिश शासन और उसकी दमनकारी नीतियों की घोर निंदा की। आगे चलकर उन्होंने जलियाँवाला बाग़
हत्याकांड,1919 की प्रतिक्रिया में ‘नाईटहुड’ का सम्मान त्यागते हुए इस घटना के
प्रति अपना विरोध-प्रदर्शन किया और ‘सर’ की उपाधि अंग्रेज़ी सरकार को लौटा दी। लेकिन, सन् 1920 में जब असहयोग आन्दोलन के दौरान
स्वदेशी पर जोर देते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया गया, तो
उन्होंने विदेशी वस्त्रों को जलाये जाने की घटना की खुलकर आलोचना करते हुए कहा कि
यह ‘संसाधनों की निष्ठुर बर्बादी’ है। सन् 1930 में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन का
आह्वान किया गया, तो उन्होंने उसका समर्थन किया।
राष्ट्रीय
आन्दोलन को सशर्त समर्थन:
राष्ट्रीय आन्दोलन से उनकी दूरी निर्विवाद थी और इसके पीछे उनकी यह मान्यता थी कि:
1. अति-राष्ट्रवाद और स्वदेशी का प्रबल आग्रह पश्चिम एवं विदेशी के
पूरी तरह से नकार का आधार तैयार करेगा और ऐसी स्थिति में भारत खुद तक सीमित होकर रह जाएगा।
2. यह चाह सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं से भरे भारत
जैसे देश में ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम
धर्म के प्रति भी असहिष्णुता का माहौल सृजित करेगा, जबकि इन्होंने अलग-अलग समय पर भारतीय समाज एवं संस्कृति पर
अपनी ऐसी छाप छोड़ी है जो इनके अस्तित्व से अभिन्न हो चुकी है।
स्पष्ट है कि टैगोर आज़ाद
भारत की कल्पना करते थे और इसीलिए उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध किया, लेकिन आज़ादी
से जुड़े आंदोलनों को टैगोर का समर्थन बिना शर्त नहीं था। उन्होंने मानवतावाद को हमेशा देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद से ऊपर रखा, इसीलिए उन्होंने सशस्त्र विद्रोह एवं क्रांति सहित किसी भी प्रकार के हिंसक
आन्दोलन का खुलकर विरोध किया।
यहाँ तक कि उन्होंने अतिरेक राष्ट्रवादी
रुख की लगातार आलोचना की और राष्ट्रीय आन्दोलन के अतिरेकवादी राष्ट्रवाद के आग्रह
ने उन्हें समकालीन राजनीति से दूर रहने के लिए विवश किया। लेकिन, सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए भी उन्होंने आजादी
के आन्दोलन के वैचारिक आधार को तैयार करने और ज़रुरत पड़ने पर उसके एजेंडे के
निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जब अछूतों के मसले पर गाँधी
और अम्बेडकर के बीच मतभेद उभरकर सामने आये और ऐसा लगा कि उपनिवेशवाद-विरोधी
संयुक्त मोर्चा खतरे में है, तो उन्होंने दोनों के बीच के मतभेद को कम करते हुए
संकट के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दूसरे शब्दों में कहें, तो जब-जब राष्ट्रीय
आंदोलन पर संकट के बदल मँडराये, बतौर अभिभावक उन्होंने उसके प्रति सहानुभूति
प्रदर्शित करते हुए उस संकट के समाधान में अपनी भूमिका का निर्वाह किया।
गाँधी और राष्ट्रवाद
विवेकानन्द
और गाँधी का राष्ट्रवाद:
पश्चिमी राष्ट्रवाद की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के
विपरीत विवेकानन्द का राष्ट्रवाद आध्यात्मिकता एवं
नैतिकता से पूरी तरह ओत-प्रोत है, और इसने गाँधी के राष्ट्रवाद की
संकल्पना को भी अपने तरीके से प्रभावित किया। अगर सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता
से भरे भारत में विवेकानन्द ने आध्यात्मिकता की समन्वयकारी भूमिका की पड़ताल की,
तो गाँधी ने आध्यात्मिकता की पहचान राष्ट्र के नैतिक आचरण को सुनिश्चित करने वाले
साधन के रूप में की। उन्होंने सनातन हिन्दू होने पर गर्व था, और उन्होंने हिंदुत्व
को अपने सार्वजानिक जीवन में उतारा। पर, उनका हिंदुत्व उदार था और अन्य धर्मों के
प्रति सहिष्णु भी। स्पष्ट है कि
विवेकानंद, अरविन्दो घोष और गाँधी, इन तीनों ने धर्म एवं आध्यात्मिकता को
भारतीयों की रगों में बसा हुआ महसूस किया और उसकी ताकत को जागृत करते हुए अपनी
युगीन चुनौतियों से निबटने की कोशिश की।
यही वह बिन्दु है जहाँ पर गाँधी की
राष्ट्रीयता की संकल्पना न केवल पश्चिमी राष्ट्रीयता से, वरन् उनके समकालीनों की
राष्ट्रीय चेतना से भी भिन्न है। इतिहासकार एस. इरफ़ान हबीब ने गाँधी के राष्ट्रवाद को उनके अन्य
समकालीनों के राष्ट्रवाद से अलगाते हुए लिखा है,
“गाँधी का राष्ट्रवाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस और
जवाहर लाल नेहरू के राष्ट्रवाद से अलग था। इनमें एक लक्ष्य होने के अलावा और कोई समानता नहीं थी।
इनमें वाद-विवाद भी होता था, लेकिन इन लोगों ने कभी एक दूसरे पर देशद्रोही होने का
आरोप नहीं लगाया। गाँधी, नेहरु, आंबेडकर, पटेल, आज़ाद आदि ने राष्ट्रीयता की जिस भारतीय विचारधारा को आकार प्रदान
किया, वह लोकतंत्र, बहुलतावाद, धर्मनिरपेक्षता
और सामाजिक न्याय के चार स्तंभों पर आधारित है।”
यद्यपि गाँधी टैगोर
की तरह राष्ट्रवाद की कीमत पर अन्तर्राष्ट्रवाद के प्रति आग्रहशील तो नहीं
थे, पर उनके लिए न तो राष्ट्रवाद प्रतिक्रियावाद का पर्याय था और न ही नकारात्मकता
से लैस अवधारणा। राष्ट्रीय भाषा की
वकालत, राष्ट्रीय शिक्षा पर बल, स्वदेशी पर जोर और सर्वधर्मसमभाव एवं अछूतोद्धार
के जरिये सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र की पुनर्बहाली: गाँधीवादी दर्शन के ये
तमाम पहलू इस ओर इशारा करते हैं कि सांस्कृतिक स्वराज्य गाँधी के राष्ट्रवाद की
खासियत रहा है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि गाँधी के
राष्ट्रवाद की संकल्पना राजनीति तक सीमित नहीं है, वरन् इसका विस्तार सामाजिक,
आर्थिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भों तक है। ‘हिन्द स्वराज’ इसकी पुष्टि करता है।
गाँधी का
राष्ट्रवाद और ‘हिन्द स्वराज’:
सन् 1909 में गाँधी ने ‘हिंद-स्वराज’ के जरिये एक
राष्ट्र के रूप में भारत के सन्दर्भ में अपना विचार प्रस्तुत किया। इरफ़ान हबीब के अनुसार, उन्होंने इस पुस्तक का
नामकरण ‘भारत-स्वराज’ के बजाय ‘हिंद स्वराज’ किया और इसके माध्यम से यह संकेत दिया,
“‘भारत’ इकलौती परंपरा से जुड़ा नहीं है, क्योंकि
उर्दू में ‘भारत’ को ‘हिंद’ कहा जाता है।” उन्होंने यह भी कहा, “गाँधी
के संभावित भारतीय राष्ट्र की अवधारणा इस बुनियाद पर टिकी थी कि आधुनिक सभ्यता
उपनिवेशवाद का ही एक अंग है।” इसीलिए वे आधुनिक सभ्यता के साथ-साथ मशीनीकरण के भी आलोचक थे। साथ ही, उनकी नज़रों में “संसद वास्तव में गुलामी की प्रतीक है।”
लेकिन, गाँधी का अनोखापन इस बात में है कि
उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति किसी तरह वफादारी या जुड़ाव का कोई जिक्र
नहीं किया। इतना ही नहीं, उन्होंने ‘एक भाषा, एक
जाति, एक धर्म’ पर आधारित पश्चिमी राष्ट्रीयता का खंडन करते हुए यह
स्पष्ट किया:
“भारत इसलिए एक राष्ट्र कहलाने से वंचित नहीं हो
सकता क्योंकि यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं.. ..अगर हिंदू ऐसा सोचते हैं कि
भारत में सिर्फ हिंदुओं को होना चाहिए, तो वे सपनों की दुनिया में हैं। हिंदू,
मोहम्मडन, पारसी और ईसाई ... सभी एक देशवासी हैं और उन्हें साथ-साथ रहना होगा ...
दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्रीयता और एक धर्म जैसा नहीं है और न ही
भारत में ऐसा है।”
राष्ट्रवाद और धर्म:
गाँधी की राष्ट्रवादी चेतना राष्ट्रवाद की उस
संकल्पना के करीब है जिसकी झलक विवेकानन्द के यहाँ मिलती है। यह अपनी प्रकृति में
धार्मिक है, धर्मनिरपेक्ष नहीं, पर ऐसा कहते हुए दो बातों की स्पष्टता अपेक्षित
है:
a. गाँधी के धर्म की परिकल्पना गीता की ‘धारयति इति
धर्मः’ से प्रभावित है, और
b. चूँकि यहाँ धर्म के बाह्य पक्ष की तुलना में उसके
आतंरिक पक्ष एवं उसकी मूल संवेदना को कहीं अधिक अहमियत मिली है, इसीलिए यह
‘सर्वधर्म समभाव’ का आधार तैयार करता हुआ आता है जिसके कारण संकीर्ण परिप्रेक्ष्य
में इसकी व्याख्या और इसकी विभाजनकारी भूमिका का यहाँ निषेध है।
उन्होंने अपनी राष्ट्रीय चेतना और धर्म के
अंतर्संबंध को स्वीकार करते हुए लिखा है:
“यही नहीं, मेरे धर्म और उससे व्युत्पन्न मेरी
राष्ट्रभक्ति में सम्पूर्ण प्राणिजगत समाविष्ट है। मैं केवल मानव जाति के बीच ही
भाईचारे अथवा उसके साथ तादात्म्य की स्थापना करना नहीं चाहता।”
इसीलिए इतिहासकार इरफ़ान हबीब का यह मानना है, “हिंद स्वराज में गाँधी के राष्ट्र के विचार धर्मनिरपेक्ष
नहीं थे।” इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि एक ओर गाँधी ने आधुनिक
शिक्षा पर पारंपरिक धार्मिक शिक्षा को तरजीह दी, दूसरी ओर सन् 1909 में
मार्ले-मिंटो सुधारों के द्वारा मुसलमानों को दी गयी रियायतों के विरोध के लिए
हिंदुओं की आलोचना की। इतना ही नहीं, गाँधी ने राष्ट्रीय
एकता कायम करने के लिए धर्म का इस्तेमाल किया जिसके बीज ‘हिन्द स्वराज’ में मौजूद
हैं। यहाँ पर गाँधी अपने
राजनितिक गुरु गोपाल कृष्णा गोखले, जिनमें धर्मनिरपेक्षता के प्रति अग्रह्शीलाता
थी, के बजाय बाल गंगाधर तिलक के कहीं अधिक करीब दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने
गणेश-उत्सव एवं शिवाजी-उत्सव जैसे आयोजनों का इस्तेमाल राष्ट्रीय आन्दोलन को
तीव्रता प्रदान करने के लिए किया। सन् 1920 में
खिलाफत के प्रश्न पर असहयोग आंदोलन चलाया
जाना इस बात का संकेत लेकर आता है कि राजनीति में धर्म के इस्तेमाल के मसले पर
गाँधी तिलक से कई कदम आगे बढ़ चुके थे और उन्होंने गैर-सांप्रदायिक सिद्धांत के
तौर पर धार्मिक अपील के राजनीतिक इस्तेमाल का प्रयास किया। लेकिन, इस सन्दर्भ में
गाँधी की सोच स्थिर न होकर विकसनशील थी। लेकिन, भारतीय राजनीति एवं भारतीय समाज के
संप्रदायीकरण ने उन्हें धर्म एवं राजनीति के पार्थक्य के प्रश्न पर विचार के लिए
विवश किया, और फिर उन्होंने धर्म एवं राजनीति के बीच दूरी बनाये रखने की कोशिश की। साथ ही, ‘सर्वधर्म समभाव’ के प्रति उनकी
आग्रहशीलता बढ़ती चली गयी और वे नेहरु के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के ढाँचे के थोड़े
करीब पहुँचे। यह भारतीय राष्ट्रवाद को
हिन्दूवादी नज़रिए में ढ़ाले जाने की कोशिशों के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी।
इससे पूर्व भी गाँधी ने ‘हिंद स्वराज’ में भावी भारत की अपनी दृष्टि में
हिंदू-मुस्लिम एकता को महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा था।
राष्ट्र और भाषा का प्रश्न:
गाँधी ने राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के प्रश्न को भाषा के प्रश्न से भी संबद्ध करके देखा है।
19वीं सदी के अंत में विशेष रूप से हिंदी-उर्दू विवाद की पृष्ठभूमि में गाँधी ने
हिंदी और उर्दू के संगम से बनी आमजन की भाषा ‘हिंदुस्तानी’ के इस्तेमाल को बढ़ावा
दिया। उन्होंने तर्क दिया कि इसे भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रचारित किया
जाना चाहिए, जिसके जरिए पूरे देश में लोग एक-दूसरे को समझ सकते हैं। उनका हिंदी
प्रेम उन्हें राष्ट्रवादी बनाता है, और इसी कारण उन्होंने हिंदी के संरक्षण पर बल
दिया। उनको इस बात की चिंता थी कि कहीं हिंदी पर अंग्रेजी का ऐसा वर्चस्व ना हो
जाये कि हिन्दुस्तान में हिंदी को अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष करना पड़े। उनका
मानना था कि यदि राजा राममोहन राय ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए हिंदी को
अपनाया होता, तो वे और बेहतर समाज सुधारक होते। इसके लिए टैगोर ने गाँधी की आलोचना
करते हुए कहा कि कई भाषाओं के ज्ञान की वज़ह से राममोहन राय समाज के विभिन्न
समुदायों, संवर्गों, क्षेत्रों तक अपना सन्देश देने में सफल रहे हैं।
लेकिन, शीघ्र ही उन्हें महसूस हुआ
कि विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को वहाँ की बोली-भाषाओं में ही एकजुट किया जा सकता
है, इसीलिए नागपुर अधिवेशन,1920 में उनकी पहल
पर काँग्रेस के जिस संविधान को मंजूरी दी गयी, उसके अनुसार प्रांतीय काँग्रेस कमिटियों का गठन ब्रिटिश प्रांतों की
संरचना के बजाय भाषाई क्षेत्रों के
अनुरूप किया गया, ताकि विभिन्न क्षेत्रों के लोगों तक उसकी बेहतर पहुँच
सुनिश्चित की जा सके। स्पष्ट है कि गाँधी की दृष्टि में यह बहुत स्पष्ट था कि
सक्षम एवं प्रभावी तरीके से ब्रिटिश शासन की
चुनौती से मुकाबले के लिए भारतीयों की एकता का प्रश्न भाषा एवं उप-राष्ट्रीयता के
