Friday 22 April 2016

बिहार मॉडल बनाम गुजरात मॉडल

                  बिहार मॉडल बनाम गुजरात मॉडल

पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में राजनीतिक व्यक्तित्व की टकराहट की पृष्ठभूमि में विकास के दो मॉडल काफ़ी चर्चा में रहे: गुजरात मॉडल और बिहार मॉडल। नरेंद्र मोदी जी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के साथ यह चर्चा तेज़ होती चली गई क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में गुजरात मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाए जाने के संकेत दिए। इन मॉडलों को लेकर उत्पन्न विवाद को वैचारिक धरातल पर प्रस्तुत करने का प्रयास भी किया गया। यदि अमर्त्य सेन ने बिहार मॉडल के पक्ष में हस्तक्षेप किया, तो जगदीश भगवती और अरविंद पनगाड़िया ने गुजरात मॉडल के पक्ष में। 
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गुजरात मॉडल:
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गुजरात मॉडल नव आर्थिक उदारवाद की संकल्पना के कहीं अधिक निकट है. यह मॉडल यह मानकर चलता है कि यदि अभाव, ग़रीबी और बेरोज़गारी की चुनौती से निपटना है, तो आर्थिक संवृद्धि को फ़ोकस करना होगा जो रोज़गार-अवसरों के सृजन और ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट के ज़रिए आर्थिक संवृद्धि के लाभों को हाशिए पर के समूह तक पहुँचाने में सहायक है।  इस आर्थिक संवृद्धि के लिए यह निजी क्षेत्र, निजी पूँजी और निजी निवेश की भूमिका पर बल देता है। इसीलिए इसके बारे में यह कहा जा सकता है कि यह मुख्य रूप से शहर-केंद्रित विकास मॉडल है जिसमें कॉरपोरेट सेक्टर के नेतृत्व में विकास की राह तैयार की जाती है।
                अब प्रश्न यह उठता है कि गुजरात मॉडल राज्य की भूमिका को लेकर क्या सोचता है? यह आर्थिक गतिविधियों को निजी क्षेत्र और बाज़ार के भरोसे छोड़े जाने के पक्ष में है. यह सामान्य स्थिति में राज्य के हस्तक्षेप के विरुद्ध है. इसका मन्ना है कि राज्य की भूमिका सुविधा-प्रदायक की होनी चाहिए ताकि निजी क्षेत्र के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां निर्मित की जा सकें. इसके लिए यह राज्यस से अपेक्षा करता है कि वह भूमि-अधिग्रहण से लेकर मजबूत बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराने और परियोजनाओं के लिए जल्दी-से-जल्दी क्लीयरेंस को सुनिश्चित करे. मतलब यह कि गुजरात मॉडल निजी और कार्पोरेट क्षेत्र के पक्ष में राज्य के हस्तक्षेप पर ज़ोर देता है, न की सामान्य नागरिकों,शोषितों और वंचितों के पक्ष में.
                 चूँकि गुजरात मॉडल का ज़ोर आर्थिक विकास की बजाय आर्थिक संवृद्धि पर होता है और संवृद्धि के लाभों को आमलोगों तक पहुँचाने के लिए यह बाज़ार एवं ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट पर निर्भर करता है, अत: यह बहिष्करण और असंतुलित विकास की ओर ले जाता है। इसी कारण गुजरात में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच विकास की दृष्टि से स्पष्ट विभाजन दिखाई पड़ता है। गुजरात में संवृद्धि और विकास की प्रक्रिया में ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा हुई है जिसके कारण गुजरात का ग्रामीण इलाका विकास की प्रक्रिया में पिछड़ता चला गया। इसीलिए इस मॉडल में सामाजिक विकास और समावेशन को अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया है। इसकी पुष्टि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक फ़ाइनेंस एंड पालिसी (NIPFP)  के रिपोर्ट से होती है। सार्वजनिक सेवाओं के वितरण का आकलन करने वाली इस संस्था ने साल 2001 एवं 