Thursday 7 April 2016

Samvaidhanik Sankat: Arunachal Se Uttarakhand Tak PART THREE

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                भाग 3: राजनीतिक अस्थिरता और छोटे राज्य
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अरूणाचल प्रदेश और उसके बाद उत्तराखंड: दोनों छोटे राज्यदोनों जगहों पर विधानसभा का छोटा आकार, दोनों सत्तारूढ़ दल की आंतरिक गुटबाज़ी और विपक्षी दल की नकारात्मक अवसरवादी राजनीति के शिकार: ये कॉमन ट्रेंड के रूप में दोनों जगहों पर मौजूद हैं.। छोटेराज्यों में न तो ऐसा पहली बार हुआ है और न ही अंतिम बार( तबतक जबतक दलबदल क़ानून के वर्तमान प्रावधानों को बदला नहीं जाता है)। अब तक का अनुभव यह बतलाता है कि छोटे राज्य बड़े राज्यों की तुलना में राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक अस्थिर होते हैं। दो चीज़ें छोटे राज्यों को कहीं अधिक अस्थिर बनाती हैं:
1• दलबदल क़ानून का स्वरूप ऐसा है जो छोटे राज्यों में दल-बदल पर अंकुश लगाने की बजाय उसे प्रोत्साहन देता है। इसीलिए वहाँ कम अंतरालों पर नेतृत्व-परिवर्तन की बारंबारता अधिक है।
2• मज़बूत केन्द्र पर आधारित संघवाद का माॅडल राज्य की कमज़ोर वित्तीय स्थिति के साथ मिलकर छोटे राज्यों को निष्ठा-परिवर्तन के लिए उत्प्रेरित करते हैं। 
उपरोक्त दोनों कारक मिलकर छोटे राज्यों को केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के कुचक्र का शिकार बनाते हैं।
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                      भाग 4 : दल-बदल क़ानून
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1985 में दल-बदल पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाने और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता की चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए बावनवें संविधान- संशोधन के ज़रिए भारतीय संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके तहत् दसवीं अनुसूची के दल-बदल से संबंधित प्रावधानों को अनु• 102(2) और अनु• 191(2), जिसे बावनवें संशोधन के ज़रिए ही संविधान में जोड़ा गया थाके साथ जोड़कर पढ़े जाने का प्रावधान किया गया।



दलबदल से आशय:
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इस अधिनियम के ज़रिए दल-बदल को परिभाषित करते हुए कहा गया कि किसी व्यक्ति की संसद या विधान मंडल की सदस्यता समाप्त हो जाएगी यदि वह:
1.  संसद या विधान मंडल का कोई सदस्य स्वेच्छा से अपनी पार्टी से त्यागपत्र दे देता है या फिर 
2.  किसी मसले पर वोटिंग के मद्देनज़र पार्टी-ह्विप का उल्लंघन करता है और इसके पंद्रह दिनों के भीतर उसे पार्टी की ओर से माफ़ी नहीं मिल जाती है
3.  निर्दलीय सदस्य के रूप में चुने जाने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है
4.  मनोनीत सदस्य है और मनोनयन के छह माह बादजब उसे पार्टी या निर्दलीय सदस्य के रूप में मान्यता मिल जाती हैकिसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न निर्णयों और आदेशों के ज़रिए यह स्पष्ट किया कि सार्वजनिक रूप से अपने राजनीतिक दलों का विरोध या फिर किसी दूसरे राजनीतिक दल के प्रति समर्थन का इज़हार करता हैतो इसे "दल से त्यागपत्र" माना जाएगा।

दल-बदल क़ानून के अपवाद:
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यदि कोई व्यक्ति निम्न  स्थितियों में अपने मूल राजनीतिक दल को छोड़ता हैतो उस पर न तो दल-बदल क़ानून लागू होगा और न ही उसकी सदस्यता ही समाप्त होगी। ये स्थितियाँ हैं:
1.  यदि किसी व्यक्ति को स्पीकरडिप्टी स्पीकरसभापति या उपसभापति चुना जाता है और चुने जाने के बाद वह अपने मूल राजनीतिक दल से इस्तीफ़ा देता है तथा पद छोड़ते ही वह दुबारा अपने मूल राजनीतिक दल में शामिल होता है। ऐसा प्रावधान स्पीकर या डिप्टी स्पीकर के पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान करने के लिए किया गया है ताकि इन पदों की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके।
2.  अगर किसी राजनीतिक दल के न्यूनतम दो-तिहाई या उससे अधिक सदस्य किसी दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होते हैंतो इसे विलय माना जाएगा और ऐसी स्थिति में दल-बदल क़ानून प्रभावी नहीं होगा।
3.  विलय की स्थिति में यदि कोई सदस्य अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध बनाए रखना चाहता हैतो उसकी सदस्यता अप्रभावित रहेगी।
4.  मूल अनुसूची में एक-तिहाई सदस्यों द्वारा अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध-विच्छेद को विभाजन माना गया और इसे भी दल-बदल क़ानून के दायरे से बाहर माना गया। लेकिन,91वें संविधान संशोधन अधिनियम,2003 के ज़रिए विभाजन वाले प्रावधान को हटा दिया गया। मतलब अब दल-बदल क़ानून इस संदर्भ में प्रभावी होगा।