प्रश्न से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। मतलब यह कि भाषाई धरातल पर भी
स्वराज से सम्बंधित गाँधी की संकल्पना स्थिर न होकर विकसनशील थी और अंतिम तीन
दशकों के दौरान इसमें काफी बदलाव आ चुका था। वे 1920 के दशक के शुरुआत तक हिंद
स्वराज के विचारों से बहुत दूर आ चुके थे।
संकीर्ण राष्ट्रवादी मानसिकता के
विरोधी:
जहाँ टैगोर ने राष्ट्रवाद को बुरा बतलाया, वहीँ
गाँधी ने राष्ट्रवाद को बुरा मानने से इनकार
किया। उनका स्पष्टतः यह मानना था,
“राष्ट्रवाद बुरी चीज़ नहीं है, बुरी है संकुचित
वृत्ति, स्वार्थपरता और ऐकांतिकता, जो आधुनिक राष्ट्रों के विनाश के लिए उत्तरदायी
है। इनमें से प्रत्येक राष्ट्र दूसरे की कीमत पर, उसे नष्ट करके, उन्नति करना
चाहता है।”
चूँकि पश्चिम में राष्ट्रवाद का कुछ ऐसा ही
स्वरुप उभरकर सामने आया, इसीलिए उन्होंने पश्चिमी
राष्ट्रवाद की संकल्पना को खारिज करते हुए कहा,
“यह राष्ट्रवाद नहीं है, यह
संकीर्णता, स्वार्थपरता एवं पृथकतावाद है जो आधुनिक राष्ट्रों के लिए अभिशाप बना
हुआ है, दूसरे की कीमत पर स्वार्थ-सिद्धि चाहता है, दूसरे के पतन पर ऊपर उठना
चाहता है। यह बुरा है।”
गाँधी का यह मानना था कि भारत ने
पश्चिमी राष्ट्रवाद से भिन्न रास्ते को चुना। इसका
कारण बतलाते हुए वे कहते हैं:
“भारतीय राष्ट्रवाद ने पृथक रास्ता
चुना है। उसे स्वयं को संगठित करना है, और विशाल मानवता की सेवा के लिए अपनी
अभिव्यक्ति ढूँढ़नी है।”
स्पष्ट है कि गाँधी की नज़रों में
भारतीय राष्ट्रवाद ने पश्चिम से भिन्न रास्ता
चुनते हुए मानवतावाद के रास्ते पर बढ़ना स्वीकार किया:
“भारतीय राष्ट्रवाद ने एक भिन्न मार्ग चुना है,
समूची मानवता के हित तथा उसकी सेवा के लिए स्वयं को संगठित करना, अर्थात् पूर्ण
आत्माभिव्यक्ति की स्थिति को प्राप्त करना चाहता है। ...… चूँकि ईश्वर ने मेरा
भाग्य भारत के लोगों के साथ बाँध दिया है, इसलिए यदि मैं उनकी सेवा न करता, तो
अपने सिरजनहार के साथ विश्वासघात करने का दोषी होता। यदि मैं भारतवासियों की सेवा
न कर सका, तो मैं मानवता की सेवा करने योग्य भी नहीं बन पाऊँगा।”
इसीलिए उनकी नज़रों में, “भारतीय राष्ट्रवाद ना तो ऐकांतिक है और ना ही हिंसात्मक।” स्पष्ट है कि गाँधी राष्ट्र की सेवा के
प्रश्न को मानवता की सेवा के प्रश्न से सम्बद्ध करके देखते थे, इसीलिए उनके लिए
राष्ट्रवाद मानवतावाद का पर्याय था।
राष्ट्रवाद मानवतावाद का पर्याय:
अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में ही उन्होंने यह
महसूस किया कि भारत की सेवा और मानवता की सेवा के बीच कोई विरोध नहीं है।
परवर्ती दौर में सार्वजानिक जीवन के अनुभवों ने उनकी इस सोच को दृढ ही किया।
उन्होंने यह लिखा है, “मेरा इस सिद्धांत में विश्वास और दृढ़ हुआ है कि देशसेवा
और विश्वसेवा के बीच कोई विरोध नहीं है।” उनके लिए ‘राष्ट्रीयता और मानवता एक ही चीज़’ है। इसके
अंतर्संबंध की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं: “मैं राष्ट्रभक्त इसलिए हूँ कि
मैं मानव और सहृदय हूँ। ..... राष्ट्रीयता के प्रति मेरा प्रेम अथवा राष्ट्रीयता
की मेरी धारणा यह है कि मेरा देश स्वतंत्र हो ताकि अगर आवश्यकता पड़े, तो
मानव-जाति के अस्तित्व की रक्षा के लिए वह स्वयं को होम कर सके।” उनका यह
मानना है, “जिस राष्ट्रभक्त में मानवतावाद के प्रति उत्साह कम है, वह उतना ही
कम राष्ट्रभक्त भी माना जायेगा।”
इसी आलोक में वे राष्ट्र-प्रेम
और राष्ट्रवादी चेतना की सार्थकता का प्रश्न भी उठाते हैं और यह कहते
हैं, “राष्ट्रभक्ति की मेरी धारणा निरर्थक है, यदि सम्पूर्ण मानवता की अधिकतम
भलाई के साथ इसकी, निरपवाद रूप से, पूरी–पूरी संगति न हो।” उन्होंने स्पष्ट
शब्दों में इस बात की घोषणा की, “मेरी राष्ट्रभक्ति कोई ऐकांतिक वस्तु नहीं है,
यह सर्वसमावेशी है और मैं उस राष्ट्रभक्ति को नकार दूँगा जो अन्य राष्ट्रीयताओं के
दुख और शोषण पर सवार होने का प्रयास करेगी।” यही कारण है कि उन्होंने राष्ट्रवाद को अन्तर्राष्ट्रवाद एवं मानवतावाद के रास्ते का
बाधक मानने से इनकार करते हुए कहा, “जब तक मैं अपने देश की सेवा
करते समय किन्हीं अन्य राष्ट्रों को हानि नहीं पहुँचाता, तब तक मैं समझता हूँ कि
मैं गलत रास्ते पर नहीं जा रहा।” इसीलिए उनका राष्ट्रवाद मानवतावाद का पर्याय है और अन्तर्राष्ट्रवाद का सहायक एवं
उसका पूरक। वे स्पष्ट शब्दों में इसकी घोषणा करते हैं, “मेरी
राष्ट्रभक्ति में सामान्यतया सारी मानव जाति की भलाई समाविष्ट है। इस प्रकार, मेरी
भारत–सेवा में मानवता की सेवा समाविष्ट है। …..... मेरा लक्ष्य केवल भारतीयों के
बीच भाईचारे की स्थापना नहीं है। मेरा लक्ष्य केवल भारत की स्वतंत्रता नहीं है,
यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आज मेरा लगभग पूरा जीवन और पूरा समय इसी में लगा है।
लेकिन, भारत की आज़ादी को हासिल करने के जरिए मैं सम्पूर्ण मानवता के बीच भाईचारे
के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता हूँ।”
स्पष्ट है कि गाँधी मानवतावाद को
राष्ट्रवाद से कहीं अधिक अहमियत देते हैं, और राष्ट्रवाद की उस संकल्पना के विरोध
में खड़े होते हैं जो उनकी व्यापक मानवतावादी चेतना से टकराती है। यही कारण है कि उनका राष्ट्रवाद
