Thursday 6 December 2018

सीबीआई की स्वायत्तता: मिथक या वास्तविकता


सीबीआई की स्वायत्तता
प्रमुख आयाम
1.  सीबीआई का राजनीतिकरण
2.  राजनीतिकरण की पृष्ठभूमि
3.  विनीत नारायण वाद,1997
4.  लोकपाल अधिनियम,2013
5.  सुप्रीम कोर्ट में सरकार का हलफनामा
6.  सीबीआई के द्वारा अपनी स्वायत्तता की माँग
7.  हलफनामे में प्रस्तुत सुझावों की सीमायें
8.  स्वायत्तता के प्रश्न का विश्लेषण
सीबीआई का राजनीतिकरण:
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो अर्थात् सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन(CBI) शायद सर्वाधिक चर्चित एवं विवादास्पद जाँच एजेंसियों में से एक है। इसका कारण यह है कि जो भी पार्टी सत्ता में रही है, उसने इसका जमकर दुरुपयोग किया है और इसने भी अपने राजनीतिक आकाओं की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है। विशेष रूप से गठबंधन की राजनीति के पिछले तीन दशकों के दौरान सत्तारूढ़ दल के द्वारा इसका इस्तेमाल राजनीतिक हितों को साधने के लिए किया गया। इस क्रम में  जब-जब सीबीआइ पर राजनीतिक दबाव पड़ा, तब-तब उसकी क्रिया-प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगे। और, अगर यह सब संभव हो सका, तो इसकी संरचना एवं क्रिया-प्रणाली के कारण, जो इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप को सुनिश्चित करती है।    
सीबीआई के राजनीतिकरण की पृष्ठभूमि:
नवम्बर,2016 से ही सीबीआई विवाद की शुरूआत हुई जब आर. के. दत्त की दावेदारी की अनदेखी करते हुए राकेश अस्थाना को अंतरिम निदेशक बनाया गया था। बाद में, जब अनुभवहीनता के बावजूद आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक बनाया गया, उस समय भी विवाद हुए थे। फिर, भारत में जिस तरीके से सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को हटाया गया, या फिर यूँ कह लें कि तकनीकी सन्दर्भों में जबरन छुट्टी पर भेजा गया, जिस तरीके से भेजा गया, इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई गयी और इसके लिए जो समय चुना गया; उसके कारण संदेह गहराता है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अमेरिका में भी एफ़बीआई के निदेशक को मनमाने तरीक़े से हटाया जाता रहा है, लेकिन इस सन्दर्भ में भारत और अमेरिका के फर्क की अनदेखी नहीं की जा सकती है क्योंकि जहाँ अमेरिका में अध्यक्षात्मक व्यवस्था है, वहीं भारत में संसदीय व्यवस्था। इस पृष्ठभूमि में प्रश्न यह उठता है कि आखिर सीबीआई के राजनीतिकरण की वज़ह क्या है? इसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:

1.  निगरानी का दायित्व केंद्र सरकार पर: दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिश्मेंट एक्ट,1946 की धारा 4 सीबीआई की निगरानी का दायित्व केंद्र सरकार को सौंपता है।
2.  उच्चाधिकारियों के विरुद्ध मामलों की जाँच के लिए सर्कार की अनुमति अपेक्षित: धारा 5-6 संयुक्त सचिव एवं इससे उच्च स्तर के अधिकारियों के विरुद्ध मामले की जाँच के पूर्व केंद्र एवं राज्य सरकार की अनुमति को अनिवार्य बतलाता है। इसे एकल निर्देश (Single Directives) के नाम से जाना जाता है।
3.  नियुक्ति एवं तबादलों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण: सीबीआई के अंतर्गत काम करने वाले अधिकारियों की नियुक्ति एवं तबादले से सम्बंधित मसले केंद्र सरकार के क्षेत्राधिकार में आते हैं।
