केन्द्रीय सूचना आयोग से सम्बंधित विवाद
1. केन्द्रीय सूचना आयोग से सम्बंधित विवाद:
a. सूचना आयोग का महत्व
b. वर्तमान स्थिति
c. राज्य सूचना आयोग का वर्तमान परिदृश्य
d. आयोग की स्वायत्तता को सीमित करने की
कोशिश
e. आयोग पर सरकार का बढ़ता दबाव
2. प्रस्तावित सूचना का
अधिकार (संशोधन) विधेयक,2018:
a. सूचना आयोग का महत्व
b. बदलाव की पृष्ठभूमि
c. प्रस्तावित संशोधन
d. सरकार का तर्क
e. बदलाव का औचित्य
f.
विश्लेषण
सूचना आयोग का महत्व:
सूचना का अधिकार कानून के तहत् सूचना आयोग सूचना हासिल करने की दृष्टि से सर्वोच्च संस्थान है, यद्यपि उसके फैसले को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में
चुनौती दी जा सकती है। इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत् आवेदक सबसे
पहले तत्संबंधित सरकारी विभाग के लोक सूचना अधिकारी के पास आवेदन करता है। अगर 30 दिनों में उसे वहाँ से जवाब नहीं मिलता है, तो वह प्रथम
अपीलीय अधिकारी के पास अपना आवेदन भेजता है और अगर वहाँ से भी उसे 45 दिनों के
भीतर जवाब नहीं मिलता है, तो वह राज्य सूचना आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग की शरण
लेता है। सतर्क नागरिक संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल लगभग (60-80) लाख लोग सूचना का अधिकार
अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए जानकारी के लिए आवेदन करते हैं।
वर्तमान स्थिति:
सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को लेकर कितनी
गंभीर है और इससे सम्बंधित संस्थाओं को मज़बूती प्रदान करने की कितनी गंभीर कोशिश
कर रही है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि मई,2014 से शासन संभाले
लगभग साढ़े चार साल होने को हैं, पर अभीतक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट के तमाम दबावों के बावजूद
किसी-न-किसी बहाने सरकार अबतक इसको टालती रही है। यह कोई अपवाद नहीं है, वरन् यह
ट्रेंड है। इतना ही नहीं, हाल में उन संस्थानों और उन कानूनों पर हमले लगातार बढ़े हैं जिन पर पारदर्शिता
और जवाबदेही को सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी है। भ्रष्टाचार और
अनियमितता उजागर करने के कारण आरटीआई कार्यकर्ताओं और ह्विसिल ब्लोअरों पर लगातार
हमले हो रहे हैं, फिर भी न तो ह्विसिल ब्लोअर सुरक्षा अधिनियम को लागू किया गया और
न ही लोकपाल की नियुक्ति की गई। यह स्थिति
तब है जब नवम्बर,2012 में नमित शर्मा मामले
में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि रिक्तियाँ
सृजित होने के कम-से-कम तीन महीने पहले सूचना आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया शुरू
हो जानी चाहिए। यहाँ तक कि इस सरकार के कार्यकाल के दौरान 24 नवम्बर को मुख्य
सूचना आयुक्त आर. के. माथुर के सेवानिवृत्त होने के बाद केन्द्रीय सूचना आयोग तीसरी बार बिना मुख्य सूचना आयुक्त के
काम कर रहा है। कोर्ट के हस्तक्षेप के बिना मई,2014 से अबतक के
अपने कार्यकाल के दौरान इस सरकार ने एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है और हालत यहाँ तक पहुँच चुके हैं कि सन् 2016 से अबतक केंद्र सरकार ने
केंद्रीय सूचना आयोगों में रिक्तियों के बावजूद एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं
की है और दिसम्बर,2018 के पहले सप्ताह के उत्तरार्द्ध से ग्यारह सदस्यीय केंद्रीय सूचना आयोग महज़ तीन सूचना आयुक्तों
के भरोसे चल रहा है। मतलब यह कि केन्द्रीय सूचना आयोग में रिक्तियों की संख्या आठ तक
पहुँच चुकी है और सरकार इसका जवाब देने के लिए तैयार नहीं है, शायद इसलिए कि पिछले
साढ़े चार वर्षों के दौरान केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने निर्देशों के जरिये केंद्र
सरकार को लगातार मुश्किलों में डाला है और इसके कारण उसकी किरकिरी हुई है।
राज्य सूचना आयोग का वर्तमान परिदृश्य:
ऐसा नहीं कि सूचना आयोग के सन्दर्भ में यह स्थिति केन्द्रीय सूचना
आयोग तक सीमित है। दरअसल
किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो, सूचनाओं और सूचना आयोग के प्रति उसका रवैया लगभग
मिलता-जुलता है। जहाँ आंध्र प्रदेश का राज्य सूचना आयोग अब भी एक
अदद सूचना आयुक्त की प्रतीक्षा कर रहा है, वहीं गुजरात, महाराष्ट्र और नागालैंड जैसे राज्यों में राज्य सूचना
आयोग को अब भी मुख्य सूचना-आयुक्त की प्रतीक्षा है और उन्हें उनके बिना ही काम
चलाना पड़ रहा है। एक ओर
सूचना आयोग के पास आवेदनों की भरमार है जिनके समयबद्ध निपटारे की अपेक्षा उनसे है,
दूसरी ओर केरल, तेलंगाना एवं पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे
राज्यों में राज्य सूचना आयोग क्रमशः 1, 2 और 3 सूचना-आयुक्तों के भरोसे चल रहे
हैं। महाराष्ट्र एवं
कर्नाटक सहित अन्य राज्यों में भी स्थिति बेहतर नहीं है और वहाँ पर सूचना आयोग को
भारी मात्रा में रिक्तियों की चुनौती से जूझना पड़ रहा है। सूचना-आयुक्तों की नियुक्ति नहीं होने की वजह से सूचना आयोगों में
लंबित अपीलों और शिकायतों की संख्या बढ़ती जा रही है।
आयोग की स्वायत्तता को सीमित
करने की कोशिश:
इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने अब
केन्द्रीय सूचना आयोग की स्वायत्तता को भी अपने तरीके से सीमित करने की दिशा में
पहल की, ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके और उसके निर्णयों को प्रभावित किया जा सके।
इसके लिए उसने मानसून-सत्र,2018 में सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 में संशोधन करते
हुए सूचना आयुक्तों के वेतन-भत्ते एवं पदावधि की शक्ति अपने हाथों में लेने कीई
दिशा में पहल की, जिसने नए सिरे से विवाद को जन्म दिया। यद्यपि व्यापक विरोध के
मद्देनज़र सरकार को इसमें संशोधन का अपना इरादा बदलना पड़ा, तथापि इससे उसके मकसद का
संकेत तो मिल ही जाता है।
आयोग पर सरकार का बढ़ता दबाव:
दिसम्बर,2018 में पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त एम. श्रीधर आचार्युलू ने
राष्ट्रपति का ध्यान केंद्र सरकार की ओर से उत्पन्न उन चुनौतियों की ओर आकृष्ट
किया है जिसका सामना केन्द्रीय सूचना आयोग को करना पड़ रहा है। उन्होंने उस उभरते
ट्रेंड की ओर इशारा किया जिसके तहत् सरकारी संस्थान सूचना के अधिकार कानून के तहत्
सूचना माँग रहे नागरिकों और इसके मद्देनज़र सूचनाओं को उपलब्ध करवाने से सम्बंधित निर्देश
जारी करने वाले केन्द्रीय सूचना
आयोग(CIC) के खिलाफ रिट याचिकाएँ दायर
कर रहे हैं और इसके जरिये उन्हें डराने-धमकाने के साथ-साथ उन पर दबाव बनाने की