अन्तर्राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि तैयार करता हुआ आता है।
राष्ट्रवाद अंतर्राष्ट्रवाद की
अनिवार्य शर्त:
रोम्याँ रोला ने अपनी पुस्तक में इस बात का
उल्लेख किया है कि गाँधी राष्ट्रवाद को विश्ववाद के लिए प्रथम सोपान मानते थे। वे राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीयता की किसी
संकीर्ण अवधारणा में विश्वास नहीं करते
थे, इसीलिए उनका राष्ट्रवाद न तो संकीर्ण था और न ही आक्रामक। उनका राष्ट्रवाद यूरोपीय राष्ट्रवाद की अवधारणा के
एकदम उलट था। वे अक्सर कहा करते थे कि वह किसी व्यक्ति, नस्ल, धर्म या पदाधिकारी के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ हैं। उनके राष्ट्रवाद में घृणा के लिए कोई जगह नहीं थी, यहाँ तक कि उन अंग्रेजों के
प्रति घृणा के लिए भी जगह नहीं, जिनके विरुद्ध भारतीय जनमानस संघर्षरत था। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो “इस धारणा में
प्रजातीय घृणा का कोई स्थान नहीं है। ........ हमारी राष्ट्रीयता किन्हीं अन्य
देशों के लिए संकट का कारण नहीं बन सकती, क्योंकि हम न किसी का शोषण करेंगे, न
किसी को अपना शोषण करने देंगे।”
इसीलिए उन्होंने भारतीयों
को ताकीद करते हुए कहा, “हमें यह याद रखना चाहिए कि जिस
प्रतिज्ञा की चर्चा हमने की है, उसमें हमने धर्म और
संस्कृति की रक्षा के जरिए देश को स्वतंत्र करने की बात कही है। इसमें अंग्रेजों
के भारत से बाहर जाने का कोई जिक्र नहीं है।’’ औपनिवेशिक
गुलामी के दौर में भी उनके व्यक्तित्व में वह दृढ़ता थी जिसने उन्हें यह कहने के
लिए उत्प्रेरित किया, “मेरी राष्ट्रीयता ऐकांतिक नहीं है, मैं भारत की सेवा
करने के लिए इंग्लैंड या जर्मनी को क्षति नहीं पहुँचाऊँगा।” इसीलिए यह कहा जा
सकता है कि गाँधी के लिए राष्ट्रवादी होने और अंतर्राष्ट्रवादी होने में फर्क नहीं
था। दरअसल वे राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रवाद की
बुनियादी शर्त मानते थे। उनका यह मानना था: “जो व्यक्ति राष्ट्रवादी
नहीं है, वह अंतर्राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। अंतर्राष्ट्रवाद तभी सम्भव है जब
राष्ट्रवाद अस्तित्व में आ जाये।” इसीलिए गाँधी का राष्ट्रवाद उन्हें
अन्तर्राष्ट्रवादी होने से रोकता नहीं है।
इतिहासकार इरफ़ान हबीब का
कहना है कि अपने
अंतिम दिनों में गाँधी ने भारतीय राष्ट्रीयता में नए आयाम जोड़ने की कोशिश की, और वह यह कि ‘एक ऐसे किसी राष्ट्र के
हितों की उचित रक्षा, जो आपके अपने देश के साथ विवादों में उलझा हो।’ इसके
पक्ष में तर्क देते हुए वे कहते हैं कि जनवरी
1947 में उनका अंतिम अनशन दिल्ली में
मुसलमानों की हत्या और पलायन को रोकने के साथ-साथ भारत द्वारा पाकिस्तान को 55
करोड़ रुपये देने, जिसका पाकिस्तान कानूनी रूप से हकदार था, के मसले पर किया गया
था। यहाँ तक कि अपनी हत्या के समय गाँधी पश्चिमी पाकिस्तान जाने की योजना पर विचार
कर रहे थे।
यही वह बिंदु है जहाँ गाँधी का
राष्ट्रवाद पश्चिम के राष्ट्रवाद से अलग है। भले ही आरंभिक दौर में पश्चिमी
राष्ट्रवाद ने इटली एवं जर्मनी के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया हो, लेकिन इसकी
परिणति अंततः उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद एवं फासीवाद के रूप में हुई। इसके विपरीत
भारतीय राष्ट्रवाद ने इस रास्ते पर चलने से परहेज़ किया। स्पष्ट है कि गाँधी का
राष्ट्रवाद अपने स्वरुप में अहिंसक था, और इसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं थी।
समावेशी राष्ट्रवाद और अस्पृश्यता:
गाँधी समावेशी राष्ट्रवाद के हिमायती थे, और इसके
लिए उन्होंने जाति एवं धर्म के प्रश्न ने भी जूझने की कोशिश की। इस कोशिश के मूल में उनकी वह सोच थी जो उन्हें
विवेकानन्द की इस सोच के करीब ले जाती है:
''मैं भारतीय हूँ और हर भारतीय मेरा
भाई है। ...... अबोध भारतीय, गरीब एवं फक्कड़ भारतीय, ब्राह्मण भारतीय, अछूत
भारतीय मेरा भाई है।''
इसी सोच के साथ उन्होंने
न केवल अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाया, वरन् मैकडोनाल्ड अवार्ड के जरिये
दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के माध्यम से जाति के आधार पर भारतीय समाज को
बाँटने की औपनिवेशिक कोशिश को भी उन्होंने बेनकाब किया। सितम्बर,1932 में उन्होंने
डिप्रेस्ड कास्ट्स फेडरेशन के नेता डॉ. अम्बेडकर के साथ पूना पैक्ट को अंजाम देते
हुए अंग्रेजों की इस कोशिश को निष्फल किया और उपनिवेशवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे को
बचाते हुए राष्ट्रीय एकता को सुनिश्चित किया।
गाँधी खुद को सनातनी
हिन्दू कहते थे और इस पर उन्हें गर्व भी था, लेकिन अस्पृश्यता के मसले पर वे
सनातनी हिन्दुओं के रवैये से आहत थे। उनका कहना था कि अपने को सनातनी कहने वाले हिन्दुओं की एक बड़ी संख्या का
व्यवहार ऐसा है जिससे देशभर के हरिजनों को अत्यधिक असुविधा और खीज होती है। लेकिन, गाँधी का मानना
था कि इसके लिए हिन्दू जिम्मेवार हैं, न कि हिन्दू धर्म क्योंकि ऐसे लोग वास्तविक
हिन्दू धर्म से विमुख हो चुके हैं। लेकिन, वे जाति, वर्णाश्रम और धर्मांतरण
जैसे प्रश्नों का समाधान भारतीय परंपरा में ही तलाशने के हिमायती थे क्योंकि उनका
