Saturday, 12 October 2019

राष्ट्रवाद-विमर्श भाग 3: समावेशी राष्ट्रवाद और हिन्दी साहित्य



समावेशी राष्ट्रवाद और हिन्दी साहित्य
प्रमुख आयाम
1.     समावेशी राष्ट्रवाद और हिन्दी साहित्य
2.     भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और भारतीय राष्ट्रवाद
3.     मैथिली शरण गुप्त और भारतीय राष्ट्रवाद
4.     रामविलास शर्मा और भारतीय राष्ट्रवाद
5.     जय शंकर प्रसाद और राष्ट्रवाद
6.     दिनकर और राष्ट्रवाद
7.     विश्लेषण
भारतीय जनमानस में समावेशी राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता को सुनिश्चित करते हुए उसे मुख्यधारा में स्थापित करने में हिन्दी के साहित्यकारों और उनके द्वारा रचित साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह वह दौर था जब बंगाल में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का ज़ोर बढ़ रहा था और बंकिमचन्द्र एवं विवेकानन्द के नेतृत्व में राष्ट्रवाद की जो धारा आकार ग्रहण कर रही थी, उसका हिन्दुत्व की ओर रूझान परिलक्षित हो रहा था, यद्यपि उसे आज के अर्थों में पुनरोत्थानवादी एवं हिन्दुत्ववादी नहीं कहा जा सकता था। कारण यह कि उस समय तक न तो ‘हिन्दू’ शब्द संकीर्ण अर्थों का वाचिक था और न ही उसका सम्प्रदायीकरण हुआ था।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और भारतीय राष्ट्रवाद:
भारतेंदु और उनके समकालीन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में तद्युगीन राष्ट्रीय चिंताओं को अभिव्यक्ति देते हुए भारत एवं भारतीयता के बहाने राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीयता की ओर अपना रुझान प्रदर्शित किया है, यद्यपि कई बार इसमें पुनरोत्थानवाद का गंध भी मिलता है। पहली बार इसी दौर में भारतेन्दु के ही समकालीन और उनकी मण्डली के सदस्य प्रताप नारायण मिश्र ने ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा देते हुए कहा था:
चहहु ज़ु साँचो निज कल्यान, तब सब मिलि भारतसन्तान।
जपो निरन्तर एक ज़बान, हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान।।
यहाँ तक कि वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों में गहरी आस्था के कारण स्वयं भारतेन्दु पर भी पुनरोत्थानवाद का आरोप लगाया जाता है, लेकिन इस आरोप से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि सन् 1884 में बलिया में आयोजित ददरी मेला में भारतेन्दु ने अपने व्याख्यान, जो बाद में बलिया-व्याख्यान के रूप में लोकप्रिय हुआ, में ‘हिन्दू’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा:
भाई हिंदुओं, तुम भी मत-मतांतरों का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी जाति, किसी रंग का क्यों न हो वह हिंदू है। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों, सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़े तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे वह करो।
स्पष्ट है कि भारतेन्दु की नज़रों में वर्ण, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा आदि के भेदों से परे हिन्दुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है। चाहे ‘अंधेर नगरी’ हो या फिर ‘भारत दुर्दशा’, ‘नील देवी’ हो या फिर ‘सत्य हरिश्चंद्र’, नवजागरण के सांस्कृतिक अस्मिताबोध को यहाँ पर आकार ग्रहण करते देखा जा सकता है, साथ ही, उस आलोचनात्मक राष्ट्रवाद को भी, जो औपनिवेशिक अर्थतंत्र की मीमांसा के रूप में प्रकट होता है। इस क्रम में भारतेंदु ने अपनी रचनाओं में वर्ण, जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग, क्षेत्र एवं भाषा की विभाजनकारी भूमिका का निषेध करते हुए समावेशी राष्ट्रीयता का आधार तैयार किया है, और इसके लिए वे पश्चिमी तर्क एवं बौद्धिकता का सहारा लेते हैं।  
मैथिली शरण गुप्त और भारतीय राष्ट्रवाद:
आगे चलकर बीसवीं सदी में मैथिली शरण गुप्त, जिन पर पुनरुत्थानवादी और साम्प्रदायिक होने के आरोप लगते रहे, ने ‘भारत-भारती’ में पश्चिमी राष्ट्रवाद को प्रश्नांकित करते हुएभारतीय राष्ट्रवाद की ओर इशारा किया है:
क्या साम्प्रदायिक भेद से, है ऐक्य मिट सकता, अहो!
