तलाक़-ए-बिद्दत और मुस्लिम (महिला-अधिकार संरक्षण) अध्यादेश,2018
प्रमुख आयाम
1. मुस्लिम पर्सनल लॉ को लेकर अबतक का नजरिया
2. इस्लामिक समाज में तलाक़ के प्रचलित तरीके
3. तलाक़ के सन्दर्भ में इस्लामिक मान्यताएँ लैंगिक दृष्टि से भेदभावकारी
4. इस्लामिक देशों में तलाक़ का परिदृश्य
5. शायरा बानो वाद,2016:
a.
ट्रिपल
तलाक़ की गंभीर होती समस्या
b.
मुस्लिम समाज के अन्दर से उठती आवाज़
c. भारतीय समाज का
राजनीतिक विरोधाभास
d.
सर्वोच्च न्यायालय की पहल
e. केंद्र सरकार का रूख
6.
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:
a. तलाक़-ए-बिद्दत
और मौलिक अधिकार: विभाजित संवैधानिक पीठ
b. अल्पमत
का पक्ष
c. फैसले का विश्लेषण
d. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को निरंतरता में देखे जाने की ज़रुरत
e. प्रगतिशील
सामाजिक-धार्मिक सुधारों की ओर न्यायपालिका के बढ़ते रुझानों का संकेत
f.
मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड का रूख
7. 'मुस्लिम
महिला विवाह अधिकार संरक्षण’ विधेयक,2017:
a.
विधायन
की दिशा में पहल
b. प्रमुख
प्रावधान
c.
तलाक़-ए-बिद्दत
पर प्रस्तावित बिल को लेकर विवाद
8. तुरंत ट्रिपल तलाक़ पर अध्यादेश:
a.
संशोधन के साथ विधायन
b.
आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य में बिल की खामियों पर विचार
c. अध्यादेश का औचित्य
d.
अध्यादेश के औचित्य की समीक्षा
e. अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका
9. मसले का विश्लेषण
10.
यूनीफॉर्म
सिविल कोड: विधि आयोग की रिपोर्ट,2018:
a. वर्तमान परिदृश्य में समान नागरिक संहिता का
प्रश्न व्यावहारिक नहीं
b. समान नागरिक संहिता की बजाय वैयक्तिक विधि के
संहिताकरण पर बल
c. विश्लेषण
मुस्लिम
पर्सनल लॉ को लेकर अबतक का नजरिया
शाहबानो केस,1985 के बाद सायरा बानो केस,2016
भारतीय न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु बन चुका है, बस फर्क यह
है कि जब सन् 1985 में शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, उस समय
केंद्र में धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली काँग्रेस की सरकार सत्तारूढ़ थी और
उसका नेतृत्व राजीव गाँधी कर रहे थे; जबकि जब सायरा बानो केस में सुप्रीम कोर्ट का
फैसला आया, उस समय नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दक्षिणपंथी राजनीतिक दल भाजपा की
सरकार है। शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद मुस्लिम
कट्टरपंथियों के दबाव के समक्ष झुकते हुए काँग्रेस
के नेतृत्व वाली तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का
सम्मान करने की बजाय सन् 1986 में संसदीय विधायन के जरिये इसे पलट दिया। लेकिन, वर्तमान
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के अनुरूप इसे विधायी स्वरुप प्रदान
करने की दिशा में पहल की है।
इस्लामिक समाज में तलाक़ के प्रचलित तरीके:
इस्लाम में तलाक़ के तीन तरीके ज्यादा प्रचलन में हैं:
a. तलाक़-ए-अहसन: तलाक़-ए-अहसन में शौहर
बीवी को तब तलाक़ दे सकता है जब उसका मासिक चक्र (तूहरा की समयावधि) न चल रहा हो। इसके बाद वह तकरीबन तीन महीने की समयावधि (इद्दत) में तलाक़ वापस
ले सकता है। यदि ऐसा नहीं होता, तो इद्दत के बाद तलाक़ को स्थायी मान लिया
जाता है; लेकिन इसके बाद भी भविष्य में उस शादी की पुनर्बहाली संभव है और इसलिए इस
तलाक़ को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है।
b. तलाक़-ए-हसन: तलाक़-ए-हसन की
प्रक्रिया भी तलाक़-ए-अहसन की तरह है, लेकिन इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक़
कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है।
इस प्रक्रिया में भी शादी की पुनर्बहाली की संभावनाओं को बनाये रखा गया है, लेकिन
इसके लिए बीवी को निकाह-हलाला की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, अर्थात् बीवी को किसी
दूसरे व्यक्ति से शादी करे और उसके बाद नया शौहर उसे तलाक दे।
c. तलाक़-ए-बिद्दत: तलाक़-ए-बिद्दत की
प्रक्रिया में शौहर एक बार में तीन बार तलाक़-तलाक़-तलाक़ कहकर अपनी बीवी को तलाक़
दे देता है। इसके बाद शादी तुरंत टूट जाती है।
इस तलाक़ को वापस नहीं लिया जा सकता है और तलाक़शुदा जोड़ा फिर हलाला के बाद ही
शादी कर सकता है। इस्लाम में प्रचलित चारों सुन्नी विचारधाराएँ: हनफी,
मलिकी, हंबली और शाफेई इस प्रक्रिया पर सहमति
जताती हैं।
इस्लामी जानकार कहते हैं कि जब संबंधों में सुधार की
कोई सम्भावना शेष न रह जाए, या फिर सम्बन्ध इतने ख़राब हो चुके हों कि इद्दत की
अवधि तक भी साथ रहना संभव न हो, तो ऐसी स्थिति के लिए तलाक़-ए-बिद्दत का प्रावधान
किया गया है।
कुरान और
हदीस में तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-हसन ही तलाक के यही मान्य तरीके हैं, लेकिन तलाक-ए-बिद्दत
को सुन्नियों के हनफी पंथ में मान्यता थी। भारत में ज्यादातर मुसलमान
सुन्नी हैं जो हनफी पंथ को मानते हैं, इसीलिए तलाक-ए-बिद्दत का यहाँ पर अब भी
प्रचलन है।
तलाक़ के सन्दर्भ में इस्लामिक
मान्यताएँ लैंगिक दृष्टि से भेदभावकारी:
वैसे भी तलाक़ के सन्दर्भ में इस्लामिक मान्यताएँ,
जो शौहर के लिए तलाक़ और बीवी के लिए खुला का
प्रावधान करती हैं, भेदभावकारी हैं। सन् 1939 के मुस्लिम पर्सनल लॉ
अधिनियम के अंतर्गत अगर कोई मुस्लिम महिला अपने पति को तलाक देना चाहती है और उसका
पति इसके लिए तैयार नहीं है, तो उसे शरिया बोर्ड (Court of Law) के पास जाना होगा
और अपने तलाक के औचित्य को साबित करना होगा। लेकिन,
उसका पति जब चाहे, तब उसे तलाक़ दे सकता है और वो भी उसकी मर्ज़ी के बगैर।
इसके लिए न तो उसे कोर्ट जाने की ज़रुरत है और न ही उसके औचित्य को साबित करने की
जरूरत। इसीलिए संविधान पीठ का यह मानना है कि यह
कानून के समक्ष समानता का मामला
है, जिसकी
गारंटी संविधान के अनुच्छेद चौदह में दी हुई है और जिसके उल्लंघन की स्थिति में
प्रभावित व्यक्ति अनु. 32 के दायरे में रहते हुए न्यायालय की शरण ले सकता है और
उससे संवैधानिक उपचार की अपेक्षा कर सकता है।
इस्लामिक देशों में तलाक़ का
परिदृश्य:
अबतक तकरीबन 22 मुस्लिम देशों ने अपने यहाँ सीधे-सीधे या
अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक़ की प्रथा खत्म कर दी है। इस सूची में तुर्की और साइप्रस जैसे देश भी शामिल हैं जिन्होंने
धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया है और पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी देश
भी। ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत
में कानून के बाहर किसी तलाक़ को मान्यता नहीं है। ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक़ की कोई मान्यता नहीं है। ध्यातव्य है कि मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में
कानून 25 के जरिए घोषणा की कि तलाक़ को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना
जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है। 1935 में
सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ इस कानून को अपना लिया। आज ज्यादातर मुस्लिम देश- ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और
इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक़ के मुद्दे पर इस विचार को स्वीकार कर लिया है। यहाँ तक कि
पकिस्तान जैसे कट्टरपंथी देश में भी तीन
तलाक़ की प्रथा का प्रचालन नहीं है। वहाँ भी
बीवी को तलाक़ देने के लिए यूनियन काउंसिल (स्थानीय निकाय) के चेयरमैन को इस बारे
में जानकारी देते हुए एक नोटिस देना होता है और इसकी एक कॉपी अपनी बीवी को उपलब्ध
करवानी होती है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करने में असफल रहता है, तो इसके
लिए एक साल की सजा और 5000 रुपये का प्रावधान है। चेयरमैन को नोटिस देने के 90 दिन बाद ही तलाक़ प्रभावी माना जाएगा। इस दौरान नोटिस पाने के 30 दिन के
भीतर चेयरमैन को एक पंच परिषद बनानी होगी जो तलाक़ के पहले सुलह करवाने की कोशिश
करेगी, और यदि महिला गर्भवती है, तो तलाक़ 90 दिन या प्रसव, जिसकी समयावधि ज्यादा हो, के बाद
ही प्रभावी होगा। संबंधित महिला तलाक़ होने के बाद भी अपने पूर्व
पति से शादी कर सकती है और इसके लिए उसे बीच में किसी तीसरे व्यक्ति से शादी (निकाह-हलाला)
करने की जरूरत नहीं है। बांग्लादेश में भी
यही कानून लागू है। स्पष्ट है कि 22 इस्लामिक देशों ने ट्रिपल तलाक
के व्यवहार का नियमन किया है, लेकिन भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में अनु. 14, अनु.