पारा और सुप्रीम कोर्ट :
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इस अधिनियम का पारा दल-बदल से संबंधित मामलों में स्पीकर के निर्णय को अंतिम मानता था और इसे न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर रखता था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे मूल ढाँचे की संकल्पना के प्रतिकूल मानते हुए असंवैधानिक घोषित किया। अब न्यायालय द्वारा स्पीकर के निर्णय की समीक्षा संभव है। लेकिनस्पीकर के निर्णय के आने के पहले न्यायिक हस्तक्षेप से परहेज़ किया जा सकता है। एक बार स्पीकर का फ़ैसला आ जाता हैतो उसके फ़ैसले के विरूद्ध अनु• 136 और अनु• 226-227 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट में अपील की जा सकती है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी और दल-बदल क़ानून
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यह अधिनियम संसद और विधानमंडल के सदस्यों को पार्टी-ह्विप से बाँधता है और उसके उल्लंघन की स्थिति में उनकी सदस्यता को ख़तरे में डालता है जिसके कारण कोई व्यक्ति अपने दल से भिन्न विचार न तो रख सकता है और न ही प्रकट कर सकता है। इससे सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होती है। इसी आलोक में किहोतो होल्लोहान बनाम् जाचिल्हू एवं अन्य विवाद,1992 में पाँच सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिनियम किसी अधिकारआज़ादी या संसदीय लोकतंत्र के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करता है।


अबतक का अनुभव :
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अबतक संसद और विधानमंडल के स्तर पर दल-बदल क़ानून के क्रियान्वयन को देखा जाएतो 2008-09 तक लोकसभा और राज्यसभा में दल-बदल से संबंधित क्रमश: बासठ और चार मामले सामने अाए। इनमें लोकसभा के छब्बीस सदस्यों को अयोग्य घोषित किया गयालोकसभा और राज्यसभा के अन्य सभी मामलों में आरोपित सदस्यों की सदस्यता को बरक़रार रखा गया। जहाँ तक राज्य विधानसभा का प्रश्न हैतो 2004 तक दल-बदल से संबंधित 262 मामले स्पीकर के समक्ष सामने आए जिनमें 113 मामलों में सदस्यता बरक़रार रखी गई और अन्य मामलों में सदस्यता समाप्त कर दी गई। राज्य विधानसभा के मामलों में यह देखा गया कि स्पीकर के द्वारा दिए गए निर्णय स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की बजाय उनकी दलीय प्रतिबद्धता और राजनीतिक पक्षधरता की ओर इशारा करते हैं। किसी मामले में स्पीकर ने नैसर्गिक न्याय की संकल्पना का उल्लंघन करते हुए प्रभावित व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का मौक़ा दिए बग़ैर जल्दबाज़ी में उनकी सदस्यता रद्द कर दीतो किसी मामले में जान-बूझकर अपने फ़ैसले को लटकाए रखा ताकि उनके दल को फ़ायदा हो। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में स्पीकर का पद अराजनीतिक नहीं रह जाता है। स्पीकर का पद ग्रहण करने के बावजूद उनका अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध बना रहता है और वे राजनीतिक गतिविधियों में अपनी सक्रियता बनाए रखते हैं। समस्या की जड़ यही है और समाधान की संभावना भी इसी में निहित है।
               