2011, दोनों में गुजरात को विकास के सभी मानदंडों और बुनियादी सेवाओं में श्रेष्ठ बताया है। हालांकि सामाजिक सेवाओं के मामले में वर्ष 2001 में गुजरात पांचवें नंबर पर था, जबकि 2011 में और नीचे गिरते हुए वह नौवें स्थान पर पहुंच गया। गुजरात मॉडल की विडम्बना यह है कि मानव विकास सूचकांक में तेईस राज्यों की सूची में गुजरात ग्यारहवें स्थान पर है। जुलाई,2000 में बीपीएल आबादी 23.39 लाख थी, जो जुलाई, 2012 में बढ़कर 30.49 लाख हो गई है। शिक्षा में ग्रामीण गुजरात की स्थिति हरियाणा से भी बदतर है। बिना बिजली के ग्यारह लाख घरों में नौ लाख घर गाँवों में हैं। अनुसूचित जाति एवं जनजाति इस बहिष्करण से कहीं अधिक प्रभावित हैं। गुजरात में (0-5) वर्ष के आयु-समूह में अल्पवजन के शिकार बच्चों का अनुपात अनुसूचित जनजाति समूह में 64.5% है, जबकि राष्ट्रीय औसत 54.5% है। आदिवासी जनजातियों में बाल मृत्यु दर अपेक्षाकृत अधिक है। इसी प्रकार मनरेगा में दलितों की भागीदारी 22.67% के राष्ट्रीय औसत के सापेक्ष 7.83% है। संक्षेप में कहा जाय, तो गुजरात में कार्पोरेट सेक्टर के साथ-साथ शहरी मध्यवर्ग और नवोदित मध्यवर्ग के हितों को विशेष तरजीह दिया गया है। गुजरात की आर्थिक संवृद्धि में हासिए पर के समूह की समुचित एवं पर्याप्त भागीदारी नहीं है।
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बिहार मॉडल:
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विकास के बिहार मॉडल में सार्वजनिक क्षेत्र, सार्वजनिक निवेश की भूमिका महत्वपूर्ण और निर्णायक होती है। यह हासिए पर के समूह के पक्ष में राज्य के हस्तक्षेप पर बल देता है। यह मॉडल आर्थिक संवृद्धि पर बल नहीं देता हो, ऐसी बात नहीं है। लेकिन, इसका फ़ोकस आर्थिक संवृद्धि की बजाय आर्थिक विकास पर होता है। इसके मद्देनज़र यह आर्थिक संवृद्धि के लाभों को हासिए पर के समूह तक पहुँचाने के लिए राज्य के प्रो-एक्टिव रोल पर बल देता है और अपेक्षा करता है कि राज्य शिक्षा एवं स्वास्थ्य सहित तमाम सामाजिक- आर्थिक विकास योजनाओं और कार्यक्रमों पर सार्वजनिक ख़र्च को बढ़ाए। यह अब तक के अनुभव के अनुरूप ही है जो यह बतलाता है कि आर्थिक संवृद्धि की दर जितनी तेज़ होगी, ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट उतना ही प्रभावी होगा। लेकिन, राज्य की हासिए पर के समूह के पक्ष में सक्रिय भूमिका इस प्रवाह को उत्प्रेरित करने में सहायक है।
                        स्पष्ट है कि बिहार मॉडल में निजी कॉरपोरेट क्षेत्र की भूमिका बहुत हद तक सीमित होती है। इसमें आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया को राज्य के द्वारा नेतृत्व प्रदान किया जाता है. इसीलिए इसका मुख्या फोकस सार्वजानिक व्यय पर होता है और उस व्यय की दिशा मूलत: अवसंरचना परियोजनाओं, सामाजिक विकास और समावेशन की ओर होता है. अतः बिहार मॉडल में सामाजिक न्याय और सामाजिक समावेशन को कहीं अधिक महत्व दिया गया है। विशेष रूप से महिलाओं, अल्पसंख्यक (पसमांदा) मुसलमानों, अति पिछड़ा वर्ग और महादलितों: इन सामाजिक समूहों को विकास की प्रक्रिया में लक्षित किया गया है। 
यह बात अलग है कि सकल घरेलु उत्पाद के छोटे आकार और सीमित संसाधनों की उपलब्धता के कारण राष्ट्रीय मानदंडों की तुलना में प्रति व्यक्ति आय और सार्वजनिक खर्च यहां अब भी मामूली ही है। एनआईपीएफपी की रैंकिंग में भी वर्ष 2001 और 2011, दोनों में बिहार लगभग आखिरी पायदान पर था। आमतौर पर सार्वजनिक सेवाओं के वितरण को कई वजहों से विकास से जोड़ दिया जाता है, मगर जब इसका समायोजन कर लिया गया, तो बिहार की रैंकिंग उल्लेखनीय रूप से बेहतर हो गई।

