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भाग 8: राष्ट्रपति की भूमिका: अनु• 356 के सन्दर्भ में
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संविधान-सभा की बहस के दौरान डॉ• भीमराव अंबेडकर ने राष्ट्रपति से यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा की थी कि अनु• 356 का प्रयोग अंतिम विकल्प के रूप में किया जाय। चौवालीसवें संविधान-संशोधन के ज़रिए जोड़ा गया अनु• 74(1 परंतुक ) राष्ट्रपति को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वे मंत्रिपरिषद द्वारा भेजें गए किसी प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं, लेकिन पुनर्विचार के पश्चात् दुबारा भेजें गए मंत्रिपरिषद के प्रस्ताव को अनुमति देने के लिए बाध्य हैं। दूसरी बात यह कि बोम्मई वाद,1994 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अनु• 356 राष्ट्रपति को निरपेक्ष (Absolute) शक्तियाँ नहीं प्रदान करता है। यह उन्हें सशर्त शक्तियाँ प्रदान करता है। इन्हीं प्रावधानों का उपयोग करते हुए 1997 में तत्कालीन राष्ट्रपति के• आर• नारायणन ने गुजराल सरकार द्वारा बिहार में राष्ट्रपति शासन से संबंधित भेजे गए प्रस्ताव को पुनर्विचार हेतु कैबिनेट के पास वापस भेजा था। इसने मीडिया द्वारा अनु• 356 के दुरूपयोग से संबंधित आलोचना-प्रत्यालोचना की पृष्ठभूमि में गुजराल सरकार पर नैतिक दबाव उत्पन्न किया। परिणामत: गुजराल सरकार को इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल देना पड़ा। एक बार फिर से ऐसी ही स्थिति 1998 में भी उत्पन्न हुई जब उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन से संबंधित वाजपेयी सरकार के प्रस्ताव को तत्कालीन राष्ट्रपति के•आर• नारायणन ने ही पुनर्विचार हेतु वापस भेजा।
अब प्रश्न यह उठता है कि अरूणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति-शासन से संबंधित प्रस्ताव के संदर्भ में वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने इस विकल्प को क्यों नहीं आज़माया? शायद इसकी व्याख्या निम्न संदर्भों में की जा सकती है:
1. दोनों संकटों को राजनीतिक संकट से संवैधानिक संकट में रूपांतरित होते हुए देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति के पास उपलब्ध विकल्प सीमित हो जाते हैं।
2. राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के साथ किसी भी टकराव से बचना चाहते हैं, या फिर किसी भी विवाद में उलझने से परहेज़ कर रहे हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि राष्ट्रपति रबड़ स्टाम्प की तरह नहीं हैं। जब श्री मती इंदिरा गाँधी की सरकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति वी• वी• गिरि को लोकसभा-भंग करने की सलाह दी, तो राष्ट्रपति ने उनसे पूछा कि क्या कैबिनेट ने इस प्रस्ताव पर विचार किया है? जब लोकसभा भंग किए जाने की अधिसूचना जारी की गई, तो उसमें " मंत्रिपरिषद की सलाह पर पर्याप्त सोच-विचार के पश्चात" का उल्लेख किया गया। इसी प्रकार डाक विधेयक,1986 पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह और 1991 में चंद्रशेखर सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों से अफरा-तफ़री में पारित कराए गए सांसदों के वेतन-भत्ते में वृद्धि से संबंधित विधेयक पर तत्कालीन राष्ट्रपति आर• वेंकटरमन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया। न तो उन्होंने इसे स्वीकारा और न ही उन्होंने इसे ठुकराया। मतलब यह कि संविधान में राष्ट्रपति द्वारा प्रो-एक्टिव स्टेप्स लिए जाने की संभावना विद्यमान है जो ज़रूरत पड़ने पर संविधान के संरक्षण में राष्ट्रपति में समर्थ बनाता है, या फिर यह कह लें कि कम-से-कम इतना नैतिक दबाव उत्पन्न करने में समर्थ है जो मंत्रिपरिषद को जल्दबाज़ी और हड़बड़ी में निर्णय लेने से रोक सके। हाँ, यह जरूर है कि संविधान के इन प्रावधानों का धड़ल्ले से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह मंत्रिपरिषद के साथ उसके टकराव को जन्म देगा.
