प्रोन्नति
में आरक्षण
(Reservation
In Promotion)
1. प्रमोशन में आरक्षण से आशय
2. प्रमोशन में आरक्षण के तर्काधार
3. प्रमोशन में आरक्षण की दिशा में पहल
4. प्रमोशन में आरक्षण (अबतक):
a. इंदिरा साहनी वाद,1992
b. 77वें संविधान-संशोधन अधिनियम,1995
c. 85वाँ संविधान-संशोधन अधिनियम,2001
d. ई. वी. चेन्नैया वाद,2005
e.
एम. नागराज वाद
बनाम् भारत संघ,2006
5. क्रीमी लेयर
की अवधारणा और अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति
6. सुप्रीम
कोर्ट का निर्णय,2018:
a. समीक्षा
की पृष्ठभूमि
b. सर्वोच्च
अदालत का हालिया निर्णय
c. पक्ष
में तर्क
d. केंद्र सरकार का पक्ष
7. फैसले का विश्लेषण
प्रमोशन में आरक्षण से आशय:
सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं
अनुसूचित जनजाति समुदाय से आनेवाले लोगों के लिए आरक्षण के प्रावधान आरंभ से ही
हैं, पर आज भी सरकारी सेवाओं के विभिन्न स्तरों पर इस समुदाय के लोगों की भागीदारी
को देखें, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सरकारी सेवाओं में निचले स्तर पर
उनकी भागीदारी समुचित एवं पर्याप्त है, पर उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं की ओर बढ़ने
पर उनकी भागीदारी तेजी से कम होती चली जाती है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें प्रमोशन में आरक्षण की दिशा में पहल की
गयी और इसके जरिये उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित
जनजातियों की समुचित एवं पर्याप्त भागीदारी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया।
प्रमोशन में आरक्षण के
तर्काधार:
प्रत्यक्षतः देखें, तो उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समूह की अपर्याप्त भागीदारी का कारण इस समुदाय का सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से
पिछड़ा होना है। यह भारतीय समाज का सर्वाधिक पिछड़ा हुआ
समूह है जिसमें शिक्षा एवं साक्षरता का स्तर निम्न है और इसीलिए मानव-संसाधन विकास
की दृष्टि से भी यह समुदाय भारतीय समाज का सबसे अधिक पिछड़ा हुआ समुदाय है। इसके
अतिरिक्त अनु. 335 भी इसका एक महत्वपूर्ण कारण प्रतीत होता है जो राज्य से यह
अपेक्षा करता है कि वह वंचित समूह के लिए आरक्षण का प्रावधान करते हुए इस बात को
सुनिश्चित करे कि इसका प्रशासनिक दक्षता पर प्रतिकूल असर न पड़े। लेकिन, उच्च स्तर
की सरकारी सेवाओं में इस समूह के लोगों की भागीदारी के समुचित एवं पर्याप्त न हो
पाने के प्रश्न पर गहराई से विचार किया जाय, तो यह निष्कर्ष सामने आता है कि सरकारी
सेवाओं में प्रमोशन के सन्दर्भ में भी इस समुदाय के लोगों को कहीं-न-कहीं वर्णगत
और जातिगत रूढ़ियाँ और इस पर आधारित भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इन्हें या तो
प्रोन्नति मुश्किल से मिलती है, या फिर इनकी प्रोन्नति से सम्बद्ध मसले को लम्बे
समय तक टालने की कोशिश की जाती है और इसके लिए प्रशासनिक दक्षता का हवाला दिया
जाता है। दरअसल भारतीय सामाजिक व्यवहारों में जातिगत रूढ़ियाँ एवं जातिगत भेदभाव
इतने गहरे स्तर पर मौजूद हैं और इन्हें इस कदर व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता मिली
हुई है कि इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं प्रतीत होता है। इसलिए आवश्यकता सरकारी
नौकरी में प्रमोशन की स्पष्ट एवं पारदर्शी व्यवस्था को विकसित किये जाने की है
ताकि किसी को सिर्फ इसलिए प्रमोशन से वंचित न रह जाना पड़े कि वह जातिगत व्यवस्था
