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भाग 6: राज्यपाल की भूमिका
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राज्यपाल की भूमिका को लेकर उठने वाले प्रश्नों को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. क्या राज्यपाल स्वविवेक से विधान सभा का सत्र बुला सकता है और उसके एजेंडे को निर्धारित कर सकता है?
2. उसके स्वविवेक का दायरा कितना विस्तृत है?
प्रश्न यह उठता है कि अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल द्वारा विधानसभा के सत्र को पूर्व-निर्धारित करने और स्पीकर की बर्खास्तगी के प्रश्न पर विचार करने के संदर्भ में दिए गए निर्देश को कहाँ तक उचित माना जा सकता है? इस प्रश्न पर विचार से पहले संवैधानिक उपबंधों को देखे जाने की आवश्यकता है।
संवैधानिक उपबंध:
1. अनुच्छेद 174(1) विधानसभा या विधानपरिषद का सत्र बुलाने, स्थगित करने और सत्रावसान की घोषणा के लिए राज्यपाल को अधिकृत करता है।
2. अनुच्छेद 175(2) राज्यपाल को सदन को संदेश भेजने और किसी विशेष मसले पर विचार करने का निर्देश देने के लिए अधिकृत करता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या राज्यपाल अनु• (174-175)द्वारा प्रदत्त शक्ति का स्वविवेक से इस्तेमाल कर सकता है या फिर उसे अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर करना है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर विचार के क्रम में यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल के स्वविवेक का दायरा असीमित नहीं, सीमित है। वह स्वविवेक का इस्तेमाल उन्हीं संदर्भों में कर सकता है जिसका संविधान में स्पष्ट उल्लेख हुआ है। साथ ही, वह मनमाने तरीक़े से अपनी इच्छा और पसंद के मुताबिक़ स्वविवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकता है। यह अनिवार्यत: संवैधानिक सिद्धांतों आधारित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त अगर मुख्यमंत्री विधानसभा का विश्वास खो चुका है या फिर उसके विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया है, लेकिन वह सत्र को पूर्व-निर्धारित करने के पक्ष में नहीं है; वैसी स्थिति में भी राज्यपाल स्वविवेक का इस्तेमाल कर सकता है।
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पूँछी कमीशन और विधानसभा के सत्र बुलाने का राज्यपाल का अधिकार
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केंद्र-राज्य सम्बंध पर गठित दूसरे आयोग: पूँछी कमीशन ने विधानसभा के सत्र बुलाने, उसे स्थगित करने और सत्रावसान की करने से संबंधित राज्यपाल के अधिकार को स्पष्ट करते हुए कहा कि राज्यपाल के लिए मंत्रिपरिषद की सलाह तब तक अपेक्षित है और वह उस सलाह से तब तक बँधे हुआ है जब तक मंत्रिपरिषद को विधानसभा का विश्वास हासिल है और यह सलाह असंवैधानिक नहीं है। राज्यपाल तभी इस सलाह की अनदेखी कर सकता है जब मंत्रिपरिषद ने विधानसभा के विश्वास को खो दिया हो या यह सलाह संविधान का अतिक्रमण करती हो या फिर जहाँ राज्यपाल को स्वविवेक से काम करने की अनुमति हो। सरकारिया कमीशन के मुताबिक़ यदि मुख्यमंत्री विश्वास मत-परीक्षण (Floor Test) हेतु विधानसभा का सत्र आहूत करने से इन्कार करता है, वैसी स्थिति में भी राज्यपाल इस उद्देश्य से विधानसभा का सत्र आहूत कर सकता है।अगर अविश्वास प्रस्ताव से संबंधित सूचना दी गई है और मंत्रिपरिषद सत्रावसान की सलाह दे, तो राज्यपाल इस सलाह को सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करेगा।अगर राज्यपाल को यह लगता है कि अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष की ओर से मिलने वाली वैधानिक चुनौती का प्रतिनिधित्व करता है, तो वह मुख्यमंत्री को सत्रावसान का विचार त्याग कर अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने का निर्देश दे सकता है।
