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राष्ट्रहित में ज़रूरी है भाजपा-पीडीपी गठबंधन
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मुफ़्ती मोहम्मद सईद का गुज़रना महज़ एक व्यक्ति का चला जाना नहीं है। यह एक स्टेट्समैन का प्रस्थान है। यह केवल जम्मू- कश्मीर की क्षति नहीं है। यह राष्ट्र की क्षति भी है जिसकी भरपाई आने वाले समय में मुश्किल होगी और यदि सावधानीपूर्वक क़दम नहीं बढ़ाया गया, तो पूरे देश को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। संयोग से मैं सईद साहब को उस समय से जानता हूँ जब वी.पी. सिंह की सरकार में वे गृहमंत्री हुआ करते थे और जब उनकी अपहृत बेटी रूबिया सईद को आतंकवादियों की गिरफ़्त से मुक्त करवाने के बदले कुछ आतंकवादियों को रिहा किया गया था।
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बदला राजनीतिक परिदृश्य:
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मुफ़्ती की मौत ने भाजपा और पीडीपी दोनों को अवसर प्रदान किया पिछले दस महीने के गठबंधन-अनुभवों के सापेक्ष अपने राजनीतिक संबंधों को पुनर्परिभाषित करने का । भाजपा ने इसे ऐसे अवसर के रूप में लेना चाहा जिसका लाभ उठाकर जम्मू-कश्मीर की कुर्सी हथियाई जा सकती है, जबकि पीडीपी के लिए यह एक अवसर था जिसका लाभ उठाकर गठबंधन के एजेंडे को लागू करने के लिए भाजपाई सहयोग को सुनिश्चित किया जा सके। साथ ही, महबूबा मुफ़्ती इसके ज़रिए अपने वोट-बैंक को भी एक मैसेज देना चाह रही थी। इसी रस्साकशी ने गठबंधन को लेकर अनिश्चितता को जन्म दिया। जेएनयू विवाद ने भी कुछ समय के लिए अवरोध उत्पन्न करने का काम किया, लेकिन इस मसले पर दोनों पक्षों द्वारा एक-दूसरे के स्टैंड पर टिप्पणी करने से परहेज़ इस गठबंधन को लेकर इनकी संजीदगी का संकेत देती है। पीडीपी ने तो पूरे मसले पर कुछ भी टिप्पणी करने से बचने की सजग कोशिश की। यह बात अलग है कि (अपुष्ट स्रोतों के अनुसार) बदले में पीडीपी जेएनयू कैम्पस में एंटी-इंडिया स्लोगन लगाने वाले कश्मीरी(संभवत:) लोगों के मसले पर जाँच को धीमी गति से आगे बढ़ाने के सन्दर्भ में भाजपा से आश्वासन पाने में सफल रही।
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गठबंधन का अबतक का अनुभव:
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लगभग पिछले दस महीने का अनुभव बतलाता है कि जिन अपेक्षाओं के साथ राजनीतिक मजबूरी के कारण दोनों के बीच गठबंधन संभव हो सका, वे अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई। पीडीपी ने यह अपेक्षा की थी कि एक बार गठबंधन का एजेंडा निर्धारित करने के बाद उसे खुलकर काम करने की छूट दी जाएगी। इससे उसे जनाधार के खिसकने की उस आशंका को निरस्त करने में मदद मिलेगी जो भाजपा के साथ गठबंधन के कारण उत्पन्न हुई थी। ऊधर भाजपा पीडीपी का इस्तेमाल अपने दम पर सत्ता में आने के लिए करना चाह रही थी। अब दो लोमड़ियाँ मिलेंगीं, तो वही भारी पड़ेगी जो ज़्यादा तेज़ है। अब कौन ज़्यादा तेज़ है, यह तो आने वाला समय बतायेगा।हाँ, यह ज़रूर कहूँगा कि पिछले दस महीने के दौरान दोनों ने अपने-अपने वोटर्स को एड्रेस करने की कोशिश की जिसने गठबंधन के भागीदारों के बीच आपसी समझ विकसित होने की प्रक्रिया को बाधित किया।
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गठबंधन क्यों ज़रूरी?
