Monday, 3 December 2018

SC/ST अधिनियम से संबंधित विवाद


SC/ST अधिनियम से संबंधित विवाद
प्रमुख आयाम
1.  भारतीय सामाजिक व्यवस्था में दलित
2.  संवैधानिक एवं वैधानिक उपबंध:
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम,1955
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम,1989
3.  अधिनियम के प्रावधानों का बढ़ता दुरूपयोग
4.  सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
a.  निर्णय के विविध पहलू
b.  निर्णय का असर
c.  समस्या की जटिलता
d.  निर्णय के प्रति प्रतिक्रिया    
e.  केंद्र सरकार का रूख
f.   वर्तमान स्थिति
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में दलित:
भारतीय समाज और संस्कृति अन्य सन्दर्भों में चाहे जितना सहिष्णु और समावेश रहा हो, पर दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के सन्दर्भ में यह हमेशा से असहिष्णु रहा है। जहाँ तक दलितों की बात है, तो उनके शोषण एवं उत्पीड़न के बीज भारतीय सामाजिक व्यवस्था के मूल वर्ण एवं जाति में तलाशे जा सकते हैं। ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में इसने रोटी एवं बेटी पर आधारित रूढ़िगत व्यवस्था का रूप लिया और धीरे-धीरे इसने अस्पृश्य आचरण को जन्म देते हुए इसे संस्थाबद्ध रूप प्रदानकिया। 19वीं सदी में नवजागरण आंदोलन के माध्यम से धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों को लेकर आवाज़ें तेज़ हुई और इस सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते इसने निम्न जातीय आंदोलन का रूप लिया जिसे ज्योतिबा फुले, श्री नारायण गुरू और पेरियार से लेकर गाँधी एवं अम्बेडकर तक ने नेतृत्व प्रदान किया। अंततः इसने राष्ट्रीय आंदोलन के प्रगतिशील सामाजिक एजेंडे का आधार तैयार किया जिसकी झलक आजाद भारत के द्वारा स्वीकृत संविधान में मिलती है।
संवैधानिक एवं वैधानिक उपबंध:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने की बात करती है और इसी के अनुरूप मौलिक अधिकारों के अंतर्गत एक ओर अनु. 14-15के ज़रिए वर्ण एवं जाति के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया है, दूसरी ओर अनु. 17 के ज़रिए अस्पृश्यता-उन्मूलन की घोषणा की गयी है।
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम,1955:
आगे चलकर सन् 1955 में इन संवैधानिक अधिकारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करते हुए नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम(Protection of Civil Rights Act) को अंतिम रूप दिया गया जिसका उद्देश्य अस्पृश्यता-सम्बंधी व्यवहारों को समाप्त करना था। इसके ज़रिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने की कोशिश की गयी, लेकिन, न तो छुआछूत का अंत संभव हो सका और न ही दलितों पर अत्याचार ही रुका। फलत: इसे नाकाफ़ी समझा गया और सरकार को इस दिशा नये सिरे से पहल करनी पड़ी।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम,1989:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लोगों पर होने वाले अत्याचार और उनके साथ होनेवाले भेदभाव को रोकने के मकसद सेअनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम,1989 बनाया गया जो जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू हुआ। इसके तहत् इन लोगों को समाज में एक समान दर्जा दिलाने के लिए कई प्रावधान किए गए और इनकी हरसंभव मदद के लिए जरूरी उपाय किये गए।