जहाँ तक विधानसभा भंग करने का प्रश्न है, तो पूँछी कमीशन ने सरकारिया आयोग की अनुशंसाएँ को ही दुहराया है।राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह से बँधा हुआ है। लेकिन,विधानसभा का विश्वास खो चुके मुख्यमंत्री की सलाह को स्वीकारने की बजाए वह वैकल्पिक सरकार गठन की संभावनाओं का पता लगाएगा और ऐसा संभव न हो पाने पर विधानसभा भंग करेगा।
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राज्यपाल का विवेकाधिकार और पूँछी कमीशन
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राज्यपाल के विवेकाधिकार के सन्दर्भ में सामान्य धारणा यह है कि राज्यपाल के विवेकाधिकार का दायरा अपरिभाषित और अत्यंत व्यापक है। वह उन परिस्थितियों में भी विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर सकता है जिनका संविधान में उल्लेख नहीं हुआ है। इससे सम्बंधित संवैधानिक उपबंध निम्न हैं:
संवैधानिक उपबंध:
1. अनु• 163 (1) स्वविवेक से भिन्न मामलों में राज्यपाल से मुख्यमंत्री एवं मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा करता है।
2. अनु• 163 (2) स्वविवेक से संबंधित मामलों में गवर्नर के निर्णय को अंतिम घोषित करता है जिसे किसी भी आधार पर प्रश्नांकित नहीं किया जा सकता है।
3. अनु• 163 (3) मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह को न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर रखता है।
इस आलोक में पूँछी कमीशन का मानना है कि इस धारणा को ख़ारिज किया जाना चाहिए कि राज्यपाल को व्यापक संदर्भों में स्वविवेक का अधिकार है। इसकी दृष्टि में अनु• 163(2) राज्यपाल को सीमित परिप्रेक्ष्य में स्वविवेक से काम करने का प्रावधान करता है।यह राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह की अनदेखी कर या इस सलाह के बिना काम करने का विशेषाधिकार नहीं प्रदान करता है। जिन संदर्भों में राज्यपाल को विवेकाधिकार प्रदान भी करता है, वहाँ भी वह इसका इस्तेमाल अपनी पसन्द-नापसन्द के अनुसार या मनमाने तरीक़े से नहीं कर सकता है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुरूप तार्किक तरीक़े से सावधानीपूर्वक करे।
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राज्यपाल की भूमिका को लेकर उठते प्रश्न:
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उपरोक्त तथ्यों के आलोक में अगर अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल की भूमिका के प्रश्न पर विचार करें, तो इस संदर्भ में निम्न बातें कहीं जा सकती हैं:
1. राज्यपाल ने अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर बिना मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद से विचार-विमर्श किए विधानसभा की प्रस्तावित सत्र को पूर्व-निर्धारित करने का जो निर्णय लिया, उससे बचा जा सकता था। वे मुख्यमंत्री के साथ विचार-विमर्श करने के बाद भी ऐसा निर्णय ले सकते थे। ऐसी स्थिति में अवांछित स्थिति को टाला जा सकता था और उन पर प्रश्न उठा पाना मुश्किल होता।
2. राज्यपाल ने विधानसभाध्यक्ष की बर्खास्तगी के प्रस्ताव पर विचार करने के पूर्व चौदह दिन की पूर्व-सूचना की संवैधानिक अपेक्षा को पूरा नहीं किया जो संवैधानिक रूप से ग़लत है, यद्यपि राज्यपाल इस बात से इन्कार करते हैं।
3. राज्यपाल द्वारा सत्र के एजेंडे के संदर्भ में जो स्पष्ट दिशानिर्देश दिए गए, वे भी ग़लत थे। संसदीय परम्परा के अनुसार सत्र से संबंधित कोई भी सूचना और विधानसभा की कार्यवाही के संदर्भ में एजेंडे के निर्धारण में संसदीय कार्य मंत्रालय की भूमिका होती है और उसी के द्वारा इस संदर्भ में सूचनाएँ प्रेषित की जाती हैं।
4. काँग्रेस के सोलह विधायकों ने असंतुष्ट सदस्यों में शामिल विधानसभा-उपाध्यक्ष को उनके पद से हटाने के संदर्भ में सूचना दी जिसकी अनदेखी करते हुए उन्हें ही सोलह-सत्रह दिसम्बर की प्रस्तावित बैठक की अध्यक्षता की ज़िम्मेवारी सौंपी गई। यह ग़लत था।
