संस्थागत संकट
- संस्थागत संकट से आशय
- रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता और साख खतरे में
- चुनाव आयोग की विश्वसनीयता भी खतरे में
- सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और निष्पक्षता भी खतरे में
- केन्द्रीय सतर्कता आयोग से संबंधित विवाद
- केन्द्रीय सूचना आयोग से सम्बंधित विवाद
- गहराता सीबीआई विवाद
- लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संस्थाओं का महत्व
संस्थागत संकट से आशय:
पिछले कुछ वर्ष
उन संस्थाओं के लिए भारी रहे हैं जो एक राष्ट्र के रूप में भारत को मज़बूती प्रदान
करते हैं और जिन पर भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद टिकी हुई है। सरकार अपने तरीक़े से
इनकी संरचना और क्रिया-प्रणाली को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है ताकि इन्हें
अपनी ज़रूरतों और हितों के अनुरूप दिशानिर्देशित किया जा सके। इसीलिए आज वे संस्थाएँ
संकट में हैं और उनकी स्वायत्तता ख़तरे में है, जिन्हें बनाने में दशकों लगे। सुप्रीम
कोर्ट, चुनाव आयोग और रिज़र्व बैंक से लेकर लोकपाल, केन्द्रीय सतर्कता आयोग(CVC), चुनाव आयोग,
प्रवर्तन निदेशालय(ED) और सीबीआई तक इस स्थिति को देखा जा सकता है। यहाँ तक कि
केंद्र सरकार के द्वारा अपने राजनीतिक हितों को साधने और अपने राजनीतिक विरोधियों
से निपटने के लिए जिस तरीके से ख़ुफ़िया ब्यूरो(IB), सीबीआई(CBI), प्रवर्तन निदेशालय
और आयकर विभाग जैसी स्वतंत्र जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल हो रहा है, उसने इस संकट
को और अधिक गहराने का काम किया है। ऐसा नहीं कि इन संस्थाओं के साथ ऐसा पहली बार
हो रहा है, या फिर इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ, पर हाल में यह प्रवृत्ति अपने चरम
पर है। इतना ही नहीं, इन संस्थाओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं जिसने इनकी
साख एवं विश्वसनीयता को रसताल में पहुँचा दिया है।
रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता और साख
खतरे में:
रिज़र्व बैंक और
सरकार के बीच टकराव भी नया नहीं है। समय-समय पर विभिन्न सरकारों ने अपने तरीके से
रिज़र्व बैंक को प्रभावित करने की कोशिश भी की है और प्रभावित किया भी है, पर पिछले
कुछ वर्षों के दौरान यह टकराव दायरे को लाँघता दिखाई पर रहा है और अब इस टकराव के
कारण भारतीय अर्थव्यवस्था चरमराती दिखाई पड़ रही है। रघुराम राजन के आरबीआई गवर्नर
रहते हुए सरकार और आरबीआई के बीच टकराव तेज हुआ, फिर नोटबंदी के समय जिस तरीके से
रिज़र्व बैंक को दरकिनार किया गया एवं इससे उत्पन्न चुनौतियों से निबटने के क्रम
में वित्त मंत्रालय की अति-सक्रियता ने आरबीआई को जिस तरह हाशिये पर धकेला, जिस
तरीके से आरबीआई ने गहराते एनपीए संकट के लिए जिम्मेवार तत्वों से निपटने की कोशिश
की और अब अबतक अप्रयुक्त आरबीआई अधिनियम की धारा सात के प्रावधानों के तहत् जिस
तरीके से सरकार रिज़र्व बैंक को दिशानिर्देशित करने की कोशिश करते हुए उसके रिज़र्व
फण्ड को हासिल करने की कोशिश कर रही है, उससे ऐसा लगता है कि एक वित्तीय नियामक
संस्था के रूप में आरबीआई पंगु होकर अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। इसके
परिणामस्वरूप रिज़र्व बैंक एवं सरकार के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है और कई बार रिज़र्व
बैंक के गवर्नर एवं वित्त मंत्रालय आमने-सामने दिखाई पड़ते हैं।
चुनाव आयोग की विश्वसनीयता भी खतरे
में:
चुनाव आयोग की
क्रिया-प्रणाली और इसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को लेकर पहले भी प्रश्न उठाते
रहे हैं, लेकिन हाल में चुनाव आयोग ने जिस तरीके से ईवीएम विवाद को हैंडल किया;