इस अधिनियमके जरिए दोषी लोगों के ख़िलाफ़ दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान किया गया, ताकिअनुसूचित जाति एवं जनजाति से सम्बद्ध देश की एक-चौथाई आबादी को उस शोषण एवं उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने की दिशा में पहल की जो हज़ारों वर्षों से चली आ रही थी।
अधिनियम का उद्देश्य:
इस एक्ट का उद्देश्य समाज के दलित, वंचित और हाशिए के समुदायों के साथ होने वाले अन्याय का निवारण करते हुए उनके लिए न्याय सुनिश्चित करना है। साथ ही, दलितों और आदिवासियों के लिए समाज में भय और हिंसा-मुक्त वातावरण का निर्माण है, ताकि वे आत्मसम्मान के साथ मर्यादित और प्रतिष्ठित जीवन जी सकें।
एक्ट के प्रावधान:
1.  अस्पृश्यता का व्यवहार और इसका प्रदर्शन अपराध की श्रेणी में:इस अधिनियम के तहत् अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोगों के साथ अस्पृश्य व्यवहार और इसके प्रदर्शन को अपराध की श्रेणी में रखा गया है।
2.  पीड़ितों को पर्याप्त सुविधाएँ और कानूनी मदद: इसअधिनियमके तहत् अत्याचार से पीड़ित इस समुदाय के लोगों के लिएपर्याप्त सुविधाएँ और कानूनी मदद सुनिश्चित की गयी हैं, ताकि उन्हें न्याय मिल सके।
3.  गवाह और मुक़दमे का ख़र्च सरकार की ओर से उपलब्ध करवाना: इसअधिनियमके तहत् अत्याचार के मामलों में जाँच और सुनवाई के दौरान पीड़ितों और गवाहों की यात्रा एवं जरूरतों के अन्य खर्च सरकार की ओर से उपलब्ध करवाये जायेंगे।
4.  पीड़ितों के आर्थिक एवं सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था: इसअधिनियमके तहत् अत्याचार सेपीड़ितों के आर्थिक और सामाजिक पुनर्वासको सुनिश्चित करने का भी प्रयास किया गया है।
5.  अभियोजन और उसकी निगरानी के लिएविशेष अधिकारी की नियुक्ति:इसअधिनियमके तहत् अभियोजन (Prosecution) की प्रक्रिया शुरू करनेएवं उसकी निगरानी के लिए विशेष अधिकारीनियुक्त किए जाने का प्रावधान किया गया है।
6.  शिकायत की स्थिति में शिकायत एवं आरोपों की छानबीन के बिनातुरन्त कार्रवाई और गिरफ़्तारी: इसअधिनियमके तहत्शिकायत की स्थिति में तुरन्त कार्रवाई का प्रावधान है और इस मामले को अविलम्ब रजिस्टर करते हुए आरोपी व्यक्ति की तत्काल गिरफ़्तारी की जायेगी। इस मामले में अग्रिम ज़मानत का कोई प्रावधान नहीं है। मतलब यह कि बिना शिकायत एवं आरोपों की छानबीन के ही आपराधिक मामला दर्ज किया जायेगा और आरोपी व्यक्ति की गिरफ़्तारी की जायेगी।
7.  विशेष अदालत में सुनवाई और अग्रिम ज़मानत का प्रावधान नहीं: ऐसे मामलों की सुनवाई केवल स्पेशल कोर्ट में ही होती है और अग्रिम जमानत का भी प्रावघान नहीं है। इसीलिए ज़मानत सिर्फ हाईकोर्ट से मिल सकती थी।
8.  राज्य सरकारों के द्वारा कमेटी के गठन की व्यवस्था:इन उपायों के अमल के लिए राज्य सरकार जैसा उचित समझेगी, उस स्तर पर कमेटियाँ बनाई जायेंगी।
