1. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) अधिनियम,1993
2. संवैधानिक दर्जे के साथ राष्ट्रीय पिछड़ा
वर्ग आयोग(NCBC) का गठन
3. गठन की पृष्ठभूमि
4. आयोग का स्वरूप एवं संरचना
5. शक्ति एवं कार्य
6. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से
भिन्नता
7. संघीय पहलुओं को लेकर आशंकाएँ
8. विश्लेषण
सन् 2017 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को भंग करने
और उसकी जगह पर सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा
वर्ग आयोग(NCBC) के गठन और उसे संवैधानिक दर्ज़ा प्रदान करने का निर्णय लिया। साथ
ही, सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC) के उपवर्गीकरण
के लिए जस्टिस रोहिणी कमीशन का गठन भी कर दिया। केंद्र सरकार के
मुताबिक ओबीसी आरक्षण का लाभ उन्हें अधिक मिलना चाहिए जो ओबीसी में शामिल तो हैं, लेकिन विकास के मामले में सबसे निचले पायदान पर
हैं। लेकिन, जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट की अनुशंसाओं का इंतजार किये बगैर
सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाबत 123वें
संशोधन विधेयक को प्रस्तुत कर दिया और इसे संसद को दोनों सदनों में पारित कर दिया
गया। बाद में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 14 अगस्त, 2018 को सामाजिक एवं शैक्षिक
दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) को अधिसूचित कर दिया
और इसकी अधिसूचना गजट ऑफ इंडिया के माध्यम से सार्वजनिक कर दिया गया। इसी के साथ राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम,1993 की जगह राष्ट्रीय
पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम,2018 प्रभावी हो गया है। राष्ट्रीय पिछड़ा
वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा मिल गया है और इसे अनुसूचित जाति आयोग को प्रदत
शक्तियों के समकक्ष शक्तियाँ प्रदान कर दी गयी हैं।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC)
अधिनियम,1993:
सन् 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल
आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से अन्य पिछड़े
वर्ग(OBC) के लिए सरकारी नौकरी में 27.5 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया। इसी
निर्णय के आलोक में सन् 1993 में अन्य पिछड़े वर्ग की पहचान की प्रक्रिया को
संस्थागत स्वरुप प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) अधिनियम को
अंतिम रूप दिया गया जो 1 फरवरी,1993 से जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे भारत में
लागू हुआ।
इसी एक्ट के प्रावधानों के तहत् राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) का
गठन किया गया और इससे यह अपेक्षा की गयी कि यह किसी समूह की सामाजिक एवं शैक्षणिक
दृष्टि से पिछड़ेपन की पहचान करते हुए इसे अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल
किये जाने या न जाने के साथ-साथ उसके पिछड़ेपन की तीव्रता के आलोक में अधिक पिछड़े
या कम पिछड़े की सूचियों में शामिल किये जाने के सन्दर्भ में अनुशंसा करे। इस प्रकार
इस आयोग का काम नागरिकों के किसी वर्ग को अन्य पिछड़े वर्ग की सूची में पिछडे़ वर्ग
के रूप में शामिल किए जाने के अनुरोधों की जाँच करना और इस समूह के विकास के
सन्दर्भ में केंद्र सरकार को उपयुक्त सुझाव देना है।
अबतक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में अध्यक्ष के अलावा चार अन्य सदस्य
होते थे जिनमें एक समाज-विज्ञानी, पिछड़े वर्गों से संबंधित मामलों का विशेष ज्ञान
रखने वाले दो व्यक्ति और एक भारत सरकार के सचिव स्तर का अधिकारी होते थे और सुप्रीम
कोर्ट/हाईकोर्ट के न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होते थे।
सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से
पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) का गठन:
स्पष्ट है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) एक संविधायी संस्था के