5. अरूणाचल के राज्यपाल ने बोम्मई केस,1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए उस निर्देश की भी अनदेखी की जिसमें यह गया गया कि बहुमत का निर्धारण विधानसभा के फ़्लोर पर होगा, न कि राजभवन में विधायकों के पैरेड के ज़रिए या फिर किसी अन्य तरीक़े से।
6. राज्यपाल की भूमिका को देखकर प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल स्वयं भी प्रमुख विपक्षी दल भाजपा और असंतुष्ट काँग्रेसी विधायकों के साथ मिलकर मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद को अपदस्थ करने की कोशिश में लगे थे।
इसे इस संदर्भ में भी देखा जा सकता है। मार्च, 2016 में अरूणाचल जैसी परिस्थिति ही उत्तराखंड में भी उत्पन्न हुई है, लेकिन उत्तराखंड के राज्यपाल ने विपक्षी दल और असंतुष्टों के खेल में शामिल होने की बजाय मुख्यमंत्री हरीश रावत को 28 मार्च तक अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया।
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भाग 7: अनुच्छेद 356 और राष्ट्रपति शासन की संकल्पना
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"संवैधानिक मशीनरी की विफलता" से आशय:
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 365 संवैधानिक मशीनरी की विफलता को परिभाषित करता है। इसके अनुसार संविधान के विभिन्न उपबंधों के अधीन रहते हुए यदि केन्द्र सरकार के द्वारा राज्य सरकार को निर्देश दिया जाता है और राज्य सरकार उन निर्देशों के अनुपालन में असमर्थ रहती है, तो माना जाएगा कि राज्य में संवैधानिक मशीनरी पूरी तरह से विफल है। भारतीय संविधान के निम्न उपबंधों के अनुरूप केन्द्र सरकार के द्वारा राज्य सरकार को निर्देश दिया जा सकता है:
1. अनु• 256 के अधीन रहते हुए केंद्र सरकार अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दे सकती है।
2. अनु• 257 के अधीन केन्द्र सरकार राष्ट्रीय महत्व के संचार, रेलवे,हाइवे और वाटर वे के निर्माण एवं रखरखाव हेतु राज्यों को निर्देश दे सकती है।
3. अनु• 355 केन्द्र से यह अपेक्षा करता है कि वह बाह्य आक्रमण एवं आंतरिक उपद्रव से राज्य की रक्षा करेगा और संवैधानिक उपबंधों के अनुरूप राज्य के शासन का चलाया जाना सुनिश्चित करेगा। ज़रूरत पड़ने पर वह इस संदर्भ में राज्य सरकार को निर्देश भी दे सकती है।
इसके अलावा त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किसी भी राजनीतिक समूह के द्वारा सरकार-गठन में विफलता,सरकार द्वारा विधानसभा का विश्वास खोना, वैकल्पिक सरकार का गठन संभव नहीं हो पाना, गठबंधन में बिखराव,दल-बदल आदि जैसे राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारण भी संवैधानिक मशीनरी के अनुरूप शासन के संचालन की संभावना को मुश्किल बनाते हैं।
अनुच्छेद 356:राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा और इससे संबंधित प्रक्रिया:
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ऐसी स्थिति में राज्यपाल संवैधानिक मशीनरी की विफलता के संदर्भ में राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा और उनसे अनु• 365 को अनु• 356 से जोड़ते हुए राज्य में राष्ट्रपति-शासन लागू किए जाने की अनुशंसा करेगा। यहाँ पर यह ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि ऐसी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए राज्यपाल स्वविवेक का सहारा लेगा। इसके लिए उसे कैबिनेट की सलाह की ज़रूरत नहीं है। यह अनुच्छेद स्पष्ट करता है कि राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा के लिए राष्ट्रपति का समाधान महत्वपूर्ण है। इसके लिए राज्यपाल की रिपोर्ट को भी आधार बनाया जा सकता है और बिना इस रिपोर्ट के भी राष्ट्रपति अन्य स्रोतों से इस निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं। राज्यपाल के विपरीत राष्ट्रपति संघीय कैबिनेट की सलाह से बँधे होते हैं। हाँ, अनु• 74(1परंतुक) के प्रावधानों के तहत् वे संघीय कैबिनेट से पुनर्विचार की अपेक्षा कर सकते हैं और इस संदर्भ में संघीय कैबिनेट से स्पष्टीकरण की अपेक्षा कर सकते हैं।
राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा से संबंधित प्रस्ताव को दो माह के भीतर संसद के दोनों सदनों से सामान्य बहुमत से अलग-अलग पारित करवाया जाना आवश्यक है। यदि दूसरा सदन सत्र में नहीं है, तो दूसरे सदन के सत्र शुरू होने के तीस दिनों के भीतर इस प्रस्ताव को पारित करवाया जाना आवश्यक है। दूसरी बात यह कि राष्ट्रपति कभी भी इसे वापस ले सकते हैं। वापस लेने के लिए संसदीय अनुमोदन की ज़रूरत नहीं पड़ती है। राष्ट्रपति शासन की अवधि छह माह की होती है। इसके आगे राष्ट्रपति शासन को जारी रखने के लिए इससे संबंधित प्रस्ताव को दुबारा संसद से पारित करवाया जाना आवश्यक होता है। यदि राष्ट्रपति-शासन को एक साल से आगे बढ़ाया जा ना है, तो इसकी दो शर्तें हैं:
1. या तो पूरे देश या पूरे राज्य या फिर राज्य के किसी हिस्से में आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो।
2. चुनाव आयोग ने यह लिख कर दिया हो कि वर्तमान परिस्थितियों में राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवा पाना संभव नहीं है।
राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा का प्रभाव:
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राष्ट्रपति-शासन की स्थिति में राज्यपाल की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के हाथों संकेंद्रित हो जाती है और राष्ट्रपति किसी व्यक्ति या प्राधिकार के माध्यम से अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार विधानमंडल की अधिकारिता संसद में संकेंद्रित हो जाती है। राष्ट्रपति राज्य की किसी संस्था या प्राधिकार के संदर्भ में संविधान के किसी प्रावधान को निलम्बित करने की घोषणा कर सकता है ताकि उद्घोषणा के प्रभावी प्रवर्तन को सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन, इस उद्घोषणा का न्यायपालिका की शक्ति और प्राधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जहाँ तक राष्ट्रपति शासन के दौरान बनाए गए क़ानूनों का प्रश्न है, तो सामान्य स्थिति की पुनर्बहाली के साथ राज्य विधानसभा द्वारा उसमें संशोधन किया जा सकेगा।
अनुच्छेद 356: भारत शासन अधिनियम,1935 से संविधान सभा की बहस तक :
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राष्ट्रपति-शासन की संकल्पना 1935 के भारत शासन अधिनियम से ली गई है जिसे उस दौर में राष्ट्रवादियों ने अलोकतांत्रिक क़रार दिया था।इस प्रावधान के अनुसार यदि कोई प्रांतीय गवर्नर इस बात से संतुष्ट होता कि प्रांतीय सरकार का संचालन अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप संभव नहीं हो पा रहा है, तो वह प्रांतीय सरकार की सारी शक्तियाँ अपने हाथों में ले लेता। उदार लोकतांत्रिक संविधान वाले देशों में पाकिस्तान और भारत ऐसे अपवाद देश हैं जहाँ पर इस तरह के प्रावधान मौजूद हैं जो संघीय व्यवस्था की मौजूदगी के बावजूद लोगों के द्वारा लोकतांत्रिक तरीक़े से निर्वाचित प्रांतीय सरकार के अस्तित्व एवं भविष्य को अनिर्वाचित राज्यपाल और केंद्र के हवाले कर देते हैं। दुनिया में अन्यत्र कहीं भी ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है।
अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आज़ादी के पहले राष्ट्रवादियों ने जिन प्रावधानों को अलोकतांत्रिक बताकर ख़ारिज कर दिया था, उन्हीं प्रावधानों को उन्होंने संविधान सभा में शामिल क्यों किया? इसे तदयुगीन परिप्रेक्ष्य में देखें जाने की ज़रूरत है । उस समय भारत आज़ाद भर हुआ था। सरदार पटेल के नेतृत्व में पाँच सौ से अधिक देसी रियासतों को मिलाकर इसे भौगोलिक इकाई का रूप दिया गया था। इस भौगोलिक एकीकरण को राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया के ज़रिए सुदृढ़ीकरण की चुनौती भारत के नीति-निर्माताओं के समक्ष थी और विघटनकारी शक्तियों के सिर उठाने का ख़तरा मौजूद था। ऐसी स्थिति में मज़बूत केंद्रीय शक्ति की ज़रूरत थी जो विघटनकारी तत्वों पर अंकुश रखने में सक्षम हो सके। इसी आलोक में अनु• 356 के विशेष प्रावधान के ज़रिए मज़बूत केंद्र की बुनियाद रखी गई, लेकिन इसके दुरूपयोग की आशंका संविधान-निर्माताओं को भी थी जिसकी पुष्टि संविधान सभा की बहसों से होती है। अबतक सौ से अधिक बार इस प्रावधान का इस्तेमाल, न्यायमूर्ति जीवनरेड्डी के अनुसार अधिकांश मामलों में इसकी संवैधानिकता को लेकर संदेह और इसका संघ-राज्य संबंध के सर्वाधिक विवादास्पद मसले के रूप में उभरना इस बात की पुष्टि करता है कि ये आशंकायें निराधार नहीं थीं।यदि भारतीय संविधान के किसी प्रावधान का सर्वाधिक दुरूपयोग हुआ है, तो वह अनु• 356 है।
जब संविधान सभा की बहस में राजनीतिक लाभों के लिए अनु• 356 के दुरूपयोग की आशंका जताई गई, तो प्रारूप समिति के अध्यक्ष डाॅ• अम्बेडकर ने इसे "संविधान का मृतप्राय" हिस्सा (A Dead Letter Of Constitution)बतलाते हुए यह उम्मीद जताई थी कि " संविधान के इस अनुच्छेद के प्रयोग की कभी ज़रूरत नहीं पड़ेगी और यह अप्रचलित क़ानून बना रहेगा।अगर कभी इसके प्रयोग की ज़रूरत भी पड़ी, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि राष्ट्रपति, जिन्हें इस प्रकार की शक्ति से लैश किया गया है, प्रांतीय प्रशासन को निलम्बित करने से पूर्व समुचित सावधानियाँ बरतेंगे। मैं आशा करता हूँ कि पहले वे उस प्रांतीय सरकार को चेतावनी देंगे, जिसने ग़लती की है, कि संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुरूप प्रांतीय शासन का संचालन नहीं हो पा रहा है। अगर यह चेतावनी कारगर नहीं रहती है, तो वे राज्य में नए सिरे से चुनाव का आदेश देंगे ताकि उस प्रांत के लोगों को अपने स्तर पर उस मसले को निपटाने दिया जाय। अगर इन दोनों विकल्पों को आज़माना संभव नहीं रह जाता है, तभी वे इस अनुच्छेद का सहारा लेंगे।" स्पष्ट है कि डाॅ• अम्बेडकर ने अनु• 355 के तहत् दी जाने वाली चेतावनी और फिर चुनाव की संभावनाओं को अनु• 356 से बेहतर विकल्प और उसके पूर्व शर्त्त के रूप में देखा, यह बात अलग है कि पिछले छियालीस साल का अनुभव इसके कहीं विपरीत रहा।
विभिन्न आयोगों की सिफ़ारिशें:
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केन्द्र-राज्य संबंध पर विचार के लिए गठित आयोगों से लेकर संविधान समीक्षा आयोग तक ने अनु• 356 के सन्दर्भ में अपने-अपने सुझाव दिए। राजमन्नार समिति ने यदि इस प्रावधान को समाप्त किए जाने की सिफ़ारिश की, तो आर•एस• सरकारिया की अध्यक्षता में गठित केन्द्र-राज्य संबंध पर प्रथम आयोग ने डॉ• अम्बेडकर के रूख को दुहराते हुए इसे अंतिम विकल्प बतलाया। साथ ही, यह सुझाव दिया कि पारदर्शिता के मद्देनज़र राज्यपाल की रिपोर्ट संसद के समक्ष रखी जाए, राष्ट्रपति की उद्घोषणा में अनु• 356 के प्रयोग के कारणों का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए तथा उद्घोषणा के संसद द्वारा अनुमोदन से पहले विधानसभा को भंग करने से परहेज़ किया जाए। फिर एम• एन• वेंकटचेलैय्या की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा पर गठित राष्ट्रीय आयोग ने जहाँ इन्हीं सुझावों को दुहराया, वहीं मदन मोहन पूँछी की अध्यक्षता में केन्द्र-राज्य संबंध पर गठित दूसरे आयोग ने1994 में बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों को संविधान-संशोधन के ज़रिए संवैधानिक स्वरूप प्रदान करने का सुझाव दिया।
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