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भाग 9: न्यायपालिका की भूमिका: अनु• 356 के सन्दर्भ में
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यदि केन्द्र-राज्य सम्बंध को लेकर कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो यह अनु• 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की मूल अधिकारिता के अंतर्गत आता है। इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट अनु• 137 के प्रावधानों के अंतर्गत रहते हुए संसद के द्वारा बनाए गए किसी क़ानून और अनु• 145 के प्रावधानों के रहते जारी आदेशों की समीक्षा कर सकता है। अप्रैल,1989 में जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस• आर• बोम्मई की सरकार को बहुमत साबित करने का मौक़ा दिए बग़ैर बर्खास्त कर दिया गया, तो उन्होंने इसे न्यायालय में चुनौती दी। एस• आर• बोम्मई बनाम् भारत संघ वाद,1994 में सुप्रीम कोर्ट के नौ सदस्यीय संवैधानिक बैंच का निर्णय अनु• 356 और केन्द्र-राज्य संबंध की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु है। इससे पूर्व राजस्थान राज्य बनाम् भारत संघ मामला, 1977 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि राष्ट्रपति का समाधान दुर्भावनापूर्ण हो या असम्बद्ध आधारों पर निर्भर हो, तो वह न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आएगा। 1994 के बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अनु• 356 के अंतर्गत कार्यपालिका को दी गई शक्तियाँ पूर्ण तथा निरपेक्ष नहीं हैं, वरन् सशर्त्त हैं। अनु• 356(3) संसद द्वारा अनुमोदन की उन शर्तों का उल्लेख करता है जिसकी अपेक्षा संविधान कार्यपालिका से करता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को निम्न संदर्भों में देखा जा सकता है:
1. अनु• 356 का प्रयोग केवल संवैधानिक मशीनरी की विफलता की स्थिति में किया जाना चाहिए, न कि प्रशासनिक मशीनरी की विफलता की स्थिति में। यह क़ानून एवं व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति को दुरुस्त करने का उपकरण नहीं हो सकता है।
2. अनु• 356 के प्रयोग के पहले राज्य सरकार को चेतावनी दी जानी चाहिए और उसका जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाना चाहिए।
3. जब तक संसद राष्ट्रपति शासन से संबंधित उद्घोषणा को अनुमति नहीं दे देती है, तब तक विधानसभा को निलंबित रखा जाय। प्रस्ताव के संसद द्वारा अनुमोदन के बाद ही उसे भंग किया जाय।
4. किसी भी निर्वाचित सरकार को बहुमत का समर्थन प्राप्त है अथवा नहीं, इसका परीक्षण राजभवन के सामने विधायकों की पैरेड और राज्यपाल के सामने विधायकों की गिनती के ज़रिए न हो। बहुमत का परीक्षण विधानसभा के पटल पर हो। बहुमत-परीक्षण का अन्य कोई भी विकल्प अस्वीकार्य है। ऐसी ही अनुशंसा सरकारिया आयोग ने भी की थी।
5. संघीय कैबिनेट ने राष्ट्रपति को क्या सलाह दी, न्यायपालिका इसकी समीक्षा नहीं कर सकती है। अनु• 74(2) इस सलाह को न्यायपालिका के दायरे से बाहर रखता है।लेकिन, रिपोर्ट में जिन तथ्यों के आलोक में संवैधानिक मशीनरी की विफलता की बात करते हुए राष्ट्रपति-शासन की अनुशंसा की गई है और जिन तथ्यों पर राष्ट्रपति का समाधान आधारित है, उन तथ्यों की न्यायपालिका के द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
6. इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन के क्रम में निम्न प्रश्नों पर विचार किया जाएगा:
· क्या राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा के पीछे कोई तथ्य मौजूद है?
· क्या वह तथ्य प्रासंगिक है?
· कहीं शक्ति का दुरूपयोग तो नहीं किया गया है?