रूप में संसद के कानून के जरिये अस्तित्व में आया। लेकिन, अगर एक संस्था के रूप
में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग(NCSC) और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग(NCST)
के सापेक्ष इसका मूल्यांकन किया जाय, तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) एक
नख-विहीन एवं दंत-विहीन संस्था के रूप में सामने आया। हालाँकि अन्य पिछड़ा वर्ग की
श्रेणी में किसी जाति को शामिल किए जाने या नहीं किये जाने के प्रश्न पर विचार
करने का अधिकार तो उसे है, पर अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में आने
वाले समूह के लोगों के विरुद्ध होने वाले भेदभाव, अन्याय और ज्यादतियों से
सम्बंधित शिकायतों की सुनवाई का अधिकार इसे नहीं है। इसकी इन्हीं सीमाओं की
पृष्ठभूमि में सन् 2017 में केंद्र सरकार ने इसे भंग करने और इसकी जगह पर
संवैधानिक संस्था के रूप में सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) के गठन का निर्णय लिया।
गठन की पृष्ठभूमि:
मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू हुए ढ़ाई दशक पूरे हो चुके हैं और इन
दौरान देश में सामाजिक समीकरणों का स्वरुप बदल
चुका है। जहाँ अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणी में शामिल अनेक जातियाँ ताकतवर हुई
हैं, वहीं पारंपरिक रूप से कई प्रभु जातियाँ (Dominant Castes), जो कल तक आरक्षण
के विरोध में खड़ी थीं, किसान एवं किसानी के बदतर होते हालात की पृष्ठभूमि में आरक्षण
की माँग को लेकर आंदोलित हुई हैं। लेकिन, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग राष्ट्रीय
स्तर पर आनेवाले इन बदलावों के प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया दे पाने में असमर्थ रहा,
जबकि इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च
न्यायालय ने सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन को सीमित
अर्थों में परिभाषित करने की अव्शयाकता पर बल देते हुए कहा था कि इसके दायरे में आने वाली जातियों को सरकार
आरक्षण तो दे सकती है, लेकिन यह उनका मौलिक अधिकार नहीं है। मतलब यह कि अदालत ने
इस सूची में किसी भी जाति को शामिल किये जाने के विकल्प को भी खुला रखा और इस सूची
से किसी भी जाति को बाहर किये जाने के विकल्प को भी; लेकिन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग
आयोग ऐसा नहीं कर पाया। आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट ने
जाट-आरक्षण के सिलसिले में इस बात पर चिंता प्रदर्शित की कि नई-नई
जातियों को ओबीसी श्रेणी में लाया तो गया है, लेकिन कभी किसी जाति को इससे हटाया
नहीं गया। इसीलिए इस पहल का उद्देश्य ऐसे
संवैधानिक ढाँचे को सृजित करना है जो इन बदलावों को सकारात्मक नज़रिए के साथ
रेस्पोंड कर पाने में सक्षम हो और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणी में
शामिल जातियों की सूची की समीक्षा करते हुए अपेक्षाकृत बेहतर समूहों को आरक्षित
सूची से बाहर कर सके और उन जातियों को इस सूची में स्थान प्रदान कर सके जिन्हें इस
समर्थन की जरूरत है और जो इस समर्थन की हक़दार हैं।
इतना ही नहीं, इन ढ़ाई दशकों के दौरान
भारत की सियासी राजनीति में भी बड़ा बदलाव आ चुका है। अब वह राजनीतिक
समूह हाशिये की ओर बढ़ता दिखाई पड़ रहा है जिसने सामाजिक न्याय की राजनीति को मुखर
नेतृत्व प्रदान किया था। साथ ही, इस दौरान सामाजिक न्याय की राजनीति के अंतर्विरोध
भी उभरकर सामने आये हैं, पर वे अबतक किसी मुकाम की ओर बढ़ते नहीं दिखाई पड़ रहे हैं।
दलित चेतना के हालिया उभार को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है जो आने वाले
समय में सामाजिक न्याय की राजनीति के साथ-साथ देश की राजनीति की दशा एवं दिशा को
भी निर्धारित करेगा। इसीलिए सामाजिक न्याय की राजनीति आज उस मोड़ पर खड़ी है जहाँ पर
या तो उसे खुद को पुनर्परिभाषित करना होगा, या फिर अप्रासंगिक हो जाना होगा।
समस्या सिर्फ यही नहीं है, वरन् यह भी है कि आनेवाले समय में भारत की