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की, कहो ?
प्रकारान्तर से,इन पंक्तियों के ज़रिएगुप्त जी ने भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के मद्देनजर भारतीय राष्ट्रवाद के विशिष्ट स्वरूप की ओर इशारा किया है, और इस प्रश्न में ही इसके उत्तर की संभावनाएँ अंतर्निहित हैं।वे यहीं पर नहीं रूकते, वरन् आगे बढ़कर कहते हैं:
हिन्दू हो या मुसलमान, नीच रहेगा फिर भी नीच।
गुप्त जी की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना सांस्कृतिक अस्मिताबोध के धरातल पर कहीं अधिक मुखर है और गाँधीवादी राष्ट्रीयता की संकल्पना के कहीं अधिक करीब है। एक ओर यह वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों से प्रेरणा ग्रहण करता हुआ सहिष्णुता एवं समन्वय के मूल्यों को आत्मसात करता है और इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय परिस्थितियों एवं भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के मद्देनजर आकार ग्रहण करता है, दूसरी ओर पश्चिम के अंधानुकरण का विरोध करता हुआआता है:
गुण मात्र छोड़ विदेशियों के, हम उन्हीं में सन गये,
कैसी नक़ल की, वाह, हम नक्काल पूरे बन गये।
उनके यहाँ रूडयार्ड किपलिंग के श्वेत बोझ के सिद्धांत का प्रतिवाद भी देखा जा सकता है। गुप्त जी ने पश्चिम की तथाकथित सभ्यता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए भारतीयों को असभ्य और भारतीय संस्कृति को निकृष्ट साबित करने की कोशिशों का विरोध करते हुए कहा:
जो पूर्व में हमको अशिक्षित या असभ्य बता रहे,
वे लोग या तो अज्ञ हैं या पक्षपात जता रहे,
यदि हम अशिक्षित थे, कहें तो, सभ्य वे कैसे हुए,
वे आप ऐसे भी नहीं थे, आज हम जैसे हुए।
स्पष्ट है कि गुप्त जी वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कारों से गहरे स्तर पर सम्पृक्ति के बावजूद उन संकीर्णताओं से मुक्त थे जो हिन्दुत्व-आधारित राष्ट्रवाद के पैरोकारों के यहाँ मौजूद है। यहाँ तक कि पितृसत्तात्मकता और सवर्णवादी मानसिकता की ओर जो रूझान हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों के यहाँ दिखायी पड़ता है, गुप्त जी उससे भी मुक्त थे। प्रमाण हैं भारत-भारती की ये पंक्तियाँ:
विद्या हमारी भी न तब तक काम में कुछ आयेगी,
अर्द्धांगनियों को भी सुशिक्षित दी न जब तक जायेगी।
सर्वांग के बदले हुई यदि व्याधि पक्षाघात की,
तो भी न क्या दुर्बल तथा व्याकुल रहेगा बात की।
स्पष्ट है कि भारतेन्दु और गुप्त जी आरम्भिक दौर के ऐसे साहित्यकारों में रहे हैं जिन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को पुनरुत्थानवाद से समावेशिता और आधुनिकता की ओर ले जाते हुए अनाक्रामक एवं मानवीय स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभाई है।
रामविलास शर्मा और भारतीय राष्ट्रवाद:
गुप्त जी की इस प्रस्थापना को विकसित करते हुए आलोचक राम विलास शर्मा ने ‘एक भाषा, एक जाति, एक धर्म’ पर आधारित राष्ट्रवाद की पश्चिमी संकल्पना की धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं। उन्होंने अंग्रेज़ी राष्ट्रीयता की संकल्पना को प्रश्नगत करते हुए कहा कि य्कॉटलैंड की भाषा स्कॉटिश और वेल्स की भाषा वेल्स है जो इंग्लैंड की भाषा अंग्रेज़ी से भिन्न है, फिर भी स्कॉटलैंड और वेल्स को अंग्रेज़ी राष्ट्रीयता के अंतर्गत शामिल किया जाता है। इसी प्रकार स्कॉटलैंड और वेल्स के लोगउस धर्म से भिन्न धर्म के अनुयायी हैं जिसका अनुसरण इंग्लैंड में किया जाता है। इसी की पृष्ठभूमि में उनका प्रश्न यह है कि अगर इन भिन्नताओं के बावजूद स्कॉटिश और वेल्स अंग्रेज़ी राष्ट्रीयता से अभिन्न हो सकते हैं, तो भारत के विभिन्न भाषा-भाषी, विभिन्न जातियों से सम्बद्ध लोग और विभिन्न धर्मों के अनुयायी भारतीय राष्ट्रीयता से अभिन्न क्यों नहीं हो सकते हैं?स्पष्ट है कि राम विलास शर्मा ने भी एक भाषा, एक जाति, एक धर्म’ पर आधारित राष्ट्रवाद की पश्चिमी संकल्पना को नकारते हुए राष्ट्रीयता और भाषायी, जातीय एवं धार्मिक विविधता के बीच सामंजस्य की संभावनाओं की पड़ताल की।
जय शंकर प्रसाद और राष्ट्रवाद:
छायावाद के दौर में आकर भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना कहीं अधिक उदार और मानवीय स्वरूप ग्रहण करती है। जय शंकर प्रसाद ने साम्राज्यवाद, अंधराष्ट्रवाद एवं फासीवाद के रूप में पश्चिमी राष्ट्रवाद की परिणति को देखते हुए कामायनी में इसका निषेध करते हुए लिखा है:
भाव राष्ट्र के सकल मानसिक सुख दुःख में बदल रहे हैं।
वस्तुत: प्रसाद इसके जरिए यह बतलाना चाहते हैं कि कि राष्ट्रवाद की संकल्पना एक भावात्मक संकल्पनाहै और इसके मूल में है सबके कल्याण का भाव एवं सबकी संतुष्टि का भाव। यह एक ही राष्ट्रीयता के लोगों को जोड़े रखने वाला और उन्हें समान राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रयत्नशील करने वाला सुखद अहसासहै। लेकिन, जैसे ही भाव-राष्ट्र की यह संकल्पना राजनीतिक सन्दर्भों से संदर्भित होती है, राष्ट्रवाद का स्वरुप विकृत होता चला जाता है और फिर ये सुखद अहसास असंतुष्टि एवं कष्टदायी अनुभूति के द्वारा प्रतिस्थापित होते हैं। ऐसी स्थिति में पश्चिमी राष्ट्रवाद अंधराष्ट्रवाद की ओर बढ़ता हुआ उत्पीड़क स्वरूप धारण करता है। प्रसाद राष्ट्रवाद के इस उत्पीड़क स्वरूप के विरोध में खड़े हैं। ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में प्रसाद ने ऐसी राष्ट्रीयता का विरोध करते हुए लिखा है:
राष्ट्र और समाज मनुष्य द्वारा बनते हैं, उन्हीं के सुख के लिए। जिस राष्ट्र और समाज से हमारी सुख-शांति में बाधा पड़ती हो, उसका हमें तिरस्कार करना ही होगा। इन संस्थाओं का उद्देश्य है मानवों की सेवा। यदि वे हमीं से अवैध सेवा लेना चाहें, और हमारे कष्टों को न हटायें, तो हमें उनकी सीमा के बाहर जाना पड़ेगा।”
प्रसाद की ये पंक्तियाँ प्रबोधनकालीन स्वच्छंदतावादी चिन्तक रूसो के ‘सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत’ (Social contract Theory) की याद दिलाती है। प्रसाद की यह सोच उनके राष्ट्रवाद को मानवीय स्वरूप प्रदान करती है और उसे भारत के सांस्कृतिक मानवतावाद, जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ एवं ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के आदर्शों से अनुप्राणित है, के धरातल पर ले जाकर खड़ा कर देती है।