7. अगर अनु• 356 का अनुचित इस्तेमाल हुआ है और राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा ग़लत तथ्यों पर आधारित है, तो न्यायालय के द्वारा उस उद्घोषणा को रद्द किया जा सकता है।
8. अनु• 356(3) राष्ट्रपति की शक्तियों को मर्यादित करता है। एक तो राष्ट्रपति का समाधान राज्यपाल की रिपोर्ट या फिर अन्य स्रोतों से प्राप्त सूचना पर आधारित हो, दूसरा इस उद्घोषणा का संसद द्वारा अनुमोदन अपेक्षित है। प्रासंगिक सामग्री की उपलब्धता ही राष्ट्रपति-शासन का आधार हो सकती है। इसीलिए राष्ट्रपति को ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए जिसे पलटा न जा सके।
9. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अगर उद्घोषणा असंवैधानिक है, तो न्यायालय बर्खास्त सरकार की पुनर्बहाली का निर्देश दे सकता है।अगर ज़रूरत पड़ी, तो न्यायालय उद्घोषणा की वैधानिकता के परीक्षण के संदर्भ में अंतिम निर्णय आने तक नए सिरे से विधानसभा चुनाव पर रोक का अंतरिम आदेश भी जारी कर सकता है।
10. इसी सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस, 1992 के बाद केन्द्र सरकार द्वारा चार भाजपा शासित राज्य सरकारों की बर्खास्तगी को उचित ठहराते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता मूल ढाँचे का हिस्सा है जिसे संरक्षित कर पाने में भाजपा सरकारें असफल रही। मतलब यह कि अगर कोई राज्य सरकार संविधान के मूल ढांचे के संरक्षण में असमर्थ है, तो इसे संवैधानिक मशीनरी की विफलता माना जा सकता है और इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है.
11. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अनु• 356 का प्रयोग अपवादस्वरूप ही किया जाना चाहिए अन्यथा यह केंद्र और राज्य के बीच की संवैधानिक संरचना को ध्वस्त कर देगा।
स्पष्ट है कि बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट ने जो गाईडलाइंस जारी किए, उसने अनु• 356 के दुरूपयोग पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाते हुए केंद्र-राज्य संबंध के बीच संतुलन की पुनर्बहाली को सुनिश्चित किया। इसे एक महत्वपूर्ण प्रस्थानबिन्दु माना जाना चाहिए।
झारखण्ड मामला,2005 :
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झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी ने सरकारिया आयोग के सुझावों की अनदेखी करते हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में बहुमत के क़रीब सबसे बड़े गठबंधन के उभरकर आनेवाले एनडीए गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की बजाय यूपीए गठबंधन, जिसमें राजद बाद में शामिल हुआ, को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। राज्यपाल के इस निर्णय के विरूद्ध एनडीए ने न्यायपालिका की शरण ली और न्यायपालिका ने राज्यपाल की गतिविधियों को संविधान के साथ धोखाधड़ी क़रार देते हुए विधानसभा के पटल पर बहुमत परीक्षण हेतु अंतरिम, किन्तु विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए। साथ ही, राज्यपाल को विधानसभा हेतु एंग्लो-इंडियन सदस्य के मनोनयन से तबतक के लिए रोका जबतक बहुमत-परीक्षण के पश्चात् वैधानिक सरकार के गठन की पुष्टि नहीं हो गई . इसने अनुच्छेद 333 की नयी व्याख्या की और वह यह कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में नवगठित राज्य सरकारों को एंग्लो इंडियन सदस्य के मनोनयन से तब तक परहेज करना चाहिये जबतक वह सरकार विश्वास मत नहीं हासिल कर लेती है.इससे अनावश्यक विवाद में उलझने से बचा जा सकेगा .
दिल्ली राष्ट्रपति-शासन वाद,2014:
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राष्ट्रपति शासन के प्रश्न पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि " लोकतंत्र में हमेशा के लिए राष्ट्रपति शासन की अनुमति नहीं दी जा सकती है। लेफ़्टिनेंट गवर्नर को पहले ही सरकार के गठन की दिशा में पहल करनी चाहिए थी। इसमें पाँच महीने का लम्बा समय नहीं लेना चाहिए था।" दिल्ली मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि संसद की अनुमति मिलने के बाद भी विधानसभा को तबतक निलंबित रखा जा सकता है जबतक सरकार गठन की सम्भावना शेष है, लेकिन इस दिशा में अविलम्ब पहल की जानी चाहिये. लेकिन सरकार गठन के नाम पर अनिश्चित काल के लिए राष्ट्रपति-शासन की अनुमति नहीं दी जा सकती है.