राजनीति की दशा एवं दिशा को निर्धारित करने में एक बार फिर से उत्तर प्रदेश एवं
बिहार की भूमिका महत्वपूर्ण होने जा रही है। ऐसी स्थिति में भाजपा सामाजिक न्याय की राजनीति को अपने तरीके से पुनर्परिभाषित
करते हुए चुनावी राजनीति में अपनी स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश कर
रही है। इसी के मद्देनज़र उसकी नज़र अन्य पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आने वाली उन
जातियों और उन सामाजिक समूहों पर है जो अबतक आरक्षण के लाभों के अनुचित एवं असमान
वितरण के कारण इसका लाभ उठाते हुए समाज एवं विकास की मुख्यधारा में शामिल हो पाने
में असमर्थ रहे हैं और जिसके कारण अपने ही समूह की प्रभु जातियों के प्रति गहरा
असंतोष है। भाजपा इस असंतोष को राजनीतिक रूप से अपने पक्ष में भुनाने की कोशिशों
में लगी है। स्पष्ट है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) को भंग कर उसकी जगह
संवैधानिक दर्जा वाली नई संस्था बनाने का केंद्र का फैसला सामयिक है और इसके
राजनीतिक निहितार्थ भी हैं।
आयोग का स्वरूप एवं संरचना:
अगस्त,2018 में
जारी अधिसूचना में आयोग के स्वरुप एवं संरचना के साथ-साथ सदस्यों के कार्यकाल,
कार्यकाल के विस्तार नियुक्ति एवं बर्खास्तगी पर विस्तार से चर्चा की गयी है
जिन्हें निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
सहित न्यूनतम चार सदस्य: अगस्त,2018 में जारी अधिसूचना में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अलावा तीन
सदस्यों का प्रावधान किया गया है जिसमें अनिवार्यतः एक महिला सदस्य होगी। अध्यक्ष
का पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष ही अध्यक्ष की जिम्मेवारियों का निर्वाह
करेंगे। यदि उपाध्यक्ष का पद रिक्त होगा, तो किसी सदस्य को राष्ट्रपति उपाध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंप सकते
हैं।
2. सामाजिक और शैक्षणिक
रूप से पिछड़ी जातियों से होना अनिवार्य: आयोग में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या फिर सदस्य के रूप में उन्हीं
लोगों को नियुक्त किया जाएगा, जो:
a.
सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों से आते हों, और
b.
जिनका पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने एवं सामाजिक सेवा का व्यापक
अनुभव रहा हो।
3. तीन वर्षों का अधिकतम
दो कार्यकाल: आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों की सेवा शर्ते एवं
पदावधि ऐसी होगी जो राष्ट्रपति नियम द्वारा अवधारित करे। अधिसूचना के अनुसार आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों
का कार्यकाल पदभार ग्रहण करने की तारीख से तीन वर्ष का होगा। आयोग में किसी भी
सदस्य की नियुक्ति अधिकतम दो बार ही की जा
सकती है। किसी भी स्थिति में तीसरी नियुक्ति का प्रावधान नहीं है।
4. त्याग-पत्र एवं
बर्खास्तगी प्रक्रिया: सदस्यों द्वारा त्याग-पत्र देने या हटाने की प्रक्रिया भी नियमावली
में बतायी गयी है और उन आधारों की चर्चा भी की गयी है जिसे बर्खास्तगी का कारण
बनाया जा सकता है:
a.
अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या सदस्य राष्ट्रपति
को संबोधित अपने पत्र के द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान भी अपने पड़ से
या सदस्यता से त्यागपत्र दे सकते हैं।
b.
आयोग के अध्यक्ष को राष्ट्रपति के
आदेश से सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट के आधार पर कदाचार के आरोप में हटाया
जा सकता है। इस आधार पर आयोग के अध्यक्ष को राष्ट्रपति के आदेश से हटाया जा सकता
है।
c.
बर्खास्तगी के अन्य कारण: इसके अलावा आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और
सदस्यों को हटाने के अन्य कारण भी बताये गये हैं, जिनमें दिवालिया घोषित होने, पदावधि में लाभ के पद पर रहने, सजा
होने और मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम होने को आधार बताया गया है।
लेकिन, इस सन्दर्भ में आरोपित व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का पूरा मौका दिया जाएगा।
5.
