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अरुणाचल प्रदेश से उत्तराखंड तक
राजनीतिक संकट से संवैधानिक संकट की ओर
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मुख्य मुद्दे:
1. भाग 1: अरुणाचल का राजनीतिक संकट
2. भाग 2: उत्तराखंड संकट
3. भाग 3: राजनीतिक अस्थिरता और छोटे राज्य
4. भाग 4: दल-बदल
5. भाग 5: स्पीकर की भूमिका
6. भाग 6: राज्यपाल की भूमिका
7. भाग 7: अनु• 356 का प्रयोग
8. भाग 8: राष्ट्रपति की भूमिका
9. भाग 9: न्यायपालिका की भूमिका
10. भाग 10: संघवाद से जुड़े प्रश्न
11. भाग 11: संसदीय लोकतंत्र पर प्रभाव
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भाग 1: अरुणाचल संकट
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2014 में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में बयालीस स्थानों पर जीत के साथ काँग्रेस साठ सदस्यीय अरुणाचल विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई और नबाम तुकी के नेतृत्व में सरकार का गठन किया गया।बाद में पाँच सदस्यीय पीपुल्स पार्टी ऑफ अरूणाचल प्रदेश(PPA) के कांग्रेस में विलय के साथ कांग्रेस विधायकों की संख्या बढ़कर सैंतालीस हो गई।
जैसा कि काँग्रेस में "हाईकमान संस्कृति" के कारण अक्सर प्रांतीय नेतृत्व को ऊपर से थोपा जाता है, इस कारण आंतरिक स्तर पर दलगत गुटबंदी की समस्या हमेशा बनी रही है। यही समस्या दिसम्बर,2014 में तब उभरकर सामने आई जब कांग्रेस के वरिष्ठ असंतुष्ट नेता कालिखो पूल ने सरकार की वित्तीय अनियमितताओं को लेकर प्रश्न उठाया। इसकी प्रतिक्रिया में पहले पुल को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त किया गया और फिर अप्रैल,2015 में पार्टी-विरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप में छह वर्ष के लिए पार्टी से बाहर कर दिया गया। लेकिन, मई,2015 में उन्होंने पार्टी से अपने निष्कासन के विरूद्ध अदालत से स्थगन-आदेश हासिल किया। अक्टूबर,2015 यह राजनीतिक संकट गहराता चला गया। कालिखो पूल ने मुख्यमंत्री नबाम तुकी के विरूद्ध पार्टी के असंतुष्ट विधायकों को एकजुट करते हुए उन्हें अपदस्थ करने के लिए कांग्रेस हाईकमान से सम्पर्क करने की कोशिश की जो व्यर्थ रही।
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काँग्रेस का आंतरिक राजनीतिक संकट
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अक्टूबर,2015 में मुख्यमंत्री नबाम तुकी ने मंत्रिपरिषद के तीन वरिष्ठ सदस्यों को बर्खास्त किया। इसके बाद एक नेशनल डेली में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें दावा किया गया कि भूतपूर्व वित्त मंत्री कलिखो पूल के नेतृत्व में छह मंत्री समेत सैंतीस विधायक नेतृत्व-परिवर्तन के प्रयासों में लगे हैं। उस समय इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया गया, लेकिन नवम्बर,2015 में गहराते राजनीतिक संकट के समाधान के लिए काँग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गई। इस बैठक में इक्कीस विधायकों ने यह कहते हुए शिरकत करने से इंकार किया कि नबाम तुकी के नेतृत्व में होने वाली किसी भी बैठक में वे शामिल नहीं होंगे। काँग्रेस-नेतृत्व इस संकट की गंभीरता का अनुमान लगा पाने में विफल रहा। उसकी विफलता इस बात में रही कि वह इस राजनीतिक संकट को गहराने और संवैधानिक संकट का रूप धारण कर पाने से रोक पाने में असफल रहा।
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राजनीतिक संकट का संवैधानिक संकट में रूपांतरण
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भाजपा, जिसके अरूणाचल विधानसभा में ग्यारह सदस्य हैं, ने काँग्रेस के आंतरिक राजनीतिक संकट का फ़ायदा उठाते हुए उसे तूल देने की कोशिश की। ऐसा माना जाता है कि भाजपा ने नबाम तुकी सरकार को अपदस्थ कर नई सरकार के गठन की रणनीति तैयार की। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने विधानसभा-अध्यक्ष पर पद के दुरूपयोग का आरोप लगाया और इस सन्दर्भ में विधानसभा सचिवालय को सूचना दी। दिसम्बर,2015 में काँग्रेस के ये इक्कीस असंतुष्ट सदस्य भाजपा के ग्यारह सदस्यों के साथ राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा से मिले और राज्यपाल ने मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरा के बिना विधानसभा-सत्र को प्रस्तावित 14-15 जनवरी 2016 की जगह पूर्व-स्थगित(pre-pond) करते हुए 16-17 दिसम्बर 2016 को बुलाने का निर्णय लिया। उन्होंने इसके लिए 18 नवम्बर को भाजपा द्वारा दिए गए उपरोक्त नोटिस का हवाला देते हुए नौ दिसम्बर को निर्देश दिया कि विधानसभा प्राथमिकता के आधार पर स्पीकर की बर्खास्तगी के प्रश्न पर विचार करे।संवैधानिक उपबंधों के मुताबिक़ यह अपेक्षित था कि स्पीकर की बर्खास्तगी से चौदह दिन पहले उन्हें इस बात की सूचना दी जाती, लेकिन इस औपचारिकता का निर्वाह नहीं किया गया। अगर यह नोटिस अठारह नवम्बर को ही दिया गया, तो क्यों नहीं चौदह दिन की औपचारिकता पूरी होने के बाद ही कार्यवाही की गई?