चूँकि पश्चिमी राष्ट्रीयता के केन्द्र में नस्लीय श्रेष्ठता के भाव के साथ-साथ ‘एक भाषा, एक जाति, एक धर्म’ के प्रति गहरी आस्था, ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त न होने वाली सोच और “श्वेत बोझ का सिद्धांत मौजूद है, इसीलिए यह अन्य राष्ट्रों एवं राष्ट्रीयताओं के प्रति असम्मान के भाव को प्रदर्शित करता हुआ आता है। प्रमाण है साम्राज्यवाद और फासीवाद के रूप में इसकी परिणति। इसके विपरीत,भारतीय राष्ट्रवाद अन्य राष्ट्रों एवं राष्ट्रीयताओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता है और यह स्थिति प्रसाद के लिए भी स्वीकार्य है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है:
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यह;
हम कहीं से आये नहीं, हमारा घर था यहीं।
स्पष्ट है कि प्रसाद की राष्ट्रीयता की संकल्पना ‘संतोषम् परम् सुखम्’ के आदर्शों से अनुप्राणित है और इसलिए ‘अनाक्रामकता की भावना’इसका प्राण-तत्व है। इसीलिए यह जब-जब मानव और मानवीयता से टकराती है, तब-तब प्रसाद मानव और मानवीयता के पक्ष में खड़े होते हैं। यही प्रसाद राष्ट्रवाद को भावात्मक धरातल पर तो स्वीकारते हैं, पर पश्चिमी राष्ट्रवाद के हश्र के मद्देनजर राजनीतिक धरातल पर इसे नकारते हैं।
यद्यपि पराधीनता से मुक्ति के लिए राजनीतिक राष्ट्र की संकल्पना जरूरी है, तथापि प्रसाद एक सीमा से अधिक भावात्मक राष्ट्रवाद के राजनीतिकइस्तेमाल से परहेज करते हैं। इसके परहेज के मूल में मौजूद है शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए इसका इस्तेमाल, जिसकी दिशा में संकेत करते हुए दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ में कहा है:
वह कौन रोता है वहाँ
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन, जितना कि शीर्ष वलक्ष है 
जो आप तो लड़ता नहीं, 
कटवा किशोरों को मगर, 
आश्वस्त होकर सोचता, 
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज पूरे देश की!
मार्क्स को भी इन्हीं कारणों से राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद से परहेज था, और इसीलिए वे इसे धर्म की तरह ही शोषण के उपकरण के रूप में देखते थे। और, इन्हीं कारणों से प्रसाद का राष्ट्रवाद सांस्कृतिक मानवतावाद के धरातल पर खड़ा है, और इसके केंद्र में हैं वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे भवन्तु निरामया’ और‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की प्रेरणा, शरणागत-वत्सलता के पारम्परिक भारतीय आदर्श तथा अशोक के धम्म एवं अकबर के सुलह-ए-कुल के मूल्य। यही वह मोड़ है जहाँ भारतीय राष्ट्रवाद मानवीय स्वरूप ग्रहण करता हुआ अंतर्राष्ट्रवाद में तब्दील हो जाता है। इसकी ओर इशारा प्रसाद ने ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में कार्नेलिया द्वारा गाए गए इस गीत के माध्यम से की है:
अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को, मिलता एक सहारा।
राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के संदर्भ मेंप्रसाद की अवधारणा समावेशी राष्ट्रवाद के कहीं अधिक करीब है। यही कारण है कि एक ओर धर्म की मूल संवेदना की पहचान को सुनिश्चित करते हुए प्रसाद अपने नाटकों मेंबौद्ध-ब्राह्मण द्वन्द्व की परिणति सामंजस्य एवं सौहार्द्र में दिखलाते हैं, दूसरी ओर‘अन्न पर स्वत्व है भूखों का, और धन पर स्वत्व है देशवासियों का।’
दिनकर और राष्ट्रवाद:
अगर प्रसाद का राष्ट्रवाद विश्वात्मवाद से प्रेरित है और इसके मूल में बौद्ध करूणावाद मौजूद है, तो दिनकर की राष्ट्रवादी चेतना के मूल में भारत की सामासिक संस्कृति की सामासिक चेतना मौजूद है।‘संस्कृति के चार अध्याय’(1956) में दिनकर ने भारत की सांस्कृतिक बुनियाद को ऐतिहासिक संदर्भों में रखकर समझाने की कोशिश की है और सबको साथ लेकर चलने वालीसामासिक संस्कृति को भारतीय राष्ट्र की पहचान बताया है, जिसमें नफरत और अलगाव की संस्कृति के लिए जगह नहीं है।
दिनकर का यह मानना था कि राष्ट्रवाद एक जटिल प्रक्रम है जो घृणा की पृष्ठभूमि में आकार ग्रहण करता है। वे लिखते हैं, “भारत में राष्ट्रीयता इसलिए पनपी कि यहाँ कि यहाँ के लोग विदेशी शासन से घृणा करने लगे थे, किन्तु, घृणा में भी रचनात्मक शक्ति होती है…” मतलब यह कि दिनकर एशिया एवं अफ़्रीका के उपनिवेशों में पनपने वाले राष्ट्रवाद को पश्चिमी देशों के राष्ट्रवाद से अलगाते हैं। यद्यपि वह भी औपनिवेशिक शासन के प्रति घृणा की पृष्ठभूमि में ही आकार ग्रहण करता है, तथापि ये पराधीन देशों की जनता को स्वाधीनता की ओर ले जाने वाली विचारधारा के रूप देखते हैं और उसके पक्ष में खड़े होते हैं। लेकिन, वे इसे एक सीमा तक ही जस्टिफाई करते हैं क्योंकि एक सीमा के बाद यह विश्वबन्धुत्व के रास्ते में बाधक बनकर आता है। ऐसे राष्ट्रवाद के इस रूप के प्रति सावधान करते हुए वे लिखते हैं, “… सभी देशों के स्वाधीन हो जाने के बाद भी राष्ट्रीयता अगर बनी रही, तो फिर विश्वबंधुत्व और विश्वशांति का सपना केवल सपना रह जाएगा।” उन्होंने अपने निबंध ‘जननी जन्मभूमि..’ में लिखा हैं, “..अपने देश से प्रेम करना बहुत अच्छा है, …....... किन्तु, अपने देश को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य देशों से घृणा करना बिलकुल बेजा बात है। राष्ट्रीयता के भीतर जो घृणा की आग है, वह दुनिया को एक नहीं होने दे रही है।” अपूर्वानन्द दिनकर को उद्धृत करते हुए कहते हैं:
“ ‘जब कवि यह कहता है कि:
अपनी भाषा है भली, भलो आपुनो देस।
जो कुछ अपुनो है भलो, यही राष्ट्र संदेस।
तब हमें यह बात अच्छी लगती है और लगनी भी चाहिए।’ इसमें देश की जगह ‘देस’ और सन्देश के स्थान पर ‘संदेस’ शब्दों के प्रयोग पर गौर करना चाहिए। लेकिन, उसके बाद जो दिनकर लिखते हैं, वह और ध्यान देने की बात है,
‘....जब कोई कवि यह कहने लगे कि
देशन में भारत भलो, हिन्दी भाषन माहिं।
जातिन में हिन्दू भलो, और भलो कुछ नाहिं।’
तब हमें सावधान हो जाना चाहिए।’दिनकर की यह सोच उन्हें भगत सिंह के करीब ले आती है। भगत सिंह सुभाष की तुलना में नेहरू को अधिक पसन्द करते थे। जहाँ सुभाष चन्द्र बोस का यह मानना था कि दुनिया की सारी श्रेष्ठ वस्तुएँ भारत में ही हैं, वहीं नेहरू को लगता था किप्रत्येक राष्ट्र को यही लगता है कि उसी के पास कुछ ख़ास है जो किसी और देश के पास नहीं। सर्वश्रेष्ठता वाली यह सोच टकराव की ओर ले जाती है, और इसीलिए यह विश्वबन्धुत्व के लिए ख़तरा है।
यह पहले ही स्पष्ट किया गया है कि दिनकर की राष्ट्रवादी चेतना के केन्द्र में भारत की सामासिक संस्कृति की सामासिक चेतना मौजूद है। भारतीय संस्कृति के इसी सामासिक रूप पर ज़ोर देते हुए दिनकर ने लिखा है: “सारा भारत, आरंभ से ही, संसार के सभी धर्मों की सम्मिलित भूमि रहा है....भारत ने विभिन्न विचारों, मतों, धर्मों और संस्कृतियों के बीच पूरा सामंजस्य बिठा दिया और इन्हीं विभिन्नताओं का समन्वित रूप हमारा सबसे बड़ा उत्तराधिकार है.”