सचिव, भारत सरकार की तर्ज पर वेतन एवं भत्ता: आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और
सदस्यों का वेतन एवं भत्ता भारत सरकार के सचिव के बराबर निर्धारित किया गया है। इसके
अतिरिक्त अध्यक्ष को किराया-मुक्त आवास देने का भी प्रावधान है। उनके पेंशनयाफ्ता
होने की स्थिति में उनके वेतन का निर्धारण पेंशन-राशि
काटकर की जाएगी। इसके अलावा वे दौरे की अवधि में सचिव-स्तर के लिए तय
यात्रा एवं दैनिक भत्ते के हकदार होंगे।
शक्ति एवं कार्य:
इसके तहत् संविधान
के अनुच्छेद 338A के बाद नया अनुच्छेद 338B
अंत:स्थापित किया गया है जिसके अनुसार सामाजिक एवं
शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गो के लिये राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) होगा जो अन्य पिछड़ा वर्ग
के लिए सुरक्षा-उपायों को संरक्षित करने से सम्बंधित मामलों की जाँच एवं निगरानी
करेगा और इस बात का मूल्यांकन करेगा कि ये सुरक्षोपाय कितने प्रभावी हैं। संघ एवं राज्य
सरकारों को अन्य पिछड़े वर्ग से सम्बंधित नीतिगत मसलों पर आयोग से परामर्श करना
होगा। इसकी
शक्तियों एवं कार्यों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. सलाहकारी शक्तियाँ: एक संवैधानिक संस्था के रूप में
प्रस्तावित आयोग के पास अपेक्षाकृत अधिक शक्तियाँ होंगी और यह कहीं अधिक
स्वतंत्रता से काम कर सकेगा। इस रूप में यह विभिन्न जातियों की आरक्षण की माँग के
औचित्य पर विचार और अपेक्षाकृत सक्षम जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग की सूची से बाहर
करने की अनुशंसा भी कर सकेगा।
2.
पिछड़े वर्गों की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति को
प्रोत्साहन: आयोग सलाहकारी
भूमिका के अलावा पिछड़े वर्गों की
सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति पर भी नज़र रखेगा। इससे यह भी अपेक्षा की गयी है कि यह
अन्य पिछड़े वर्ग की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति के लिए उपयुक्त योजनाओं एवं
कार्यक्रमों के सन्दर्भ में सुझाव देगा और इसे प्रोत्साहित करने की दिशा में पहल करेगा।
3. राष्ट्रपति के समक्ष
वार्षिक रिपोर्ट रखा जाना और इस पर संसद में चर्चा: आयोग अपनी सालाना
रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष रखेगा जिसमें संरक्षण के क्रियान्वयन, कल्याण और
सामाजिक-आर्थिक मानकों से सम्बंधित अनुशंसाएँ होंगी जिनका अनुपालन केंद्र से
अपेक्षित होगा। इसे सरकार के
द्वारा इस पर की गयी कार्यवाही रिपोर्ट के साथ संसद के पटल पर रखवाया जाएगा और इस
पर संसद में विस्तृत चर्चा होगी। इसीलिए सरकारों को इसकी सिफारिशों को गंभीरता से लेना होगा और इसे
दरकिनार कर पाना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होगा।
4. राष्ट्रीय एससी/एसटी
आयोग के समान आरक्षण में अनियमितता के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार: लंबे समय से यह माँग उठती रही कि राष्ट्रीय
पिछड़ा वर्ग आयोग को अनुसूचित जाति आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग के जैसे ही
संवैधानिक अधिकार मिलें। यह केवल जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करने के लिए
जिम्मेदार न हो। इसे भी वे अधिकार मिलें जिसके जरिए देश में अन्य पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण में अनियमितता के
खिलाफ कार्रवाई कर सके। यह अधिकार इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि देश
के कई हिस्सों में आरक्षण के सवाल और बैकलॉग की समस्या उभर कर सामने आयी है, पर अबतक आयोग
इस प्रश्न पर विचार नहीं कर पाता था, लेकिन अब नवगठित आयोग इन तमाम मसलों पर विचार
कर सकेगा।
5.
राष्ट्रीय एससी/एसटी आयोग के समान दीवानी न्यायालय की
शक्तियाँ: संविधान में अनुच्छेद 342 (क) जोड़कर प्रस्तावित
आयोग को सिविल न्यायालय के समकक्ष अधिकार दिये गए हैं। नवगठित आयोग अर्द्ध-न्यायिक
संस्था के रूप में काम करेगा और इस रूप में यह अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ
होने वाले भेदभाव, अन्याय अथवा ज्यादतियों की शिकायत की जाँच एवं सुनवाई कर सकने
में सक्षम होगा। एनसीएसईबीसी ऐसा करने में सक्षम होगा। इसके विपरीत राष्ट्रीय
पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) के पास ऐसी शक्तियाँ नहीं थीं। इस सन्दर्भ में:
a.