जिस तरीके से चुनाव की तिथि का निर्धारण किया गया, इसकी घोषणा की गयी एवं इससे
सम्बंधित सूचनाएँ लीक हुई; चुनावों के दौरान संवेदनशील मसलों से जिस तरीके से
निपटा गया और सत्तारूढ़ दलों के द्वारा चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन एवं
चुनाव-प्रचार में खुलकर धर्म-जाति आधारित विद्वेष के इजहार को लेकर आयोग की जो
मूकदर्शक भूमिका सामने आयी, उसने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को गहरा आघात पहुँचाया
और इसके कारण उसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगे। इसने एक बार फिर
से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एवं बर्खास्तगी-प्रक्रिया अविलम्ब सुधार की
आवश्यकता का अहसास करवाया।
सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और
निष्पक्षता भी खतरे में:
विभिन्न मसलों
पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच टकराव तो लम्बे समय से चल रहा है, लेकिन
जनवरी,2018 में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ यह टकराव लक्ष्मण-रेखा को लाँघता
दीख पड़ा और यह स्पष्ट हो गया कि न्यायपालिका की संस्थागत स्वायत्तता के साथ-साथ
इसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो चुका है। आरम्भ में न्यायाधीशों
की नियुक्ति को लेकर विवाद शुरू हुआ और फिर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग(NJAC)
की संवैधानिकता को लेकर लम्बा न्यायिक विवाद चला। किसी तरह इस विवाद पर विराम लगा,
तो सरकार ने मेमोरेंडा ऑफ़ प्रोसिड्योर(MOP) के जरिये एक बार फिर से न्यायाधीशों
की नियुक्ति-प्रक्रिया में अपनी निर्णायक भूमिका सुनिश्चित करने की कोशिश की। यही
कारण है कि अबतक मेमोरेंडा ऑफ़ प्रोसिड्योर(MOP) को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका
है। अब भी न्यायाधीशों की नियुक्ति को प्रभावित करने की कोशिश में सरकार के द्वारा
कॉलेजियम के द्वारा अनुशंसित नामों में विभिन्न तरीक़ों से अड़ंगा लगाये जाने की
प्रक्रिया जारी है। इस पृष्ठभूमि में सितम्बर,2017 में हितों के टकराव को लेकर प्रश्न
उठे और इस मसले पर वरिष्ठ वक़ील प्रशांत भूषण और मुख्य न्यायाधीश के बीच होनेवाली बहस
ने एक बार फिर से न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के प्रश्न को उठाया।
लेकिन, जनवरी,2018 में न्यायपालिका
का आंतरिक संकट गहराता हुआ दिखा जब चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिये सार्वजनिक
रूप से देश की जनता को संबोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट की क्रिया-प्रणाली के प्रति
अपने असंतोष का इजहार किया और देश के लोकतंत्र को ख़तरे में बतलाया। उन्होंने
मास्टर ऑफ़ रोस्टर को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करवाते हुए विभिन्न पीठों के बीच केसों
के आवंटन को लेकर मुख्य न्यायाधीश पर पक्षपात और मनमानी का आरोप लगाया। संवैधानिक बेंच
द्वारा मुख्य न्यायाधीश को मास्टर ऑफ़ रोस्टर के रूप में देखने की प्रक्रिया भी
विवादों से परे नहीं रही। इस क्रम में यह बात उभरकर सामने आयी कि सुप्रीम कोर्ट
में आंतरिक संवाद की प्रक्रिया का बाधित हो चुकी है और सर्कार अपने तरीके से
न्यायपालिका को निर्देशित करने की कोशिश कर रही है। भले ही समय के प्रवाह में ये
सारी बातें पीछे छूटती दिख रही हों, पर इन सब कारणों से सुप्रीम कोर्ट की साख को
बट्टा लगा, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। शायद इन्हें दुरुस्त करने में दशकों
लग जाएँ।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग से संबंधित
विवाद:
केन्द्रीय
सतर्कता आयोग विवाद के घेरे में तब आया जब जून,2015 में प्रशांत भूषण
