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भाग 2: उत्तराखंड संकट
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अरूणाचल प्रदेश की तरह ही उत्तराखंड में भी काँग्रेस राजनीतिक अंतर्कलह के प्रबंधन में एक बार फिर से विफल रही। उसकी इस विफलता का लाभ एक बार फिर से मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने उठाया। एक बार फिर से सत्तारूढ़ दल का आंतरिक राजनीतिक संकट संवैधानिक संकट में रूपांतरित हुआ। अरूणाचल की तरह ही विधानसभा के स्पीकर की विवादास्पद भूमिका, उनके द्वारा सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक हितों को संरक्षित करने के लिए काम करना, मुख्यमंत्री का अक्खड़पन और केन्द्र सरकार का राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए उतावलापन: सब कुछ यहाँ पर भी मौजूद था।
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गहराता राजनीतिक संकट:
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उत्तराखंड की राजनीति पर अगर विचार करें, तो चाहे भाजपा हो या काँग्रेस , दोनों ही राजनीतिक दलों को गुटबंदी की समस्या से जूझना पड़ा है।विजय बहुगुणा जब मुख्यमंत्री थे, तब हरीश रावत ने भी इसी गुटबंदी की बदौलत काँग्रेस नेतृत्व को बहुगुणा को हटाने और ख़ुद को मुख्यमंत्री बनाने के लिए विवश किया था। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उनके विरोधी मौक़े की तलाश में थे। लोकसभा चुनाव के समय से ही काँग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए सतपाल महाराज अपने समर्थकों के सहारे रावत सरकार को अपदस्थ करने कोशिश में लगे थे, पर उन्हें विभिन्न कारणों से मौक़ा नहीं मिल पा रहा था। उन्हें मौक़ा तब मिला जब भूतपूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने काँग्रेस नेतृत्व की उपेक्षा से आहत होकर अपने असंतोष को विद्रोह की परिणति तक से जाने का निर्णय लिया। उन्हें अवसर मिला हरीश रावत द्वारा फ़रवरी,2016 में बहुगुणा समर्थक सुबोध उनियाल को मंत्री बनाने के प्रश्न पर बनी सहमति से मुकरने के कारण।
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आंतरिक गुटबंदी के विविध पक्ष
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कोई भी राजनीतिक दल आंतरिक गुटबंदी से अछूता नहीं होता है। इस आंतरिक गुटबंदी के हमेशा नकारात्मक पक्ष ही नहीं होते हैं। दरअसल किसी भी राजनीतिक दल के विभिन्न गुट दरअसल उस राजनीतिक दल की आंतरिक लोचशीलता को दर्शाते हैं जिसके सहारे कोई भी राजनीतिक दल ख़ुद को जनमत के अनुरूप ढालनें में सक्षम होता है और इससे उसका स्वरूप भी कहीं अधिक प्रातिनिधिक होता है। साथ ही, यह पार्टी को भी जीवंत बनाता है। लेकिन, समस्या तब आती है जब आंतरिक गुटबंदी में बढ़त हासिल करने वाला अन्य गुटों को हाशिए पर पहुँचाने की कोशिश करता हुआ अपने समर्थकों हर जगह पर क़ाबिज़ कराता है। सत्ता में साझेदारी/ हिस्सेदारी गुटबंदी को पार्टी विरोधी रूख अख़्तियार करने से रोकता है और अगर ऐसा न हो, तो असंतोष की परिणति विद्रोह के रूप में होती है। अरूणाचल और उत्तराखंड संकट के मूल में यही है और काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की विफलता इस बात में है कि उसने गुटीय संतुलन को सुनिश्चित करने की बजाय किसी विशेष गुट के प्रति अपने झुकाव को प्रदर्शित किया। वैसे इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि काँग्रेस नेतृत्व के स्तर पर संक्रमण की दौर से गुज़र रहा है और अक्सर ऐसी स्थिति में शीर्ष नेतृत्व कमज़ोर और अप्रभावी नज़र आता है, ख़ासकर तब जब नया नेतृत्व राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व न हो। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है।
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राष्ट्रपति-शासन लगाए जाने का आधार
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केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की घोषणा करते हुए इसके पक्ष में निम्न तर्क दिए:
1• रावत सरकार द्वारा स्पीकर के सहयोग से विनियोग विधेयक पारित करवाना और इस क्रम में विनियोग विधेयक पर नौ बाग़ी काँग्रेस विधायकों और छब्बीस भाजपा विधायकों की माँग की स्पीकर द्वारा अनदेखी। भाजपा का मानना है कि रावत सरकार उसी दिन अल्पमत में आ गई थी।
2•स्टिंग आपरेशन की कथित सी•डी•, जिसमें मुख्यमंत्री हरीश रावत को विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करते दिखाया गया है। केन्द्र सरकार का यह दावा है कि उसने चंडीगढ़ के फाॅरेंसिक लैब से उस सीडी की जाँच करवाई जिसमें सीडी को सही पाया गया।
3• स्पीकर का असंवैधानिक आचरण
4• राज्यपाल की रिपोर्ट, जिसमें उत्तराखंड की राजनीतिक स्थिति को अस्थिर बताया गया और विश्वास मत के दौरान हंगामें की आशंका जताई गई।
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कुछ अनुत्तरित प्रश्न
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अब कुछ प्रश्न ऐसे उभरकर सामने आते हैं जिन्हें वित्त मंत्री के ब्लाॅग ने सुलझाने की बजाय उलझा दिया है। वित्तमंत्री ने विनियोग विधेयक विवाद का हवाला देते हुए कहा कि विनियोग विधेयक बत्तीस वोटों के मुक़ाबले पैंतीस वोटों से ख़ारिज कर दिया गया, जबकि अबतक यह जानकारी सामने आई थी कि भाजपा और काँग्रेस के असंतुष्ट सदस्यों की माँग के बावजूद स्पीकर ने विनियोग विधेयक को ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया। सवाल यह उठता है कि अगर वित्तमंत्री का दावा सही है, तो (18-26) मार्च के बीच राज्यपाल और केन्द्र सरकार हाथ-पर-हाथ डालकर बैठे क्यों रहे? क्यों नहीं कार्यवाही की गई? दूसरी बात यह कि भाजपा विधायकों और काँग्रेस के असंतुष्ट सदस्य क्या कर रहे थे? उन्होंने कोर्ट की ओर रूख क्यों नहीं किया?
तीसरी बात यह कि जब अट्ठाइस मार्च को बहुमत परीक्षण प्रस्तावित था, तो फिर क्यों नहीं बहुमत परीक्षण के परिणाम का इंतज़ार किया गया गया, यह जानते हुए कि फ़्लोर टेस्ट संसदीय लोकतंत्र की उस मूल संकल्पना की उपज है जो मानती है कि सरकार अपना औचित्य और अधिकारिता विधायिका के विश्वास से ग्रहण करती है?
वित्त मंत्री ने दूसरा प्रश्न यह उठाया कि राज्यपाल के दो-तीन दिनों के अंदर बहुमत साबित करने के बारंबार आग्रह के बावजूद मुख्यमंत्री ने उनकी एक नहीं सुनी, जबकि वास्तविकता यह है कि राज्यपाल ने विनियोग विधेयक से संबंधित शिकायत के मद्देनज़र बीस मार्च को ही अट्ठाइस मार्च तक बहुमत साबित करने के निर्देश दिए।
वित्तमंत्री ने तीसरा मसला विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त से संबंधित स्टिंग का उठाया। यहाँ पर भी स्टिंग वीडियो तैयार करने से लेकर उसे दिल्ली भेजने, फिर दिल्ली से चंडीगढ़ भेजने, चंडीगढ़ में जाँच, जाँच के पश्चात् रिपोर्ट का उसी दिन दिल्ली आना तथा कैबिनेट की मीटिंग के बाद राष्ट्रपति शासन का निर्णय सारी प्रक्रियाएँ छब्बीस मार्च को ही पूरी की गई जो संदेह पैदा करता है।दूसरी बात यह कि बिहार विधानसभा भंग मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने सख्तशब्दों में करा था कि राज्यपाल का काम यह देखना नहीं है कि विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त हो रही है अथवा नहीं? तीसरी बात यह कि अगर ऐसा हुआ है, तो हरीश रावत के ख़िलाफ़ प्राथमिकी क्यों क्यों नहीं की गई? ये तमाम प्रश्न उत्तर की माँग करते हैं।
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स्पीकर की विवादास्पद भूमिका
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उत्तराखंड के स्पीकर की भूमिका भी अरूणाचल प्रदेश के विधानसभा के स्पीकर की तरह विवादास्पद रही जिसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1• विनियोग विधेयक पर विधायकों की माँगों के बावजूद मत-विभाजन न करवाना। यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि क्या स्पीकर मतविभाजन की सदस्यों की माँग स्वीकारने के लिए बाध्य हैं?