के निचले पायदान से आता है, या फिर वह सम्बद्ध उच्चाधिकारी की जातिगत सोच में फिट
नहीं बैठता है। जबतक ऐसे व्यवस्था विकसित नहीं हो जाती, तबतक प्रमोशन में आरक्षण
की जरूरत महसूस होती रहेगी।
प्रमोशन में आरक्षण की दिशा
में पहल:
अनुसूचित जाति एवं जनजाति
समुदाय से आनेवाले लोगों के लिए प्रमोशन
में आरक्षण की शुरुआत 1955 में हुई थी, लेकिन मंडल वाद,1992 में सुप्रीम कोर्ट के
द्वारा इसे असंवैधानिक करार दिया गया। सुप्रीम
कोर्ट के इस निर्णय के आलोक में ही तत्कालीन केंद्र सरकार के द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित
जनजाति से आनेवाले लोगों के लिए 77वें संविधान-संशोधन अधिनियम,1995 के जरिये
प्रमोशन में आरक्षण सुनिश्चित किया गया। बाद
में सन् 2006 में नागराज वाद में और सन् 2018 में एक मामले में दिए गए एक निर्णय
के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने इसकी शर्तों को निर्धारित करने की कोशिश की।
प्रमोशन में आरक्षण (अबतक)
इंदिरा साहनी वाद,1992:
सन् 1992 में इंदिरा साहनी वाद, जिसे मंडल वाद
के नाम से भी जाना जाता है, में सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण की संभावनाओं
को खारिज करते हुए कहा था कि आरक्षण की व्यवस्था केवल शुरूआती नियुक्ति के
समय होनी चाहिए। इसी आलोक में अदालत ने प्रमोशन में आरक्षण को सीमित सन्दर्भों
में अनुमति देते हुए कहा कि प्रोन्नति में कोई खास आरक्षण केवल पाँच वर्षों तक
लागू रह सकता है। इसी निर्णय में
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध
मामलों में क्रीमीलेयर की शर्त लागू नहीं होगी। इसी का नतीजा है कि इन दोनों
समुदाय के सभी लोगों को आरक्षण का फायदा मिलता आ रहा है।
77वें संविधान-संशोधन
अधिनियम,1995: प्रमोशन में
आरक्षण
इस अधिनियम के जरिये अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित
जनजाति के सन्दर्भ में प्रमोशन में आरक्षण से सम्बंधित मंडल वाद के निर्णय को
पलटने के लिए भारतीय संविधान में संशोधन किया गया और अनुच्छेद 16 में नई धारा (4a)
जोड़ते हुए एससी-एसटी समुदाय को सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण के रास्ते
में मौजूद अवरोधों को दूर किया गया। संशोधित प्रावधान के तहत् राज्य सेवाओं में
विभिन्न स्तरों पर समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने की स्थिति में
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय से सम्बद्ध सरकारी कर्मचारियों को
प्रमोशन में आरक्षण दिया जा सकता है। इस तरह मंडल वाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय
के कारण एससी/एसटी समुदाय के सन्दर्भ में सन् 1955 से चले आ रहे प्रमोशन में
आरक्षण के रास्ते में व्यवधान उत्पन्न होने की संभावना को निरस्त किया गया।
85वाँ संविधान-संशोधन
अधिनियम,2001: प्रोन्नति के मामले में परिणामी ज्येष्ठता का लाभ:
आगे चलकर 85वें संविधान-संशोधन अधिनियम,2001 के
जरिये अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध सरकारी कर्मचारियों को
प्रोन्नति के मामले में परिणामी ज्येष्ठता का लाभ देने का निर्णय भी लिया गया।
ई. वी. चेन्नैया वाद,2005:
2005 में ई. वी. चेन्नैया
मामले में पाँच जजों की बेंच की ओर से दिए गए फैसले में आंध्रप्रदेश की सरकार के
द्वारा एससी-एसटी समुदाय को क्रीमीलेयर और नॉन-क्रीमीलेयर में बाँटे जाने के
निर्णय को असंवैधानिक ठहराया गया था। इस मामले में कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी के