15 और अनु. 21 के द्वारा मौलिक अधिकारों के संरक्षित होने के बावजूद वोटबैंक की
राजनीति के कारण लैंगिक न्याय के प्रश्न की अनदेखी हुई।
शायरा बानो वाद,2016
अक्तूबर 2015 में काशीपुर(उत्तराखंड) की रहने वाली दो बच्चों की
माँ शायरा बानो को उसके पति ने उस समय तलाक देने का निर्णय स्पीड पोस्ट के माध्यम
से सुनाया जब वह अपने इलाज के लिए अपने माँ-बाप के पास आयी हुई थी। इस
निर्णय के साथ पिछले तेरह वर्षों से चला आ रहा उसका दांपत्य जीवन एक झटके में
समाप्त हो गया।
उसने अपने पति के इस निर्णय को चुपचाप स्वीकार
करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और कोर्ट से तीन तलाक को असंवैधानिक
घोषित करने की अपील की, ताकि आने वाली पीढी को इस स्थिति का सामना न
करना पड़े और उनकी ज़िन्दगी ना बर्बाद हो। शायरा बानो ने अपने वकील
के मार्फत ट्रिपल तलाक और बहुपत्नीवाद जैसी रस्मों
को चुनौती देते हुए निम्न प्रश्न उठाए हैं:
1. क्या एक ही झटके में
तीन बार बोलकर तलाक देने की रवायत मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन
है?
2. क्या ये प्रथा
इस्लाम का अनिवार्य अंग है?
इसी आलोक में सायरा बानो ने सुप्रीम
कोर्ट से भारतीय
संविधान के तहत् अपने
अधिकार के संरक्षण
की गुजारिश की। इस याचिका पर विचार के क्रम में निम्न बातें
सामने आयीं::
1.
तलाक-ए-बिद्दत और तलाक़-ए-अहसन में फ़र्क़: आवश्यकता इस बात की है कि तलाक-ए-बिद्दत अर्थात्
तुरंत तलाक और तलाक़-ए-अहसन अर्थात् ट्रिपल तलाक में फ़र्क़ किया जाना चाहिए
क्योंकि तलाक़-ए-ईशान अर्थात् ट्रिपल तलाक के लिए क़ुरान में विशद प्रक्रिया बतलाई
गयी है और इसके लिए तीन माह का समय निर्धारित किया गया है जिस दौरान सुलह एवं
समझौते की सम्भावनाओं को बनाये रखा गया है। इस्लामिक देशों के द्वारा तलाक के लिए
इसी का वैधानिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
2.
गरिमामय जीवन की संकल्पना के प्रतिकूल: कहीं-न-कहीं इसका सम्बन्ध महिलाओं की गरिमा से भी जाकर जुड़ता है
क्योंकि यह एक प्रकार से महिलाओं को पुरुषों की ऐसी चल संपत्ति में तब्दील कर देता
है जिसे जवानी के दिनों में शारीरिक संतुष्टि के लिए इस्तेमाल में लाया जा सके और
बाद के वर्षों में मतलब निकल जाने पर किनारे किया जा सके। इसे मध्य-पूर्व के अरब
देशों के शेखों के द्वारा ‘किडनी मैरिज’ के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाता है
क्योंकि भारतीय कानून सगे-सम्बन्धियों को अंग-दान की अनुमति प्रदान करता है।
3.
लैंगिक भेदभाव का प्रश्न: मुस्लिम महिला के मानवाधिकारों के उल्लंघन के कारण इस मसले का
सम्बन्ध लैंगिक भेदभाव, लैंगिक बहिष्करण, लैंगिक न्याय और लैंगिक सशक्तीकरण से
जाकर जुड़ता है। लैंगिक समानता और मानवाधिकारों के सन्दर्भ में ऐसे मनमाने
व्यवहारों के विरुद्ध संरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए, जो नहीं है।
4.
अंतर्राष्ट्रीय अपेक्षाएँ: मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा(UDHR) सहित अंतर्राष्ट्रीय संधियों
एवं प्रसंविदाओं का हवाला देते हुए कहा गया कि मानवाधिकारों के मद्देनज़र तुरंत ट्रिपल
तलाक के व्यवहार को अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। यह तब और भी आवश्यक हो जाता है जब हम
यह पाते हैं कि ट्रिपल तलाक का व्यवहार इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है क्योंकि अगर
ऐसा होता, तो फिर इस्लामिक देशों के द्वारा इस प्रथा का त्याग नहीं किया
जाता।
ट्रिपल तलाक़ की गंभीर होती समस्या:
समस्या
किसी सायरा बनो तक सीमित नहीं है। हाल
के वर्षों में ट्रिपल तलाक़ से सम्बंधित मामलों में तेजी से वृद्धि हुई है और समय
के साथ यह समस्या गंभीर होती जा रही है। हाल में
सन् (2001-2011) के दौरान मुस्लिम औरतों को तलाक़ देने के मामले 40 फीसदी बढ़े है। साथ
ही, देश में 8.4 करोड़ मुस्लिम महिलाएँ हैं और हर एक तलाकशुदा मर्द के मुकाबले 4
तलाक़शुदा औरतें हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक, 13.5 प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों की
शादी 15 साल की उम्र से पहले हो जाती है और 49 प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों की शादी 14
से 29 की उम्र में होती है। इतना ही नहीं, पिछले डेढ़-दो दशकों के दौरान भारत
मेडिकल टूरिज्म के हॉट स्पॉट के रूप में उभरकर सामने आया है। इस क्रम में अरब
देशों के शेखों ने अपने इलाज के लिए भारत की ओर रुख किया है। वे अक्सर भारतीय
महिलाओं से शादी करते हैं, अंग-दान के सन्दर्भ में भारतीय कानूनी प्रावधानों की
उदारता का लाभ उठाते हुए उनसे किडनी दान करवाते हैं और इसके बाद उन्हें
तलाक़-ए-बिद्दत के प्रावधानों के तहत् छोड़ देते हैं। इसके लिए ‘किडनी मैरिजेज’ संज्ञा
का प्रचलन शुरू हुआ।
मुस्लिम
समाज के अन्दर से उठती आवाज़:
पिछले कुछ समय से ट्रिपल तलाक के विरोध में खुद मुस्लिम समुदाय के
भीतर से आवाज़ उठ रही है, विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं और उनसे जुड़े संगठनों ने
शिद्दत के साथ इस प्रश्न को उठाया है। इसका मानना
है कि तीन तलाक जैसी प्रथायें उनके मजहब का बुनियादी हिस्सा नहीं हैं। इसकी
पुष्टि इस बात से होती है कि दुनिया के कई इस्लामिक समाजों में इसका चलन रोका जा
चुका है। शायरा बानो ही नहीं, गुलशन परवीन, आफ़रीन, आतिया साबरी और इशरत
जहाँ ने भी इसे चुनौती दी। और, इनके पक्ष में सामने आया अखिल भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन, जिसने इन
मुस्लिम महिलाओं को आवाज़ देते हुए इस्लामिक समाज
में विद्यमान लैंगिक भेदभाव और मुस्लिम महिलाओं की त्रासद स्थिति में सुधार के लिए
ज़बरदस्त अभियान चलाया और प्रगतिशील
सुधारों की माँग की।
अबतक विवाह, तलाक आदि पारिवारिक या निजी मामलों में मुस्लिम
समाज पर मुस्लिम पर्सनल लॉ,1937 लागू
होता आया है, जिसके बारे में भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन
का मानना है कि
1. मुस्लिम
पर्सनल लॉ,1937 ठीक से संहिताबद्ध नहीं है जिसके
कारण इसकी हर तरह की व्याख्या की गुंजाइश बनी रहती है, जो
अमूमन महिलाओं के खिलाफ ही जाती है।
2. इसीलिए इसका मानना
है कि हिंदू विवाह अधिनियम की तर्ज पर मुस्लिम
विवाह से सम्बद्ध प्रावधानों को संहिताबद्ध किए बिना उनका सशक्तीकरण नहीं हो सकता।
इसी आलोक में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने भी तीन तलाक के खिलाफ
अदालत में याचिका दायर कर रखी थी। इसने वैकल्पिक कानून का एक मसविदा भी तैयार कर
रखा है जिसमें
मौखिक तलाक पर पाबंदी लगाए जाने के साथ ही, मैहर
और गुजारा भत्ते की राशियों के निर्धारण के पैमाने सुझाए गए हैं।
इसी दौरान विधि आयोग ने सोलह सवालों
की एक प्रश्नावली जारी कर इन मसलों पर लोगों की राय माँगी। इन मसलों
में संपत्ति के अधिकार में हिंदू महिला
का पक्ष मजबूत करने के उपाय तलाशने और ईसाई समुदाय में तलाक के लिए प्रतीक्षा की
अवधि घटाने के प्रस्ताव जैसी बातें भी शामिल थीं, पर तल्खी पैदा करने वाले सवाल
मुसलिम पर्सनल लॉ से ताल्लुक रखते थे।
भारतीय
समाज का राजनीतिक विरोधाभास:
पिछले कुछ समय से, विशेष रूप से केंद्र में भाजपा के सत्तारूढ़ होने के
बाद से मुस्लिम समाज के भीतर से प्रगतिशील सुधारों
के लिए आवाजें तेज़ होती चली गयीं हैं, इस
आशा के साथ कि केंद्र सरकार की सहानुभूति और समर्थन उनकी आवाज़ को मजबूती प्रदान
करेगी। इस क्रम में उन्हें:
1. एक ओर
उन लोगों का साथ मिल रहा है जो उदारवाद एवं धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध हैं,
2. दूसरी ओर उस तबके का भी जो उग्र हिंदुत्व का आग्रह रखते हैं और जिनकी
राजनीति मुस्लिम-विरोध पर आधारित है। उन्हें मुस्लिम महिलाओं से कोई
सहानुभूति नहीं है। उनके लिए इस मसले का महत्व इस बात में है कि वे इसके जरिये अल्पसंख्यक मुसलमानों की आकांक्षाओं
का दमन करते हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज़ कर सकते हैं जो हिन्दू
राष्ट्र के रूप में भारत को देखने की उनकी आकांक्षा को बल प्रदान करने में सहायक
है। यह स्थिति हिंदुत्व की दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा की हिमायती भाजपा और संघ
परिवार के लिए भी मनमाफिक स्थिति है।
उधर इस मसले ने राजनीति की सेक्युलर