               
दल-बदल क़ानून से संबंधित प्रमुख सुझाव:
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1.  1990 में चुनाव-सुधार के प्रश्न पर विचार के लिए गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने यह सुझाव दिया कि दल-बदल क़ानून से संबंधित प्रावधानों को केवल विश्वास या अविश्वास प्रस्ताव तक सीमित किया जाय जिससे सरकार की स्थिरता और अस्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
2.  अपने वर्तमान स्वरूप में दल-बदल क़ानून व्यक्तिगत स्तर पर दल-बदल पर तो रोक लगाता हैलेकिन सामूहिक दल-बदल के संदर्भ में अप्रभावी है। इसी प्रकार यह छोटे राज्यों और छोटे राजनीतिक दलों के संदर्भ में अप्रभावी हैजैसा हाल में अरूणाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मामले में देखने को मिला। इसके मद्देनज़र दल-बदल क़ानून में संशोधन करते हुए इसे हर स्थिति में प्रभावी बनाया जाए। मतलब यह कि दल-बदल की स्थिति में सदस्यों की सदस्यता समाप्त हो जाए।
3.  दल-बदल क़ानून उस स्थिति में भी अप्रभावी है जब संसद या विधानसभा भंग होने वाली है या आम चुनाव सालभर के अंदर प्रस्तावित है। ऐसी स्थिति में सदस्यता की समाप्ति नाममात्र के दंड में तब्दील हो जाती है। इस संदर्भ मेंँ विधान समीक्षा पर गठित वेंकटचेलैय्या राष्ट्रीय आयोग ने यह सुझाव दिया कि दल-बदलुओं को सदन के शेष कार्यकाल तक मंत्रिपद या अन्य कोई भी लाभ का पद धारण करने से रोका जाए। साथ हीविश्वास या अविश्वास प्रस्ताव के संदर्भ में दल-बदलुओं के वोट की गणना न की जाए।
4.  पार्टी-ह्विप के कारण कई बार सदस्य अपने विचारों और अपने क्षेत्र के मतदाताओं के हितों से संबंधित मुद्दों पर भी खुलकर स्टैंड नही ले पाते हैं। 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में यह सुझाव दिया कि राजनीतिक दल तभी ह्विप जारी करें जब सरकार ख़तरे में हो।
5.  विधि आयोग ने यह सुझाव दिया कि अगर चुनाव-पूर्व गठबंधन के सहयोगी दल चुनाव के पहले चुनाव आयोग को ऐसे गठबंधन के बारे में सूचना देते हैंतो दल-बदल क़ानून को चुनाव-पूर्व गठबंधन के संदर्भ में भी प्रभावी बनाया जा सकता है। इसके पीछे तर्क यह है कि जनप्रतिनिधियों का चुनाव पार्टी के उन कार्यक्रमों के आधार पर होता है जिनका विस्तार चुनाव-पूर्व गठबंधन के उन सहयोगियों तक होता है।
6.   दल-बदल से संबंधित मामलों में निर्रहर्ता के प्रश्न पर विचार के लिए स्पीकर को अधिकारिता दी गई है। लेकिनसमस्या यह है कि न तो इसके लिए किसी समय-सीमा का निर्धारण किया गया है और न ही स्पीकर का पद अराजनीतिक पद है। इसीलिए अक्सर स्पीकर पर राजनीतिक पक्षपात का आरोप लगता है। इसी आलोक में दिनेश गोस्वामी समिति,1990 और वेंकटचेलैय्या संविधान समीक्षा आयोग,2002 के साथ-साथ चुनाव आयोग ने एकाधिक अवसरों पर यह सुझाव दिया कि दल-बदल से संबंधित मामलों में भी निर्रहर्ता के प्रश्न पर विचार की प्रक्रिया लाभ के पद के आधार पर निर्रहर्ता पर विचार-प्रक्रिया के समान हो। यह अधिकारिता स्पीकर से लेकर राष्ट्रपति या राज्यपाल को सौंपी जाए और वे चुनाव आयोग की सलाह पर इस संदर्भ में निर्णय दें।विधि आयोग का मानना है कि जनप्रतिनिधियों को मतदाताओं को धोखा देने का अधिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि मतदाता उम्मीदवार के साथ-साथ राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र के आधार पर भी मतदान करते हैं। विधि आयोग का यह भी सुझाव है कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को सांविधिक मान्यता प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे घोषणापत्र की उपेक्षा नहीं कर सके और जनादेश के अनुरूप काम कर सके।