किसी शिकायत की जाँच एवं पूछताछ करने के लिए आयोग के पास सिविल कोर्ट
के अधिकार होंगे, और
b.
आयोग किसी को भी सम्मन कर सकेगा, पूछताछ कर सकेगा और कोई
दस्तावेज-पब्लिक रिकॉर्ड मँगा सकेगा।
6. राज्य ओबीसी-सूची आयोग
के दायरे से बाहर: राज्य
ओबीसी की सूची तैयार करने का कार्य राज्य सरकारों के जिम्मे होगा। इसमें राष्ट्रीय
आयोग की कोई भूमिका नहीं होगी। केवल उन्हीं मामलों
में राष्ट्रीय आयोग की भूमिका होगी, जिनमें राज्य द्वारा किसी जाति को केन्द्रीय
सूची में शामिल करने की सिफारिश की जाएगी। राज्यों की सिफारिश पर भारत
के महापंजीयक की रिपोर्ट ली जाएगी और उसकी स्वीकृति के बाद आयोग की स्वीकृत ली
जाएगी।
7. आयोग के कार्य: नवगठित आयोग को निम्न जिम्मेवारियाँ
सौंपी गईं हैं:
a.
पिछड़े वर्ग के लोगों को संविधान एवं कानून-प्रदत्त सुरक्षा संबंधी
मामलों में जाँच और निगरानी करना,
b.
पिछड़ा वर्ग के लोगों के अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत मिलने पर
मामले की जाँच करना, और
c.
पिछड़े वर्गो के सामाजिक एवं आर्थिक विकास से जुड़े मामलों में भाग
लेना और सलाह देना।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से
भिन्नता:
अबतक सन् 1993 में गठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अभी तक सिर्फ
सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ी जातियों को पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल
करने या पहले से शामिल जातियों को सूची से बाहर करने का काम करता था, लेकिन 102वाँ
संविधान-संशोधन अधिनियम के जरिये नवगठित आयोग को संवैधानिक दर्ज़ा प्रदान कर उसके
दायरे का विस्तार एवं शक्तियों का विस्तार किया गया है।
1. स्वरूपगत भिन्नता: राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) का
स्वरुप सांविधिक था, लेकिन नवगठितत ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) को संवैधानिक
दर्जा प्राप्त होगा। संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद यह आयोग सक्षम तरीके से समस्याओं का
समाधान कर पाएगा।
2. दीवानी न्यायालय की
शक्तियाँ:
नवगठित ‘राष्ट्रीय
पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) के पास दीवानी न्यायालय की शक्तियाँ होंगी:
a.
यह अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ
होने वाले भेदभाव, अन्याय अथवा ज्यादतियों की शिकायत की जाँच एवं सुनवाई कर सकने
में सक्षम होगा। ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अपनी 2014-15 की रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 338 के खंड (10) के
अधीन सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की शिकायतों के निपटारे के लिए
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को शक्तियाँ दी जानी चाहिए। अबतक इस जिम्मेवारी का
निर्वाह राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग(NCSC) के द्वारा किया जाता था।
b.