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 तुलनात्मक संदर्भ:
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विकास के इन दोनों मॉडलों में दिखने वाले विरोधाभास की व्याख्या मोदी या नीतीश की व्यक्तिगत प्राथमिकताओं से कहीं अधिक दोनों राज्यों की अलग-अलग परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए। गुजरात मॉडल का आधार तैयार किया गुजरात की तटवर्ती क्षेत्रों एवं महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर विशिष्ट भौगोलिक अवस्थिति और गुजरातियों की बनिए वाली मानसिकता ने. इसने  न केवल गुजरात मॉडल को आकार प्रदान किया, बल्कि विदेशी निवेश तक गुजरात की आसान पहुँच को सुनिश्चित कर तथा अप्रवासी गुजरातियों की आय एवं बचत की गुजरात के लिए उपलब्धता को सुनिश्चित कर इस मॉडल को सफल बनाने में अहम् भूमिका निभाई। ऐसी बढ़त न तो बिहार के पास उपलब्ध है और न ही पूरे देश के पास। इसीलिए पूरे देश में गुजरात मॉडल को लागू करना आसान नहीं होने जा रहा है।


भौगोलिक परिस्थितियों के अलावा औपनिवेशिक विरासत को भी इसके लिए बहुत हद तक ज़िम्मेवार माना जा सकता है। दरअसल, क्षेत्रीय विकास का असंतुलित पैटर्न भारत को औपनिवेशिक विरासत में मिला है, जिसके तहत औद्योगिक निवेश गुजरात जैसे चंद विकसित राज्यों में बेहतर हुए हैं, जबकि बिहार जैसे राज्यों की आमतौर पर कृषि पर निर्भरता बनी रही। ब्रिटिश फैक्ट्रियों की स्थापना से लेकर औपनिवेशिक शासन के अंत तक औद्योगिक निवेश काफी हद तक बॉम्बे और कलकत्ता जैसे तटवर्ती इलाक़ों तक सीमित थे, जबकि अहमदाबाद वस्त्र उद्योग के कारण तीसरा बड़ा औद्योगिक केंद्र बनकर उभर रहा था। "द इंडस्ट्रियल इवॉल्यूशन ऑफ इंडिया इन रिसेंट टाइम्स, 1860-1939" में डी. आर. गाडगिल लिखते हैं: " गुजरात देश का एकमात्र ऐसा हिस्सा है, जहाँ उद्योग भारतीय संसाधनों से विकसित किए गए, और यहां काफी पहले से ही कारोबारियों का ऐसा वर्ग मौजूद रहा, जो विदेश से व्यापार करता था। युद्ध के बाद इस परिस्थिति में कुछ बदलाव तो आया, मगर अहमदाबाद के कारण गुजरात का दबदबा वस्त्र उद्योग में बना रहा।" इसका कारण वे बेहतरीन मिलों, अच्छे प्रबंधन और उत्पादों की गुणवत्ता को देते हैं।
                    गुजरात की यह आर्थिक बढ़त मोरारजी देसाई, माधव सिंह सोलंकी, चिमन भाई पटेल और केशुभाई पटेल जैसे योग्य, सक्षम एवं प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व की अगुवाई में स्वतंत्रता के बाद भी बनी रही। उन्हें अंबा लाल और विक्रम साराभाई जैसे उद्यमियों का सहयोग मिला। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह गुजराती उद्यमियों का वर्चस्व था जिसके प्रति प्रतिक्रिया में पृथक महाराष्ट्र का आंदोलन चला था। 1984 में माधव सिंह सोलंकी के समय जब चार हज़ार करोड़ रूपए के निवेश के लिए देश के सौ जिलों का चयन किया गया, तो उन सौ जिलों में पच्चीस ज़िले गुजरात के थे। स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने गुजरात के विकास को उत्पन्न नहीं किया, वरन् विकास की उस परम्परा को जारी रखा जो पहले से विद्यमान थी। गुजरात उस दहलीज़ पर खड़ा था जहाँ से वह आर्थिक उदारीकरण द्वारा सृजित संभावनाओं का लाभ उठा पाने में सक्षम था। यह गुजरात का सौभाग्य रहा कि गुजरात को ऐसे समय में नरेंद्र मोदी जी का योग्य एवं सक्षम नेतृत्व प्राप्त हुआ।
                     आजादी के बाद होने वाले इन बदलावों और औद्योगीकरण में उछाल से बिहार जैसे राज्य बहुत हद तक महरूम ही रहे। इसके लिए कुछ हद तक कृषि पर आधारित बिहार की अर्थव्यवस्था और केंद्र सरकार द्वारा कृषि एवं कृषि अर्थव्यवस्थाओं को बहुत हद तक जिम्मेवार माना जा सकता है. इसके उलट 1979-80 तक गुजरात सबसे औद्योगीकृत राज्य बन गया था, फलत: गुजरात जैसे औद्योगिक राज्यों एवं बिहार जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं के बीच क्षेत्रीय विषमताएं गहराती चली गईं। जहां प्रति व्यक्ति आय (राज्य घरेलू उत्पाद) 1,425 रुपये थी, जो बिहार (735 रुपये) की तुलना में लगभग दोगुनी थी। गुजरात में भारत की कुल आबादी का पांच फीसदी हिस्सा बसता था, जो बिहार (देश की कुल जनसंख्या का दस फीसदी हिस्सा तब यहां रहता था) की तुलना में आधा था। इतना ही नहीं, देश के कारखानों (11.3 प्रतिशत), औद्योगिक रोजगार (9.1 प्रतिशत) और औद्योगिक मूल्य वर्धित क्षेत्रों (9.33 प्रतिशत) में गुजरात का योगदान बिहार से लगभग दोगुना था। ऐसी स्थिति में बिहार के विकास की निर्भरता बहुत हद तक सार्वजनिक खर्चों पर ही थी। यहाँ निजी उद्योग भी नाममात्र के थे और  उसके विकास की सम्भावना भी अत्यंत सीमित थी. उनके लिए समृद्ध अप्रवासी बिहारियों के संसाधन और सहयोग भी उपलब्ध नहीं थे। इसकी पुष्टि नीतीश कुमार की पहल पर वर्ष 2012 में आयोजित निवेशकों के सम्मेलन से होती है जिसमें बिहारी मूल के केवल एक ही बडे़ उद्योगपति अनिल अग्रवाल (वेदांता रिसोर्सेस के प्रमुख) मौजूद थे, और उन्होंने भी इस राज्य में कोई उल्लेखनीय निवेश करने की घोषणा नहीं की। वहाँ पर मौजूद अन्य उद्यमियों ने यह संकेत दिया कि निजी निवेश पाने से पहले बिहार को काफी कुछ करने की जरूरत है।