4.  सेवानिवृति सीबीआई निदेशक की अन्य पदों पर नियुक्ति पर रोक नहीं: सीबीआई निदेशक की सेवानिवृति के पश्चात् अन्य पदों पर नियुक्ति पर किसी प्रकार की रोक नहीं है जिसके कारण केंद्र उन्हें प्रभावित करने की स्थिति में होता है और वे भविष्य की संभावनाओं के मद्देनज़र केंद्र सरकार के दबाव को स्वीकार करते हैं।
विनीत नारायण वाद,1997:
सन् 1997 में विनीत नारायण वाद, जो हवाला वाद के नाम से भी जाना जाता है, में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश(CJI) जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने सीबीआई के द्वारा जिन मामलों की जाँच की जा रही है, उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किये जो सीबीआई के इतिहास में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु माना जाता है। इस दिशा-निर्देश के प्रमुख पहलू निम्न हैं:
1.  सीबीआई-निदेशक की स्पष्ट एवं पारदर्शी नियुक्ति-प्रक्रिया: सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति-प्रक्रिया को स्पष्ट एवं पारदर्शी बनाया जाना चाहिए।
2.  सीबीआई के लिए पृथक विधायन: सीबीआई निर्धारित विधि के अधीन रहते हुए ही जाँच एवं अभियोजन की दिशा में पहल करेगी और इसी के अधीन उसकी निगरानी संभव हो सकेगी।  
3.  सीवीसी की निगरानी: दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिशमेंट एक्ट,1946 के प्रावधानों के तहत् सीबीआई पर प्रशासनिक नियंत्रण केंद्र सरकार का होता है, लेकिन विनीत नारायण वाद में सर्वोच्च अदालत ने यह सुझाव दिया कि इसे केंद्र सरकार की बजाय सीवीसी की निगरानी में रखा जाना चाहिए।
4.  राजनीतिक कार्यपालिका को जाँच एवं अभियोजन में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं: मंत्री को विभिन्न मसलों के सन्दर्भ में सूचना माँगने, इसकी क्रियाप्रणाली की समीक्षा और नीतिगत निर्देश के लिए अधिकृत करने की बात की गयी, पर जाँच एवं अभियोजन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होगा।
5.  सम्बद्ध मंत्री को संसद के प्रति उत्तरदायी बनाना: इसकी सक्षम एवं प्रभावी क्रियाप्रणाली को सुनिश्चित करने के लिए तत्संबंधित मंत्री को संसद के प्रति उत्तरदायी बतलाने का निर्देश दिया गया।
6.  एकल निर्देश (Single Directives) को ख़ारिज किया जाना: सर्वोच्च अदालत ने डीएसपीई अधिनियम,1946 की धारा 5-6 के सिंगल डायरेक्टिव वाले प्रावधान को अवैधानिक करार दिया, अर्थात् अब संयुक्त सचिव एवं इससे ऊपर के स्तर के अधिकारियों से सम्बंधित मामले में जाँच के पूर्व केंद्र एवं राज्य सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम,2003 और सीबीआई:
इस अधिनियम के जरिये सीबीआई के सन्दर्भ में विनीत नारायण वाद में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णय को पलटते हुए एक बार फिर से 1997 के पूर्व की स्थिति को पुनर्बहाल करने की कोशिश की गयी:
1.  सिंगल डायरेक्टिव्स वाले प्रावधान को पुनर्बहाल किया जाना: डीएसपीई अधिनियम,1946 की धारा 5-6 के सिंगल डायरेक्टिव्स वाले प्रावधान को एक बार फिर से पुनर्बहाल किया गया, अर्थात् अब संयुक्त सचिव एवं इससे ऊपर के स्तर के अधिकारियों से सम्बंधित मामले में जाँच के पूर्व केंद्र एवं राज्य सरकार की अनुमति की आवश्यकता होगी।