धारा की दुविधा बढ़ा दी है क्योंकि वह अगर इस मसले पर विरोधी रूख अपनाता
है, तो उसके सेकुलरिज्म की कलई खुलेगी और अगर इस मसले पर वह समर्थन में आती है, तो
मुस्लिम-समुदाय की नाराजगी का खतरा उत्पन्न होगा जो वोटबैंक की राजनीति में उसकी
स्थिति को कमजोर करेगा। इसी दुविधा के कारण अबतक
ऐसे संवेदनशील मसलों पर प्रगतिशील सुधारों से उसने बचने की कोशिश की जिसके कारण यह
धारणा बनी कि उसके लिए सेकुलरिज्म का मतलब है मुस्लिम तुष्टिकरण, और यह
धारणा कुछ हद तक गलत भी नहीं है। अब भारतीय समाज का विरोधाभास यह है कि भारत के
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल मुसलमान वोटरों की नाराजगी की आशंका के कारण ऐसे
प्रगतिशील सुधारों के पक्ष में खड़े होने से बचते रहेंगे और हिंदुत्व की ओर रुझान रखने वाले एवं मुसलमानों के प्रति
पूर्वाग्रह से ग्रस्त भाजपा जैसे दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के द्वारा ऐसे मसलों पर
पहल अल्पसंख्यक मुसलमानों को गलत सन्देश देगा जिसके गंभीर निहितार्थ हो सकते हैं।
वैसे भी इन मसलों पर राजनीतिक लाभ उठाने में उनकी रुचि कहीं ज्यादा है, मुस्लिम
महिलाओं के प्रति सहानुभूति और उनकी स्थिति में सुधार में रूचि कम।
सर्वोच्च
न्यायलय की पहल:
इससे
पूर्व सन् 2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार के
द्वारा मुस्लिम महिलाओं की स्थिति की पड़ताल करने के लिए बनाई गयी समिति ने भी अपने
आकलन में कहा था कि ट्रिपल तलाक की प्रणाली मुस्लिम महिलाओं को अत्यंत अशक्त और
असुरक्षित बना देती है और उनके शौहर जब चाहे उन्हें छोड़ सकते हैं। फरवरी 2015 में अपने एक निर्णय में सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि बहुपत्नीवाद
इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है और एकल
पत्नीवाद एक ऐसा सुधार है, जिसे इस्लाम पर लागू करना अनुच्छेद 25 के तहत राज्यसत्ता के अधिकार-क्षेत्र में आता
है। अक्टूबर, 2015 में हिंदू
उत्तराधिकार से जुड़े
एक मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट
की एक बेंच ने भारत के मुख्य न्यायाधीश(CJI) को यह सलाह दी कि तलाक के नाम पर मुस्लिम
महिलाओं के साथ होनेवाले भेदभाव की जाँच के लिए बेंच का गठन करे। इसी आलोक में फरवरी,2016
में पाँच सदस्यीय संविधान पीठ का गठन करते हुए सुप्रीम
कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल उन याचिकाओं में सहयोग की अपील की जिनमें ट्रिपल तलाक, निकाह-हलाला और
बहुविवाह जैसी प्रथाओं को चुनौती दी गई।
केंद्र
सरकार का रूख:
यही वह पृष्ठभूमि है
जिसमें जब ट्रिपल तलाक का मसला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र
सरकार की राय जाननी चाही, तो सर्वोच्च न्यायालय में दायर किए अपने हलफनामे में
केंद्र सरकार ने इसे समानता के अधिकार (अनु.
14-15) और गरिमामय जीवन के अधिकार (अनु. 21) के खिलाफ बतलाते हुए कहा कि ‘तीन
तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह का इस्लाम
में रिवाज़ नहीं है।’ ऐसा शायद
पहली बार हुआ कि तीन तलाक, ‘निकाह हलाला’ और बहुविवाह जैसे मसले पर केंद्र सरकार ने स्पष्ट रूख
अपनाते हुए बहुविवाह एवं ट्रिपल तलाक का खुलकर विरोध किया। शायद
उसके इस विरोध ने न्यायपालिका को भी खुलकर स्टैंड लेने के लिए उत्प्रेरित किया और
न्यायपालिका ने बड़ी ही चालाकी से इस मसले को केंद्र के पाले में रख दिया। लेकिन,
दिक्कत यह है कि संकीर्ण राजनीतिक लाभों के लिए जिस तरह से इस प्रश्न का
राजनीतिकरण किया गया और इसके जरिये राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की जा रही है,
उसने न केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज़ किया है वरन् इसके गंभीर निहितार्थों की
ओर संकेत किया है।
सर्वोच्च
न्यायालय का फैसला
अगस्त,2017 में सुप्रीम
कोर्ट की जस्टिस जे. एस. खेहर की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने
3-2 के बहुमत से तलाक़-ए-बिद्दत अर्थात् ट्रिपल तलाक़ की संवैधानिकता को खारिज कर
दिया। जस्टिस नरीमन, जस्टिस ललित और जस्टिस कुरियन ने अल्पमत पक्ष के
न्यायाधीश जस्टिस नजीर और चीफ जस्टिस खेहर से असहमति जताते हुए तुरंत तीन तलाक के मुद्दे पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया
और इसे असंवैधानिक और गैरकानूनी घोषित किया। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखने की ज़रुरत है
कि इस फैसले के तहत् केवल एक बार में तीन
तलाक पर रोक लगाई गई है, न कि अलग-अलग
चरणों में होनेवाले तीन तलाक की प्रक्रिया पर। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि:
1.
तलाक-ए-बिद्दत गैर-इस्लामी: सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क देते हुए तलाक-ए-बिद्दत को गैर-इस्लामी
माना:
a.
न तो पैगंबर साहब के ज़माने में इसका अस्तित्व था और न ही इसकी
परिकल्पना सुन्ना में है।
b.
यह कुरान के मूल तत्व के खिलाफ है क्योंकि
कुरान में प्रस्तावित तीन तलाक की व्यवस्था में तीन बार तलाक कहे जाने
के बीच एक-एक- महीने का अंतराल रखा गया है, ताकि सुलह एवं समझौते की गुंजाइश बनी
रहे और शौहर तलाक़ के अपने फैसले पर पुनर्विचार कर सके।
c.
जो हनफ़ी स्कूल तुरंत ट्रिपल तलाक़ को मान्यता देता
है, उसने भी तीन तलाक़ को पाप माना है
और ऐसा करने वालों के बारे में कहा गया है कि उससे अल्लाह नाराज़ होगा।
इसी आलोक
में जस्टिस कुरियन का मानना है कि तलाक-ए-बिद्दत इस्लाम का अनिवार्य एवं अभिन्न
अंश नहीं है।
2.
तलाक़-ए-बिद्दत की व्यवस्था मनमानी: तुरंत तीन तलाक़ की स्थिति में तीन बार तलाक़-तलाक़-तलाक़ बोलते ही शादी
टूट जाती है, तलाक़ फ़ौरन प्रभावी हो जाता है, और फिर इसे वापस नहीं लिया जा सकता है। इसके
अंतर्गत बीच-बचाव, सुलह एवं समझौते की भी गुंजाइश नहीं होती है। इसीलिए संविधान-पीठ
का यह निष्कर्ष है कि तुरंत तीन तलाक़ की यह व्यवस्था बेहद मनमानी है।
3.
तलाक़-ए-बिद्दत असंवैधानिक: चूँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ अधिनियम,1937 तलाक़-ए-बिद्दत को मान्यता
प्रदान करता है और इसे लागू करता है, इसलिए 1937 के एक्ट के इस अंश को असंवैधानिक घोषित
किया जाता है।
तलाक़-ए-बिद्दत और मौलिक अधिकार:
विभाजित संवैधानिक पीठ
इस मसले पर फैसला देते हुए भले ही बहुमत पक्ष के
न्यायाधीशों ने इसे गैरकानूनी बताया हो, पर उनका असमंजस छिपा नहीं रह पाया। इसकी पुष्टि इस बात
से होती है कि चीफ जस्टिस जे. एस. खेहर और जस्टिस एस,
अब्दुल नजीर जहाँ तीन तलाक की प्रथा पर छह माह के लिए रोक लगाकर सरकार को इस संबंध
में नया कानून लेकर आने के लिए कहने के पक्ष में थे, वहीं जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस
आर. एफ. नरीमन और जस्टिस यू. यू. ललित ने इसे संविधान का उल्लंघन करार दिया था। साथ ही, सिर्फ दो
जजों, जस्टिस आर. एफ. नरीमन और जस्टिस यू. यू. ललित, ने कहा कि:
1. संविधान-प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन: जस्टिस आर. एफ. नरीमन और जस्टिस यू.
यू. ललित इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि तलाक़-ए-बिद्दत की यह व्यवस्था भेदभावकारी
होने के कारण संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, विशेष रूप से यह
अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता एवं विधि के
समान संरक्षण) और अनु. 15 (वर्ण, जाति,
धर्म, मूलवंश, लिंग एवं सम्प्रदाय पर आधारित भेदभाव का निषेध) के प्रावधानों के
विरुद्ध है।
2. धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से इसका कोई लेना-देना नहीं:
इनका यह भी मानना है कि इस मामले का अनुच्छेद 25 के
द्वारा प्रदत्त धर्म, उपासना और विश्वास की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है
क्योंकि तलाक-ए-बिद्दत इस्लाम का अनिवार्य एवं अभिन्न अंश नहीं है। इसका सम्बंध मूल रूप से लैंगिक न्याय, लैंगिक गरिमा और
लैंगिक समानता से जाकर जुड़ता है, लेकिन इस मसले पर कानून का अभाव इसकी
शिकार पीड़िता के पक्ष में हस्तक्षेप से पुलिस को रोकता है। इसीलिए पाकिस्तान सहित
दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देशों ने तुरंत तीन तलाक की प्रथा को समाप्त कर दिया है
और यह प्रक्रिया 1950 के दशक में ही शुरू हुई थी।
3.