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अंतर ही नहीं,समानताएं भी:
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गुजरात मॉडल और बिहार मॉडल के बीच तुलना करते हुए किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि गुजरात मॉडल में आर्थिक संवृद्धि को नेतृत्व प्रदान करने में निर्माण, संचार और परिवहन क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण एवं निर्णायक रही है। इसके अलावा गुजरात में विनिर्माण क्षेत्र और व्यापार एवं वाणिज्यिक सेवाओं ने भी संवृद्धि की प्रक्रिया को नेतृत्व प्रदान किया है। यही स्थितिकुछ हद तक बिहार में देखी जा सकती है. पिछले दस सालों के दौरान बिहार में क़ानून एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली को सुनिश्चित करते हुए भौतिक अवसंरचना के विकास को प्राथमिकता दी गई। इसके परिणामस्वरूप निर्माण क्षेत्र और पर्यटन क्षेत्र की गतिविधियों में तेज़ी आई जिसने वित्तीय क्षेत्र की संवृद्धि के साथ-साथ सीमेंट एवं इस्पात सहित अन्य सम्बद्ध औद्योगिक गतिविधियों को उत्प्रेरित किया। पिछले एक दशक के दौरान बिहार की आर्थिक संवृद्धि को नेतृत्व प्रदान करने में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों के योगदान से संबंधित निम्न आँकड़ों से इसकी पुष्टि होती है:

बिहार में विभिन्न क्षेत्रकों का प्रदर्शन
1• संचार क्षेत्र 25.38 %
2• उत्पादन: 19.31 %
3• निर्माण: 16.58 %
4• वित्त,बैंकिंग एवं बीमा: 17.70 %
5. परिवहन : 15.08 %
पिछले एक दशक के दौरान बिहार की विकास दर औसतन 10.5% के स्तर पर रही है, जबकि राष्ट्रीय औसत सात से आठ प्रतिशत के बीच रहा है. 2015-16: में बिहार ने 9.12 % की आर्थिक संवृद्धि दर को हासिल किया है.