2• अरूणाचल प्रदेश के स्पीकर की तुलना में उत्तराखंड के स्पीकर ने दल-बदल के मसले पर विचार करते हुए आरोपित सदस्यों को अपना पक्ष रखने का तो मौक़ा दिया, पर इन्हें आरंभ में (26 मार्च को ) निलम्बित और सत्ताइस मार्च को बर्खास्त करते वक़्त पहले से लम्बित भाजपा विधायक से संबंधित मामले पर कारर्वाई न करने की चूक की , जिससे उनकी राजनीतिक पक्षधरता के संकेत मिले और लगा कि वे मुख्यमंत्री के साथ मिले हुए हैं।
3• स्पीकर द्वारा कांग्रेस के असंतुष्ट एवं विद्रोही सदस्यों को अयोग्य तब ठहराया गया जब उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा की जा चुकी थी। स्पीकर ने यह कहते हुए अपने फ़ैसले का बचाव किया कि उन्हें केन्द्र सरकार के इस फ़ैसले के संदर्भ में औपचारिक रूप से कोई सूचना नहीं मिली है।
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उत्तराखंड का संवैधानिक संकट और हाईकोर्ट का फ़ैसला:
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उत्तराखंड की बर्खास्त सरकार ने बर्खास्तगी के ख़िलाफ़, तो दलबदल क़ानून के तहत् अयोग्य घोषित किए गए काँग्रेस के असंतुष्ट सदस्यों ने स्पीकर के निर्णय के विरूद्ध उत्तराखंड हाईकोर्ट में अपील की।हाईकोर्ट के एक सदस्यीय बैंच ने हरीश रावत को 31 मार्च को विश्वास मत का हासिल करने का निर्देश दिया। इस बहुमत परीक्षण में स्पीकर द्वारा अयोग्य घोषित किए गए सदस्योंको इस निर्देश के साथ मतदान की अनुमति दी कि इनके मत अलग रखें जायेंगे और उन मतों की गणना तभी की जाएगी जब हाईकोर्ट द्वारा इस मामले में अंतिम आदेश दिया जाएगा। कोर्ट ने इस बहुमत परीक्षण की कार्यवाही के पर्यवेक्षण के लिए अपनी ओर से विशेष पर्यवेक्षक भेजे जाने की बात की जो पूरी कार्यवाही की रिपोर्ट कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत करेगा।
हाईकोर्ट के इस फ़ैसले में कई विसंगतियाँ थी जिन्हें निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1• सवाल यह उठता है कि जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू है और इसी उद्घोषणा के तहत् राज्य विधानसभा को निलंबित रखा गया है, तो बिना राष्ट्रपति शासन हटाए और विधानसभा के निलंबन को समाप्त किए इस निर्णय को कैसे क्रियान्वित किया जा सकता है?
2• एक बर्खास्त सरकार को पुनर्बहाल किए बिना कैसे बहुमत परीक्षण का निर्देश दिया जा सकता है?
3• हाईकोर्ट ने एक ओर अयोग्य घोषित सदस्यों की अयोग्यता के संदर्भ में स्पीकर के निर्णय पर रोक लगाने से इन्कार किया, दूसरी ओर कोई सदस्य अयोग्य रहते हुए कैसे बहुमत परीक्षण में शामिल हो सकता है?
निर्णय की इन्हीं विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट के दो सदस्यीय बैंच ने सात अप्रैल तक एक सदस्यीय बैंच के बहुमत परीक्षण के निर्णय पर रोक लगाई और अगली सुनवाई की तारीख छह अप्रैल निर्धारित की।
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