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               भाग 5: दल-बदल क़ानून और स्पीकर की भूमिका
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संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत स्पीकर को संसदीय लोकतंत्र के अभिभावक के रूप में देखा गया है। शायद इसीलिए वरीयता-क्रम में स्पीकर को राष्ट्रपतिउपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बाद सबसे ऊपर स्थान दिया गया है। दल-बदल अधिनियम स्पीकर की इस भूमिका को विस्तार भी देता है और मज़बूती भी प्रदान करता है। यह अधिनियम स्पीकर को दल-बदल से संबंधित निर्रहर्ता के मामलों में अर्द्ध-न्यायिक शक्तियाँ प्रदान करता हैलेकिन वह इसका इस्तेमाल मनमाने तरीक़े से या स्वविवेक से नहीं कर सकता है। उसे अपने इन अधिकारों का इस्तेमाल दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुरूप तथ्यों के आलोक में करना होता है। स्पीकर की यह शक्ति न्यायिक प्रकृति की हैऔर इसीलिए यह निर्णय न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होता है। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि स्पीकर ऐसे मामलों की स्वेच्छा से सुनवाई नहीं कर सकता है। वह तभी इस मामले पर विचार करेगा जब दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुरूप निर्रहर्ता के संदर्भ में उसके पास शिकायतें आयेंगीं। 
अगर स्पीकर दल-बदल से संबंधित शिकायतों के निबटारे में असफल रहता हैतो यह केवल प्रक्रियागत अवैधानिकता नहींं हैवरन् यह क्षेत्राधिकारगत अवैधानिकता है और संवैधानिक अपेक्षाओं के विपरीत भी है।अत: सुप्रीम कोर्ट अनु• 136 के प्रावधानों के तहत् क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटियों के आधार पर विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) को अनुमति दे सकता है।हरियाणा विधानसभा ( दल-बदल के आधार पर सदस्यों की निर्रहर्ता ) नियम, 1986 प्राकृतिक न्याय की संकल्पना पर ज़ोर देता हैलेकिन यह केस की तथ्यात्मकता पर निर्भर करता है। यहाँ पर इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि स्पीकर को अपने निर्णय की समीक्षा का अधिकार नहीं है।
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में देखा जायतो दल-बदल क़ानून के संदर्भ में स्पीकर की भूमिका को या तो पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है या फिर उसे किसी अन्य प्राधिकारी को हस्तांतरित करने की ज़रुरत है जिस पर विस्तार से चर्चा पहले ही की जा चुकी है.एक विकल्प दल-बदल क़ानून से संबंधित मामलों के निष्पादन के लिए एक स्वतंत्र मैकेनिज़्म के  विकास का हो सकता है. यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि दल-बदल के संदर्भ में स्पीकर की अधिकारिता को राष्ट्रपति और राज्यपाल को सौंपने से इससे जुड़ी हुई समस्याओं का समाधान तो हो जाएगापर स्पीकर पद से जुड़ी हुई समस्याएँ बनी रहेंगीं। हाल में सामान्य विधेयकों को स्पीकर की सहायता से धन विधेयक के रूप में पेश करने एवं इसके अनुमोदन से संबंधित विवादों के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जा सकता है।
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ब्रिटिश स्पीकर से भारतीय स्पीकर की तुलना:
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स्पीकर पद के अबतक के अनुभवों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश अनुभवों के आलोक में भारत में भी स्पीकर पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान किया जाना समाधान के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है। इस आलोक में भारतीय स्पीकर की ब्रिटिश स्पीकर से तुलना रोचक हो सकती है:
1.  ब्रिटेन में स्पीकर चुने जाने के साथ मूल राजनीतिक दल से सम्बंध विच्छेद करने की परिपाटी रही है जिसके कारण स्पीकर का पद दलगत राजनीति से परे होता है और उसके राजनीतिकरण की संभावना भी नहीं होती है। इसके विपरीत भारत में ऐसी परिपाटी का अभाव है।आज़ादी के पहले विट्ठल भाई पटेल और आज़ादी के बाद नीलम संजीव रेड्डी(1967) ही ऐसे स्पीकर रहे हैं जिन्होंने अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध तोड़ा है। 2008 में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार से समर्थन वापस ले लियातो उसने तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी पर स्पीकर पद छोड़ने या पार्टी से त्यागपत्र देने के लिए दबाव डाला और उनके द्वारा ऐसा करने से इन्कार करने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया। सोमनाथ चटर्जी प्रकरण स्पीकर पद के राजनीतिक स्वरूप और इस संदर्भ में राजनीतिक दलों की सोच को सामने लाता है। इससे स्पीकर पद की गरिमा और निष्पक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