बिहार विधानसभा-भंग वाद,2006:
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मई,2005 में जब बिहार की त्रिशंकु विधानसभा में बहुमत हासिल करने और सरकार बनाने के क़रीब पहुँच रहे एनडीए गठबंधन को सरकार बनाने से रोकने के लिए बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त की आशंका जताते हुए राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा की, तो एनडीए की ओर से बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित केन्द्र सरकार के इस निर्णय को चुनौती दी गई। रामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम् भारत संघ वाद,2006 (बिहार विधानसभा भंग करने से संबंधित मामला के रूप में लोकप्रिय) में सुप्रीम कोर्ट के पाँच सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने जो निर्णय दिया, उसे बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी गाईडलाइंस के बतौर पूरक देखा जा सकता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा, उसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कार्यपालिका के प्रति सख़्त शब्दों का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा के लिए राज्यपाल के साथ-साथ संघीय मंत्रिपरिषद को भी ज़िम्मेवार माना।
2. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बिहार के गवर्नर ने केंद्र सरकार को ग़लत सूचना देकर भ्रमित किया। गवर्नर ने जल्दबाज़ी में दुर्भावनाओं के साथ बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा की।
3. गवर्नर निरंकुश राजनीतिक लोकपाल नहीं है। उसकी सनक और पसन्द के आधार पर अनु• 356 के तहत् की जाने वाली अतिवादी कार्रवाई का औचित्य साबित नहीं किया जा सकता है।मंत्रिपरिषद से यह अपेक्षित है कि वह राज्यपाल की रिपोर्ट की समीक्षा करें और इसकी पुष्टि करे।
4. गृह मंत्रालय उस नोडल एजेंसी की तरह काम करती है जो गवर्नर की रिपोर्ट को कैबिनेट के अनुमोदन के लिए भेजती है। अत: इसकी यह ज़िम्मेवारी बनती है कि वह इस रिपोर्ट को शब्दश: स्वीकार करने की बजाय़ सच्चाई की पड़ताल करे।
5. गवर्नर महज़ इस आधार पर बहुमत के दावे को ख़ारिज और सरकार के गठन से इन्कार नहीं कर सकता है कि अवैधानिक एवं अनैतिक तरीक़े से बहुमत का प्रबंध किया गया है।
6. अनु• 164 मुख्यमंत्री की नियुक्ति और सरकार के गठन के संदर्भ में राज्यपाल की संवैधानिक ज़िम्मेवारी निर्धारित करता है। राज्यपाल से यह संवैधानिक अपेक्षा है कि वह सरकार गठन के हर सम्हाव विकल्पों की पड़ताल करे. इस बात की तबतक अनुमति नहीं दी जा सकती है कि कोई सरकार गठित न की जा सके, जबतक सभी संभव विकल्पों को तलाश नहीं लिया जाता है।
7. सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर,2005 में अंतरिम आदेश देते हुए कहा कि चूँकि विस्तार से निर्णय देने में कुछ और समय लगेगा तथा नए सिरे से विधानसभा चुनाव के लिए प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, इसीलिए भंग विधानसभा को पुनर्बहाल नहीं किया जा सकता है।
8. अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नर की भूमिका पर फ़ोकस किया और किस व्यक्ति को गवर्नर नियुक्त किया जाय एवं किसको नहीं, इस संदर्भ में पूर्व की अनुशंसाओं को दुहराया।
स्पष्ट है कि बिहार मामला इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि इसने राष्ट्रपति-शासन के संदर्भ में राज्यपाल के साथ-साथ संघीय कैबिनेट की समान रूप से ज़िम्मेवारी निर्धारित की तथा उन्हें यह दिशानिर्देश दिया कि वे राज्यपाल की रिपोर्ट को आँख मूँदकर स्वीकार करने की बजाय अपने स्तर पर उसकी सत्यता का परीक्षण करायें और फिर निर्णय लें। इस निर्णय के कारण इस बात की संभावना उत्पन्न होती है कि केन्द्र सरकार किरकिरी से बचने के लिए राष्ट्रपति शासन की दिशा में पहल करने से पहले अतिरिक्त सावधानियाँ बरते।
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भाग 10: संघवाद और अनु• 356 का प्रयोग