यह मानना था कि ऐसा समाधान दकियानूसी मानसिकता वाले हिन्दुओं के लिए भी स्वीकार्य
होगा और इससे भारतीय समाज आपसी कलह, संघर्ष और टूटन से बच
जाएगा। दरअसल गाँधी को सामाजिक जड़ता की पहचान थी और वे सामाजिक हृदय-परिवर्तन के
सहारे सांस्कृतिक स्तर पर ही उस जड़ता को हमेशा के लिए दूर करना चाहते थे। मई,1933 में उन्होंने वंचित जातियों की समस्याओं
को दूर करने के लिए हरिजनों पर ऊँची जातियों के उत्पीड़न के खिलाफ अनशन शुरू किया।
इतना ही नहीं, बाद में जुलाई, 1946 में ‘उन्होंने अंतर्जातीय विवाह के
अपने आरम्भिक विरोध को छोड़ते हुए हरिजन’ में लिखा
है, “यदि मेरा बस चले, तो मैं अपने प्रभाव में आनेवाली सभी सवर्ण लड़कियों को
चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूँ।’
समावेशी
राष्ट्रवाद और मुसलमान:
सनातनी हिन्दू के रूप
में हिन्दू धर्म में गाँधी की गहरी आस्था थी। इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो उन्हें किसी भी दृष्टि
से धर्मनिरपेक्ष नहीं कहा जा सकता है। वे एक व्यक्ति के रूप में
धार्मिक थे, लेकिन उनका राष्ट्रवाद ‘सर्वधर्म समभाव’ की बात करता है और उसमें अनिवार्यतः
सभी धर्मों के आदर की बात है। इसीलिए उन्हें ऐसे समय में मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा शामिल करने में
सफलता मिली, जब अंग्रेजों की ‘फूट डालो, शासन करो’ की नीति और इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय समाज का संप्रदायीकरण अपने चरम पर
था। इसी आलोक में उन्होंने हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे
हिन्दुत्ववादी संगठनों की विभाजनकारी भूमिका को भी पहचाना।
अगस्त,1942 के 'हरिजन’ के अंक में गाँधी लिखते हैं, ''मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे
में सुना है और मुझे यह भी पता है कि वह एक साम्प्रदायिक संगठन है और इन गड़बड़ियों की जड़ में आरएसएस
है’।” उनके सचिव प्यारेलाल अपने विवरण ‘महात्मा गाँधी: द
लास्ट फेज’ में
लिखते हैं कि “जब सन् 1946 के दंगों के बाद गाँधीजी के काफिले
के एक सदस्य ने पंजाब के शरणार्थियों के लिए वाघा में बनाए गए ट्रांजिट कैंप में
आरएसएस कार्यकर्ताओं की कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और कड़ी मेहनत करने की क्षमता की तारीफ की, तो इस पर गाँधी ने कहा, ‘यह न भूलो
कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासीवादी भी ऐसे ही थे।’ गाँधी मानते थे कि आरएसएस का
दृष्टिकोण एकाधिकारवादी है और वह एक साम्प्रदायिक संस्था है।”
समावेशी राष्ट्रवाद और महिलाएँ:
समाजशास्त्री आशीष नन्दी ने सावरकर के राष्ट्रवाद
पर यह आरोप लगाया है कि यह नागरिक अधिकारों के बजाय राज्यवाद की हिमायत करता है,
यह हिंदुत्व के प्रति आग्रहशील है, विविधता के प्रति इसका रवैया नकारात्मक है और
अपनी प्रकृति में यह मर्दवादी है क्योंकि यह तमाम समस्याओं का समाधान केंद्रीकृत
राज्य में तलाशता है, एवं उसके प्रति वफादारी पर जोर देता है और इसका जोर साहस,
पौरुष एवं अधिकारों पर है। लेकिन, गाँधी भारतीय समाज एवं
राजनीति में महिलाओं के लिए भी न्यायोचित भूमिका की बात करते हैं। उन्होंने एक ओर आन्दोलन के अहिंसक स्वरुप की परिकल्पना
के जरिये राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए
राजनीति एवं समाज में पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देने के मार्ग को प्रशस्त
किया, दूसरी ओर चरखा के जरिये उनके आर्थिक स्वाबलंबन की पृष्ठभूमि भी तैयार की। दूसरे शब्दों में कहें, तो गाँधीवाद सावरकर के राज्यवाद
और मर्दवाद को चुनौती देता हुआ समावेशी राष्ट्रवाद की आधारशिला रखता है।
पश्चिमी उदारवादी चिंतन और गाँधी:
गाँधी पर पश्चिमी उदारवादी चिंतन का भी प्रभाव
था। वामपंथी दबाव के साथ-साथ इसी प्रभाव के कारण मार्च,1931 में स्वयं गाँधी ने
काँग्रेस के कराँची अधिवेशन में ‘मौलिक अधिकारों
पर एक संकल्प’ के रूप में पेश किया जिसमें स्वतंत्रता, कानून के सामने
समानता, अल्पसंख्यकों की संस्कृति का संरक्षण, जातिगत भेदभाव का उन्मूलन, सभी
धर्मों के प्रति राज्य की ‘तटस्थता’ एवं सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के मसले शामिल
थे और जिसमें आर्थिक गतिविधियों पर सार्वजनिक स्वामित्व एवं नियंत्रण की बात की
गयी। इतना ही नहीं, ट्रस्टीशिप थ्योरी के तहत्
समाज के धनाढ्य तबके की नैतिक जिम्मेवारी निर्धारित करते हुए गरीबों की मदद को
सुनिश्चित करने वाली सोच को प्रोत्साहित किया गया। सन् 1931 में दूसरे गोलमेज
सम्मेलन में गाँधी जी ने घोषणा की, “काँग्रेस के विचार में वह हर हित, जो
रक्षा-योग्य हैं, जरूरतमंद करोड़ों बेजुबान लोगों के हितों के बाद ही आते
हैं.......मुझे काँग्रेस की ओर से यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि कांग्रेस इन
करोड़ों बेजुबान लोगों के हितों के लिए अपने हर हित का बलिदान कर देगी।”
राष्ट्रवाद: गाँधी बनाम् टैगोर:
राष्ट्रवाद के मसले पर गाँधी और टैगोर के बीच
वैचारिक मतभेद लम्बे समय तक चलता रहा और इसको लेकर दोनों के बीच बहस भी हुई। गाँधी
अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य एवं एकता में निष्ठा तो रखते थे, लेकिन इसके लिए राष्ट्र