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार अन्य मूलाधिकारों से स्वतंत्र एवं निरपेक्ष
नहीं: इसका मतलब यह नहीं कि धार्मिक स्वतंत्रता
की अहमियत नहीं है, पर इनका मानना है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार अन्य
मूलाधिकारों से निरपेक्ष नहीं है। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को अन्य
मूलाधिकारों के सापेक्ष रखकर देखे जाने की ज़रुरत है और इसीलिये इसकी उसी हद तक इजाजत
दी जा सकती है जिस हद तक वह अन्य नागरिक अधिकारों बाधित न करे। शनि शिंगणापुर और
हाजी अली की दरगाह में प्रवेश के मामलों में फैसला सुनाते समय मुंबई उच्च न्यायालय
ने भी धार्मिक स्वतंत्रता की इस सीमा और कानून के समक्ष समानता के प्रावधान को
रेखांकित किया था।
इसीलिए इन दोनों
न्यायाधीशों का यह मत था कि संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले
पारिवारिक कानूनों और प्रथाओं को गैर-कानूनी माना जाए।
अल्पमत
का पक्ष:
अल्पमत के पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हुए सर्वोच्च
न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश(CJI) जे. एस. खेहर ने कहा कि:
1.
तलाक़-ए-बिद्दत सुन्नी
इस्लाम का अभिन्न अंश: जस्टिस खेहर और जस्टिस अब्दुल
नजीर की राय रही कि तीन तलाक भारत में इस्लाम एवं इस्लामिक पर्सनल लॉ का अभिन्न अंग
है, इसीलिए इसको संविधान पीठ नहीं देख सकती। उनका यह कहना था कि तलाक-ए-बिद्दत
सुन्नी समुदाय में पिछले 1000 सालों से चलता आ रहा है।
2.
मूलाधिकारों के
प्रतिकूल नहीं: तलाक-ए-बिद्दत संविधान के अनु. 14, अनु. 15, अनु. 21
और अनु. 25 का उल्लंघन नहीं करता है।
4.
पर्सनल लॉ का परीक्षण कोर्ट मौलिक
अधिकारों के उल्लंघन के पैमाने पर नहीं: अल्पमत पक्ष के चीफ जस्टिस जे. एस. खेहर और जस्टिस
एस. अब्दुल नजीर ने कहा कि शादी और तलाक के अलग-अलग धर्म के
कानूनों को संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है। उनकी इस बात से
बहुमत पक्ष के जस्टिस कुरियन जोसेफ ने भी सहमति प्रदर्शित की, जिसका यह मतलब हुआ कि पाँच
सदस्यीय संविधान पीठ के तीन जजों ने कहीं-न-कहीं पर्सनल लॉ से जुड़े मसलों को
धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से सम्बद्ध माना और व्यापक सन्दर्भों में इसके साथ
छेड़छाड़ का विरोध किया। स्पष्ट है कि संविधान पीठ के तीन जजों ने बहुमत से पर्सनल
लॉ को आर्टिकल 25 के तहत्
संविधान के द्वारा संरक्षित माना और स्पष्ट किया कि अदालत पर्सनल लॉ का
परीक्षण कोर्ट मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के पैमाने पर नहीं कर सकती है।
5. सरकार से तलाक़-ए-बिद्दत के मसले
पर सशर्त विधायन की अपेक्षा: संवैधानिक बेंच ने सरकार से यह अपेक्षा की कि विधान-मंडल छह महीने के अंदर
मुस्लिम कानून को ध्यान में रखते हुए नया कानून तैयार करे। साथ ही, यह उम्मीद
जताई कि केंद्र जो कानून बनाएगा, उसमें मुस्लिम संगठनों और शरिया कानून-संबंधी
चिंताओं का ख्याल रखा जाएगा।
फैसले
का विश्लेषण:
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का विश्लेषण करें, तो यह फैसला
धर्मनिरपेक्ष देश की अपेक्षाओं के अनुरूप ही है। यह फैसला स्वागत-योग्य है
क्योंकि:
a.
किसी भी सभ्य समाज में
नागरिकों के मूलाधिकारों के हनन की अनुमति नहीं: किसी भी सभ्य समाज
में नागरिकों के मूलाधिकारों के हनन की अनुमति न तो दी जा सकती है और न दी जानी
चाहिए।
b.
इस्लामिक समाज का
आधुनिकीकरण संभव: इस फैसले से इस्लामिक धार्मिक मान्यताओं को आधुनिक अपेक्षाओं के अनुरूप
बनाया जा सकेगा और इससे इस्लामिक समाज को कट्टरपंथी उलेमाओं के प्रभाव से मुक्त कर
पाना भी संभव हो सकेगा।
c.
मुस्लिम महिलाओं के लिए आधुनिक
अपेक्षाओं के अनुरूप गरिमामय जीवन संभव: इस फैसले से इस्लामिक
धार्मिक मान्यताओं को आधुनिक अपेक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सकेगा और मुस्लिम
महिलाओं के लिए सम्मानित एवं गरिमामय जीवन सुनिश्चित किया जा सकेगा। इससे इस्लामिक समाज में मुस्लिम महिलाओं के लिए उस सम्मानजनक
स्थान को सुनिश्चित किया जा सकेगा जिसकी
अपेक्षा पैगम्बर मुहम्मद ने की थी और जिसकी झलक कुरआन में दिखाई पड़ती
है। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि अपने मूल रूप में इस्लाम महिलाओं को लेकर
प्रगतिशील सोच रखता था और महिला अधिकारों के प्रति संवेदनशील था। उस समय में
महिलाओं के प्रति ऐसी संवेदनशीलता न तो हिन्दू धर्म में मिलती है और न ही ईसाइयत
में। पर, बाद में उलेमाओं के प्रभुत्व और पुरुष-प्रभुत्ववादी मानसिकता ने महिलाओं
के प्रति इस प्रगतिशील एवं संवेदनशील सोच की बलि ले ली।
d.
संवैधानिक नैतिकता के
अनुरूप: तलाक़-ए-बिद्दत को असंवैधानिक और गैर-कानूनी घोषित किया जाना संवैधानिक
मूल्यों और नैतिकता के अनुरूप ही है और इसे इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। इससे
मुस्लिम महिलाओं के साथ समानता एवं न्याय को सुनिश्चित किया जा सकेगा और लैंगिक न्याय एवं लैंगिक सशक्तीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाए
जाने के अभियान को गति मिलेगी।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को निरंतरता में देखे जाने की
ज़रुरत:
यह पहली दफा नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक की
संवैधानिक वैधता को प्रश्नांकित किया है। इससे पूर्व भी सुप्रीम कोर्ट ने शमीम आरा वाद,2002 के उस
निर्णय को उद्धृत करते हुए उससे सहमति जताई जिसमें कहा गया था कि:
a. तलाक़ की एक
प्रक्रिया होगी,
b. तलाक का वाजिब कारण
होगा, और
c.