2.  केवल भ्रष्टाचार से सम्बद्ध मामलों में सीबीआई को सीवीसी की निगरानी में लाया जाना: सर्वोच्च अदालत के दिशानिर्देशों के अनुरूप सीबीआई को पूरी तरह से सीवीसी की निगरानी में लाने की बजाय केवल भ्रष्टाचार प्रतिषेध अधिनियम,1988 के अंतर्गत दर्ज मामलों में ही इसकी निगरानी में लाया गया।
लोकपाल अधिनियम,2013 और सीबीआई:
जब लोकपाल अधिनियम को अंतिम रूप दिया जाने लगा, तो यह मसला संसद की स्थाई समिति को सौंपा गया। संसद की स्थाई समिति ने सीबीआई को वैधानिक दृष्टि से अधिक अधिकार-संपन्न और संसाधनों की दृष्टि से सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता पर बल देते हुए इस दिशा में विधायी पहल का सुझाव दिया। इन्हीं सुझावों के आलोक में लोकपाल अधिनियम के सीबीआई से सम्बंधित प्रावधानों को अंतिम रूप दिया गया:
1.  कॉलेजियम के द्वारा सीबीआई-निदेशक का चयन: सीबीआई-निदेशक पूरे संगठन का मुखिया हो और उसका चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित किसी व्यक्ति से निर्मित कॉलेजियम के द्वारा हो। इस तरह सीबीआई निदेशक की नियुक्ति की प्रक्रिया में राजनीतिक कार्यपालिका की मनमानी पर अंकुश लगाने और इसे कुछ हद तक अराजनीतिक स्वरुप प्रदान करने की कोशिश की गयी।  
2.  जाँच एवं अभियोजन विंग का पार्थक्य और पृथक अभियोजन निदेशालय का गठन: समिति ने जाँच एवं अभियोजन विंग को एक दूसरे से पृथक करने की अनुशंसा की और अभियोजन की प्रक्रिया को निर्देशित एवं संचालित करने के लिए अभियोजन निदेशक के नेतृत्व में अभियोजन निदेशालय की स्थापना का सुझाव दिया।
3.  अभियोजन निदेशक की नियुक्ति: अभियोजन निदेशक अभियोजन निदेशालय का मुखिया होगा जिसकी नियुक्ति सीवीसी की अनुशंसा पर की जायेगी। अभियोजन निदेशक से यह अपेक्षा की गयी कि वह सीबीआई-निदेशक की निगरानी में काम करे।
4.  सम्बद्ध मामलों में सीबीआई की निगरानी लोकपाल के द्वारा: लोकपाल से सम्बन्धित मामलों में सीबीआई की निगरानी लोकपाल के द्वारा की जाय। साथ ही, इन मामलों की जाँच के लिए सीबीआई को समुचित एवं पर्याप्त धन उपलब्ध करवाने का प्रावधान किया गया।
5.  सम्बद्ध मामलों में लोकपाल की सहमति से ही स्थानान्तरण, अन्यथा नहीं: जाँच-प्रक्रिया की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए यह सुनिश्चित किया गया कि लोकपाल के द्वारा निर्देशित मामलों की जाँच करने वाले अधिकारियों का स्थानांतरण लोकपाल की सहमति से ही किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं।
6.  सीबीआई के द्वारा स्वतंत्र अधिवक्ताओं का पैनल रखने की अनुमति: लोकपाल के द्वारा निर्देशित मामलों के लिए लोकपाल की सहमति से सरकारी वकीलों के अलावा सीबीआई के द्वारा स्वतंत्र अधिवक्ताओं का पैनल रखा जा सकेगा।
7.  लोक सेवकों के विरुद्ध जाँच का अधिकार लोकपाल को: अधिनियम सक्षम प्राधिकारी की बजाय लोकपाल को लोक-सेवकों के विरुद्ध मामला दर्ज करने एवं जाँच करने का अधिकार प्रदान करता है, लेकिन उससे अपेक्षा करता है कि वह ऐसा करने के पूर्व लोक-सेवक को इस सन्दर्भ में नोटिस भेजेगा और उसके साथ-साथ सक्षम अधिकारी की टिप्पणी प्राप्त करेगा।   
सीबीआई की स्वायत्ता और सुप्रीम कोर्ट में सरकार का हलफनामा
कोलगेट स्कैम पर सीबीआई द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में विधि मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा छेड़छाड़ के आलोक में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सरकार को निर्देश दिया गया कि वह सीबीआई की स्वायत्ता के सन्दर्भ में अपनी ओर से सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करे। जून,2018 में सरकार द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में निम्न बिन्दुओं को छुआ गया:
1. नियुक्ति, कार्यकाल एवं बर्खास्तगी का सन्दर्भ: सरकार ने कॉलेजियम के द्वारा सीबीआई-निदेशक की नियुक्ति और उसके लिए दो वर्ष के नियत कार्यकाल की बात की। लेकिन:
a.  बर्खास्तगी का आधार: शारीरिक अक्षमता और गलत व्यवहार के आधार पर उसे उसके कार्यकाल पूरा होने से पहले भी हटाया जा सकता है।
b.  गलत व्यवहार को सरकारी ठेके एवं समझौते के लाभ में उसकी भागीदारी के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया गया है।      
c.  आरोपों की जाँच सीवीसी के द्वारा: इसके पूर्व उस पर लगे आरोपों की जाँच केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के द्वारा की जायेगी और उसी की रिपोर्ट को आधार बनाकर सीबीआई-निदेशक को राष्ट्रपति के द्वारा उसके पद से बर्खास्त किया जा सकता है।
2.  जाँच एवं अभियोजन का पृथक्करण: सरकार ने अभियोजन निदेशक के नेतृत्व में अभियोजन निदेशालय के गठन का प्रस्ताव रखा। इस हलफनामे में यह स्पष्ट किया गया कि:
a.  सीबीआई निदेशक की निगरानी: अभियोजन निदेशक सीबीआई निदेशक की निगरानी में काम करेगा, लेकिन उसकी नियुक्ति के लिए पृथक प्रक्रिया का विधान किया गया है। 
b.  मतभेद की स्थिति में सीबीआई निदेशक की राय अंतिम: अगर अभियोजन निदेशक और सीबीआई निदेशक के बीच मतभेद होता है, तो मतभेद की स्थिति में अटॉर्नी जनरल से परामर्श लिया जायेगा और फिर सीबीआई निदेशक की राय अंतिम मानी जायेगी।
3.  नियुक्ति एवं तबादले: सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत अपने हलफनामे में नियुक्ति एवं तबादलों के लिए कॉलेजियम व्यवस्था को अपनानी की बात की इस सन्दर्भ में निम्न बैटन का उल्लेख मिलता है:
a. सीवीसी की अध्यक्षता वाले पाँच सदस्यीय कॉलेजियम के द्वारा अभियोजन निदेशक की नियुक्ति: अभियोजन निदेशक की नियुक्ति एक पाँच सदस्यीय कॉलेजियम के द्वारा की जायेगी जिसकी अध्यक्षता केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त(CVC) के द्वारा की जायेगी और सीबीआई निदेशक जिसके संयोजक होंगे। सतर्कता आयुक्त, गृह सचिव और कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के सचिव इसके अन्य सदस्य होंगे।
b. पुलिस अधीक्षक और उनसे वरिष्ठ अधिकारी की नियुक्ति एवं तबादलों का सन्दर्भ: सरकार ने पुलिस अधीक्षक और उनसे वरिष्ठ अधिकारी की नियुक्ति, तबादले एवं सेवा-विस्तार के सन्दर्भ में इस पाँच सदस्यीय कॉलेजियम की सिफारिश को तवज्जो देने की बात की।
c.  परामर्श बाध्यकारी नहीं: सीवीसी की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम की राय सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं होगी। जरूरत पड़ने पर उसके द्वारा उचित निर्णय लिया जा सकता है।    
4.  अभियोजन, पैरवी एवं अपील का अधिकार अभियोजन निदेशक के पास: सीबीआई के मुकदमों के सन्दर्भ में अभियोजन, पैरवी एवं अपील का अधिकार अभियोजन निदेशक के पास होगा। वर्तमान में अभियोजन निदेशक सरकार के अधीन है, पर सरकारी दबाव से मुक्त रखने के लिए उसे सीबीआई निदेशक की निगरानी में लाया जाएगा।  
5.  सीबीआई जाँच का स्वरुप एवं निगरानी: सरकार ने एक बार फिर से यह स्पष्ट किया कि:
a.  दोहरी निगरानी व्यवस्था का जारी रहना: भ्रष्टाचार से सम्बंधित मामलों में इसे सीवीसी की निगरानी में कम करना होगा, लेकिन अन्य कानूनी एवं अपराधिक मामलों में केंद्र सरकार ही इसकी निगरानी करेगा। मतलब यह कि इस हलफनामे के ज़रिये भी सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि सीबीआई पर अपने नियंत्रण को ढीला करने का उसका कोई इरादा नहीं है।
b. सीबीआई को प्रकार्यात्मक स्वायत्तता: अपने हलफनामे में सरकार ने यह स्पष्ट किया कि जाँच के तरीके का निर्धारण और इसकी निगरानी सीबीआई के द्वारा ही की जायेगी, न कि सरकार या सीवीसी के द्वारा।
c.  जाँच के दौरान तबादला: संवेदनशील मामलों की जाँच में लगे अधिकारियों के तबादले के सन्दर्भ में कहा गया है कि ऐसे तबादले सीबीआई निदेशक और दो वरिष्ठतम अधिकारियों की सिफारिश पर किये जायेंगे, लेकिन ये सिफारिशें गोपनीय होंगी और सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होंगे।
6.  शर्तों के साथ एकल निर्देश (Single Directives) को बनाये रखना: सरकार ने दो शर्तों के साथ सिंगल डायरेक्टिव्स बनाये रखने की बात की:
a.  केंद्र सरकार को सीबीआई के आवेदन पर तीन माह के अन्दर निर्णय लेना होगा, और
b.  अनुमति न देने की स्थिति में सरकार को कारण बतलाना होगा।
7.  वित्तीय स्वायत्तता का सन्दर्भ: इस सन्दर्भ में सरकार ने एक ओर सीबीआई के पास संसाधनों की उपलब्धता बढ़ाने के संकेत दिए, दूसरी ओर सीबीआई निदेशक को सीआरपीएफ के महानिदेशक के समान वित्तीय शक्तियाँ देने की बात की गयी।
8.  जवाबदेही आयोग का गठन: हलफनामे में सीबीआई की जवाबदेही तय करने के लिए राष्ट्रपति के द्वारा जवाबदेही आयोग के गठन की बात की गयी जिसकी संरचना इस प्रकार होगी:
a.  आयोग में तीन पूर्णकालिक सदस्य होंगे और सीवीसी आयोग का पदेन सदस्य होगा। सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्षों का होगा।
b.  सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को आयोग का सदस्य बनाया जाएगा और वरिष्ठतम सदस्य आयोग के प्रमुख होंगे।    
c.  शिकायतों की जाँच का अधिकार: यह आयोग सीबीआई अधिकारियों एवं कर्मचारियों के खिलाफ़ दुर्व्यवहार, अक्षमता, अनियमितता एवं अनुचित आचरण से सम्बंधित शिकायतों की जाँच करेगा। आयोग के द्वारा जाँच की पहल सरकार के निर्देश के आलोक में भी की जा सकती है और स्वयं अपनी भी पहल पर। साथ ही, आम आदमी को भी किसी अधिकारी के खिलाफ आयोग के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करवाने के लिए अधिकृत किया गया है।
d.  दीवानी अदालत का आधिकार: आयोग के पास दीवानी अदालत के अधिकार होंगे जिसका यह मतलब हुआ कि आयोग किसी भी व्यक्ति को सम्मन जारी कर अपने सामने उपस्थित होने का निर्देश दे सकता है, विभिन्न दस्तावेजों की माँग कर सकता है, और इसी प्रकार के अन्य आदेश एवं निर्देश जारी कर सकता है।
e.  जाँच एवं आदेशों की गोपनीयता: आयोग जाँच का तरीका स्वयं निर्धारित करेगा। पूरी कार्यवाही गोपनीय होगी औए शिकायतकर्ता एवं आरोपी के नाम का खुलासा नहीं किया जाएगा।
f.   रिपोटिंग एवं कार्रवाई: आयोग के द्वारा सीबीआई निदेशक के समक्ष अपनी जाँच-रिपोर्ट प्रस्तुत किया जाएगा और सीबीआई के निदेशक यह सुनिश्चित करेंगे कि आयोग के आदेशों एवं निर्देशों का आनुपालन हो। आयोग यह निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होगा कि वह अपनी रिपोर्ट को सार्वजानिक करना चाहता है या नहीं।    
सीबीआई के द्वारा अपनी स्वायत्तता की माँग:
सीबीआई ने अदालत के सामने स्वायत्तता के मद्देनज़र अपनी ओर से भी कुछ सुझाव रखे जिसे निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1.  सीबीआई निदेशक के लिए तीन वर्षों का कार्यकाल: इसमें सीबीआई  निदेशक के लिए तीन वर्ष के कार्यकाल की माँग की गयी, लेकिन सर्कार दो साल से अधिक पर राजी नहीं हुई।
2.  सीबीआई निदेशक की नियुक्ति-प्रक्रिया में वर्तमान निदेशक को भूमिका: सीबीआई की ओर से नए निदेशक की नियुक्ति-प्रक्रिया में पुराने निदेशक की राय को अहमियत दिए जाने की माँग की, जिसे सरकार ने खारिज कर दिया।
3.  सीबीआई निदेशक के रूप में नियुक्ति हेतु सीबीआई में काम करने के अनुभव की अनिवार्यता: सीबीआई ने यह भी सुझाव दिया कि    नए निदेशक के रूप में नियुक्ति हेतु नामों पर विचार के लिए  सीबीआई में काम करने का अनुभव अनिवार्य अर्हता हो, लेकिन सरकार ने सीबीआई के इस सुझाव को भी खारिज कर दिया।
4.  सेवानिवृत्ति के बाद सीबीआई निदेशक की अन्य पदों पर नियुक्ति नहीं: सीबीआई की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के मद्देनज़र यह सुझाव दिया गया कि सेवानिवृत्ति के पश्चात् सीबीआई निदेशक को सरकार के अधीन किसी भी अन्य पद पर नियुक्ति पर रोक लगे, लेकिन सरकार ने सीबीआई के इस सुझाव पर चुप्पी साध ली।
5.  हटाने के लिए चयन समिति की सहमति की अनिवार्यता: सीबीआई ने यह सुझाव दिया कि किसी भी सीबीआई अधिकारी को हटाने के लिए उस चयन समिति की सहमति को अनिवार्य बनाया जाय जिसकी सिफारिश पर नियुक्ति की गयी थी, लेकिन सरकार ने इस सुझाव को भी नकार दिया।
6.  ग्रुप A के अधिकारियों का पूरा नियंत्रण सीबीआई निदेशक के पास: सीबीआई ने ग्रुप A के अधिकारियों पर पूरा नियंत्रण सीबीआई निदेशक को सौंपने के सुझाव दिए, लेकिन सरकार का यह मानना है कि सीबीआई निदेशक के पास निगरानी एवं नियंत्रण का पूरा अधिकार संस्थागत सिद्धांतों के खिलाफ है।
7.  जवाबदेही आयोग को गैर-जरूरी बतलाना: सरकार ने अपने हलफनामे में जवाबदेही आयोग के गठन की बात की थी जिसे सीबीआई ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि सरकार सीबीआई पर बाहरी निगरानी के पक्ष में है।  
हलफनामे में प्रस्तुत सुझावों की सीमायें:
अब जब सरकार के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत हलफनामे पर पिछले साढ़े पाँच वर्षों के अनुभवों के आलोक में विचार करते हैं, तो यह बात सामने आती है कि यह हलफनामा सीबीआई में राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावनाओं को सीमित तो करता है, पर यह उसे अराजनीतिक स्वरुप प्रदान करने में सक्षम नहीं है। साथ ही, जहाँ सीबीआई निदेशक की नियुक्ति-प्रक्रिया दोषपूर्ण है और उसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्या न्यायाधीश की मौजूदगी के कारण तकनीकी विसंगतियाँ हैं जो हितों के टकराव (Conflict of Interest) की ओर ले जा सकती है, वहीं सीवीसी की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम सिफारिशी शक्तियों के कारण नख-विहीन एवं दन्त-विहीन संस्था बनकर रह जायेगी। वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध जाँच एवं अभियोजन के लिए सरकार की अनुमति की आवश्यकता का बने रहना और सीवीसी की आंशिक निगरानी सरकार की मंशा की ओर संकेत करते हैं। भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के अनुरूप यदि किसी को आरोप-मुक्त किया