का बलिदान उन्हें कभी स्वीकार्य नहीं था। राष्ट्र के प्रति उनका यही घोर समर्पण
उन्हें अन्तर्राष्ट्रवाद से दूर ले जाता है। लेकिन, इस तरह का निष्कर्ष उचित नहीं
होगा क्योंकि अपने राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में स्वयं गाँधी का यह मानना था, “मेरे
राष्ट्रवाद में ही गहरा अन्तर्राष्ट्रवाद है।” स्पष्ट है कि गाँधी राष्ट्रवाद को
प्राथमिकता तो देते थे, पर उन्होंने राष्ट्रवाद एवं अन्तर्राष्ट्रवाद में मूलभूत
अंतर्विरोध को नकारा।
लेकिन, टैगोर गाँधी के इन विचारों से असहमत रहे।
वे राष्ट्र को लेकर तो सकारात्मक थे, पर राष्ट्रवाद को लेकर वे हमेशा चिंतित रहे।
वे राष्ट्र को कई मायनों में गैर-जरूरी मानते हुए राष्ट्रवाद की आलोचना करते थे।
उनका मानना था कि राष्ट्रवाद से प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न होती है और
प्रतिस्पर्धा संघर्ष का मूल कारण है। इसीलिए उनकी दृष्टि में, राष्ट्रवाद की
अवधारणा अन्तर्राष्ट्रवाद के विरोध में जाती थी। यही कारण है कि गाँधी के असहयोग आन्दोलन के प्रति टैगोर का रवैया आलोचनात्मक बना
रहा जिसका संकेत टैगोर की इस बात से मिलता है:
“जब तमाम विश्व समुदाय मानवीय एकता को
राष्ट्रीयता के दायरे से बाहर निकाल कर वैश्विक मंच तलाशने में जुटा है, तब हम
असहयोग जैसे निराधार आंदोलनों से स्वराज की नींव रखने के लिए लड़ रहे हैं, जिसका
अंत सिर्फ संघर्ष तक सीमित है।”
लेकिन, गाँधी ने
टैगोर की इस आलोचना को खारिज करते हुए कहा, “भारतीय राष्ट्रवाद आक्रामक
नहीं, अहिंसावादी है। इसमें विनाश नहीं, जन-एकता की संभावना है, इसीलिए यह
मानवतावादी है।” इससे इस बात का संकेत मिलता है कि राष्ट्र की मूल संस्कृति और
उसके दायरे को लाँघकर गाँधी को कुछ भी स्वीकार्य नहीं था। इसका संकेत इस बात से भी
मिलता है कि अपने सुधारों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए राजाराम मोहन राय
द्वारा हिन्दी को न अपनाये जाने के सन्दर्भ में उनके आलोचनात्मक रवैये पर टैगोर की
निराशा खारिज करते हुए उन्होंने कहा,
“मैं भी आज़ाद हवा में उतना ही विश्वास रखता हूँ,
जितना यह महान कवि। मैं अपने घर के चारों तरफ बंद दीवारें और खिड़कियाँ नहीं
चाहता। मैं समस्त संस्कृतियों का अपने आँगन में स्वागत करता हूँ, मगर यह कभी नहीं
स्वीकार करता कि कोई मेरे ही पाँव उखाड़ दे।”
स्पष्ट है कि भले ही गाँधी का राष्ट्र एवं
राष्ट्रवाद तकनीकी दृष्टि से टैगोर के राष्ट्रवाद से भिन्न प्रतीत होता हो, पर
व्यावहारिक रूप से उनके बहुत ही करीब है। इसमें टैगोर वाली व्यापकता है,
विश्वबंधुत्व का टैगोरवादी आग्रह है, भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैविध्य के
प्रति संवेदनशीलता है और आधुनिक मानवतावादी चेतना से सम्पृक्ति है। हाँ, इसकी
धार्मिकता ज़रूर इसे टैगोर से दूर ले जाती, पर वहाँ भी ‘सर्वधर्म
समभाव’ एवं सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव उसे सहिष्णु
बनाता है और यह सहिष्णुता उसे संवेदना के धरातल पर एक बार फिर से टैगोर के करीब ले
आती है।
नेहरु और राष्ट्रवाद
अन्तर्राष्ट्रवाद और मानवतावाद:
दरअसल टैगोर एवं गाँधी से लेकर नेहरु तक सारे भारतीय चिन्तक किसी-न-किसी रूप
में राष्ट्रवाद की पश्चिमी संकल्पना को खारिज कर रहे थे। राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद
के सन्दर्भ में नेहरु की सोच इस मायने में टैगोर और गाँधी से मिलती-जुलती है कि इसमें
अन्तर्राष्ट्रवाद की हिमायत की गयी है और इसका स्वरुप मानवतावादी है। साथ ही, यह
भारतीय समाज एवं संस्कृति के वैविध्य के प्रति संवेदनशील है। लेकिन, यह इस मायने
में राष्ट्र-विषयक गाँधी की संकल्पना से भिन्न है कि यह अपनी मूल प्रकृति में
धर्मनिरपेक्ष है और इसीलिए इनकी तुलना में राष्ट्रीयता की पश्चिमी संकल्पना के
कहीं अधिक करीब भी।
राष्ट्रवाद को प्राथमिकता:
टैगोर की तरह नेहरू भी अंतर्राष्ट्रवाद की
हिमायत करते थे, पर जहाँ राष्ट्रवाद को लेकर टैगोर की सोच नकारात्मक एवं
निषेधात्मक थी, वहीं इस सन्दर्भ में नेहरु की सोच गाँधी की तरह ही व्यावहारिक थी।
गाँधी हों या नेहरु, भारत सहित औपनिवेशिक पराधीनता के शिकार देश की ज़रूरतों ने उन्हें राष्ट्रवाद
की अहमियत को स्वीकार करने और उसे प्राथमिकता देने के लिए विवश किया। उन्होंने राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रवाद को अनिवार्य बतलाया और
राष्ट्रीय ऐक्य कायम करने में इसकी भूमिका को रेखांकित किया है। नेहरु के अनुसार, चूँकि राष्ट्रवाद की भावना
नागरिकों में ऊर्जा एवं उत्साह का संचार करती हुई उन्हें एक करती है और राष्ट्र के
व्यापक हितों के मद्देनज़र उनके बीच सहयोग सुनिश्चित करती है, इसीलिए प्रत्येक
राष्ट्र में राष्ट्रवाद का विशिष्ट स्थान है और उसे प्रचारित-प्रसारित किया जाना
चाहिए। लेकिन, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रवाद किसी भाषा, जाति और धर्म से बँध नहीं सकती।
राष्ट्रवाद की प्रकृति:
नेहरु ने बड़े करीब से पश्चिमी राष्ट्रवाद की परिणति को देखा और महसूस किया। उन्होंने पश्चिमी राष्ट्रवाद के आक्रामक स्वरुप और इसके द्वारा
अन्य राष्ट्रों एवं राष्ट्रीयताओं के लिए उत्पन्न खतरे को महसूस किया और देखा कि