तलाक से पहले दोनों पक्षों की तरफ से सुलह एवं समझौते
की कोशिश होगी।
मई,2002 में दग्धू पठान बनाम रहीम बी दग्धू
पठान वाद,2002 में बम्बई हाईकोर्ट ने मौखिक
या लिखित तलाक को मानने से इन्कार करते हुए कहा था कि:
a. मुस्लिम दंपत्ति को
अदालत में साबित करना होगा कि उनके बीच तलाक हो चुका है और
b. शरियत कानून की सारी
शर्तें पूरी की गई हैं।
ध्यातव्य है कि तीन तलाक से पहले आठ चरणों का पूरा होना आवश्यक है,
जिसमें वाजिब कारण से लेकर बीच-बचाव तक, सब शामिल हैं।
प्रगतिशील
सामाजिक-धार्मिक सुधारों की ओर न्यायपालिका के बढ़ते रुझानों का संकेत :
तलाक़-ए-बिद्दत पर
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पिछले कुछ न्यायिक निर्णय के आलोक में देखा जाना
चाहिए जो अपनी निरंतरता में प्रगतिशील सामाजिक-धार्मिक सुधारों की ओर न्यायपालिका
के बढ़ते रुझानों का संकेत देता है। यह संविधान की मूल भावनाओं के अनुरूप ही है। बीते दिसंबर में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी कहा था कि धार्मिक आजादी असीमित नहीं है, वह संविधान में
वर्णित नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकती। शनि शिंगणापुर और हाजी अली की
दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर चली आ रही पाबंदी हटाते हुए मुंबई उच्च न्यायालय ने भी यही कहा था कि बेशक
संविधान ने सभी समुदायों को धार्मिक स्वायत्तता की गारंटी दी हुई है, पर धार्मिक स्वायत्तता का यह अर्थ नहीं है कि वह नागरिक
अधिकारों के आड़े आए। बाद सितम्बर,2018 में सबरीमाला मंदिर में रजस्वला महिलाओं
के प्रवेश पर पाबंदी को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी महिलाओं के बेरोक-टोक प्रवेश के मार्ग को
प्रशस्त किया, अब यह बात अलग है कि जो समूह हाजी अली दरगाह मेंमुस्लिम महिलाओं के
प्रवेश से सम्बंधित मुम्बई उच्च न्यायालय और तलाक़-ए-बिद्दत पर सुप्रीम कोर्ट के
फैसले का स्वागत कर रहा था, वही समूह सबरीमाला मंदिर में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय
के व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन के रास्ते में आन्दोलनों के जरिये अवरोध
उत्पन्न कर रहा है।
मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड का रूख:
अबतक मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड व्यक्तिगत कानूनों को न्यायिक समीक्षा से
परे मानता रहा है, लेकिन उसने भी इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि यह फैसला मुस्लिम
पर्सनल लॉ का भी सरंक्षण करता है और कहता है कि पर्सनल लॉ का परीक्षण कोर्ट मौलिक अधिकारों के उल्लंघन
के पैमाने पर नहीं कर सकती है। हाल
में उसने अपनी कार्यकारिणी की बैठक में प्रस्ताव
पारित कर तलाक के लिए पहली बार आचार संहिता जारी की जिसमें कहा गया कि
एक साथ तीन तलाक कह कर अपनी बीवी को छोड़ देने वाले मर्दों का मुस्लिम समाज सामाजिक
बहिष्कार करे, यद्यपि उसका अब भी यह दृष्टिकोण है कि मुसलिम पर्सनल लॉ में फेरबदल
की कोई जरूरत नहीं है और ऐसी कोई भी फेरबदल धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप है।
लेकिन, इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए ऑल
इंडिया मुस्लिम वूमेन पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अम्बर ने उच्चतम न्यायालय
द्वारा रोक के बावजूद एक साथ लगातार तीन बार तलाक बोलकर पत्नी के साथ रिश्ता खत्म
करने के ताजे मामले सामने आने पर चिंता जाहिर करते हुए न्यायालय से गुजारिश की कि उच्चतम न्यायालय अपने आदेश की अवहेलना करते हुए तीन तलाक
देने वालों के खिलाफ सजा भी मुकर्रर करे, तभी इस पर रोक लगेगी
और पीड़ितों को न्याय मिलेगा। बोर्ड इसके लिये याचिका दाखिल करके न्यायालय से अपील
भी करेगा।
'मुस्लिम
महिला विवाह अधिकार संरक्षण’ विधेयक,2017
आरम्भ में सरकार
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के आलोक में ट्रिपल तलाक पर कानून बनाने को लेकर
बहुत गंभीर नहीं थी, पर शीघ्र ही उसे अहसास हुआ कि इस मसले पर विधायन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की तार्किक परिणति
होगी क्योंकि
अगर कानून नहीं बना, तो फैसला व्यवहार में बेमानी हो जाएगा। साथ ही, यह कदम
उसके लिए राजनीतिक दृष्टि से भी लाभकारी
होगा जो प्रगतिशील उदारवादी मुसलमानों के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं के बीच उसकी पैठ
को सुनिश्चित करेगा।
विधायन की दिशा में पहल:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें दिसंबर,2017 में
सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय के आलोक में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ‘मुस्लिम महिला (विवाह-अधिकार संरक्षण) विधेयक’, जिसका
मसौदा गृह-मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाले
अंतर-मंत्रालयी समूह ने तैयार किया था, के मसौदे को मंजूरी प्रदान की। इस समूह
में वित्त-मंत्री अरूण जेटली, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, कानून मंत्री रविशंकर
प्रसाद और कानून राज्य-मंत्री पी. पी. चौधरी शामिल थे। ध्यातव्य है कि कानून मंत्रालय ने
पिछले दिनों एक बार में तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) पर कानून बनाने के लिए तैयार ड्राफ्ट पर
राज्य सरकारों से राय माँगी थी।
प्रमुख प्रावधान:
1. तलाक़-ए-बिद्दत गैर-कानूनी, अमान्य
और गैर-जमानती अपराध: प्रस्तावित कानून के तहत् तलाक़-ए-बिद्दत अर्थात्
तुरंत तीन तलाक़ या सिर्फ एक बार में तीन तलाक गैर-कानूनी, अमान्य और गैर-जमानती
अपराध घोषित किया गया है, चाहे यह किसी भी रूप में हो। इसमें मौखिक, लिखित, व्हाट्स
ऐप्प, ई-मेल,
एसएमएस सहित अन्य सभी इलेक्ट्रानिक माध्यमों से दिए जाने वाले तुरंत ट्रिपल तलाक़
शामिल हैं।
2. पुलिस के समक्ष शिकायत करने और
पुलिस के साथ-सतह अदालत से संरक्षण पाने का अधिकार: प्रस्तावित कानून में तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं को पुलिस के पास
शिकायत दर्ज कराने और अदालत से राहत पाने का विकल्प दिया गया है।
3. तीसरे पक्ष को शिकायत करने का अधिकार: इस कानून के तहत्
ट्रिपल तलाक़ के मामले में पीड़िता के अलावा कोई भी तीसरा पक्ष, जिसमें पड़ोसी भी
शामिल हैं और जो इस मामले से प्रभावित नहीं हैं, पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज करवा
सकता है।
4. अपराध की सूचना मिलते ही तत्काल
गिरफ्तारी: इस अपराध की सूचना मिलने पर आरोपी
व्यक्ति की तत्काल गिरफ़्तारी होगी। इस मामले में ज़मानत का कोई प्रावधान नहीं है।
5. तीन साल की सज़ा: प्रस्तावित बिल के मुताबिक अगर कोई पति अपनी
पत्नी को एकबार में तलाक-ए-बिद्दत के तहत् तुरंत एक साथ तीन तलाक देता है, तो उसे तीन
साल की सजा हो सकती है और इस दौरान उसे जमानत भी नहीं मिलेगी।
6. गुज़ारा भत्ता पाने का अधिकार: 'मुस्लिम वीमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज बिल' के नाम
से जाने-जानेवाले प्रस्तावित कानून में पीड़िता को यह अधिकार होगा कि वह 'उचित
गुजारा भत्ते के लिए मजिस्ट्रेट से संपर्क कर सके।
7. नाबालिग बच्चों के संरक्षण का अधिकार:
इसके तहत्, महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के
संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और इस मसले पर मजिस्ट्रेट का फैसला अंतिम होगा।
8. जम्मू-कश्मीर इसके दायरे से बाहर: यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में
लागू होगा।
तलाक़-ए-बिद्दत पर प्रस्तावित बिल
को लेकर विवाद:
सरकार ने जिस जल्दबाजी में यह बिल तैयार किया और
इस क्रम में जिस तरह से सम्बद्ध पक्षों को विचार-विमर्श की इस प्रक्रिया से बाहर
रखा गया, इसने बिल के मसौदे को लेकर भी आशंकाओं को जन्म दिया और इसके कारण इसका
व्यापक स्तर पर विरोध शुरू हुआ। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस बिल के
मसौदे को तैयार करने के लिए अपनाई गयी प्रक्रिया को लेकर आपत्ति दर्ज करवाते हुए
कहा कि प्रस्तावित बिल को तैयार करने के क्रम में मुस्लिम पक्षों की राय क्यों
नहीं ली गयी। साथ ही, इस बिल के प्रावधानों और इसके दुरूपयोग की आशंकाओं ने भी इस
बिल को विवादस्पद बनाया। इसी की पृष्ठभूमि में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों के
द्वारा इस मसले पर राजनीति करते हुए अपने-अपने वोट-बैंक को साधने की कोशिशें भी
तेज़ हुई जिसके कारण इस मसले का राजनीतिकरण हुआ। परिणाम यह हुआ कि लोकसभा में तो
सरकार अपने बहुमत के दम पर विपक्ष की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए प्रस्तावित
बिल को पारित करवाने में सफल रही, लेकिन संसद के मॉनसून सत्र
के दौरान राज्यसभा में हंगामे और राजनीतिक सहमति न बन पाने की वजह से तीन तलाक पर
संशोधन बिल पास नहीं हो सका। ध्यातव्य है कि राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल बहुमत में
नहीं है और यही कारण है कि वहाँ पर जाकर यह बिल अटक गया। वर्तमान में यह बिल
राज्यसभा में लंबित है।
तुरंत ट्रिपल तलाक़ पर अध्यादेश
सितम्बर,2018 में ट्रिपल तलाक बिल संसद में न पास होते
देखकर केंद्र सरकार ने तीन तलाक पर अध्यादेश को मंजूरी दे दी। यद्यपि इस अध्यादेश
की कई आधारों पर आलोचना हो रही है, पर इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि इसके जरिये
प्रस्तावित बिल में कुछ ऐसे संशोधन किये गए हैं जो इसके दुरूपयोग की संभावनाओं को
निरस्त करते हैं, लेकिन कहें-न-क्काहीन समस्याएँ अब भी बनी हुई हैं।
अध्यादेश के जरिये संशोधन के साथ
विधायन:
प्रस्तावित कानून के दुरुपयोग की आशंकाएँ दूर
करते हुए सरकार ने इसमें कुछ सुरक्षा उपाय भी शामिल किए हैं:
1.
सगे-सम्बन्धी के अलावा तीसरे पक्ष को मामला दर्ज करवाए जाने की
अनुमति नहीं: प्रस्तावित
बिल में पहला संशोधन मामला दर्ज करवाए जाने से सम्बंधित प्रावधान से सम्बंधित
है। मूल विधेयक:
a. पत्नी और उसके सगे-सम्बंधियों के अलावा अन्य
लोगों को भी मामला दर्ज करवाने के लिए अधिकृत करता है। मतलब यह कि इससे सम्बंधित
मामले उस व्यक्ति के द्वारा भी दर्ज करवाए जा सकते हैं जिनका इस मामले से कोई
सम्बंध नहीं है।
b. इतना ही नहीं, पुलिस स्वतः संज्ञान लेकर भी मामला दर्ज
कर सकती थी।
लेकिन, अब इसमें संशोधन के ज़रिए यह
प्रावधान किया गया है कि:
a. केवल पीड़िता या उसके सगे रिश्तेदारों के द्वारा
ही मामला दर्ज करवाया जा सकता है, उसके पड़ोसी या अंजान व्यक्ति की शिकायत पर नहीं।
2.
ज़मानत का प्रावधान: प्रस्तावित बिल में दूसरा संशोधन ज़मानत के प्रावधान के रूप में किया गया है। मूल विधेयक इसे
गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया था और पुलिस बिना वारंट के
गिरफ्तार कर सकती थी, लेकिन अब सशर्त
ज़मानत की अनुमति दी गयी है:
a. ऐसा पत्नी का पक्ष सुनने के बाद ही संभव हो सकेगा क्योंकि
यह पति-पत्नी के बीच निजी प्रकृति वाला विवाद है और इसीलिए ज़मानत दिए जाने के
पूर्व पत्नी का पक्ष अवश्य सुना जाना चाहिए।
b. ऐसा तभी संभव हो सकेगा जब पति पत्नी को मुआवज़ा
देने के लिए तैयार हो जाए जिसका निर्धारण मजिस्ट्रेट के द्वारा किया जायेगा।
c. मतलब यह कि ऐसे
मामलों में थाने से ज़मानत संभव नहीं हो सकेगा।
3.