के गैर-सरकारी संगठन कॉमन कॉज ने मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर के. वी. चौधरी और सतर्कता आयुक्त के
पद पर टी. एम. भसीन की नियुक्ति की वैधानिकता को चुनौती देते हुए राजनीतिक पक्षपात
का आरोप लगाया और उनके दागी व्यक्तित्व एवं नियुक्ति-प्रक्रिया की अपारदर्शिता का
हवाला देते हुए इसे अवैधानिक घोषित करने की माँग की। यद्यपि
सुप्रीम कोर्ट ने इन आरोपों को खारिज कर दिया, तथापि इस प्रकरण ने पी. वी. थॉमस
नियुक्ति प्रकरण और इससे उपजे हुए विवाद की याद दिला दी। प्रेमे कोर्ट के निर्णय के साथ
भले ही यह मसला निपट गया लगता हो, पर हालिया सीबीआई विवाद में केन्द्रीय सतर्कता
आयुक्त के. वी. चौधरी की संलिप्तता और विवादास्पद भूमिका ने एक बार फिर से
केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को प्रश्न के घेरे में लाकर
खड़ा कर दिया। ध्यातव्य है कि सन् 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने संस्थागत निष्ठा (Institutional
Integrity) को
सर्वोपरि महत्व देते हुए सीवीसी के पद पर पी. सी. थामस की नियुक्ति को ख़ारिज किया
था, फिर भी सरकारें इससे सबक लेने को तैयार नहीं दिखाती हैं।
केन्द्रीय
सूचना आयोग से सम्बंधित विवाद:
सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को लेकर कितनी
गंभीर है और इससे सम्बंधित संस्थाओं को मज़बूती प्रदान करने की कितनी गंभीर कोशिश
कर रही है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि मई,2014 से शासन संभाले
लगभग साढ़े चार साल होने को हैं, पर अभीतक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट के तमाम दबावों के बावजूद
किसी-न-किसी बहाने सरकार अबतक इसको टालती रही है। यह कोई अपवाद नहीं है, वरन् यह
ट्रेंड है। इतना ही नहीं, हाल में उन संस्थानों
और उन कानूनों पर हमले लगातार बढ़े हैं जिन पर पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित
करने की जिम्मेवारी है। भ्रष्टाचार और
अनियमितता उजागर करने के कारण आरटीआई कार्यकर्ताओं और ह्विसिल ब्लोअरों पर लगातार
हमले हो रहे हैं, फिर भी न तो ह्विसिल ब्लोअर सुरक्षा अधिनियम को लागू किया गया और
न ही लोकपाल की नियुक्ति की गई। यहाँ तक कि इस सरकार के कार्यकाल के दौरान 24 नवम्बर को मुख्य
सूचना आयुक्त आर. के. माथुर के सेवानिवृत्त होने के बाद केन्द्रीय सूचना आयोग तीसरी बार बिना मुख्य सूचना आयुक्त के
काम कर रहा है।
कोर्ट के हस्तक्षेप के बिना मई,2014 से अबतक के अपने कार्यकाल के दौरान इस सरकार
ने एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है और हालत यहाँ तक
पहुँच चुके हैं कि सन् 2016 से अबतक केंद्र सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोगों में रिक्तियों
के बावजूद एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है और दिसम्बर,2018 के पहले
सप्ताह के उत्तरार्द्ध से ग्यारह सदस्यीय केंद्रीय
सूचना आयोग महज़ तीन सूचना आयुक्तों के भरोसे चल रहा है। मतलब यह कि केन्द्रीय सूचना आयोग में रिक्तियों
की संख्या आठ तक पहुँच चुकी है और सरकार इसका जवाब देने के लिए तैयार नहीं है,
शायद इसलिए कि पिछले साढ़े चार वर्षों के दौरान केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने
निर्देशों के जरिये केंद्र सरकार को लगातार मुश्किलों में डाला है और इसके कारण उसकी किरकिरी हुई है। यह
स्थिति तब है जब नवम्बर,2012 में नमित शर्मा मामले
में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि रिक्तियाँ
सृजित होने के कम-से-कम तीन महीने पहले सूचना आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया शुरू
हो जानी चाहिए।
इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने अब