किस प्रकार इसकी परिणति या तो उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के रूप में हो रही है,
या फिर नाज़ीवाद एवं फासीवाद के रूप में। इसीलिए वे राष्ट्रवाद के अन्तर्निहित खतरों से
वाकिफ थे और उनका मानना था कि ऐसा राष्ट्रवाद अन्य
राष्ट्रों एवं राष्ट्रीयताओं के मन में संदेह एवं भय को जन्म देता हुआ
अन्तर्राष्ट्रवाद की संभावनाओं को निरस्त करता है। दोनों ही स्थितियों में
राष्ट्रवाद ने अन्य राष्ट्रीयताओं के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा और इसने मानव एवं मानवता के विनाश का मार्ग प्रशस्त किया। स्पष्ट है कि इन दोनों ही रूपों
में यह अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सौहार्द्र के साथ-साथ मानव एवं मानवता के लिए
अभिशाप बन चुका है। इसी आलोक में उन्होंने राष्ट्रवाद की सीमाओं को निर्धारित करते हुए कहा कि “किंतु इसे आक्रामक तथा अंतरराष्ट्रीय विकास में बाधक नहीं
बनने देना चाहिए।” इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद के इस संकीर्ण, कट्टर, आक्रामक,
और धार्मिक स्वरूप को नकारते हुए कहा कि राष्ट्रवाद
की प्रकृति उदार, सीमित तथा संतुलित होनी चाहिए।
घृणा पर आधारित दर्शन:
गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर की तरह नेहरु ने भी अपनी आत्मकथा में ‘मेरी
कहानी’ (An Autobiography) में राष्ट्रवाद के
विरोधाभास को उद्घाटित करते हुए लिखा कि “राष्ट्रवाद एक विरोधाभास है जो अन्य राष्ट्रीय समूहों के
विरुद्ध घृणा और क्रोध पर पोषित एवं पल्लवित होता है।” मशहूर पत्रकार जॉर्ज ओरवेल ने भी इन्हीं सीमाओं की दिशा में
संकेत करते हुए कहा था, “एक
राष्ट्रवादी न सिर्फ अपनी तरफ से की गयी क्रूरता को नकार देता है, बल्कि उसमे इस क्रूरता को न सुनने की एक असाधारण क्षमता भी होती
है।” भारतीय राष्ट्रवाद में भी इसकी मौजूदगी को
स्वीकारते हुए नेहरु इसे पश्चिमी राष्ट्रवाद से अलगाते हुए कहते हैं, “सन् 1921 के दौरान भारत में यह घृणा एवं क्रोध अंग्रेजों के विरुद्ध
व्याप्त था, किंतु अन्य राष्ट्रों के प्रति यह
असाधारणतः न के बराबर था।” यही वह बिंदु है जहाँ भारतीय राष्ट्रीयता की संकल्पना पश्चिमी राष्ट्रीयता की संकल्पना से भिन्न एवं विशिष्ट है। नेहरू की इस मान्यता की पृष्ठभूमि में
स्वतंत्रता संघर्ष में भागीदार जनता की इच्छाओं का उत्प्रेरण भी मौजूद था। उनकी
यह मान्यता थी कि भारतीय राष्ट्रवाद अपने आरंभ से ही एक व्यापक ‘बुद्धिवाद’ की
सार्वभौमिक मान्यताओं में मौजूद थीं। इसी आलोक में उन्होंने राष्ट्रवाद और
अंतर्राष्ट्रवाद की धाराओं के बीच सामंजस्य पर बल दिया। उनकी मान्यता थी कि “राष्ट्रवाद और
अंतर्राष्ट्रवाद की धाराएँ परस्पर सौहार्दपूर्ण ढंग से मिश्रित हैं।”
स्पष्ट है कि जहाँ टैगोर और नेहरु राष्ट्रवाद को एक संकीर्ण सोच के रूप में
देखते हैं और इसे घृणा पर आधारित दर्शन मानते हैं, वहीं गाँधी राष्ट्रवाद की
संकीर्ण धारणा का प्रहार करते हुए इसमें घृणा की संभावनाओं का निषेध करते हैं। इस
रूप में ये तीनों चिन्तक अनाक्रामकता एवं सहिष्णुता के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते
हैं।
भारतीय राष्ट्रवाद की पश्चिमी राष्ट्रवाद से भिन्नता:
उन्होंने भारतीय
राष्ट्रवाद को यूरोप के साम्राज्यवादी एवं फासीवादी राष्ट्रवाद से अलगाते हुए
लिखा, “भारतीय राष्ट्रवाद स्वतंत्रता प्राप्ति
के लिए एक ऐतिहासिक लहर के रूप में जन्मा था, जबकि फासीवाद प्रतिक्रिया का अंतिम
आश्रय था।” दरअसल फासीवाद
के केन्द्र में पश्चिमी राष्ट्रवादी संकल्पना है जो भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक
वैविध्य से परिपूर्ण भारतीय परिवेश के लिए उपयुक्त नहीं है। टैगोर और गाँधी की तरह
नेहरु इस बात से वाकिफ थे कि वैविध्यपूर्ण समाज एवं संस्कृति में यह बिखराव की
संभावनाओं को बल प्रदान कर सकता है, इसीलिए नेहरु ने भारतीय राष्ट्रवाद की रूपरेखा
प्रस्तुत करते हुए ऐसी किसी भी संकीर्णता एवं कट्टरता का निषेध किया जो भारतीय
समाज एवं संस्कृति के ताने-बाने को छितराने में सक्षम था।
राष्ट्रवाद और अंबेडकर
बहुसंख्यक वर्चस्ववाद का विरोध:
बहुसंख्यकों के वर्चस्व
का विरोध करते हुए अम्बेडकर कहते हैं,
‘‘बहुसंख्यकों का शासन सिद्धांतः अस्वीकार्य और व्यवहार में
अनुचित होगा। बहुसंख्यक समुदाय को प्रतिनिधित्व में आपेक्षिक
बहुमत तो दिया जा सकता है, परंतु वह कभी पूर्ण बहुमत का दावा नहीं कर सकता।’’ दूसरे शब्दों में कहें, तो अम्बेडकर बहुसंख्यकों
की वर्चस्ववादी राजनीति के खिलाफ थे
क्योंकि उनकी नज़रों में, भारत में विधायिका में बहुमत का अर्थ सांप्रदायिक बहुमत
होगा।
इसलिए वे ऐसी सकारात्मक कार्यवाही के पक्ष में थे
जो राजनीति में बहुसंख्यकों के वर्चस्व को प्रतिसंतुलित कर सके और यह सुनिश्चित कर
सके कि अल्पसंख्यक विकास की दौड़ में पीछे न छूटें और उनके साथ भेदभाव न हो।
हिंदुत्व-आधारित
राष्ट्रवाद के प्रबल विरोधी:
जहाँ तक हिंदुत्व-आधारित राष्ट्रवाद का प्रश्न है, तो
जातिगत भेदभाव एवं
छूआछूत को संरक्षण देने के कारण अम्बेडकर हिंदू धर्म के कटु विरोधी थे। वे हिंदू समाज गैर-प्रजातांत्रिक
मानते
थे। उनकी यह मान्यता थी कि “हिंदू
राष्ट्र देश के लिए