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काँग्रेस की प्रतिक्रिया
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काँग्रेस ने राज्यपाल पर केन्द्र के इशारों पर काम करने का आरो़प लगाते हुए प्रस्तावित विधानसभा सत्र को पूर्व-निर्धारित किए जाने के फ़ैसले को असंवैधानिक क़रार दिया और राज्यपाल के उस निर्णय के विरोध में विधानसभा भवन में तालाबंदी कर दी। उधर विधानसभा- अध्यक्ष नबाम रेबिया ने पंद्रह दिसम्बर को चौदह बाग़ी काँग्रेस विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी।
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प्रस्तावित बैठक में लिए गए फ़ैसले
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सोलह दिसम्बर को प्रस्तावित बैठक की अध्यक्षता असंतुष्ट विधायकों में शामिल तथा अयोग्य ठहराए जा चुके विधानसभा उपाध्यक्ष टी. नोरबू ठोंगडोक ने की। विधानसभा सत्र का आयोजन विधानसभा-भवन में न होकर राजधानी स्थित एक होटल में हुआ जिसमें बीस असंतुष्ट काँग्रेसी विधायक, ग्यारह भाजपा विधायक और दो स्वतंत्र विधायक शामिल हुए। इस बैठक में स्पीकर नबाम रफ़िया को बर्खास्त किया। सत्रह दिसम्बर को तुकी सरकार के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जिसे स्वीकार किया गया और कालिखो पूल को सदन का नया नेता चुना गया।
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मामला कोर्ट में
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बर्खास्त विधानसभाध्यक्ष ने इस निर्णय को गुवाहाटी हाईकोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने सोलह-सत्रह दिसंबर की सम्पन्न सत्र को रद्द तो किया, पर विधानसभाध्यक्ष द्वारा प्रस्तुत याचिका को ख़ारिज कर दी। इस फ़ैसले के विरूद्ध स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
उधर अयोग्य क़रार दिए गए विधायकों ने नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के उल्लंघन और सुनवाई का अवसर नहीं दिए जाने के आधार पर स्पीकर के फ़ैसले को चुनौती दी। फलत: उच्च न्यायालय ने चौदह विधायकों को अयोग्य ठहराने से संबंधित स्पीकर के निर्णय पर रोक लगा दी।
अरूणाचल में राष्ट्रपति-शासन के आधार
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इससे पहले कि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अपनी ओर से कोई निर्णय दिया जाता, राज्यपाल ने इक्कीस जनवरी और पुनः चौबीस जनवरी को अरूणाचल में राज्य में संवैधानिक संकट और संवैधानिक मशीनरी की विफलता का हवाला देते हुए राष्ट्रपति-शासन लगाए जाने की सिफ़ारिश की। इसी आलोक में केन्द्र सरकार ने सत्ताइस जनवरी को अरूणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा की।
राज्यपाल ने अपने पक्ष में निम्न तर्क दिए:
1. उन्होंने राज्य में क़ानून एवं व्यवस्था की ख़राब स्थिति का हवाला दिया। इस क्रम में राजभवन के प्रवेश-द्वार पर राज्यपाल के विरूद्ध विरोध-प्रदर्शन और गोकुशी (cow slaughtering) का उल्लेख किया।
2. उन्होंने अपनी सुरक्षा और अपने जीवन को ख़तरे का भी उल्लेख किया।
3. उन्होंने उग्रवादी समूह के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री के संबंध की ओर भी इशारा किया जो अरूणाचल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर महत्वपूर्ण भू-सामरिक अवस्थिति के मद्देनज़र राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए ख़तरनाक है।
4. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में राज्य में संवैधानिक मशीनरी के पूरी तरह से ठप्प होने की बात भी की।
उनकी इस रिपोर्ट को आधार बनाकर संघीय कैबिनेट ने चौबीस जनवरी को राष्ट्रपति शासन लागू करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी। राष्ट्रपति की मंज़ूरी के बाद सत्ताइस जनवरी से राष्ट्रपति शासन लागू हुआ।
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अरूणाचल प्रदेश में संवैधानिक संकट: ज़िम्मेवार कौन ?