जाता है, तो इस निर्णय के खिलाफ अपील भी सरकार की अनुमति के बिना सम्भव नहीं होगा। लेकिन, इन तमाम सीमाओं के बावजूद इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अगर हलफनामा में दिए गए इन आश्वासनों को व्यवहार के धरातल पर उतरा जाता, तो सीबीआई को इससे कुछ हद तक प्रकार्यात्मक स्वायत्तता हासिल होते; पर सरकार के लिए यह हलफनामा तो अदालती दबाव से निपटने का एक जरिया मात्र था। सरकार स्वयं हलफनामे में कही गयी बातों को लेकर गंभीर नहीं थी; अगर गंभीर होती, तो इसे अबतक लागू करने का प्रयास किया जाता।
स्वायत्तता के प्रश्न का विश्लेषण:
अगर अबतक के अनुभवों और उपरोक्त तथ्यों के आलोक में सीबीआई की स्वायत्तता के प्रश्न पर विचार किया जाय, तो सीबीआई को न तो पूर्ण स्वायत्तता दी जा सकती है और न ही दी जानी चाहिए क्योंकि यह लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं मर्यादाओं के प्रतिकूल है। सीबीआई सहित पुलिस बल कार्यपालिका का अहम् हिस्सा है और इसके पास शक्ति का संकेन्द्रण निरंकुशता की संभावनाओं को जन्म दे सकता है, अतः शक्तियों के उचित उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए नियंत्रण एवं संतुलन को बनाये रखना आवश्यक है और यह सब संभव है उसे कार्यपालिका के प्रति जिम्मेवार बनाकर और उस पर कार्यपालिका के नियंत्रण को सुनिश्चित कर।
इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सीबीआई की स्वायत्तता के प्रश्न पर विचार के क्रम में अक्सर तात्कालिकता का दबाव हावी रहता है और इस बात को भुला दिया जाता है कि अगर सीबीआई को वह स्वायत्तता दे दी जाय जिसकी माँग की जा रही है और कोई अधिनायकवादी मानसिकता वाला व्यक्ति सीबीआई निदेशक के पद पर काबिज़ होता है, तो उस स्थिति में पूर्ण स्वायत्तता का दुरूपयोग होगा या नहीं, और अगर ऐसा होता है, तो फिर किस तरह इस पर अंकुश लगा पाना सम्भव होगा? साथ ही, किस प्रकार सीबीआई की क्रिया-प्रणाली और निजता के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाएगा?
इस सन्दर्भ में ब्रिटिश एवं ऑस्ट्रेलियाई अनुभव मददगार हो सकते हैं। ब्रिटेन में संगठन के रूप में पुलिस को सरकार के नियंत्रण में रखा गया है और सरकार की भूमिका को नीति-निर्माण, फण्ड के आवंटन, मानकों के निर्धारण एवं निष्पादन की निगरानी तक सीमित है। वहाँ पर पुलिस की क्रिया-प्रणाली पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है और न ही सरकार पुलिस को ऑपरेशनल दिशा-निर्देश देती है। क्रिया-प्रणाली की निगरानी पूरी तरह से पुलिस बल के जिम्मे होती है। इस सन्दर्भ में एक दूसरा मॉडल ऑस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रान्त का हो सकता है जहाँ पुलिस-प्रशासन मंत्रियों के दिशा-निर्देशों से बाध्य है, लेकिन वेर दिशा-निर्देश लिखित रूप में दिए जाते हैं और उन्हें बतौर रिकॉर्ड सुरक्षित रखा जाता है।
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में ऐसे मैकेनिज्म के विकास की आवश्यकता है जिसमें राजनीतिक हस्तक्षेप की सम्भावनाओं को निरस्त करते हुए  सीबीआई के लिए प्रकार्यात्मक स्वायत्तता (Functional Autonomy) भी सुनिश्चित की जा सके और निर्वाचित कार्यपालिका के प्रति उसकी जिम्मेवारी सुनिश्चित करते हुए उसकी शक्ति के दुरूपयोग की सम्भावनाओं को भी निरस्त किया जाय।           


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