उसे किसी भी व्यक्ति को सम्मन जारी
करने, अपने सामने उपस्थित होने का निर्देश देने, उससे पूछताछ करने और वांछित
दस्तावेजों को माँगने का अधिकार होगा।
अबतक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) इन सब
अधिकारों से वंचित था।
3. आरक्षण में अनियमितता
के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार: यदि देश के किसी हिस्से में अन्य पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण
में अनियमितता की खबर आती है, तो नवगठित आयोग को उसके खिलाफ कार्रवाई का अधिकार
होगा। अबतक ये शक्तियाँ राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) के पास नहीं थी।
संघीय पहलुओं को लेकर आशंकाएँ:
चूँकि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के
सन्दर्भ में केंद्रीय एवं राज्य-सूची एकसमान होती है और ओबीसी के मामले में केंद्र
एवं राज्य की सूचियाँ अलग-अलग होती है, इसीलिए राज्यों ने अपने अधिकारों के हनन की
आशंका जताई। इस आशंका
को इसलिए भी बल मिलता है कि संशोधन
अधिनियम राष्ट्रपति को तत्संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से सभी राज्यों
एवं केन्द्रशासित प्रदेशों में सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़े वर्ग को निर्दिष्ट करने
के लिए अधिकृत करता है, लेकिन केंद्र सरकार ने यह आश्वस्त किया कि:
1. आयोग की सिफारिशें
राज्यों के लिए बाध्यकारी नहीं होंगी। साथ ही, राज्य अपने लिए ओबीसी
जातियों का निर्णय करने के बारे में स्वतंत्र रहेंगे।
2. जहाँ तक केंद्र और राज्य की अलग-अलग
सूची का प्रश्न है, तो सरकार ने यह स्पष्ट किया कि यदि
राज्य किसी जाति को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल कराना चाहते हैं, तो
वे सीधे केंद्र या आयोग को भेज सकते हैं।
3. ऐसे मामलों को राज्य
सरकार की सिफारिश पर सुलझाए जायेगा, लेकिन इसके लिए एक विहित प्रक्रिया होगी जिसके
तहत् राज्यों की सिफारिश पर राजिस्ट्रार, आयोग, कैबिनेट और फिर संसद की मंजूरी के बाद ही फैसला
लिया जायेगा।
राज्यों ने इस बात को लेकर भी अपने अधिकारों के हनन की आशंका प्रकट की
कि नवगठित आयोग के पास पिछड़े वर्ग के लोगों से
सम्बंधित मामलों की जाँच और निगरानी का अधिकार होगा। लेकिन, प्रश्न यह
उठता है कि ऐसे अधिकार तो अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के मामले में
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग(NCSC) एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग(NCST) के
पास भी हैं। ऐसी स्थिति में राज्यों की यह आशंका बहुत उचित नहीं प्रतीत होती है।
विश्लेषण:
दरअसल राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) का गठन तो 1993 में ही हुआ,
लेकिन इसे वास्तविक शक्तियाँ कहीं अब जाकर मिल पाई हैं। संविधान संशोधन के
तहत् इसे स्वायत्त निकाय का दर्ज़ा दिया गया है जिससे स्वतंत्र नियामक के रूप में
यह अपनी प्रभावी भूमिका सुनिश्चित कर पाने में समर्थ होगा। अबतक अन्य पिछड़े वर्ग की शिकायतों का निवारण अनु.
338 के प्रावधानों के अंतर्गत रहते हुए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग(NCSC) के
द्वारा किया जाता था, न कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) के द्वारा; लेकिन संविधान
संशोधन के बाद अब इसका निपटारा करने में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(NCBC) सक्षम
होगा। इसी प्रकार केंद्र
एवं राज्य के साथ-साथ सार्वजानिक उपक्रमों में भर्ती के दौरान होने वाले
साक्षात्कार में अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC) का अलग से कोई प्रतिनिधि नहीं होता था और
अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि ही अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे, लेकिन अब
अन्य पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि की मौजूदगी संभव हो सकेगी। इन प्रावधानों के कारण यह शिक्षा एवं रोजगार के
क्षेत्र में अन्य पिछड़े वर्ग के विरुद्ध होने वाले भेदभाव पर रोक लगा पाने और इससे
सम्बंधित उपबंधों के क्रियान्वयन के मार्ग में मौजूद अवरोधों को दूर कर पायेगा। इससे आयोग अन्य पिछड़े वर्ग के हितों के संरक्षण
एवं संवर्द्धन में कहीं अधिक समर्थ हो सकेगा। अब यह केवल सिफारिशी संस्था ही नहीं
होगा, वरन् ज़रुरत पड़ने पर प्रभावी कार्रवाई में सक्षम भी
होगा। लेकिन, इसी के
साथ यह आशंका भी उभरकर सामने आती है कि क्या आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या सदस्य
दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर पिछड़े वर्गों के मु्द्दों पर मुखरता से बोल पायेंगे। कम-से-कम
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग(NCSC) एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग(NCST) का
अबतक का अनुभव बहुत आश्वस्त नहीं करता है। इसीलिए यदि इस पद बैठे लोग सामाजिक और
शैक्षणिक सरोकारों को लेकर ईमानदार नहीं हुए, तो फिर संवैधानिक दर्जा की भी बहुत
अहमियत नहीं रह जायेगी।
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