9.  अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा:इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि समय-समय पर इस अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा की जाएगी, ताकि उनका सही तरीके से इस्तेमाल हो सके।
10.         एससी और एसटी पर अत्याचार की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान और इसके रोकथाम की दिशा में पहल: इसके अतिरिक्तएससी और एसटी पर अत्याचार की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की जायेगी और इसके रोकथाम के लिए समुचित क़दम उठाए जायेंगे।
अधिनियम के प्रावधानों का बढ़ता दुरूपयोग:
इस अधिनियम को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय से आनेवाले लोगों को शोषण एवं उत्पीड़न से बचाने के लिए लाया गया था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस अधिनियम से संबंधित उपबंधों का दुरूपयोग बढ़ा, विशेष रूप से नौकरी-पेशा समूह से आने वाले दलितों ने अपने उच्चाधिकारियों को परेशान करने के लिए इसका उपयोग करना शुरू किया, या फिर इस क़ानून के प्रावधानों का इस्तेमाल आपसी रंजिशों में अपने विरोधियों और दुश्मनों को अनुसूचित जाति से आने वाले लोगों के माध्यम से परेशान करने के लिए भी किया गया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें इस क़ानून के बढ़ते हुए दुरूपयोग ने इस अधिनियम की समीक्षा की आवश्यकता को जन्म दिया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
मार्च,2018 में इस अधिनियम के प्रावधानों के दुरूपयोग के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम,1989 के तहत्बिना प्रारम्भिक जाँच के अविलम्बआपराधिक मामला दर्ज किये जाने और शिकायतकर्ता की तुरन्त गिरफ्तारी और आपराधिक मामला दर्ज किये जाने पर रोक लगाने का निर्देश जारी किया। साथ ही, इससे सम्बंधित नये दिशानिर्देश भी जारी किये। इसके तहत्:

1.  अविलम्ब आपराधिक मामला दर्ज किए जाने पर रोक:यदिअनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से आने वाला कोई भी सदस्य किसी के विरूद्ध अपने उत्पीड़न की शिकायत करता है, तो ऐसी स्थिति में आरोपित व्यक्ति के विरूद्ध तुरंत मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा।
2.  शिकायत की प्राथमिक छानबीन के बाद ही मुक़दमा: इसके तहत् अगर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के उत्पीड़न की शिकायत आती है, तो सबसे पहले उस शिकायत की छानबीन करवायी जायेगी और मामले के सच होने की स्थिति में मुक़दमा दर्ज किया जायेगा।
3.  आरम्भिक छान-बीन की समयबद्ध प्रक्रिया: मामले की आरंभिक छान-बीन की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए सात दिन निर्धारित किये गये हैं। मतलब यह कि शिकायत के सात दिनों के भीतर छानबीन की प्रक्रिया पूरी की जायेगी।
4.  गिरफ़्तारी के पूर्व सक्षम अधिकारी की अनुमति की आवश्यकता: मुक़दमा दर्ज किये जाने के बाद आरोपित व्यक्ति की गिरफ़्तारी की जा सकती है, पर इसके लिए सक्षम अधिकारी की अनुमति लेनी होगी।
a.  यदि आरोपित व्यक्ति सरकारी कर्मचारी है, तो उसकी गिरफ्तारी से पूर्व उसके उच्चस्तरीय अधिकारी की लिखित अनुमति आवश्यक है।
b.  यदि वह सरकारी कर्मचारी नहीं है, उनकी गिरफ्तारी जाँच के बाद एसएसपी या उसके समकक्ष अधिकारी की इजाजत से हो सकेगी.