बारे में राष्ट्रपति के आदेश पर जारी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सूची
के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। इसमें सिर्फ संसद के द्वारा ही
कानून बनाकर संशोधन किया जा सकता है।
एम. नागराज वाद
बनाम् भारत संघ,2006:
एससी/एसटी समुदाय को मिलने वाले प्रमोशन में आरक्षण की
संवैधानिक वैधता को एम. नागराज ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। अक्टूबर,2006 में एम. नागराज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में
सुप्रीम कोर्ट के पाँच सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने यह फैसला दिया कि:
राज्य सरकारी नौकरी में पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित
जनजाति के लिए आरक्षण करने के लिए बाध्य नहीं है। हालाँकि, अगर वे अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए सरकारी नौकरी
में पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की
व्यवस्था करना चाहते हैं, तो अनुच्छेद 16 (4a) और 16 (4b) के तहत् ऐसा किया जा सकता है;
पर इसके लिए उन्हें कुछ शर्तों को
पूरा करना होगा:
1. इनके सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन से सम्बन्धित आँकड़ों की उपलब्धता
अपेक्षित: SC/ST समुदायों
को प्रमोशन में आरक्षण देने से पहले राज्यों पर इन समुदायों के पिछड़ेपन पर आँकड़े
उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है। इसीलिए ऐसा
करने से पहले सरकार को उन आँकड़ों को जुटाना होगा जो यह दिखा सके कि समाज का यह
तबका कितना पिछड़ा रह गया है और सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर पर इनके पिछड़ेपन
की क्या स्थिति है?
2. विभिन्न स्तरों पर सरकारी नौकरी में समुचित एवं पर्याप्त
प्रतिनिधित्व न होने से सम्बंधित आँकड़ों को उपलब्धता अपेक्षित: राज्यों
को इससे सम्बंधित आँकड़ा भी उपलब्ध करवाना होगा कि विभिन्न स्तरों पर सरकारी
नौकरियों में उनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के बारे में फैक्ट भी मौजूद कराने की
जिम्मेदारी राज्यों की है।
3. प्रशासनिक दक्षता का ख्याल रखा जाना: इस समुदाय के
लोगों को प्रमोशन में आरक्षण देते हुए अनु. 335 में उल्लिखित संवैधानिक अपेक्षाओं
को ध्यान में रखा जाएगा, अर्थात् ऐसा करते हुए प्रशासनिक दक्षता का ख्याल रखा जाएगा
और इस बात को सुनिश्चित किया जाएगा कि इसका प्रशासनिक दक्षता पर प्रतिकूल असर न पड़े।
इसके मद्देनज़र राज्य सरकार को इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि अगर इनको प्रमोशन
में आरक्षण मिलता है, तो इस पहल का सरकार के कामकाज पर क्या फर्क पड़ेगा।
4. 'क्रीमीलेयर' का सिद्धांत लागू नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि
सरकारी नौकरियाँ कर रहे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध
लोगों को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करते हुए क्रीमीलेयर' के सिद्धांत को लागू
नहीं किया जा सकता है।
5. पचास प्रतिशत की सीमा का अनुपालन अपेक्षित: अदालत ने यह भी
कहा कि यदि प्रमोशन में आरक्षण के सन्दर्भ में राज्य के पास पर्याप्त कारण मौजूद
हैं, फिर भी उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि:
a. किसी भी स्थिति में प्रमोशन में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से
ज्यादा नहीं हो,
b. क्रीमी लेयर को इसका लाभ न मिले, और
c. आरक्षण अनिश्चित अवधि तक जारी न रहे।
स्पष्ट है कि इंदिरा साहनी(II) वाद और एम.