कोशिश कर रहे हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग के खिलाफ ऐसी
ही लगभग 1,700 रिट याचिकाएँ दायर की गई है, जिनमें से ज्यादातर, सरकार और आरबीआई आदि जैसे उसके संस्थानों द्वारा दायर की गई हैं। इन याचिकाओं के
जरिये भारत संघ या इससे सम्बद्ध संस्थान केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेशों को यह
कहते हुए चुनौती देता है कि एक सरकारी कर्मचारी की शैक्षणिक योग्यता, उनकी निजी
जानकारी और उसका खुलासा करना उनकी गोपनीयता का अनुचित अतिक्रमण है; इसीलिए आयोग का
यह निर्देश अवैधानिक है और इसे रद्द किया जाय। सूचना आयोग ने
जानबूझकर कर्ज नहीं चुकाने वालों के नामों का खुलासा करने के सुप्रीम कोर्ट के
आदेशों का पालन करने को लेकर रिजर्व बैंक को आदेश दिया था जिसके विरुद्ध रिज़र्व
बैंक ने न्यायलय की शरण ली और बाद में न्यायालय ने सूचना आयोग के उस आदेश को
बरक़रार रखा। उन्होंने ‘सार्वजनिक भागीदारी
के खिलाफ रणनीतिक मुकदमें’ (SLAAP) की वैश्विक प्रवृत्ति की
ओर इशारा करते हुए कहा कि ऐसे मुकदमें का मकसद जीतना नहीं,
बल्कि किसी संगठन या एक व्यक्ति के खिलाफ बोलने वाले लोगों एवं संस्थाओं को
प्रताड़ित और भयभीत करना है ताकि उसे ऐसा करने से रोका जा सके।
प्रस्तावित
सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक,2018
बदलाव की पृष्ठभूमि:
सन् 2005 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने
सूचना का अधिकार अधिनियम को अंतिम रूप दिया था, लेकिन लगातार प्रकाश में आते भ्रष्टाचार
के मामले ने जो दबाव निर्मित किया, जिस तरीके से इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत्
तमाम जानकारियाँ हासिल करने की कोशिश की गयी और इन जानकारियों के कारण सरकार एवं
प्रशासन विभिन्न मोर्चों पर जिस तरह घिरते दिखे, उसके कारण अधिकारियों में भय का
माहौल सृजित हुआ जिससे निर्णय-प्रक्रिया बाधित हुई। इस क्रम में कई बार आरटीआई के
प्रावधानों का दुरूपयोग करते हुए इसका इस्तेमाल अधिकारियों को परेशान करने के लिए
किया जाने लगा। इसने एक ऐसे माहौल को सृजित किया जिसमें आरटीआई को विकास-अवरोध के
रूप में देखा जाने लगा और यूपीए सरकार के समय ही इसमें संशोधन की बात की जाने लगी।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें वर्तमान में आरटीआई अधिनियम में केंद्र सरकार के
द्वारा सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्तों एवं कार्यकाल में प्रस्तावित बदलावों को
देखा जाना चाहिए।
प्रस्तावित संशोधन:
हाल में
सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 में संशोधन कर केंद्रीय सूचना-आयुक्तों और राज्य सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्ते और
कार्यकाल से सम्बंधित प्रावधानों में परिवर्तन की पहल की गयी और मानसून-सत्र में
इससे सम्बंधित एक आरटीआई संशोधन बिल राज्यसभा में पेश किया गया, हालाँकि भारी
विरोध के चलते फिलहाल संशोधन-प्रस्ताव को ठण्डे बसते में डाल दिया गया है।
प्रस्तावित संशोधनों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. सूचना-आयुक्तों
के कार्यकाल में प्रस्तावित बदलाव: सरकार सूचना आयुक्तों के कार्यकाल में भी बदलाव
करने की तैयारी में है। इस अधिनियम के अनु.