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अब अगर अरूणाचल प्रदेश के उपरोक्त घटनाक्रमों पर विभिन्न आयोगों की रिपोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों एवं निर्णयों के आलोक में पुनर्विचार किया जाय, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस संकट के लिए हर पक्ष ज़िम्मेवार है। सबसे पहले कांग्रेस अपने आंतरिक कलह को पार्टी के स्तर पर सुलझा पाने में असफल रही। उसकी इस असफलता ने विपक्षी दल भाजपा को सत्तारूढ़ दल के आंतरिक कलह का लाभ उठाने के लिए उत्प्रेरित किया। उसने केंद्र में अपनी मौजूदगी का लाभ उठाया। राज्यपाल ने अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने की बजाय अपने विवेकाधिकार का मनमाने तरीक़े से दुरूपयोग किया तथा तत्कालीन नबाम तुकी सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने का अवसर दिए बग़ैर राजभवन को भी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा बना दिया, मनमाने तरीक़े से विधानसभा के सत्र को पूर्व-निर्धारित किया और उन क्षेत्रों में जाकर स्वविवेक की संभावनाओं को तलाशा जहाँ संविधान इसकी अनुमति नहीं प्रदान करता है। उधर स्पीकर ने भी नैसर्गिक न्याय की संकल्पना की अवहेलना करते हुए अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के अनुरूप अपने दलीय हितों को साधने की कोशिश की। इन सबके बीच केंद्र सरकार ने भी अपने राजनीतिक हितों को साधने की कोशिश की। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का संवैधानिक बैंच इस मसले पर विचार कर रहा है। उम्मीद की जा रही है कि अरूणाचल की जटिल परिस्थितियों के बीच सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आएगा, वह बोम्मई वाद और बिहार वाद की ही तरह ऐतिहासिक साबित होगा तथा राज्यपाल एवं स्पीकर से संबंधित कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालेगा।
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राष्ट्रपति शासन से नई सरकार के गठन तक
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केन्द्र सरकार के इस फ़ैसले के विरूद्ध काँग्रेस के विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। इस याचिका के ज़रिए अनु• 356 के तहत् राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा और इस संदर्भ में राज्यपाल के विवेकाधिकार को चुनौती दी गई। इसी बीच पंद्रह फ़रवरी को कालिखो पूल ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और सत्रह फ़रवरी को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रपति-शासन हटाने की सिफ़ारिश की। काँग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में नई याचिका दायर करते हुए बाग़ी विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के प्रश्न पर अंतिम फ़ैसला होने तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश हासिल किया, लेकिन अठारह फ़रवरी को गुवाहाटी न्यायालय के फ़ैसले से संतुष्ट होकर सुप्रीम कोर्ट ने सत्रह फ़रवरी के अपने आदेश को निरस्त करते हुए सरकार गठन का मार्ग प्रशस्त किया। इसके बाद राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति शासन हटाने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी, जिसे काँग्रेस ने चुनौती दी, पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे ख़ारिज करते हुए विधानसभा शक्ति-परीक्षण का निर्देश दिया। इन निर्देशों के अनुरूप उन्नीस फ़रवरी को पूल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और पच्चीस फ़रवरी को विधानसभाध्यक्ष वांगकी लोवांग को छोड़कर चालीस सदस्यों के समर्थन से अपना बहुमत साबित किया।
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