नागराज वाद,2006 में अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि प्रोन्नति में आरक्षण तभी दिया
जा सकता है जब इसको न्यायोचित ठहराने के लिए पर्याप्त साक्ष्य एवं आँकड़े उपलब्ध
हों। इसके लिए सुप्रीम
कोर्ट ने सेवाओं में समुचित पर्याप्त
प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के क्रम में प्रशासनिक दक्षता सुनिश्चित करने की
आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि कोटा देने से पहले लाभार्थियों के सामाजिक एवं
शैक्षिक पिछड़ेपन के साथ-साथ उनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के सन्दर्भ में उनकी
स्थिति का अध्ययन करवाया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय,2018
समीक्षा की पृष्ठभूमि:
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद कई राज्य सरकारों ने बिना
आँकड़ा जुटाए ही प्रमोशन में आरक्षण देना जारी रखा। इसी आधार पर सन् 2010 में
राजस्थान हाईकोर्ट ने राज्य में एससी/एसटी समुदाय को मिलने वाले प्रमोशन में
आरक्षण पर रोक लगा दी। इसके बाद सन् 2011
में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी पदोन्नति में आरक्षण के उत्तरप्रदेश सरकार के फैसले
को रद्द कर दिया था; फिर भी तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने दलित समुदाय को
प्रमोशन में आरक्षण दिया, हालाँकि 2012 में यूपी में सत्ता में आई सपा सरकार ने
एससी/एसटी समुदाय को प्रमोशन में आरक्षण के पूर्ववर्ती सरकार के निर्णय से अपने हाथ
खींच लिए। आगे चलकर मध्यप्रदेश सरकार ने भी प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगा दी थी। यही
वह पृष्ठभूमि है जिसमें दलित समुदाय के लोगों ने प्रमोशन में आरक्षण के प्रावधान
को अप्रासंगिक बनाये जाने की इन कोशिशों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की और
फिर सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला आया है।
सर्वोच्च अदालत का हालिया निर्णय:
सितम्बर,2018 में सरकारी नौकरियों में
प्रमोशन के मामले में SC/ST आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच
सदस्यीय संववैधानिक पीठ ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय के लिए सरकारी
नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण के पक्ष में अपना निर्णय तो सुनाया, पर एम. नागराज मामले में
दिए गए अपने निर्णय को सात सदस्यीय संवैधानिक बेंच
को रेफर करने के याचिकाकर्ता के आग्रह को ठुकराते हुए कहा कि नागराज
जजमेंट को सात जजों को रैफर करने की जरूरत नहीं है। न्यायालय
ने केंद्र सरकार की यह अर्जी भी खारिज कर दी कि एससी-एसटी को आरक्षण दिए जाने में
उनकी कुल आबादी पर विचार किया जाए। इस निर्णय के
प्रमुख पहलुओं को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. प्रमोशन में आरक्षण के मसले
को राज्य सरकारों पर छोड़ना: संविधान-पीठ ने सरकारी नौकरियों में प्रमोशन को लेकर एम. नागराज
मामले में दिए गए अपने फैसला को ही दुहराया। उसमें सीधे तौर पर प्रमोशन में आरक्षण
को खारिज नहीं किया गया है और इस मामले को राज्यों पर छोड़ते हुए कहा कि अगर राज्य
सरकारें चाहे, तो वे प्रमोशन में आरक्षण दे सकती हैं।
2. पूर्व निर्धारित शर्तों में
छूट: इनके पिछड़ेपन से सम्बंधित आँकड़ों को जुटाने की जरूरत नहीं: इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य
सरकारों को नागराज मामले में निर्धारित शर्तों से छूटें देते हुए कहा कि एससी-एसटी