13 और
अनु. 16 में लिखा है कि कोई भी सूचना-आयुक्त पाँच साल के लिए
नियुक्त होगा और वह 65 साल की उम्र तक पद पर रहेगा, लेकिन
संशोधन बिल में ये प्रावधान है कि अब से केंद्र सरकार यह तय करेगी कि केंद्रीय
सूचना-आयुक्त(CIC) और राज्य सूचना आयुक्त(SIC) कितने साल के लिए पद पर रहेंगे।
2. वेतन
एवं भत्तों से सम्बंधित प्रावधानों में प्रस्तावित परिवर्तन: आरटीआई एक्ट की धारा
13 एवं धारा 15 में केंद्रीय सूचना-आयुक्त और राज्य सूचना-आयुक्तों का वेतन,
भत्ता और अन्य सुविधाएँ निर्धारित करने की व्यवस्था दी गई है। इसके अनुसार:
a. मुख्य सूचना-आयुक्त को
मुख्य चुनाव-आयुक्त के समान वेतन, भत्ता
और अन्य सुविधायें दी जायेंगी।
b. इसी तरह केंद्रीय
सूचना आयोग के सूचना-आयुक्तों और राज्य सूचना-आयुक्तों का वेतन चुनाव-आयुक्तों को दिए जाने वाले वेतन के समान
होंगे।
c. चूँकि मुख्य चुनाव-आयुक्त
और चुनाव-आयुक्त का वेतन सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होता है, इसीलिए संसद
द्वारा निर्धारित के अनुरूप मुख्य सूचना-आयुक्त, सूचना-आयुक्त और राज्य सूचना-आयुक्त
वेतन, भत्ता एवं अन्य सुविधाओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के बराबर हो जाते
हैं।
3. निजता
वाले प्रावधान में परिवर्तन: जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा समिति ने आरटीआई कानून के निजता वाले प्रावधान में
परिवर्तन का सुझाव दिया है और इन्हीं सुझावों के आलोक में निजी डाटा
संरक्षण विधेयक, 2018 का मसौदा तैयार किया गया है। मसौदा विधेयक आरटीआई
कानून की धारा 8(1) (J) में संशोधन की बात करता है। सूचना
का अधिकार(RTI) अधिनियम की धारा 8(1J) ऐसी सूचना के खुलासे से छूट देता है जो:
a. निजी सूचना से
संबंधित है, और
b. जिसके खुलासे से
किसी सार्वजनिक गतिविधि या हित का कोई संबंध नहीं है, या
c. जिससे व्यक्ति की
निजता का अवांछित उल्लंघन होगा।
इसमें कहा गया है कि जबतक केंद्रीय लोक सूचना
अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी या अपीलीय प्राधिकार जैसा भी मामला हो, इससे संतुष्ट न हो कि ऐसी सूचना के खुलासे में व्यापक
जनहित है, तबतक इस तरह की किसी भी जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
सरकार का तर्क:
सरकार का कहना है कि “चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 की धारा (1) के तहत एक संवैधानिक संस्था है, वहीं केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना
आयोग सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 के तहत् स्थापित एक
सांविधिक संस्था है। चूँकि दोनों
अलग-अलग तरह की संस्थाएँ हैं और दोनों के काम अलग-अलग हैं, इसलिए इनका कद और
सुविधाएँ उसी आधार पर तय की जानी चाहिए।” इसी आलोक में सरकार सूचना-आयुक्तों के वेतन एवं
भत्तों से सम्बंधित प्रावधान में संशोधन कर इसके निर्धारण की जिम्मेवारी अपने
हाथों में लेना चाहती है।
जहाँ तक निजी डाटा
संरक्षण विधेयक,2018 के मसौदे और इसके सूचना
का अधिकार अधिनियम पर प्रभाव की बात है, तो सरकार निजता के अधिकार और सूचना के
अधिकार अधिनियम में संशोधन से सम्बंधित जस्टिस बीएन
श्रीकृष्णा समिति के सुझाव का हवाला
देती हुई इसे जस्टिफाई करने की कोशिश कर रही है।
बदलाव का औचित्य:
यद्यपि प्रस्तावित संशोधन विधेयक से वर्तमान सूचना-आयुक्तों पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्हें वैधानिक संरक्षण प्राप्त है क्योंकि कानूनन उनकी पदावधि के