5.  अग्रिम ज़मानत का प्रावधान: पहले यह ग़ैर-ज़मानती अपराध की श्रेणी में आता था, पर अब इस मामले में अग्रिम ज़मानत दी जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश का असर:
अभी तक जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने पर, या फिर जातिगत-उत्पीड़न की स्थिति में शिकायत होते ही तत्काल मामला दर्ज करने और उसके बाद तुरंत गिरफ्तारी का भी प्रावधान था। साथ ही, शिकायतों की जाँच का अधिकार इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी के पास भी था। लेकिन, अब ऐसा संभव नहीं हो पायेगा। इससे इस अधिनियम के प्रावधानों के दुरूपयोग पर तो अंकुश लगेगा, पर संरक्षण-तंत्र के कमज़ोर होने की आशंका को बल मिलेगा। कहीं-न-कहीं सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उन समस्याओं की अनदेखी करता है जो आनेवाले समय में उत्पन्न होंगी।
यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का उद्देश्य इस अधिनियम के प्रावधानों के दुरूपयोग को रोकंस और निर्दोषों की रक्षा करना है साथ ही, यह भी सच है कि यह निर्णय न तो अधिनियम को कमजोर करता है, या दलितों को इस अधिनियम के द्वारा प्रदत्त अधिकारों से वंचित करता है इसके मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस अधिनियम के प्रावधानों के दुरूपयोग पर अंकुश लगते हुए उन लोगों, जिन्हें झूठे मामलों में फँसाया जाता है, को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रक्रियात्मक दिशा-निर्देश देता है लेकिन, इन दिशानिर्देशों के आलोक में ह आशंका व्यक्त की जा रही है कि टकराव से भरे ऐसे सामाजिक-राजनीतिक माहौल में इस तरह का एक निर्णय कमजोर और वंचित तबके के लोगों के विरुद्ध जा सकता है और वह भी विशेषकर तब, जब आजादी के पिछले सत्तर वर्षों के दौरान दलित कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था के संस्थागत पूर्वाग्रह के भी शिकार होते रहे हैं और संविधान एवं विधान उन्हें संरक्षण प्रदान करने में असफल रहा है
समस्या की जटिलता:
दरअसल सुप्रीम कोर्ट का यह दिशानिर्देश इस अधिनियम के प्रावधानों के बढ़ते हुए दुरूपयोग पर तो अंकुश लगाने में सक्षम है, पर यह सामाजिक परिदृश्य की जटिलता की अनदेखी भी करता है। दरअसल भारतीय समाज संक्रमण की अवस्था से गुज़र रहा है जिसमें एक ओर ऐसा समूह उभरकर सामने आया है जो अपने हितों में इस अधिनियम के प्रावधानों का दुरूपयोग कर रहा है, दूसरी ओर वे सामाजिक परिस्थितियाँ अब भी बनी हुई हैं जिनसे निबटने के लिए इस अधिनियम को लाया गया था। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कुछ मामलों में एससी/एसटी अधिनियम का राजनीतिक या व्यक्तिगत कारणों से दुरूपयोग किया जा रहा है, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि वर्तमान आँकड़ों के अनुसार पिछले दस वर्षों (2007-2017) के दौरान दलितों के खिलाफ अपराधों में 66% की वृद्धि हुई है।  इसके अलावा, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो(NCRB) का आँकड़ा यह बतलाता है कि पिछले दस वर्षों में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ दोगुनी हो गई हैं। एनसीआरबी के आँकड़ों में यह भी कहा गया है कि आरोप-पत्र 78% मामलों में दायर किए गए थे, जिसका मतलब है कि 'प्रतिशोध' से झूठे मामलों को दायर किया जा रहा है। लेकिन, NCRB के आँकड़ों का हवाला देते हुए यह कहना, कि ‘जिन मामलों में आरोप-पत्र तो दायर किये गए, लेकिन अभियोजन नहीं हुआ, वे मामले झूठे हैं और उनके मूल में प्रतिशोध की भावना से इस एक्ट का दुरूपयोग है’, उचित नहीं है क्योंकि अक्सर पुलिस के पूर्वाग्रह एवं कमियों के कारण भी अभियुक्त बरी हो जाते हैं।    