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भाजपा और पीडीपी दोनों जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अतिवादिता के दो छोर हैं। भाजपा जहाँ आक्रामक राष्ट्रवाद में विश्वास करती है जिसका रूझान हिन्दुत्ववादी है, वहीं पीडीपी का रूझान अलगाववाद की ओर है। जहाँ भाजपा ने अफ़ज़ल गुरू को फाँसी देने के लिए लगातार यूपीए सरकार पर दबाव बनाया था और उसी के दबाव का परिणाम था यूपीए सरकार द्वारा अफ़रातफ़री में अफ़ज़ल गुरू को फाँसी, जिसमें फाँसी की औपचारिकता तक नहीं पूरी की गई, वहीं पीडीपी का स्पष्ट मानना था कि अफ़ज़ल की फाँसी "न्याय का उपहास" ( Travesty Of Justice) थी और इसे जम्मू-कश्मीर के दुखद इतिहास में एक सन्दर्भ बिन्दु के रूप में याद किया जाएगा। इसी प्रकार जहाँ भाजपा पाक-अधिकृत कश्मीर पर भी दावा ठोकती है, वहीं पीडीपी के कश्मीर विजन में पाक-अधिकृत कश्मीर को हरे रंग में अर्थात् पाकिस्तानी क्षेत्र के रूप में तथा अक्साई चीन वाले इलाक़े को लाल रंग में अर्थात् चीनी क्षेत्र के रूप में दर्शाया गया है। वैसे, इस आपत्ति को अगर छोड़ दूँ, तो मैं पीडीपी के कश्मीर विजन ( विकास) का मैं क़ायल हूँ। पीडीपी की नज़र जहाँ कश्मीर और कश्मीरियों पर रही है और वह जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कश्मीर के पारम्परिक प्रभुत्व को बनाए रखने के पक्ष में है, वही भाजपा जम्मू-कश्मीर को मुसलमान-बहुल कश्मीर घाटी, हिन्दू-बहुल जम्मू और बौद्ध-बहुल लद्दाख के रूप में तीन राज्यों में बाँटे जाने के पक्ष में है क्योंकि ऐसी स्थिति में जम्मू की राजनीति में उसका वर्चस्व स्थापित हो सकता है।
यहाँ पर यह भी स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि कश्मीर को बचाने के लिए कश्मीरियत को बचाना आवश्यक है।इसे भाजपा के हिन्दुत्ववादी रूझान से भी ख़तरा है और पीडीपी के अलगाववादी रूझानों से भी। पीडीपी को समझना होगा कि कश्मीरी पंडितों को घाटी में वापस लाए बग़ैर और धार्मिक-साम्प्रदायिक सौहार्द्र की पुनर्बहाली के बग़ैर कश्मीरियत को बचा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। इसी प्रकार भाजपा को यह समझना होगा कि उसकी साम्प्रदायिक विभाजनकारी राजनीति कश्मीरियत पर मँडरा रहे ख़तरे को गहराने में सहायक है, इसे बचा पाना एवं इसकी पुनर्बहाली की बात तो दूर है।
इन वैचारिक मत-भिन्नताओं और अंतर्विरोधी हितों की पृष्ठभूमि में जितने आक्रामक तरीक़े से दोनों राजनीतिक दलों ने विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव-प्रचार अभियान चलाया, उसने दोनों के बीच की कटुता और वैमनस्य को कम करने की बजाए बढ़ाने का काम किया। दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ीं और ऐसे में दोनों के बीच गठबंधन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जब चुनाव परिणाम सामने आया, तो पीडीपी सबसे बड़ी और भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई। यह चुनाव-परिणाम इस बात का संकेत देता है कि घाटी में पीडीपी और जम्मू में भाजपा के पक्ष में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ। इस तरह दोनों दल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति में सफल रहे। लेकिन,समस्या यह रही कि पीडीपी को घाटी में और भाजपा को जम्मू में अपार समर्थन मिला। तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा घाटी में अपने खाता भी नहीं खोल पाई।अब समस्या यह उभरकर सामने आई कि चुनाव-परिणाम ने जम्मू और घाटी के बीच की खाई को न केवल चौड़ा किया, वरन् ऐसी स्थिति उत्पन्न की जिसमें यदि इन दोनों में कोई भी दल एक-दूसरे की बजाय अन्य दलों के सहयोग से गठबंधन सरकार बनाई होती, तो भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में घाटी का समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व मुश्किल होता और पीडीपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में जम्मू का, जो इन दोनों क्षेत्रों के बीच की साम्प्रदायिक -राजनीतिक खाई को कम करने की बजाय और तोड़ा किया होता जो जम्मू - कश्मीर के लिए ख़तरनाक स्थिति होती। ये बातें आज पर भी सौ फ़ीसदी लागू होती हैं।
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भाजपा और केन्द्र से पीडीपी की शिकायत वाजिब