दौरान वेतन, भत्तों और सेवा-शर्तों में किसी भी प्रकार का अलाभकारी परिवर्तन नहीं
किया जा सकता है, लेकिन प्रस्तावित संशोधन केंद्रीय और राज्य सूचना आयोग की
स्वतंत्रता को प्रभावित करेंगे जिससे सूचना आयोग एक कमजोर संस्था में तब्दील होकर
रह जायेगी और उसके लिए केंद्र सरकार पर दबाव बना पाना मुश्किल होगा। ये संशोधन आरटीआई
एक्ट, 2005 के मूल उद्देश्य को ही खत्म कर देंगे। इन बदलावों को निम्न सन्दर्भों में
प्रश्नांकित किया जाना चाहिए:
1. सम्बद्ध हित-समूहों से सलाह-मशविरा नहीं: सरकार
सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्तों के साथ-साथ उसकी पदावधि-संबंधी प्रावधानों में संशोधन
करना चाह रही है, लेकिन इस क्रम में न तो सूचना-आयुक्तों से कोई सलाह-मशविरा नहीं
किया गया है और न ही आम जनता की राय जानने की कोशिश की गयी।
2. संघवाद
की भावना के प्रतिकूल: प्रस्तावित संशोधन संघवाद की भावनाओं के भी प्रतिकूल हैं क्योंकि संविधान
में केंद्र और राज्य सरकार के बीच शक्तियों का बँटवारा किया गया है और इसके
मुताबिक केंद्र राज्य-सूची के विषय पर क़ानून नहीं बना सकती है। यही कारण है कि
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में राज्यों की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए
उन्हें राज्य मुख्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिए अधिकृत किया गया, लेकिन संशोधन विधेयक,2018 उनको ये अधिकार नहीं देता
है। प्रस्तावित संशोधन-विधेयक में कहा गया है कि
केंद्र राज्य सूचना आयुक्तों की वेतन-भत्तों और कार्यकाल का निर्धारण करेगा।
3. नियंत्रण
एवं संतुलन की संवैधानिक अवधारणा के प्रतिकूल: इस संशोधन-विधेयक
के जरिए कार्यपालिका संसद और राज्य विधानमंडल से सूचना आयुक्तों के वेतन-भत्ते एवं पदावधि के निर्धारण के अधिकार को भी
छीनना चाहती है जो नियंत्रण एवं संतुलन की संवैधानिक अवधारणा को भी कमजोर करेगा।
4. संस्थाओं
की स्वतंत्रता, निष्पक्षता एवं स्वायत्तता पर प्रतिकूल प्रभाव: जब इस अधिनियम को
अंतिम रूप दिया जा रहा था, तो इसे विचार-विमर्श के लिए संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था। स्थायी समिति ने सूचना आयुक्तों के वेतन के
मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए कहा था कि “सूचना आयोग इस अधिनियम का महत्वपूर्ण
अंश है और उस पर अधिनियम के विधायी प्रावधानों को लागू करने की जिम्मेवारी है, इसीलिए
जरूरी है कि सूचना आयोग अत्यंत स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करे।” इसी आलोक में लिए समिति
के इस सुझाव को संसद ने स्वीकार किया कि “सूचना आयोग की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता
को ध्यान में रखते हुए सूचना आयुक्तों का कद मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त
के बराबर होना चाहिए।”
5.
केन्द्रीय सूचना आयोग को चुनाव-आयोग
से कम महत्वपूर्ण मानना सूचना की अहमियत की अनदेखी: सुप्रीम कोर्ट ने
जानने के अधिकार को वोट देने के अधिकार के समकक्ष माना है और इसे मौलिक अधिकार का
दर्ज़ा दिया है। इस पर भारतीय संविधान के अनु. 19(1a) को लागू करवाने की जिम्मेवारी होती है, ऐसी स्थिति में इसे चुनाव आयोग से
अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण मानना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
6.