जो चीज बिहार को गुजरात से अलगाती है, वह यह कि बिहार ने यह प्रदर्शन कृषि क्षेत्र की बदौलत हासिल किया है, जबकि गुजरात ने विनिर्माण और वाणिज्यिक-व्यापारिक गतिविधियों के ज़रिये. पिछले दशक में (11-12)वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बिहार के संदर्भ में कृषि क्षेत्र ने भी कम बारिश के बावजूद औसतन छह प्रतिशत की संवृद्धि दर को हासिल कर बेहतर प्रदर्शन किया है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के आरंभिक चार वर्षों के दौरान जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर कृषि क्षेत्र ने चार प्रतिशत के मुक़ाबले 1.6 % की विकास दर को हासिल किया, वहीं बिहार में 2014-15 में औसत से 12% और 2015-16 में औसत से 14% कम बारिश के बावजूद 5-6 प्रतिशत की विकास दर को हासिल किया। यह भी एक महत्वपूर्ण करण है जिसने बिहार में संवृद्धि के विकास में रूपांतरण को भी संभव बनाया और उस संवृद्धि को समावेशी स्वरुप भी प्रदान किया.
                          
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निष्कर्ष:
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स्पष्ट है कि मोदी जी को निजी और कार्पोरेट क्षेत्र के दबदबे वाला विकसित गुजरात विरासत में मिला, जिसे उन्होंने और मजबूत किया। इसके विपरीत नीतीश कुमार को एक ऐसा कृषि पर आधारित राज्य विरासत के रूप में मिला, जो बदहाल था। वह आगे बढ़ने की बजाय विकास की प्रक्रिया में निरंतर पिछड़ता जा रहा था।  लिहाजा बुनियादी संरचनाओं की बेहतरी और सामाजिक विकास के लिए नीतीश कुमार के पास सार्वजनिक खर्च को तवज्जो देने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। नीतीश कुमार की खासियत इस बात में है कि उन्होंने उपरोक्त सीमाओं की पृष्ठभूमि में ऐसी विकास रणनीति तैयार की जो एक ओर सामाजिक-लैंगिक-धार्मिक समावेशन को प्राथमिकता देता है,  दूसरी ओर उपलब्ध सीमित संसाधनों के इष्टतम दोहन को सुनिश्चित करने और अपनी रणनीति को जमीन पर उतारने के लिए स्वच्छ और पारदर्शी प्रशासन पर भी जोर देता है। दरअसल इस विकास मॉडल में विकास और राजनीति को एक-दूसरे से मिलते देखा जा सकता है. 
                                दरअसल इस विकास मॉडल का बिहार के आधार पर नामकरण भी थोडा अटपटा लग रहा है.ऐसा नहीं की इस तरह के विकास मॉडल को नितीश कुमार ने पहली बार विकसित किया. यह पहले से चला आ रहा विकास मॉडल है जिसे नितीश जी ने अपने विज़न के अनुसार अपनी राजनीतिक ज़रूरतों के साथ-साथ बिहार की ज़रूरतों के अनुरूप विकसित किया. इस विकास मॉडल को थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ केरल, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में देखा जा सकता है. नितीश जी ने पूर्व से चले आ रहे इस मॉडल में महिलाओं और महादलितों को महत्वपूर्ण जगह देकर इसके सामाजिक पक्ष को और अधिक तवज्जो दिया. यह मॉडल संतुलित और समावेशी विकास की ओर ले जा सकता है जो तमाम समस्याओं का हल देने में समर्थ है.
भले ही वर्तमान में ऐसा लगता हो कि बिहार मॉडल में निजी पूंजी, निजी निवेश और निजी उद्योग के लिए स्पेस नहीं है,पर वास्तविक रूप में ऐसा नहीं है. अभी बिहार की अर्थव्यवस्था उस स्थिति में नहीं है जहां पर इस मॉडल का येह्पक्ष उभर कर सामने आ सके, अन्यथा यह समावेशन के तौर पर बुनियादी संरचनाओं, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च के साथ ही निजी निवेश की संभावनाओं को भी समाहित करता है.


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