ऐसी स्थिति में इस अधिनियम के प्रावधानों को डायल्यूट करते हुए पुलिस को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार दिया जाना समाज के उन लोगों की स्थिति को मज़बूत करेगा जो दलितों एवं आदिवासियों के शोषण एवं उत्पीड़न के लिए ज़िम्मेवार हैं। ऐसी स्थिति में वे अपनेसामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हुएइस अधिनियम के प्रावधानों से बच निकलेंगे।  इसीलिएकोर्ट के इस आदेश और नई गाइडलाइंस के बाद से इस समुदाय के लोगों का कहना है कि ऐसा होने के बाद उन पर अत्याचार बढ़ जाएगा। उनकी इस आशंका को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। विशेषकर ऐसे समय में जब पिछले कुछ वर्षों के दौरान दलित चेतना के उभार की प्रक्रिया तेज़ हुई है और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक टकराव में भी तेज़ी आई है। यह आशंका तब और भी प्रबल हो जाती है जब प्रतिगामी सामाजिक ताक़तें सामाजिक न्याय की राजनीति की दिशा को पलटते हुए अपने राजनीतिक वर्चस्व को एक बार फिर से स्थापित करने के लिए सक्रिय हो उठी हैं।
निर्णय के प्रति प्रतिक्रिया:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के विरूद्ध दलित समुदाय सड़कों पर उतर आया और इसने इस मसले के राजनीतिकरण के मार्ग को प्रशस्त किया। दलितों के विरोध-प्रदर्शन के सवर्णों के द्वारा प्रतिरोध ने सवर्ण-दलित टकराव को जन्म दिया और इसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरोध में शुरू हुआ आन्दोलन हिंसक हो उठा। कई लोग मारे गए और सैंकड़ों लोग घायल हुए।  विभिन्न सामाजिक समूहों, संगठनों और विपक्ष के साथ-साथ सातारूध दल के दलित नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के संशोधन के इस निर्णय से असहमति व्यक्त करते हुए केंद्र द्वारा तत्काल कार्रवाई की माँग की, ताकि शोषित एवं उत्पीड़ित दलित समुदाय के हितों एवं अधिकारों की रक्षा की जा सके। यह मुद्दा संसद में उठाते हुए केंद्र सरकार से इस अधिनियम के मूल प्रावधानों को पुनर्बहाल करने का आग्रह किया गया और अंततः सरकार ने एक बार फिर से संसदीय विधायन के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को पलटने की दिशा में पहल की।
केंद्र सरकार का रुख:
सत्तारूढ़ गठबंधन के साथ-साथ विपक्ष के साथ दलित नेताओं से दबाव का सामना करने के लिए केंद्र ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम,1989 के मूल प्रावधानों को बहाल करने के लिए एक विधेयक पेश करने का फैसला किया है, जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त करता है। संशोधन विधेयक मूल अधिनियम की धारा 18 के बाद तीन नए खंडों को सम्मिलित करता है जो यह प्रावधान करता है कि:
1.    अधिनियम के प्रयोजनों के लिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट के पंजीकरण के लिए प्रारंभिक जाँच की आवश्यकता नहीं होगी।
2.    अधिनियम के तहत् कोई अपराध करने का आरोप लगाने वाले व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए किसी भी अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होगी।
3.    अग्रिम जमानत से संबंधित आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के प्रावधान किसी भी न्यायालय के किसी भी फैसले या आदेश के बावजूद इस अधिनियम के तहत् लागू नहीं होंगे।
वर्तमान स्थिति:
स्पष्ट है कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट संसदीय विधायन के जरिये सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को पलट दिया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपने इस निर्णय पर अड़ी हुई है उधर सरकार के इस निर्णय ने सवर्ण समुदाय को नाराज़ किया और उन तक यह संदेश पहुँचा कि सरकार दलितों के तुष्टीकरण के रास्ते पर चल रही है। यही कारण है कि नवम्बर-दिसम्बर,2018 में मध्यप्रदेश एवं राजस्थान जैसे जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित है, वहाँ की राज्य सरकारें संसद द्वारा एससी/एसटीएक्ट में हुए संशोधन को लागू करने में आनाकानी कर रहीं हैं। लेकिन, वास्तविकता यही है कि केंद्र सर्कार के संशोधनों को स्वीकार करने के अलावा सुप्रीम कोर्ट और राज्य सरकारों के पास कोई विकल्प नहीं है।

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