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पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक नए ट्रेंड को मजबूती से उभरते देखा जा सकता है और वह यह कि विभिन्न मसलों पर राजनीतिक दलों का क्या रूख होगा, वह इस बात से निर्धारित नहीं होता है कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता क्या है, वरन् इस बात से निर्धारित होता है कि वर्तमान में वह दल सत्तारूढ दल की भूमिका में है या विपक्ष की भूमिका में? यहाँ पर काँग्रेस या भाजपा की बात नहीं की जा रही है. बात की जा रही है सत्तापक्ष और विपक्ष की । हाल में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच एक बेहतर समझ और सहमति विकसित होती दिखाई पड़ रही है,जिसे महसूसा जा सकता है। यह मौन सहमति है और सहमति का मसला है राष्ट्रहित,जनहित और संघवाद एवं इसके स्वरुप. सत्ता में आते ही राष्ट्रहित की चिंता सताने लगती है और विपक्ष में जाते ही जनहित की चिंता, यद्यपि कई बार ओवरलैपिंग की स्थिति भी दिखाई पड़ती है एवं उस स्थिति में दोनों पक्षों की जनहित व राष्ट्रहित की परिभाषा अलग-अलग होती है.यह उनके राजनीतिक हितों के अनुरूप निर्धारित होती है; इसी प्रकार सत्ता-परिवर्तन के साथ ही संविधान और संघीय ढाँचे को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों की चिंता का स्वरुप बदल जाता है. उनकी परिभाषा और उनकी चिंता इस बात पर निर्भर करती है कि वे सत्तापक्ष में है या विपक्ष में। सत्ता में आते ही मज़बूत केन्द्र वाले संघीय ढाँचे की ख़ासियत और अहमियत समझ में आने लगती है, लेकिन विपक्ष में जाते ही इसकी सीमाओं और राज्यों की स्वायत्ता की अहमियत। ये बातें भाजपा हो या काँग्रेस, दोनों पर समान रूप से लागू होती है।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि भारत में केन्द्र- राज्य सम्बंध बहुत कुछ सत्तापक्ष और विपक्ष के संबंध पर निर्भर करता है। पिछले ढाई दशकों के दौरान गठबंधन सरकार, लोकसभा और राज्यसभा में अलग-अलग दलों के बहुमत, बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशानिर्देश और राष्ट्रपति की सक्रियता ने ऐसी परिस्थितियों को निर्मित किया था जिनमें अनु• 356 के दुरूपयोग पर अंकुश लगा था और इस अंकुश की पृष्ठभूमि में राज्यों के पक्ष में केन्द्र-राज्य संबंध के संतुलन की बहाली संभव हो सकी थी। जिस तरीक़े से लोकसभा चुनाव के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संघवाद के मसले को उठाया था, उससे ऐसा लगा था कि आनेवाले समय में संघ-राज्य संबंध का राज्यों के पक्ष में कहीं बेहतर संतुलन संभव हो सकेगा। लेकिन, गहराई से विचार करें, तो अंतर्विरोध भाजपा के लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के एजेंडे और उसकी प्रचार शैली में दिखता है। उसने एक ओर सहकारी संघवाद का नारा दिया, दूसरी ओर पिछले डेढ़ दशक के दौरान मतदाताओं के दक्षिणपंथी राजनीति की ओर बढ़ते रूझान की पृष्ठभूमि में काँग्रेस-मुक्त भारत का सपना देखा जिसकी उस समय ग्यारह राज्यों में सरकारें थीं। इसी प्रकार इस दौरान जिस भाषा का इस्तेमाल किया गया, उसमें विपक्ष के प्रति सम्मान का अभाव दिखता है और वह सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच टकराव की संभावनाओं को बल प्रदान करता है।
जिस तरीक़े से अरूणाचल और अब उत्तराखंड में विपक्षी दल काँग्रेस की राज्य सरकारों को अस्थिर करने के लिए भाजपा के विधायकों ने काँग्रेस के असंतुष्ट विधायकों से हाथ मिलाया है और मौक़ा मिलते ही केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने राष्ट्रपति शासन लागू किया है तथा अरूणाचल में राज्यपाल के पद का दुरूपयोग करते हुए भाजपा समर्थित सरकार का गठन करवाया है, निश्चय ही वह इस ओर इशारा करता है कि सत्तारूढ़ दल लोकसभा में अपने बहुमत का लाभ उठाकर अपने राजनीतिक विरोधियों के सफ़ाए की रणनीति पर काम कर रही है। जहाँ विरोधी दल की सरकारें हैं, निश्चय ही उन राज्यों में इसके नकारात्मक संदेश गए हैं और वह यह कि मौक़ा मिलते ही केन्द्र सरकार उनकी सरकारों को भी अस्थिर कर राष्ट्रपति शासन की दिशा में पहल कर सकती है। इससे आने वाले समय में राजनीतिक और संसदीय परिदृश्य के कहीं अधिक जटिल होने की संभावना है। साथ ही, संघीय ढाँचे पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और संघ-राज्य संबंध में एक बार फिर से तनाव उभरकर सामने आयेंगे। इससे भी कहीं अधिक चिंता की बात यह है कि केन्द्र सरकार सरकारिया आयोग, पूँछी कमीशन और बोम्मई वाद,1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशानिर्देशों की भी उपेक्षा कर रही है। इसके कारण आने वाले समय में सत्तारूढ़ दल द्वारा राज्यपाल के पद और अनु• 356 का अपने राजनीतिक हित में उपयोग का मसला संघ-राज्य संबंध में उत्पन्न होने वाले तनाव एवं टकराव के प्रमुख मसले के रूप में उभर कर सामने आएगा।