पीड़ित महिला की सहमति से सुलह एवं समझौते के विकल्प को खुला रखना: प्रस्तावित बिल
में तीसरा संशोधन समझौते के प्रावधान के रूप में
किया गया है। मूल विधेयक में समझौते का कोई प्रावधान नहीं था, लेकिन अब मजिस्ट्रेट
के सामने पति-पत्नी में समझौते का विकल्प भी खुला रहेगा। ऐसा पीड़ित महिला की सहमति
से ही संभव है और समझौते की शर्तों का निर्धारण मजिस्ट्रेट के द्वारा किया जाएगा।
4.
नाबालिग़ बच्चे के संरक्षण का दायित्व और भरण-पोषण ख़र्च: इसके अतिरिक्त नाबालिग़ बच्चे के संरक्षण का
दायित्व आरोपी पत्नी का होगा और नाबालिग़ बच्चे उसे सौंपे जायेंगे। साथ ही, पीड़ित
महिला अपने और अपने बच्चे के भरण-पोषण के लिए ख़र्च की हक़दार होगी और इसका
निर्धारण मजिस्ट्रेट के द्वारा किया जायेगा।
आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य में बिल
की खामियों पर विचार:
प्रस्तावित बिल और केंद्र सरकार के द्वारा जारी
अध्यादेश की इस आधार पर आलोचना की जा रही है कि:
a. तलाक़ के अप्रभावी होने और विवाह के
बने रहने के कारण पति को अपराधी ठहराये जाने का कोई औचित्य नहीं: चूँकि तलाक-ए-बिद्दत प्रभावी नहीं है और इसलिए
इसके बावजूद विवाह प्रभावी रहता है, इसीलिए पति को अपराधी ठहराये जाने का कोई
औचित्य नहीं है।
b.
तलाक़ जैसे सिविल मामले आपराधिक कृत्य की श्रेणी में: इसके जरिये तलाक़ जैसे सिविल मामलों का
अपराधीकरण किया जा रहा है, जबकि न तो तलाक़-ए-बिद्दत का उद्देश्य पति के द्वारा
पत्नी को क्षति पहुँचाना है और न ही इससे समाज की सुरक्षा एवं कल्याण को किसी
प्रकार की क्षति पहुँचती है।
c.
दंडात्मक प्रावधान अत्यंत कठोर एवं मनमाने: इस बिल में तलाक़-ए-बिद्दत की स्थिति में जो
दंडात्मक प्रावधान किये गए हैं, वे अत्यंत कठोर हैं, जबकि दंड बस इतनी मात्रा में
होना चाहिए कि यह अपराध को रोकने में प्रतिरोधक की भूमिका निभा सके। यह किसी भी
स्थिति में अपराध की मात्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। जहाँ कई मामले में अपराध के
गंभीर होने के बावजूद अपेक्षाकृत कम सज़ा का प्रावधान किया गया है, वहीं
तलाक-ए-बिद्दत के मामले में अपराध के उस अनुपात में गंभीर न होने के बावजूद
अपेक्षाकृत अधिक अपराध का प्रावधान किया गया है। इसीलिए यह अत्यधिक है, मनमाना है
और अतार्किक है।
जहाँ तक इस बिल की तकनीकी खामियों के आलोक में
वैवाहिक जीवन से सम्बद्ध गलतियों, जो सुप्रीम कोर्ट की नज़रों में अप्रभावी है, के
लिए सज़ा के प्रावधान के औचित्य का प्रश्न है, तो इस तकनीकी पहलू को शायद
विधि-विशेषज्ञ कहीं अधिक डील कर पायें; पर वर्तमान सन्दर्भ में किसी व्यक्ति के
लिए भी पहली पत्नी के रहते हुए दूसरे विवाह का निषेध किया गया है और उसे अप्रभावी
माना गया है, पर इसे अपराध की श्रेणी में रखते हुए इसके लिए भी सज़ा का प्रावधान
किया गया है। ऐसी स्थिति में भारतीय दण्ड
संहिता(IPC) की धारा 494 सात साल तक की सज़ा का प्रावधान करती है और
उसकी पहली पत्नी एवं बच्चों के लिए मुआवज़े का प्रावधान भी किया गया है। अगर उसने
अपने शादी-शुदा होने की बात अपने पार्टनर से छुपायी है, तो ऐसी स्थिति में सज़ा की
अवधि बढ़ाकर दस साल तक की जा सकती है। इसीलिए प्रथम दृष्टया यह तर्क उचित
नहीं प्रतीत होता है कि वैवाहिक जीवन से सम्बद्ध गलतियाँ सिविल मामले हैं और
इसीलिए इसे अपराध की श्रेणी में रखते हुए इसके लिए सज़ा का प्रावधान उचित नहीं है।
हाँ, इसमें कुछ व्यावहारिक समस्याएँ ज़रूर हैं, और वे ये कि:
a. अगर तलाक-ए-बिद्दत अप्रभावी है और सुप्रीम कोर्ट
के निर्णय के बाद तलाक-ए-बिद्दत के बावजूद पति-पत्नी का वैवाहिक सम्बन्ध कायम रहता
है, तो फिर इसके लिए जेल एवं मुआवज़े के प्रावधान
का औचित्य क्या है और इसे किस प्रकार सुनिश्चित किया जाएगा?
b.
इतना ही
नहीं, अगर पति मुआवज़े अदा करने की स्थिति में नहीं
है, तो उस स्थिति में कैसे पत्नी के हितों को संरक्षित किया जाएगा?
c.
इसी
प्रकार बच्चे के संरक्षकत्व के सन्दर्भ में बच्चे
के हितों की अनदेखी की गयी है, जबकि इस प्रश्न पर बच्चे के हितों के
परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना चाहिए।
ये वे प्रश्न हैं जिनकी संशोधनों के प्रश्न पर
विचार करते हुए भी अनदेखी की गयी है।
अध्यादेश का औचित्य:
अबतक अनु. 123 के तहत् अध्यादेश जारी करने के अधिकार के
इस्तेमाल का अनुभव यह बतलाता है कि आरम्भ से ही तमाम् सरकारों ने इस शक्ति का
उपयोग कम और दुरूपयोग कहीं अधिक किया। इसका इस्तेमाल कभी संसद को बाईपास करने के
लिए किया गया, तो कभी संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए। सरकार का यह तर्क
है कि:
1.
अगस्त,2017 में शायरा बानो बनाम् भारत संघ वाद
में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भी
इसे रोक पाने में असमर्थ है। इसकी पुष्टि इस आँकड़े से भी होती है। जनवरी,2017 से 13 सितम्बर,2018 तक तुरन्त तलाक़ के आनेवाले 430 मामलों
में 201 मामले 22 अगस्त,2017 के बाद के हैं, जिसका मतलब यह हुआ कि सुप्रीम
कोर्ट के निर्णय ने इस पर अंकुश तो लगाया है, पर यह इसे पूरी तरह से रोक पाने में
असमर्थ है। इसीलिए सरकार ने इसे क्राइम की श्रेणी में रखते हुए इसके लिए तीन साल
की सज़ा के विधायी प्रावधान के ज़रिये इस पर अंकुश लगाना चाहा है। दरअसल सरकार इन
प्रावधानों का इस्तेमाल प्रतिरोधक(Deterrent) के रूप में करना चाहती है। सरकार इन्हीं तथ्यों के आलोक में
अध्यादेश जारी करने के अपने क़दम का औचित्य साबित करना चाहती है।
2.
सरकार राज्यसभा में बहुमत के अभाव और विपक्ष के असहयोगी एवं
नकारात्मक रवैये का भी हवाला देते हुए तीन तलाक पर जारी अध्यादेश का औचित्य
साबित करने की कोशिश कर रही है।
अध्यादेश के औचित्य की समीक्षा:
भारतीय संविधान अध्यादेश लाए जाने की सशर्त
अनुमति प्रदान करता है: जब संसद का सत्र नहीं चल रहा हो, और जब ऐसा करना अपरिहार्य
हो गया हो। लेकिन, ट्रिपल तलाक संशोधन अध्यादेश इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता है:
1.
संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी और संसद की अवमानना: ऐसे समय में जब मुस्लिम महिला (अधिकारों का
संरक्षण) विधेयक,2017 लोकसभा से पारित हो चुकी है, राज्यसभा में लंबित है और
राज्यसभा उसे संशोधित रूप में पारित करना चाहती है, सरकार के द्वारा ट्रिपल तलाक
पर अध्यादेश जारी करना कहीं-न-कहीं
संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी है और इसीलिए संसद की अवमानना है।
2.
राज्यसभा में अल्पमत और आम सहमति का अभाव उचित कारण नहीं: राज्यसभा में बहुमत का अभाव या फिर आम सहमति न
बन पाना अध्यादेश लाये जाने का उचित कारण नहीं हो सकता है क्योंकि अध्यादेश की आयु
अधिकतम छह महीने की होती है। इसके पूर्व इन्हें संसद के दोनों सदनों से पारित
करवाना होता है, अन्यथा वह समाप्त हो जाता है।
3.
प्रस्तावित बिल का पारित न होना फ्लोर मैनेजमेंट में सरकार की
विफलता का परिचायक: अगर सरकार विपक्ष
को विश्वास में लेकर उसका सहयोग हासिल कर पाने और आम-सहमति बना पाने की स्थिति में
नहीं है, तो यह सरकार की विफलता है जिसका सम्बंध उसकी कार्यशैली और फ्लोर
मैनेजमेंट में उसके असामर्थ्य से है।
4.