2.  ब्रिटिश संसदीय परम्परा में " वन्स द स्पीकरआलवेज द स्पीकर" की संकल्पना है। मतलब यह कि यदि किसी व्यक्ति को स्पीकर चुना जाता हैतो वह हमेशा के लिए स्पीकर बन जाता है।इसीलिए ब्रिटेन में कई लोगों को तीन या उससे भी अधिक बार स्पीकर बनने का मौक़ा मिला है। लेकिनभारत में अब तक किसी व्यक्ति को तीसरी बार स्पीकर बनने का मौक़ा नहीं मिला है।
3.  ब्रिटेन में स्पीकर निर्वाचित होने पर सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की परम्परा रही है। मतलब यह कि स्पीकर चुनाव-अभियान में शामिल नहीं होता हैकिसी राजनीतिक मसले पर स्टैंड नहीं लेता है और उसके चुनाव में उम्मीदवार होने पर उसके विरूद्ध कोई राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार नहीं खड़ा करता हैयद्यपि इस संदर्भ में कोई संवैधानिक या वैधानिक उपबंध नहीं है। भारत में अब तक ऐसी परम्परा विकसित नहीं हो पाई है।
4.  ब्रिटिश हाउस ऑफ कामन्स में स्पीकर किसी प्रस्ताव के प्रस्तावकों को अपने विवेक से बुला सकते हैंपर भारत में स्पीकर को स्वविवेक से किसी प्रस्ताव को पेश करने की अनुमति देने का अधिकार नहीं है। प्रस्तावक संसद की कार्यवाही सूची के अनुरूप ही प्रस्ताव पेश कर सकता है। उन्हें प्रस्ताव पेश करते हुए स्पीच देने की अनुमति नहीं होती है।
5.  भारत में स्पीकर पद का उम्मीदवार स्पीकर पद स्वीकारने की अपनी इच्छा का इज़हार करते हुए स्पीच नहीं देता है।लेकिन, ब्रिटेन में ऐसी परंपरा रही है.
6.  ब्रिटेन में स्पीकर पद हेतु किसी व्यक्ति का नाम प्रस्ताव और उस प्रस्ताव का समर्थन करने वाला व्यक्ति अनिवार्यत: ग़ैर-सरकारी सदस्य होना चाहिए। इसके विपरीत भारत में सरकारी और ग़ैर-सरकारीकोई भी सदस्य स्पीकर पद हेतु नाम प्रस्तावित कर सकता है। 
7.  ब्रिटिश हाउस आॅफ कामन्स में नवनिर्वाचित व्यक्ति को चेयर अर्थात् निर्धारित स्थान तक प्रस्तावक और समर्थक के द्वारा ले जाया जाता हैजबकि भारत में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा नवनिर्वाचित स्पीकर को उसके लिए निर्धारित स्थान तक ले जाया जाता है।
8.  भारत में नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ पहले दिलाई जाती है और स्पीकर का चुनाव बाद में होता है। नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाने और स्पीकर के चुनाव हेतु ही प्रोटेम स्पीकर की परिकल्पना की गई है। इसके विपरीत ब्रिटेन में स्पीकर का चुनाव पहले होता है और फिर नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाई जाती है।
9.  ब्रिटेन में यह परम्परा रही है कि स्पीकर पद से मुक्त होते ही उसे हाउस आॅफ लार्ड्स का सदस्य नामांकित किया जाता हैलेकिन भारत में ऐसी कोई परम्परा नहीं है।


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स्पीकर पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान करने से संबंधित सुझाव:
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स्पष्ट है कि ब्रिटेन में स्पीकर की गरिमा और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने लिए संसदीय परम्पराओं का पर्याप्त विकास हुआ है। इसके लिए भविष्य में स्पीकर के हितों को भी सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त उपबंध किए गए हैं। लेकिनभारत में अबतक ऐसा संभव नहीं हो सका है। भारत में स्पीकर के हितों के संरक्षण के लिए विशेष प्रावधान किए बिना ही उससे यह अपेक्षा की गई है कि वह राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त रहकर अपने दायित्वों का निष्पादन करेजबकि ऐसा तबतक संंभव नहीं है जबतक राजनीतिक दलों पर उसकी निर्भरता समाप्त नहीं की जाती है,, उसके साथ उनका संबंध-विच्छेद नहीं होता है और उसके हितों के संरक्षण को सुनिश्चित नहीं किया जाता है।

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