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भाग 11 : संसदीय लोकतंत्र पर प्रभाव
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केन्द्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए जिस तरह दोनों राज्यों की निर्वाचित सरकार को अस्थिर करने के लिए जो प्रो-एक्टिव रोल निभाया और केन्द्र सरकार ने जिस तरह से इन घटनाक्रमों के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया दी, उसने राजनीतिक संकट को संवैधानिक संकट में रूपांतरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके कारण केन्द्र सरकार की मंशा को लेकर सन्देह होता है। साथ ही, संसदीय लोकतंत्र पर इसके प्रतिकूल प्रभाव की संभावना है। एक तो अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल की भूमिका ने प्रांतीय सरकार के प्रभावी प्रकार्यन को प्रभावित करते हुए संघ-राज्य संबंध को प्रतिकूलत: प्रभावित किया, दूसरी ओर स्पीकर की भूमिका ने स्पीकर पद की गरिमा और मर्यादा को दाँव पर लगाते हुए संसदीय लोकतंत्र को कलंकित किया है। इस आलोक में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या स्पीकर पद की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किए बिना संसदीय लोकतंत्र को बचाया जा सकता है? क्या ऐसे स्पीकर से सही तरीक़े से सदन की कार्यवाही के संचालन की अपेक्षा की जा सकती है? इसी प्रकार राज्यपाल पर संविधान की रक्षा की ज़िम्मेवारी है, अगर वही राज्यपाल केन्द्र के एजेंट में तब्दील होकर संविधान का गला घोंटने लगें, तो संसदीय लोकतंत्र को कैसे बचाया जा सकता है?
केन्द्र सरकार की मनमानी कार्रवाई न केवल केन्द्र-राज्य संबंध में तनाव उत्पन्न करेगी, वरन् सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बढ़ता टकराव संसद की कार्यवाही और संसद के पटल पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सहयोग की संभावनाओं को धूमिल करेगा। विशेषकर तब जब केन्द्र में सत्तारूढ़ दल को राज्यसभा में बहुमत नहीं है और विपक्ष के सहयोग के बिना कोई महत्वपूर्ण विधायन मुश्किल है। यह सब संकेत है संसदीय राजनीति की भावी दिशा का, जो आसान नहीं होने जा रही।
अनु. 356 आज़ाद भारत में ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को आकार देने वाले उपकरण में तब्दील हो चुका है जो उनके राजनीतिक हित और एजेंडे के अनुकूल है. श्री मति इंदिरा गाँधी के समय अनु. 356 का इस्तेमाल न केवल अपने ही राजनीतिक दल के आन्तरिक असंतोष को दबाने के लिए किया गया, वरन समय-समय पर विपक्षी दलों को नियंत्रित करने के लिये भी, ताकि अपनी राजनीतिक बढ़त को सुनिश्चित किया जा सके,.. यह प्रवृत्ति पिछले दो दशक के दौरान कमजोर पड़ी थी, लेकिन ऐसा लग रहा है कि एक बार फिर से पुरानी प्रवृत्ति उभरती हुयी दिखाई पड़ रही है. ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकार द्वारा इसका इस्तेमाल विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए किया जा रहा है और इतनी सावधानी बरती जा रही है ताकि संविधान और इससे जुडी संस्थाओं का इस्तेमाल अपना चेहरा छुपाने के लिए भी किया जा सके और अपने हित को साधने के लिए भी. कल अगर अरुणाचल की तर्ज़ पर उत्तराखंड में भी असंतुष्ट कांग्रेस सदस्य और भाजपा विधायक मिल कर वैकल्पिक सरकार का गठन करें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये. इस प्रकार विधानसभा के निलंबन के बहाने बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश का अनुपालन भी हो जायेगा और सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक हित भी सधेंगे. कांग्रेस का बैकफुट पर आना और उसके मनोबल का टूटना बोनस है निश्चय ही यह सत्तारूढ़ दल के लिए कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक बढ़त को सुनिश्चित करेगा, लेकिन .विपक्ष के साथ-साथ संवैधानिक संस्थाओं के प्रति सम्मान के भाव का अभाव आनेवाले समय में भारत के संसदीय लोकतंत्र के प्रभावी प्रकार्यन को प्रतिकूलत: प्रभावित करेगा .
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