सबसे बड़ी आपदा होगा क्योंकि वह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए बड़ा खतरा होगा और
इसीलिए इसे किसी भी स्थिति में रोका जाना चाहिए।” इसकी पुष्टि अपने
समर्थकों के साथ उनके द्वारा हिन्दू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म अपनाये जाने
से भी होती है।
राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के सिद्धांत के हिमायती:
विवेकानन्द की तरह ही
अम्बेडकर के नाम का इस्तेमाल भी हिंदू राष्ट्रवाद को देश पर थोपने के लिए हो रहा
है। अम्बेडकर एक
उदारवादी प्रजातांत्रिक थे जो सामाजिक न्याय के साथ स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के
हामी थे।
मई,1945 में ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस
फेडरेशन के बम्बई अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने मुसलमानों के आत्मनिर्णय
के सिद्धांत का समर्थन किया, ‘‘मैं पाकिस्तान के खिलाफ नहीं हूँ। मैं यह मानता हूँ कि पाकिस्तान की माँग आत्मनिर्णय के
सिद्धांत पर आधारित है और इस सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए अब बहुत देरी
हो चुकी है।”
अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए वैकल्पिक प्रस्ताव:
आज़ाद भारत में बहुसंख्यकों के वर्चस्व की संभावनाओं का निषेध करते
हुए अम्बेडकर ने मुसलमानों और उनके नेतृत्व को यह सुझाव दिया कि “अल्पसंख्यकों
को एक अलग देश की माँग करने के बजाए देश के संवैधानिक ढाँचे में अपने हितों की
रक्षा के लिए समुचित प्रावधान किए जाने की माँग करनी चाहिए।” उनका वैकल्पिक प्रस्ताव यह था कि विधायिका और
कार्यपालिका में अल्पसंख्यकों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए
उपयुक्त प्रावधान किए जाएँ। उन्हें यह विश्वास था कि मुसलमान पाकिस्तान की माँग
की बजाए उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगे और अपनी इसी सोच के चलते वे देश के
विभाजन के विरोधी थे। लेकिन, हिंदू राष्ट्रवादियों
की नज़रों में यह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण है। यद्यपि ये बातें
उन्होंने राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के प्रश्न पर विचार के क्रम में नहीं कही हैं, पर
इससे इतना तो संकेत मिलता ही है कि वे धर्म-आधारित
राष्ट्रीयता की संकल्पना के खिलाफ थे, अब वो चाहे मुसलमानों के पृथक
राष्ट्र के रूप में मुस्लिम लीग की संकल्पना हो अथवा हिन्दुओं की पृथक राष्ट्र के
रूप में और हिन्दू राष्ट्र
के रूप में भारत की संकल्पना।
अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में
उन्होंने भारत के विभाजन के प्रश्न पर तार्किक एवं वस्तुनिष्ठ दृष्टि से विचार
करते हुए कनाडा, दक्षिण
अफ्रीका, पूर्वी आयरलैंड और स्विट्जरलैंड में धार्मिक,
नस्लीय और भाषायी टकरावों का विश्लेषण किया और यह बताया कि ये देश
किस तरह उपयुक्त प्रणालियाँ और शासन का ढाँचा विकसित कर इन टकरावों का प्रबंधन कर
रहे हैं।
राष्ट्रवाद के आलोचक: भारत को राष्ट्र न
मानना:
दरअसल अम्बेडकर संकीर्णतावादी नज़रिए के कारण राष्ट्रवाद के
आलोचक थे। उन्होंने जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्रवाद की आलोचना
करते हुए कहा कि पूरी दुनिया राष्ट्रवाद की बुराइयों से परेशान है। यहाँ तक कि वे भारत को एक राष्ट्र मानने से भी इनकार करते हैं और इस दृष्टि
से वे टैगोर के कहीं अधिक करीब खड़े दिखाई पड़ते हैं। उनका यह मानना था,
“भारतीय केवल एक लोग
हैं, राष्ट्र नहीं; और वे यह भी मानते थे कि अगर भारतीय राष्ट्र
नहीं हैं और राष्ट्र नहीं बनेंगे, तो इसमें शर्म की कोई बात नहीं है।”
विश्लेषण:
अब अगर समावेशी राष्ट्रवाद की भारतीय अवधारणा पर
समग्रता में विचार किया जाए, तो यह कहा जा सकता है कि टैगोर एवं अम्बेडकर से लेकर गाँधी
एवं नेहरू तक इसके स्वरुप में चाहे जितनी भिन्नता हो, पर मूल संवेदना के धरातल पर
इनके बीच कोई भिन्नता नहीं है। ऐसे स्थिति में यह महत्वपूर्ण
नहीं है कि वे एक संकल्पना के रूप में राष्ट्रवाद को स्वीकार करते हैं या ख़ारिज
करते हैं, धर्म के लिए स्पेस सृजित करते हैं या धर्मनिरपेक्षता के प्रति आग्रहशील
हैं। भारतीय समाज एवं
संस्कृति के वैविध्य के मद्देनज़र ये सब बहुलतावाद के प्रति आग्रहशील है, इनका
राष्ट्रवाद अपनी प्रकृति में अनाक्रामक एवं सहिष्णु है, यह अन्तर्राष्ट्रवाद के प्रति
संवेदनशील है और अपने स्वरुप में यह मानवीय है। संक्षेप में कहें,
तो इन्होंने पश्चिमी राष्ट्रवाद को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढ़ालते हुए राष्ट्रवाद
की संकल्पना को पुनर्परिभाषित किया और राष्ट्रवाद का भारतीय मॉडल विकसित किया। इस
मॉडल की खासियत इस बात में है कि आजादी के समय से लेकर हाल के वर्षों तक इसने राष्ट्रवाद
के पश्चिमी मॉडल पर आधारित हिंदुत्व-आधारित राष्ट्रवाद के दक्षिणपंथी मॉडल को
हाशिये पर रखते हुए उसकी विभाजनकारी भूमिका का निषेध किया, यद्यपि व्यवहार के
धरातल पर पिछले सत्तर वर्षों के दौरान इसकी विसंगतियाँ भी उभर कर सामने आयी जिसका
फायदा हाल के दशकों में दक्षिणपंथी संगठनों ने उठाया और जिस पर विस्तार से चर्चा
बाद में की जायेंगी।
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