Tuesday 29 March 2016

===== साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका:1984 और 2002 : तुलनात्मक संदर्भ ===================================

===================================
साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका:1984 और  2002 : तुलनात्मक  संदर्भ
===================================
शायद अबतक का सबसे मुश्किल काम मैं अपने हाथ में लेने जा रहा हूँ और वह है आज़ाद भारत के दो साम्प्रदायिक तांडव की तुलना का, वह भी तू जब हम दिमाग़ का काम भी दिल से लेने लगे हैं। हमारे दिमाग़ ने सोचना बंद कर दिया है और हमारे दिल ने संवेदना को तिलांजलि दे दी है। ऐसा तब होता है जब हम दिल से सोचना शुरू करते हैं।देखना है कहाँ तक अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पाता हूँ?
मैं जानता हूँ कि 1984 के दंगों में काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की सक्रिय भूमिका रही और इस नाते एक राजनीतिक दल के रूप में काँग्रेस इसके लिए ज़िम्मेवार  है। मैं यह भी जानता हूँ कि प्रशासन साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित था और संस्थागत पूर्वाग्रह ने दंगों के दौरान प्रशासन की भूमिका और प्रभावशाली को बुरी तरह से प्रभावित किया। फलत: प्रशासन पंगु बना रहा। इस दौरान जनता की राक्षसी प्रवृत्ति जाग उठी और नंगा नाच करने लगी। हज़ारों निर्दोष और निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। भयानक क़त्लेआम का परिणाम था यह सब। मैं यह भी भी जानता और मानता हूँ कि 19 नवम्बर 1984 को राजीव गाँधी द्वारा दिया गया बयान "जब बड़े पेड़ गिरते हैं, तो छोटे-छोटे पौधे उसके नीचे दब जाया करते हैं।" अत्यंत घृणित और निंदनीय है जिसको किसी भी स्थिति में डिफ़ेंड नहीं किया जा सकता है। निस्सन्देह यह सब चौरासी के दंगों को 2002 के गुजरात दंगे के क़रीब ले आता है। 
                लेकिन, क्या इतने मात्र से 1984 के सिख-विरोधी दंगे को 2002 के गुजरात दंगे के समकक्ष रखा जा सकता है?  मेरी नज़रों में नहीं, क्योंकि:
1• राजीव गाँधी उस समय राजनीति और प्रशासन के लिए नवसिखुआ थे। जिस समय उन्होंने पदभार सँभाला, उस समय दंगा फैल चुका था। इसके विपरीत नरेंद्र मोदी जी राजनीति के मँजे हुए खिलाड़ी थे। उन्होंने केशुभाई पटेल जैसे दिग्गज को पटकनी देकर मुख्यमंत्रित्व को हासिल किया। उनके पास राजनीतिक के साथ-साथ प्रशासनिक अनुभव भी बहुत ज़्यादा था।
2• 1984 के दंगों में राजीव गाँधी की प्रत्यक्ष या परोक्ष संलिप्तता के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। वहाँ वे प्रशासक के रूप में विफल रहे जिन्होंने उन्मादी भीड़ को क़ाबू में करने के लिए अपेक्षित क़दम नहीं उठाए और यही उनका दोष है। इसके विपरीत 2002 के दंगों में मोदी जी की प्रत्यक्ष संलिप्तता के आरोप भी लगे और यह भी कहा गया कि राज्य एवं प्रशासन के नेतृत्व में उसे सुनियोजित तरीक़े से रणनीति के तहत् अंजाम दिया गया। (यद्यपि न्यायालय ने इस आरोप को स्वीकार नहीं किया,  और इसे ख़ारिज कर दिया।)यहाँ तक कि गुजरात पहुँची सेना को अड़तालीस घंटे तक तैनाती के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी।
3• एक राजनीतिक दल के रूप में देखें तो निश्चित तौर पर 1984 का दंगा काँग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर एक बड़ा कलंक है और इसके लिए उसे आगे भी शर्मिंदा होना पड़ेगा ; पर हमें यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि यह काँग्रेस का धर्मनिरपेक्ष राजनीति से विचलन है। इसके विपरीत संघ परिवार, भाजपा और मोदी जी की राजनीति 2002 के पहले भी साम्प्रदायिक थी, 2002 के दंगों के समय भी साम्प्रदायिक रही और उसके बाद से आजतक साम्प्रदायिक है। यह विचलन नहीं, सामान्य प्रवृत्ति है। मैं नहीं, पिछले ढाई वर्षों की क्राइम रिपोर्ट और ट्रेंड इस बात का संकेत देते हैं कि मोदी जी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने के बाद से अबतक साम्प्रदायिक तनाव एवं टकराव की घटनाओं में तीव्रता दिखाई पड़ती है और इस तीव्रता के लिए मोदी-शाह की जुगलबंदी और संघ की आक्रामक हिन्दुत्व की नीति प्राथमिक रूप से ज़िम्मेवार है (यद्यपि मुलायम एवं काँग्रेस जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों  की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने ही उपरोक्त रणनीति को सफल बनाने में कहीं कम योगदान नहीं दिया।
4• काँग्रेस कई अवसरों पर 1984 के दंगों के लिए माफ़ी माँग चुकी है, यद्यपि माफ़ी माँगने से न तो अपराध कम हो जाता है और न ही दंगों के शिकार लोगों एवं उनके परिजनों की पीड़ा ही कम हो जाती है, पर इससे इतना तो संकेत मिलता ही है कि काँग्रेस ने इसकी नैतिक ज़िम्मेवारी लेते हुए अपनी ग़लती स्वीकार की। इसके विपरीत मोदी जी ने आज तक न तो नैतिक ज़िम्मेवारी ली , न ग़लती स्वीकार की और न ही कभी इसके लिए माफ़ी माँगा।
5• राजीव गाँधी के जिस बयान को लेकर उनकी आलोचना की जाती है, वह उनकी असमवेदनशीलता या यूँ कह लें कि उनकी संवेदनाहीनता को तो दर्शाता है, पर वह बयान दंगा थम चुकने के बाद आया और उसकी दंगे के भरता े में कोई भूमिका नहीं रही।
[NOTE: इस पोस्ट का उद्देश्य न तो काँग्रेस को क्लीन चीट देना है, न 1984 के दंगों को जस्टिफाइ करना है और न ही यह दर्शाना कि 1984 का दंगा कम विध्वंसकारी था, इसीलिए 2002 से बेहतर था। इस पोस्ट का उद्देश्य वस्तु स्थिति का चित्रण करना और उसकी प्रकृतिगत भिन्नता को रेखांकित करना है। पाठकों से आग्रह है कि नीचे कुछ लिंक दिए गए हैं जो इस विमर्श को आगे बढ़ाने में सहायक हैं। कृपया सार्थक विमर्श को आगे बढ़ाने में सहयोग करें तथा अनावश्यक एवं अवांछित टिप्पणियों से परहेज़ करें। 

No comments:

Post a Comment