कर्मचारियों को नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए राज्य सरकारों को इनके पिछड़ेपन और सार्वजनिक रोजगार में इनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व
को दर्शाने वाले मात्रात्मक आँकड़ों को एकत्र करना जरूरी नहीं है। अदालत का
यह मानना है कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक क्षमता मापने का काम सरकार पर
छोड़ा जाना चाहिए। अदालत ने नागराज
माले में दिए गए निर्णय के इस पहलू को इंदिरा साहनी वाद,1992 में नौ सदस्यीय
संवैधानिक बेंच के द्वारा दिए गए निर्णय के प्रतिकूल माना।
3. विशेष सेवा में अपर्याप्त
प्रतिनिधित्व से सम्बंधित आँकड़े की अनिवार्यता और प्रशासनिक दक्षता वाले तर्क
यथावत: अदालत ने 2006 के अपने फैसले में तय की गई उन
दो शर्तों पर टिप्पणी नहीं की जो प्रमोशन में एससी-एसटी के प्रतिनिधित्व की
पर्याप्तता और प्रशासनिक दक्षता को नकारात्मक तौर पर प्रभावित नहीं करने से जुड़े
थे।
4. कॉडर
विशेष में SC/ST को
प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए आँकड़ों की उपलब्धता अपेक्षित: सुप्रीम
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्यों को अब भी यह दिखाने के लिए, कि इस
समुदाय को इसमें समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, आँकड़ों
को प्रस्तुत करना होगा और यह आँकड़ा तत्संबंधित कैडर से सम्बद्ध होना चाहिए। अदालत
ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे डाटा-संग्रह कुल पदों के आधार पर होने चाहिए, न कि
विशेष कैडर से सम्बंधित। इनकी जाँच अदालत के द्वारा की जा सकती है।
5. SC/ST के
लिए भी प्रमोशन में आरक्षण के सन्दर्भ में क्रीमीलेयर की अवधारणा लागू की जानी
चाहिए, पर इस मसले पर निर्णय संसद ले: अपने इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की
कि प्रमोशन में आरक्षण के सन्दर्भ में SC/ST पर भी क्रीमी लेयर का नियम लागू किया जा सकता है,
ताकि जिन लोगों को इसका लाभ मिल चुका है और जो इसका लाभ उठाकर अपेक्षाकृत बेहतर
स्थिति में पहुँच चुके हैं, उन्हें इसके लाभों से वंचित किया जा सके। इससे वांछित समूह
तक प्रमोशन में आरक्षण के लाभों को पहुँचा पाना संभव हो सकेगा। लेकिन, SC/ST के सन्दर्भ में क्रीमी
लेयर की संकल्पना को लागू करने या न करने का निर्णय खुद देने की बजाय अदालत ने इस
काम को संसद के ऊपर छोड़ा।
अदालत के अनुसार, आरक्षण का उद्देश्य यह
सुनिश्चित करना है कि पिछड़े वर्ग के लोग आगे बढ़ते रहें ताकि वे देश के अन्य
नागरिकों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर आगे बढ़ सकें और ऐसा तबतक संभव नहीं होगा जबतक सार्वजनिक
क्षेत्र में आरक्षित रोजगार का लाभ आरक्षित समूह के उन लोगों तक सिमटकर रह जाए जो
आर्थिक दृष्टि से बेहतर स्थिति में हैं और क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते हैं। अदालत का यह भी कहना था
कि अनुसूचित जाती एवं अनुसूचित जनजाति के सन्दर्भ में क्रीमी लेयर का सिद्धांत
लागू करते वक़्त अदालत संविधान के अनु. 341-342 के तहत् तैयार सूची में किसी भी तरह
से छेड़-छाड़ नहीं कर रहा है क्योंकि इस सूची में शामिल समूह या उप-समूह तब भी उस
सूची में बने रहेंगे और उन्हें इसका लाभ मिलता रहेगा। इसका मतलब सिर्फ यह होगा कि जो भी लोग आर्थिक बेहतरी के कारण छूआछूत
एवं पिछड़ेपन की स्थिति से बाहर आ चुके हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पायेगा।