छह माह की भीतर संसद के द्वारा इसका अनुमोदन ज़रूरी: वैसे भी सरकार जो तर्क दे रही है, वह बहुत
संतोषजनक नहीं है क्योंकि अध्यादेश अधिक-से-अधिक छः माह की राहत देता है। केंद्र
सरकार को छह माह में इस अध्यादेश को विधेयक की शक्ल में संसद में पारित कराना होगा,
अन्यथा यह अप्रभावी हो जाएगा।
5.
तुरंत तीन तलाक़ की समस्या के जारी रहने का निदान अध्यादेश के जरिये
संभव नहीं: सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी तीन
तलाक के मामले सामने आ रहे हैं जो यह दर्शाता है कि ऐसा करने वालों में क़ानून का
कोई भय नहीं रह गया है, लेकिन अगर ऐसा हो रहा है, तो उसका कारण यह है कि वर्तमान
में इस फैसले के क्रियान्वयन के लिए उपयुक्त सामाजिक माहौल उपलब्ध नहीं है। लेकिन,
इस फैसले के कारण यह ज़रूर हुआ है कि जहाँ सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के पहले तक
मुस्लिम औरतें इसके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाती थीं और ऐसे मामलों को दबा दिया
जाता था, वहीं अब धीरे-धीरे वे इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही हैं। यह इस ओर इशारा
करता है कि मुस्लिम समाज को जागरूक एवं शिक्षित बनाये बिना इसे ज़मीनी धरातल पर
उतारना मुश्किल होगा, इसीलिए इस दिशा में सार्थक एवं प्रभावी पहल अपेक्षित है।
इसीलिए इस समस्या का समाधान अध्यादेश के जरिये संभव नहीं है, इसके लिए आवश्यकता है
कि व्यापक जन-जागरूकता अभियान चलाते हुए मुस्लिम समाज की महिलाओं को सुप्रीम कोर्ट
के इस निर्णय और इसके बहाने उन्हें अपने अधिकारों से अवगत करवाया जाय, ताकि वे
अपने हक के लिए आवाज़ उठा सकें और अपने शौहर की ज्यादतियों के खिलाफ दृढ़तापूर्वक
खड़ी हो सकें।
अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट
में याचिका:
मुस्लिमों में तीन तलाक को अपराध घोषित करने
संबंधी अध्यादेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में सुन्नी मुस्लिम उलेमा संगठन'समस्त
केरल जमीयत-उल उलेमा’ के द्वारा याचिका दायर की गयी है। इस याचिका के ज़रिये
हालिया अध्यादेश को चुनौती देते हुए कहा गया है
कि:
1.
मुस्लिम
महिला (अधिकार एवं विवाह संरक्षण) अध्यादेश 2018 संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21
का उल्लंघन है।
2. याचिककर्ता का कहना है कि सरकार ने तीन तलाक
अध्यादेश लाने के लिए संविधान के अनुच्छेद का दुरुपयोग किया है।
मसले का विश्लेषण:
निश्चय ही सरकार ने इस बिल में संशोधन की दिशा
में जो पहल की, वह स्वागत-योग्य है। इससे इन प्रावधानों के दुरूपयोग की संभावनाओं
के साथ-साथ विपक्ष की आपत्तियों को कुछ हद तक निरस्त किया जा सकेगा। ऐसी स्थिति
में इस मसले पर संवाद कायम किया जा सकेगा जो इस समस्या के समाधान का मार्ग प्रशस्त
करेगा। लेकिन, यह बिल सरकार के लिए भी सबक है। संशोधनों की दिशा में यह पहल इस बात
का संकेत देती है कि इस मसले पर सरकार ने सोच-विचारकर कदम उठाने की बजाय जल्दबाजी
की और इसका खामियाज़ा उसे भुगतना पड़ा। अगर सरकार पहले से सजग रहती, तो शायद यह नौबत
नहीं आती। खैर, यह अच्छी बात है कि सरकार ने समय रहते अपनी भूल सुधारने की दिशा
में पहल की, पर अध्यादेश जारी कर उसने दूसरी भूल कर दी। इससे न केवल टकराव का
माहौल बनेगा और संवाद की प्रक्रिया बाधित होगी, वरन् इस मसले के राजनीतिकरण की
संभावना को भी बल मिलेगा।
दरअसल सरकार और विपक्ष, दोनों ही
इस मसले पर राजनीति कर रहे हैं। सरकार
इस मसले पर आक्रामक रूख को अपना कर खुद को मुस्लिम महिलाओं की हितैषी के रूप में
प्रस्तुत करना चाहती है जिसमें कुछ गलत भी नहीं है, पर समस्या यह है कि इस क्रम
में समग्र मुस्लिम समाज और सभी मुसलमान पुरुषों की नकारात्मक छवि निर्मित हो रही
है। साथ ही, सत्तारूढ़ दल इस बहाने सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की अपनी रणनीति
को भी अंजाम देने की कोशिश में लगा है क्योंकि उसके इस कदम ने जहाँ मुस्लिम समाज
के रूढ़िवादी तबके को नाराज़ किया है, वहीं हिंदुत्व के प्रति आग्रहशीलता रखने वाला
तबका सरकार के इस कदम से खुश है और उसकी नज़रों में यह कदम मुसलमानों को दबाने में
सहायक होगा। इस पृष्ठभूमि में इस कदम का सम्बन्ध बहुसंख्यकवादी राजनीति से भी जाकर
जुड़ता है।
कमोबेश यही स्थिति विपक्ष की भी है। विपक्ष भी
कहीं-न-कहीं इस मसले पर ढुलमुल रवैया अपनाकर मुस्लिम समाज के रूढ़िवादी तबके को खुश
करने की कोशिश कर रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इस मसले की संवेदनशीलता एवं
गंभीरता को समझते हुए इसके राजनीतिकरण से परहेज़ किया जाय और मुस्लिम महिलाओं के
मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए विपक्षी दलों को विश्वास में लेते हुए न
केवल आमसहमति कायम की जाय, वरन् सम्बद्ध हित-समूहों को भी इस प्रक्रिया में शामिल
करते हुए इस विधायी पहल के ज़मीनी धरातल पर क्रियान्वयन हेतु उपयुक्त माहौल निर्मित
किये जायें। महत्वपूर्ण विधायी पहल नहीं, महत्वपूर्ण है ज़मीनी धरातल पर इसका
क्रियान्वयन।
इतना ही नहीं, इस बात को समझने की ज़रुरत है कि
तुरंत ट्रिपल तलाक अर्थात् तलाक-ए-बिद्दत इस्लामिक समाज ही नहीं, वरन् भारतीय समाज
की भी एक महत्वपूर्ण समस्या है, एकमात्र समस्या नहीं। दरअसल
मसला सिर्फ तलाक-ए-बिद्दत का नहीं है, मसला निकाह हलाला और बहुविवाह का भी है
जिस पर मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है इसीलिए मुस्लिम पर्सनल लॉ में व्यापक एवं समग्र सुधार की ज़रुरत है।
इन समस्याओं को भी नोटिस में लेने की ज़रुरत है, लेकिन इस प्रश्न का राजनीतिकरण इन
संभावनाओं को निरस्त करेगा और ऐसी स्थिति में आनेवाले समय में इस दिशा में पहल
आसान नहीं होगी। संक्षेप में कहें, तो लैंगिक
सन्दर्भों में सामाजिक न्याय और महिला सशक्तीकरण के तकाजों की न तो अनदेखी की जा
सकती है और न ही की जानी चाहिए, पर देश में व्याप्त सामाजिक-राजनीतिक
वातावरण इस आशंका को जन्म दे रहा है कि कहीं ट्रिपल तलाक का मसला भी बहुसंख्यकवाद
को थोपने वाले उपकरण में तब्दील न हो जाय जिसे हर स्थिति में निरस्त किये जाने की
ज़रुरत है क्योंकि इससे देश का सामाजिक-धार्मिक माहौल बिगड़ सकता है। यहाँ पर इस बात
को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि तलाक़-ए-बिद्दत के प्रश्न पर विचार के क्रम
में समान नागरिक संहिता(UCC) के मसले पर विधि आयोग की हालिया रिपोर्ट को भी ध्यान
में रखा जाना चाहिए।
यूनीफॉर्म
सिविल कोड: विधि आयोग की रिपोर्ट,2018
जून,2016 में विधि मंत्रालय ने विस्तृत
विचार-विमर्श के लिए समान नागरिक संहिता का मसला न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बीएस
चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग को सौंपा गया और इससे अपेक्षा की
गयी कि वह इस मसले पर विस्तृत विचार-विमर्श करते हुए इस सन्दर्भ में उपयुक्त सुझाव
दे। अक्टूबर,2016 में विधि आयोग ने एक प्रश्नावली तैयार की, जिसके जरिये यह जानने
की कोशिश की जाय कि कैसे समान नागरिक संहिता या फिर वैयक्तिक विधि के संहिताकरण के
लिए समाज को तैयार किया जा सके और क्या यह लैंगिक समानता सुनिश्चित कर सकेगी?
दरअसल इसके जरिये इस बात का अंदाज़ा लगाने का प्रयास किया गया कि समाज कहाँ तक इसके
लिए तैयार है। चूँकि समान नागरिक संहिता एक विस्तृत विषय है और इसे पूरा तैयार
करने में समय लगेगा जिसका उसके पास अभाव है, इसीलिए उसने इस मसले पर अंतिम रिपोर्ट
देने से परहेज़ करते हुए उसकी बजाए परामर्श-पत्र को तरजीह दी। अगस्त,2018 में अपने
कार्यकाल के अंतिम दिन आयोग के द्वारा प्रस्तुत परामर्श-पत्र और इसमें मौजूद
निष्कर्ष पिछले दो वर्षों के विस्तृत शोध और विचार-विमर्श का परिणाम हैं। अब अंतिम
रिपोर्ट के लिए नवगठित 22वें विधि आयोग की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी होगी।
वर्तमान परिदृश्य में समान नागरिक संहिता
का प्रश्न व्यावहारिक नहीं:
अगस्त,2018 में प्रस्तुत अपने परामर्श-पत्र में आयोग
ने कहा कि इस समय समान नागरिक संहिता की ‘न तो जरूरत है और न ही वांछित।’ विधि
आयोग ने अपने इस निष्कर्ष के पीछे मौजूद तर्कों की ओर इशारा करते हुए कहा कि:
1.