दिनकर ने भारत के अनेकांतवादी दर्शन को इस सामासिक संस्कृति का आधार बतलाते हुए लिखा है:“अनेकांतवादी वह है जो दूसरों के मतों को आदर से देखना और समझना चाहता है....अशोक और हर्ष अनेकांतवादी थे, जिन्होंने एक धर्म में दीक्षित होते हुए भी सभी धर्मों की सेवा की। अकबर अनेकांतवादी था, क्योंकि सत्य के सारे रूप उसे किसी एक धर्म में दिखाई नहीं दिए और संपूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहा। परमहंस रामकृष्ण अनेकांतवादी थे, क्योंकि हिंदू होते हुए भी उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की साधना की थी, और गाँधी जी का तो सारा जीवन ही अनेकांतवाद का मुक्त अध्याय था।”
दिनकर इस सामासिक संस्कृति को भारत की एकता के लिए भी जरूरी मानते हैं, और इतिहास की घटनाओं को सही संदर्भों में देखे जाने की हिमायत करते हैं:
“अमीर खुसरो, जायसी, अकबर, रहीम, दाराशिकोह मुसलमान भी थे और भारत-भक्त भी...इस्लाम का भी अर्थ शांति-धर्म ही है....जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किए, वे शुद्ध इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे। इन अत्याचारों को हमें इसलिए भूलना है कि उनका कारण ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं...और इसलिए भी कि उन्हें भूले बिना हम देश में एकता स्थापित नहीं कर सकते।”
यहाँ पर राम विलास शर्मा को भी उद्धृत करना अपेक्षित होगा जिनका माना है कि कबीर, जायसी और तुलसी से निर्मित जातीय परम्परा मीर, मिर्ज़ा और ग़ालिब के बिना पूरी नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार रवीन्द्र नाथ टैगोर और क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के बिना बांग्ला परम्परा पूरी नहीं होती। अपनी बातों सिद्ध करने के लिए वे आजादी की लड़ाईमें मुसलमानों के योगदान को रेखांकित करते हैं:
“भारत का विभाजन हो जाने के कारण ऐसा दिखता है, मानो, सारे के सारे हिंदू और मुसलमान उन दिनों आपस में बँट गए थे तथा मुसलमानों में राष्ट्रीयता थी ही नहीं। किंतु, यह निष्कर्ष ठीक नहीं है। भारत का विभाजन क्षणस्थाई आवेगों के कारण हुआ और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि मुसलमानों में राष्ट्रीयता नहीं है।”
स्पष्ट है कि भारतेन्दु, मैथिली शरण गुप्त, प्रसाद और रामविलास शर्मा की तरह ही दिनकर उस सोच के साथ लड़ने की कोशिश करते हैं राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को ‘एक भाषा, एक जाति, एक धर्म’ से सम्बद्ध करके देखते हैं, या राष्ट्र के प्रति मुसलमानों की निष्ठा को सन्देह भरी नज़रों से देखते हैं और भारत की परिकल्पना हिन्दू राष्ट्र के रूप में करते हैं। उन्होंने अकबर इलाहाबादी, चकबस्त, जोश मलीहाबादी, जमील मजहरी, सागर निजामी और सीमाब अकबराबादी के उदाहरण के जरिए यह बतलाने की कोशिश की कि भारतीय मुसलमान देशभक्ति के मामले में दूसरों से पछे नहीं हैं।