केन्द्रीय सूचना आयोग की स्वायत्तता को भी अपने तरीके से सीमित करने की दिशा में
पहल की, ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके और उसके निर्णयों को प्रभावित किया जा सके।
इसके लिए उसने मानसून-सत्र,2018 में सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 में संशोधन करते
हुए सूचना आयुक्तों के वेतन-भत्ते एवं पदावधि की शक्ति अपने हाथों में लेने कीई
दिशा में पहल की, जिसने नए सिरे से विवाद को जन्म दिया। यद्यपि व्यापक विरोध के
मद्देनज़र सरकार को इसमें संशोधन का अपना इरादा बदलना पड़ा, तथापि इससे उसके मकसद का
संकेत तो मिल ही जाता है।
ऐसा नहीं कि सूचना आयोग के सन्दर्भ में यह स्थिति केन्द्रीय सूचना
आयोग तक सीमित है। दरअसल
किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो, सूचनाओं और सूचना आयोग के प्रति उसका रवैया लगभग
मिलता-जुलता है। जहाँ आंध्र प्रदेश का राज्य सूचना आयोग अब भी एक अदद सूचना आयुक्त की
प्रतीक्षा कर रहा है, वहीं गुजरात, महाराष्ट्र और नागालैंड जैसे राज्यों में राज्य
सूचना आयोग को अब भी मुख्य सूचना-आयुक्त की प्रतीक्षा है और उन्हें उनके बिना ही
काम चलाना पड़ रहा है। एक ओर सूचना आयोग
के पास आवेदनों की भरमार है जिनके समयबद्ध निपटारे की अपेक्षा उनसे है, दूसरी ओर केरल, तेलंगाना एवं पश्चिम
बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में राज्य सूचना आयोग क्रमशः 1, 2 और 3
सूचना-आयुक्तों के भरोसे चल रहे हैं।
महाराष्ट्र एवं कर्नाटक सहित अन्य राज्यों में भी स्थिति बेहतर नहीं है और वहाँ पर
सूचना आयोग को भारी मात्रा में रिक्तियों की चुनौती से जूझना पड़ रहा है। सूचना-आयुक्तों की
नियुक्ति नहीं होने की वजह से सूचना आयोगों में लंबित अपीलों और शिकायतों की
संख्या बढ़ती जा रही है।
दिसम्बर,2018 में पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त
एम. श्रीधर आचार्युलू ने राष्ट्रपति का ध्यान केंद्र सरकार की ओर से उत्पन्न उन
चुनौतियों की ओर आकृष्ट किया है जिसका सामना केन्द्रीय सूचना आयोग को करना पड़ रहा
है। उन्होंने उस उभरते ट्रेंड की ओर इशारा किया
जिसके तहत् सरकारी संस्थान सूचना के अधिकार कानून के तहत् सूचना माँग रहे नागरिकों
और इसके मद्देनज़र सूचनाओं को उपलब्ध करवाने से सम्बंधित निर्देश जारी करने वाले केन्द्रीय सूचना आयोग(CIC) के खिलाफ रिट याचिकाएँ दायर कर रहे हैं और इसके
जरिये उन्हें डराने-धमकाने के साथ-साथ उन पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। केन्द्रीय सूचना
आयोग के खिलाफ ऐसी ही लगभग 1,700
रिट याचिकाएँ दायर की गई है, जिनमें से ज्यादातर, सरकार और आरबीआई आदि
जैसे उसके संस्थानों द्वारा दायर की गई हैं। इन याचिकाओं के
जरिये भारत संघ या इससे सम्बद्ध संस्थान केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेशों को यह
कहते हुए चुनौती देता है कि एक सरकारी कर्मचारी की शैक्षणिक योग्यता, उनकी निजी
जानकारी और उसका खुलासा करना उनकी गोपनीयता का अनुचित अतिक्रमण है; इसीलिए आयोग का
यह निर्देश अवैधानिक है और इसे रद्द किया जाय। सूचना आयोग ने जानबूझकर कर्ज नहीं चुकाने वालों के नामों का खुलासा
करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करने को लेकर रिजर्व बैंक को आदेश दिया
था जिसके विरुद्ध रिज़र्व बैंक ने न्यायलय की शरण ली और बाद में न्यायालय ने सूचना
आयोग के उस आदेश को बरक़रार रखा। उन्होंने ‘सार्वजनिक
भागीदारी के खिलाफ रणनीतिक मुकदमें’ (SLAAP)
की वैश्विक प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए कहा कि ऐसे मुकदमें का मकसद जीतना नहीं,
बल्कि किसी संगठन या एक व्यक्ति के खिलाफ बोलने वाले लोगों एवं संस्थाओं को
प्रताड़ित और भयभीत करना है ताकि उसे ऐसा करने से रोका जा सके।