समान
नागरिक संहिता का मुद्दा व्यापक है और अबतक इसके संभावित नतीजों का सही तरीके से
मूल्यांकन नहीं हुआ है।
2.
न्यायमूर्ति
चौहान का यह मानना है कि देश के 26 प्रतिशत भूभाग, जिसके अंतर्गत पूर्वोत्तर,
जनजातीय इलाके और जम्मू-कश्मीर का हिस्सा आता है, में इस मसले पर संसद द्वारा
निर्मित कानून लागू नहीं होता है।
3.
आयोग ने समुदायों
के बीच समानता के प्रश्न की तुलना में समुदायों के भीतर लैंगिक समानता के प्रश्न
को कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना। उसका मानना है कि सभी धर्मों के लिए एक समान कानून
फिलहाल संभव नहीं है।
4.
आयोग का
यह भी तर्क है कि अधिकांश देश सार्वभौमिक नज़रिए के बजाय पहचान की विविधताओं एवं
विभिन्नताओं को मान्यता देते हुए उसके प्रति सम्मान-प्रदर्शन की उन्मुख हो रहे हैं।
यह मज़बूत लोकतंत्र की पहचान है। इसके पीछे यह धारणा है कि विभिन्नताओं की मौजूदगी
मात्र विभेद को जन्म नहीं देती है।
स्पष्ट है कि विधि आयोग की राय भी इस ओर इशारा
करती है कि देश की विविधता को समाप्त कर सब पर एकसमान वैयक्तिक विधि (Personal
Law) न तो थोपी जा सकती है और न ही थोपी जानी चाहिए। इसीलिए विधि आयोग ने समान नागरिकता
संहिता की दिशा में पहल की तुलना में पर्सनल लॉ में ‘चरणबद्ध’ तरीके से बदलाव को
कहीं अधिक व्यावहारिक माना तथा इस दिशा में पहल का सुझाव दिया।
समान नागरिक संहिता की बजाय वैयक्तिक
विधि के संहिताकरण पर बल:
आयोग ने विविधताओं और विभिन्नताओं के प्रति
सम्मान की बात तो की, पर यह स्पष्ट किया कि इन्हें किसी विशिष्ट समूह को सुविधाओं
से वंचित रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। आयोग ने सती प्रथा, देवदासी प्रथा,
तीन तलाक और बाल विवाह को धार्मिक आवरण में मौजूद सामाजिक बुराइयाँ मानते हुए जहाँ
मानवाधिकारों के मूलभूत संकल्पना के प्रतिकूल माना, वहीं इस बात पर भी जोर दिया कि
ये धर्म के लिए अनिवार्य भी नहीं हैं। लेकिन, उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन होने
के कारण आयोग ने परामर्श-पत्र में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह संवेदनशील
एवं विवादास्पद मसलों पर कुछ कहने से परहेज़ किया। आयोग ने विस्तृत परिचर्चा के बाद
जारी परामर्श-पत्र में विभिन्न धर्म-मतों से सम्बंधित पर्सनल लॉ में संशोधन के
जरिये बदलाव का सुझाव देते हुए उसके कुछ निश्चित पहलुओं को संहिताबद्ध करने और उन
पर अमल की आवश्यकता जतायी है। इसमें विभिन्न धर्मों में मान्य पर्सनल लॉ या वैयक्तिक
कानूनों के मुताबिक़ विवाह, संतान, दत्तक अर्थात् गोद लेने, विवाह-विच्छेद, पर्सनल
लॉ में ‘बिना गलती’ के तलाक, तलाक की स्थिति में भरण-पोषण एवं गुजारा-भत्ता, विरासत
और सम्पत्ति बँटवारा कानून जैसे प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। इस आलोक में आयोग
ने धार्मिक रीति-रिवाजों और मौलिक अधिकारों के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन एवं सद्भाव
की आवश्यकता पर बल देते हुए सभी धर्मों से सम्बंधित पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करने
का सुझाव दिया। इसने कहा
कि किसी एकीकृत राष्ट्र के लिए एकरूपता की ज़रुरत नहीं है। इसीलिए आयोग के नज़रिए से बेहतर यह होगा कि विभिन्न
धर्मों के पर्सनल लॉ में सुधार करते हुए उसे युक्तिसंगत, तर्कसंगत, आधुनिक
अपेक्षाओं के अनुरूप और अधिकार सापेक्ष बनाया जाय। इसी आलोक में विधि आयोग ने पर्सनल
लॉ में कई प्रकार के सुधार के सुझाव दिए हैं:
1.
तलाकशुदा महिलाओं को शादी के बाद अर्जित संपत्ति में हिस्सा: आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि घर में महिलाओं की
भूमिका को पहचानते हुए उसे तलाक के समय शादी के बाद अर्जित संपत्ति में हिस्सा
मिलना चाहिए, चाहे उसका वित्तीय योगदान हो या नहीं हो। इसके लिए आयोग ने सभी धर्मों
से सम्बंधित वैयक्तिक एवं धर्मनिरपेक्ष कानूनों में तदनुरूप संशोधन का सुझाव दिया;
हालाँकि आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि यह बँटवारा
अनिवार्यत: बराबर होना चाहिए क्योंकि कई मामलों में इस तरह का नियम किसी एक पक्ष
पर अनुचित बोझ डाल सकता है। इस आलोक में ‘परिवार-कानून में सुधार’ विषय पर अपने
परामर्श-पत्र में इस मसले पर अदालत को विवेकाधिकार दिये जाने की बात की।
2.
पारसी माँ और उनकी संतानों को स्वेच्छा से अपना धर्म चुनने का अधिकार: भारतीय उत्तराधिकार कानून 1925 की कुछ धाराओं के
अनुसार पारसी औरतों को कम अधिकार मिले हैं। आयोग ने सुझाव दिया है कि पारसी औरतें
जब समुदाय से बाहर शादी करें, तो उन्हें अपनी पारसी पहचान को सुरक्षित रखने और
तदनुरूप आचरण का अधिकार मिले। साथ ही, उनके बच्चों को भी स्वेच्छा से अपने धर्म
चुनने का अधिकार प्राप्त हो। अगर ऐसा होता है, तो पारसी माता और गैर-पारसी पिता की
संतानों को भी अपनी मान का धर्म अर्थात् पारसी धर्म चुनने का अधिकार मिल सकेगा। स्पष्ट
है कि आयोग पारसी महिलाओं और उनके बच्चों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के
साथ-साथ समानता के अधिकार को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
3.
शादी की न्यूनतम आयु के सार्वभौमीकरण का सुझाव: आयोग ने वयस्कों के बीच शादी की अलग-अलग उम्र की
व्यवस्था को खत्म करने का सुझाव देते हुए कहा कि महिलाओं और पुरुषों के लिए शादी
की न्यूनतम कानूनी उम्र समान होनी चाहिए। आयोग ने इसके पक्ष में तर्क देते हुए कहा
कि अगर मताधिकार के सन्दर्भ में बालिग होने की सार्वभौमिक उम्र को मान्यता प्रदान
की गयी है और अठारह वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों एवं महिलाओं, दोनों को अपनी
इच्छा के अनुरूप अपने प्रतिनिधि और अपनी सरकार चुनने का अधिकार दिया गया है, तो
क्यों नहीं शादी की न्यूनतम आयु के सन्दर्भ में भी ऐसे ही सार्वभौमिक और मानदण्डों
को स्वीकार किया गया है।
4.
हिंदू अविभाजित परिवार कानून की समाप्ति: आयोग ने हिंदू अविभाजित परिवार कानून को ख़त्म करने का सुझाव दिया है
जिसके सहारे टैक्स चोरी का काम होता है।
विश्लेषण:
यह अत्यंत आश्चर्य का विषय हो सकता है कि जिन
मसलों पर पूरा देश पिछले तीन-चार वर्षों से लगातार बहस में उलझा हुआ है, उनमें से
एक मसले पर पहले चुनाव आयोग ने कहा कि एक देश एक
चुनाव नहीं हो सकता है और अब दूसरे मसले अर्थात् समान नागरिक संहिता की
संभावनाओं को ख़ारिज करते हुए विधि आयोग ने भारतीय जनमानस, उसकी उदार सोच और धार्मिक
बहुलतावाद के साथ-साथ बहुलतावादी संस्कृति के प्रति उसके सम्मान को कहीं अधिक अहमियत
दी। इस आलोक में इस तथ्य से इनकार करना मुश्किल है कि राजनीति ने इन मुद्दों को
जन्म दिया, इन्हें वैधता दिलाने की कोशिश की, मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान
भटकाकर इसका लाभ उठाया और विशेषज्ञ संस्थाओं के द्वारा इन संभावनाओं को ख़ारिज
करने के समाचार एवं इस पर विमर्श को दबाकर ऐसे ही नये मुद्दों की तलाश कर रही है।
स्पष्ट है कि सामान नागरिक संहिताराजनीतिकरण ने इस मसले को सुलझाने की बजाय उलझाया
कहीं अधिक है। इसके परिणामस्वरूप यह मसला सांप्रदायिक एजेंडे का शिकार हो गया और
इसका इस्तेमाल भारतीय समाज में सम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को नजाम देने के लिए किया
गया। इसके नाम पर चलने वाली बहसों के बहाने मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा करने की
कोशिश की गयी और ग़ैर-मुस्लिम भारतीय समाज, विशेषकर हिन्दुओं, के एक बड़े हिस्से,
जो अपेक्षाकृत कम पढ़ा लिखा है और दिमाग़ के बदले दिल से सोचता है, में इस धारणा
को बल दिया गया कि मुसलमानों को विशेष क़ानूनी संरक्षण हासिल है।
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