निजी डेटा की प्रस्तावित परिभाषा
अस्पष्ट और असीमित: ऐसा माना जा रहा कि चूँकि निजी डेटा की प्रस्तावित परिभाषा बहुत
व्यापक, अस्पष्ट विस्तृत और असीमित है, इसीलिए प्रस्तावित परिवर्तन
से भ्रष्ट अधिकारियों को सार्वजनिक जाँच से बचने का मौका मिलेगा।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि स्वतंत्र रूप से निगरानी रखने वाली संस्थाओं की
स्वतंत्रता, निष्पक्षता एवं स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए उन्हें संवैधानिक
संस्थाओं के बराबर दर्जा दिया जाता है ताकि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष रहकर अपने
वैधानिक दायित्वों का निर्वहन कर सकें। सूचना आयुक्तों के सन्दर्भ में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके पास
सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों को भी अधिनियम के आदेशों के अनुपालन करने का
आदेश देने का अधिकार होता है, लेकिन यदि प्रस्तावित संशोधन लागू होता है, तो वे
आदेश दे पाने और आदेशों का अनुपालन करवा पाने की स्थिति में नहीं रह जायेंगे। उनके लिए केंद्र
सरकार के दबावों को नकार पाना मुश्किल होगा और ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता एवं
निष्पक्षता के साथ अपने दयित्वों का निर्वहन भी मुश्किल। ऐसा नहीं कि यह
दर्ज़ा केवल सूचना आयोग को मिला है। सूचना आयोग के अलावा लोकपाल और
केंद्रीय सतर्कता आयोग को भी यही दर्जा प्रदान किया गया है। स्पष्ट है कि
आरटीआई कानून के तहत् सूचना आयुक्तों को प्रदत्त चुनाव आयुक्तों के समकक्ष की
स्थिति उन्हें स्वायत्त रूप से काम करने में सक्षम बनाता है और इससे शीर्ष
कार्यालयों को भी कानून के प्रावधानों का पालन करना पड़ता है, लेकिन सरकार के लिए यह स्थिति स्वीकार्य नहीं है।
दरअसल सरकार इन संशोधनों के जरिये
राजनीतिक तापमान को मापना चाहती है और अगर वह इस संशोधन में कामयाब होती है, तो
फिर इससे आरटीआई क़ानून में मनोनुकूल संशोधनों का मार्ग
प्रशस्त हो जाएगा। प्रस्तावित बदलावों
को लेकर सरकार की मंशा भी संदेह को जन्म देती है क्योंकि केंद्र सरकार ने न तो इस
बात को सार्वजनिक किया है कि वो आख़िर आरटीआई क़ानून में क्या संशोधन करने जा रही
है और न ही इस मसले पर सम्बद्ध हित-समूहों से विचार-विमर्श की आवश्यकता ही समझी, जबकि पूर्व-विधायी
परामर्श नीति (Pre-Legislative Consultation Policy)
से सम्बंधित नियमों के मुताबिक विधेयक या संशोधन विधेयक लाये जाने की
स्थिति उसे संबंधित मंत्रालय या डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जाता है,
उसे अखबारों में भी प्रकाशित करवाया जाता है और उस पर आम जनता की राय माँगी जाती
है। इसलिए सरकार की व्यापक स्तर पर आलोचना हुई जिसने उस पर दबाव निर्मित
किया और अंततः जुलाई,2018 के मध्य में केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार (संशोधन)
विधेयक, 2018 के मसौदे को सार्वजनिक कर दिया जिसके अनुसार
केंद्रीय सूचना-आयुक्तों और राज्य सूचना-आयुक्तों का वेतन और उनके कार्यकाल को
केंद्र सरकार द्वारा तय करने का प्रावधान रखा गया है। बाद में, इन संशोधनों के व्यापक स्तर पर
विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस मसले पर अपने कदम पीछे खींच लिए।
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