न्यायालय
ने यह फैसला उन अर्जियों पर सुनाया जिसमें माँग की गई थी कि सात सदस्यों की पीठ
2006 के उस अदालती फैसले पर फिर से विचार करे जिसमें एससी-एसटी कर्मचारियों को
नौकरियों में तरक्की में आरक्षण का लाभ दिए जाने के लिए शर्तें तय की गई थीं। ध्यातव्य है कि याचिकाकर्ता ने एम. नागराज मामले में सुप्रीम
कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर की थी।
पक्ष में तर्क:
आरक्षण-विरोधियों ने एम. नागराज फैसले
को सही ठहराते हुए कहा था कि उस फैसले में पाँच सदस्यीय संविधान-पीठ के द्वारा दी
गई व्यवस्था सही कानून है। उनका कहना था कि आरक्षण हमेशा के लिए नहीं है, ऐसे में पिछड़ेपन के आँकड़े
जुटाए बगैर यह कैसे पता चलेगा कि सरकारी नौकरियों में एससी/एसटी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व
नहीं है और इसलिए इन्हें प्रोन्नति में आरक्षण देने की जरूरत है।
केंद्र सरकार का पक्ष:
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि अक्टूबर,2006
में एम. नागराज मामले में उसका फैसला ST/SC कर्मचारियों के प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने में बाधक बन रहा
है, लिहाजा इस फैसले पर फिर से विचार की ज़रूरत है। यह सच है कि कुछ लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हो गए हैं,
परंतु आर्थिक बेहतरी के बावजूद उनका सामाजिक पिछड़ापन अब भी बना हुआ है। इसी आलोक में केंद्र सरकार का यह कहना था कि क्रीमी लेयर को
प्रमोशन के आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि संविधान में SC/ST को पिछड़ा ही माना गया है। इसी आधार पर केंद्र ने प्रमोशन में आरक्षण के लिए पिछड़ेपन से
सम्बंधित आँकड़ा जुटाए जाने की अनिवार्यता का भी विरोध करते हुए यह तर्क दिया कि
चूँकि संविधान में SC/ST
को पिछड़ा ही माना गया
है, केंद्र इसलिए इस वर्ग के पिछड़ेपन और सार्वजनिक रोजगार में उस वर्ग के
प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता दिखाने वाला मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की जरूरत
नहीं है।
फैसले का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रमोशन में
आरक्षण के रस्ते में मौजूद एक महत्वपूर्ण अवरोध को दूर तो किया, पर वर्तमान
राजनीतिक माहौल में विद्यमान सामाजिक तनाव को गहराने का भी काम किया। पिछले कुछ वर्षों के दौरान आरक्षण-विरोधियों
की सक्रियता एक बार फिर से बढ़ी है और वे इसके विरोध को लेकर कहीं अधिक मुखर हुए
हैं। उन्होंने आरक्षण को
समाप्त करने और उसे अप्रासंगिक बनाने के लिए ऐसे आन्दोलनों की दिशा में भी पहल की
है जिनकी प्रकृति अस्पष्ट है और जो दोहरे एवं परस्पर विरोधी माँगों के साथ सामने आ
रहे हैं: या तो आरक्षण समाप्त करो, या फिर हमें भी आरक्षण का लाभ दो। जाटों एवं
गुर्जरों से लेकर पटेलों एवं मराठों तक के आंदोलनों को इस परिप्रेक्ष्य में देखा
जा सकता है।
आरक्षण को लेकर गर्माती राष्ट्रीय राजनीति की
पृष्ठभूमि में प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर केद्र सरकार के द्वारा अपनाया गया
रवैया और सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय आरक्षण-विरोधी समूहों के लिए एक झटका है
जिसके प्रभाव को अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम पर
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के सन्दर्भ में केंद्र सरकार के द्वारा अपनाये गए रुख के
परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित
जनजाति समुदाय के लोगों के
लिए राहत प्रदान करने वाला है जो प्रमोशन में आरक्षण के लाभों से वंचित रहने को
लेकर आशंकित थे। अबतक राज्य
सरकारें एम. नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देती हुई प्रमोशन
में आरक्षण से बच निकलती थी और परोक्षतः अपने वोटबैंक को तुष्ट करने की कोशिश करती
थी, पर इस फैसले के बाद उनके लिए ऐसा कर पाना मुश्किल होगा। लेकिन, इस निर्णय में
सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर की संकल्पना को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के
सन्दर्भ में लागू करने की ओर जो इशारा किया है, उसके कारण वे आशंकित भी हैं और
इसके कारण आगे भी प्रमोशन में आरक्षण पर क्रीमीलेयर की तलवार लटकी रहेगी।
जहाँ तक इस निर्णय के औचित्य का प्रश्न
है, तो आरक्षण के पक्ष में ऐतिहासिक अन्याय के निवारण और समान प्रतिस्पर्द्धात्मक
वातावरण सृजित करने के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड के सृजन तक पिछड़े वर्ग के लिए विशेष
उपबंध का जो तर्क दिया जाता है, वह तर्क प्रमोशन में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता के
संदर्भ में कमजोर पड़ जाता है। सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय, तो न तो प्रशासनिक
दक्षता के मद्देनज़र और न ही सरकारी कार्यालयों में स्वस्थ कामकाजी वातावरण के
मद्देनज़र यह उचित है कि आरक्षण का लाभ उठाकर सरकारी सेवा में शामिल होने वाले लोगों
को प्रोन्नति में भी आरक्षण प्रदान किया जाय। इसके उलट उनसे यह अपेक्षा की जानी
चाहिए कि वे अपनी योग्यता एवं प्रतिभा के दम पर अपने लिए प्रमोशन सुनिश्चित करें।
सैद्धांतिक नजरिये से ये सारी बातें और ये सारे तर्क अपनी जगह पर उचित ही हैं, पर
व्यावहारिक नजरिया कुछ और ही संकेत करता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जातिगत
भेदभाव की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं और ऐसी स्थिति में समरस सामाजिक ढाँचे के अभाव
के कारण पिछड़े एवं वंचित समूह से आनेवाले लोगों के साथ प्रोन्नति में भेदभाव और प्रोन्नति
के समुचित एवं पर्याप्त अवसर न मिल पाने की संभावना को पूरी तरह से ख़ारिज नहीं
किया जा सकता है। इसीलिए आवश्यकता प्रोन्नति के लिए ऐसे स्पष्ट एवं पारदर्शी मैकेनिज्म
के विकास को सुनिश्चित करने की है जो हाशिये पर के समाज और हाशिये पर के समूह से
आनेवाले लोगों के लिए प्रोन्नति में समुचित एवं पर्याप्त अवसर की उपलब्धता सुनिश्चित
कर सके और प्रोन्नति के क्रम में उनके साथ होनेवाले भेदभाव पर प्रभावी तरीके अंकुश
लगा पाने एवं इसके लिए दोषियों को दण्डित कर पाने में समर्थ हो। इसके लिए आवश्यकता
ऐसी संवेदनशील मानव-संसाधन नीति की है जो पिछड़े वर्ग से आने वाले लोगों को उनका
वाजिब हक़ दिला सके, उनके साथ उनकी योग्यता एवं प्रतिभा के अनुरूप न्याय को
सुनिश्चित कर सके और जो लोग इस रास्ते में अवरोध उत्पन्न करते हैं, अर्द्ध-विधिक कार्यवाही के जरिये उनके विरुद्ध
कार्यवाही को सुनिश्चित किया जा सके। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि
अबतक ऐसे मैकेनिज्म का विकास संभव नहीं हो सका है जो क्षमता एवं दक्षता के अनुरूप
प्रोन्नति को सुनिश्चित कर सके और प्रोन्नति के क्रम में भेदभाव पर प्रभावी तरीके
से अंकुश लगा सके, इसीलिए ऐसा नहीं होने तक प्रोन्नति में आरक्षण मजबूरी है।
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