गहराता सीबीआई विवाद:
दरअसल सीबीआई विवाद का दायरा सिर्फ सीबीआई तक
सीमित नहीं है। इसकी ज़द में सीबीआई के अलावा आईबी(IB) और रॉ(RAW) तक आ चुके हैं।
वास्तव में यह भारत में जो संस्थागत संकट आकार ग्रहण कर रहा हा, उसका प्रतिनिधित्व
करता है। इन संस्थाओं की समस्या
संरचनात्मक है और यह इसे अराजनीतिक संस्था नहीं रहने देती है। सीबीआई के सन्दर्भ
में समस्या यह है कि यह प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन रहकर कम करती है और यह इसे
बहुसंस्थाओं की निगरानी में रखा गया है। उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों
में सीबीआई को केन्द्रीय सतर्कत्ता आयोग(CVC) की निगरानी में रहकर काम करना होता
है और लोकपाल से सम्बंधित मामलों में इसकी निगरानी लोकपाल के द्वारा की जाती है, जबकि
इसका प्रशासनिक नियंत्रण कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग(DOPT) के जिम्मे होता है जो
प्रधानमंत्री के अधीन है। बहु-संस्थाओं (Multiplicities of Institution) की
निगरानी वाली यह स्थिति सीबीआई की क्रिया-प्रणाली को कहीं अधिक मुश्किल बनाती है।
इसीलिए यह कहा जा रहा है कि अगर स्वतंत्र जाँच एजेंसी के रूप में सीबीआई की साख
एवं विश्वसनीयता को बनाये रखना है, तो पृथक सीबीआई अधिनियम समय की माँग है, अन्यथा
आनेवाले समय में यह एक और जाँच एजेंसी बनकर रह जायेगी।
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संस्थाओं
का महत्व:
यह सच है कि
देश संस्थाओं से बड़ा है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जवाबदेही चुनी हुई संस्थाओं
की कहीं ज्यादा होती है, पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लोकतंत्र का
संचालन संस्थाओं के माध्यम से होता है और इसीलिए इसकी मज़बूती बहुत हद तक इस बात
पर निर्भर करती है कि ये संस्थायें कितनी प्रभावी तरीके से कम कर रही हैं। दूसरी
बात यह कि लोकतंत्र का मतलब यह नहीं है कि निर्वाचित संस्थाओं को मनमानी करने के
लिए छोड़ दिया जाय। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत में संविधान की
सर्वोच्चता है और संविधान नियंत्रण एवं संतुलन की अवधारणा पर आधारित है। इसीलिए
निर्वाचित संस्थाओं को भी एक ओर संविधान के द्वारा निर्धारित दायरे में रहकर काम
करना होता है, दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की सतत निगरानी में रहकर, जिस पर संविधान के
संरक्षण की जिम्मेवारी है और जो इस नाते संविधान के अनुपालन को सुनिश्चित करता है।
सुप्रीम कोर्ट की तरह ही चुनाव आयोग दूसरी महत्वपूर्ण संस्था है जिस पर
लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सफलता और इसका प्रभावी प्रकार्यण निर्भर करता है। इस पर
स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव को सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी होती है जिसके बिना
लोकतंत्र का टिके रह पाना मुश्किल होता है। कुछ ऐसी ही स्थिति सीबीआई, सीवीसी,
आईबी और प्रवर्तन निदेशालय जैसी जाँच एजेंसियों तथा रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया जैसे
वित्तीय नियामकों की भी है जिन्हें विभिन्न वैधानिक उपबंधों के जरिये अस्तित्व में
लाया गया है। अगर ये संस्थाएँ कमजोर होंगी, तो लोकतंत्र का मजबूती से बचे रह पाना
और इसका प्रभावी तरीके से काम कर पाना मुश्किल होगा। इसीलिए चुनी हुई सरकारों से
यह अपेक्षा की जाती है कि वे उन संस्थाओं को मज़बूती प्रदान करें जिन पर लोकतंत्र
की मज़बूती और उसकी सफलता निर्भर करती है।
बहुत ही उम्दा लेख सर ! आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता लगातार बनी रहती है
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