इसीलिए चिन्तक एवं आलोचक अपूर्वानन्द को लगता है कि “दिनकर जिस राष्ट्रवाद के समर्थक और चिन्तक थे, वह टैगोर, गाँधी और नेहरू के द्वारा गढ़ा गया था। ............इस राष्ट्रवाद के मूल में विश्व-वेदना है, यह अहंकार और महत्त्वाकांक्षा नहीं कि उसे विश्वगुरु माना जाए। इसे अंतर्राष्ट्रीयतावादी राष्ट्रवाद कहा जा सकता है।” इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि “गाँधीजी ने भी विश्व-वेदना से पीड़ित होकर एकबार कहा था कि हिन्दुस्तान की आज़ादी अगर पेरिस और लन्दन के भस्मावशेष पर पड़ी मिली भी, तो वह किस काम की होगी?” गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर से प्रभावित दिनकर भी भारत को भौगोलिक खंड के बजाए एक भावना मानते थे और उनका यह भी मानना था कि:
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भू-मण्डल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखण्डित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश मे वहाँ खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।
स्पष्ट है कि दिनकर की दृष्टि में भारत एक भू-खण्ड मात्र नहीं, वरन् एक विचारधारा है जो भारतीयता से अंगीकृत है।उन्होंने टैगोर की ‘प्रवासी’ कविता को उद्धृत करते हैं, “मेरा घर सभी जगहों पर है, मैं उसी को खोज रहा हूँ. मेरा देश सभी देशों में है जिसे प्राप्त करने के लिए मैं संघर्ष करूँगा।” दूसरे शब्दों में कहें, तो राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में दिनकर की धारणा उनके राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयतावाद और मानवतावाद के करीब ले आती है।
अपूर्वानन्द दिनकर की राष्ट्रीय चेतना पर लिखे गए अपने आलेख में टैगोर के बारे में दिनकर के विचारों को उद्धृत करते हुए हैं, “संस्कृति के सोपान पर चढ़ते हुए वे जीवन के जिस शिखर पर जा पहुँचे थे, वहाँ देशभक्ति के लिए जीवन की पूर्णता का बलिदान असंभव था। रवीन्द्रनाथ भली-भाँति जानते थे कि जो देशभक्ति उन गुणों के बलिदान पर जीना चाहती है, जो देशभक्ति से भी बड़े हैं, वह भक्ति नहीं, तिरस्कार की पात्री है; और, यहीं, वे उन सभी कवियों और सांस्कृतिक नेताओं से महान दिखते हैं, जो परिस्थितियों के तकाजों पर अपनी पूर्णता का एक अंश काटकर, समय के चरणों अपर उपहार चढ़ाने में, बहुत अधिक नहीं हिचकिचाते, जो देशभक्ति के नाम पर जीवन की पूर्णता को भूखों नहीं मानता, वह उस मनुष्य से महान है, जिसका एकमात्र गुण उसकी संकीर्ण देशभक्ति है।”
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि हिन्दी के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में जिस राष्ट्रवाद की परिकल्पना की, राष्ट्रवाद की वह संकल्पना समावेशी है और इसने अपनी रचनाओं के जरिये समावेशी राष्ट्रवाद को भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित करने में अहम् भूमिका निभाई। यद्यपि इन रचनाकारों की रचनाओं में कई बार पुनरोत्थानवादी रुझान भी मौजूद दिखाई पड़ते हैं, पर यह अपनी मूल प्रकृति में भारत की बहुलतावादी संस्कृति के मूल्यों को आत्मसात करता है। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया’ के आदर्शों से अनुप्राणित है, इसीलिए यह अपने भीतर मानवतावादी मूल्यों को समाहित करता है। भारतेंदु से लेकर दिनकर तक यह भिन्न-भिन्न धरातल पर प्रकट हुआ है और इसमें स्वरूपगत भिन्नता भी है, पर मूल संवेदना के धरल पर इसमें गहरा सादृश्य है।  

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