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अगर पीडीपी भाजपा के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हुई, तो इसमें अटल जी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के पिछले अनुभव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2002 में जब मुफ़्ती के नेतृत्व में काँग्रेस-पीडीपी गठबंधन सरकार बनी , तो उसने हीलिंग टच पाॅलिसी (Healing Touch Policy) शुरू की जिसे तत्कालीन एनडीए सरकार का समर्थन मिला। इसके तहत् उन लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश शुरू हुई जो विभिन्न कारणों से अलगाववाद के रास्ते पर बढ़ चुके थे, लेकिन जो निरंतर अशांति एवं अव्यवस्था से ऊब चुके थे और मुख्यधारा में लौटने को इच्छुक थे। उनकी यह नीति बहुत हद तक सफल रही और इससे घाटी की विस्फोटक स्थिति को नियंत्रित करने में काफ़ी मदद मिली। कश्मीर समस्या के अनियंत्रित स्वरूप को नियंत्रण में लाना अटल जी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही और इसमें मुफ़्ती के विजन की महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका रही। मुफ़्ती को इस बात का भी श्रेय जाता है कि उन्होंने भारतीय संविधान के संघीय ढाँचे के अंतर्गत कश्मीरियों के मूलभूत प्रश्नों, असंतोष और अलगाववादी भावनाओं को लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति देकर घाटी में हुर्रियत सहित तमाम अलगाववादी संगठनों के सामाजिक आधार को कमज़ोर किया।
स्पष्ट है कि पीडीपी का अलगाववादी रूझान भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक फ़्रेमवर्क में अभिव्यक्त होता है जिसके कारण कल तक जम्मू- कश्मीर की जो जनता अलगाववादी आतंकियों के साथ खड़ी थी और आज़ाद कश्मीर के नारे लगा रही थी, आज वही जनता पीडीपी के पीछे खड़ी है और भारतीय संविधान को न केवल स्वीकार रही है, बल्कि उसमें अपनी आस्था भी प्रदर्शित भी कर रही है। इस गठबंधन से यह अपेक्षा की जा रही थी कि केन्द्र में एनडीए की सरकार होने के कारण केन्द्र और राज्य के बीच बेहतर अंडरस्टैंडिंग संभव हो सकेगी तथा मुफ़्ती ने जिस काम को 2005 में जहाँ पर अधूरा छोड़ा था, वहीं से उसे लेकर आगे बढ़ेंगे और पूरा करेंगे। मुफ़्ती ने अपनी इसी रणनीति के तहत् शांतिपूर्ण चुनाव संचालन में परोक्ष सहयोग के लिए पाकिस्तान और हुर्रियत को धन्यवाद दिया तथा हीलिंग टच पाॅलिसी 2.0 के ज़रिए अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। लेकिन, केन्द्र सरकार एवं भाजपा ने मुफ़्ती को सहयोग करने की बजाय उन पर दबाव बनाना शुरू किया और राज्य भाजपा इकाई के माध्यम से मुफ्ती के लिए परेशानियाँ खड़ी करनी शुरू कीं। वह इस बात को नहीं समझ पाई कि मुफ़्ती/महबूबा के काम करने का अपना तरीक़ा है और उसे उनमें अपना विश्वास प्रदर्शित करते हुए स्पेस देना चाहिए और देना होगा। हर मुद्दे के राजनीतिकरण से परहेज़ करना होगा।
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विपक्ष की भूमिका:
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इस क्रम में काँग्रेस भी एक ज़िम्मेवार भूमिका निभा पाने में असफल रही। उसने विभिन्न मुद्दों का लगातार राजनीतिकरण करते हुए गठबंधन सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करनी शुरू की और उनके बीच आपसी समझ एवं तालमेल के अभाव से लाभ उठाना चाहा। यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि पीडीपी के साठ गठबंधन का हिस्सा बनकर कांग्रेस ने हीलिंग टच की जिस पाॅलिसी को खुला समर्थन दिया था,विपक्ष मेंँ रहते हुए हीलिंग टच की उसी पाॅलिसी का विरोध करना शुरू किया जिसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाना चाहिए।
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विकल्प क्या है?
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अब प्रश्न यह उठता है कि कश्मीर में विकल्प क्या है? पहला विकल्प है कि नए सिरे से चुनाव चुनाव करवाए जायें तथा दूसरा विकल्प गठबंधन सरकार का है: या तो भाजपा के साथ या फिर अन्य दलों के साथ। चुनाव का विकल्प अभी की स्थिति में व्यवहार्य नहीं है क्योंकि यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करेगा जिससे घाटी एवं जम्मू के बीच की खाई चौड़ी होगी। दूसरी बात यह कि किसी भी अन्य दल के साथ गठबंधन जम्मू एवं घाटी के बीच की साम्प्रदायिक खाई को पाट पाने में असमर्थ है और ऐसी स्थिति में इसकी जितनी बड़ी क़ीमत होगी, उसको चुका पाने की स्थिति में देश नहीं है। अत: अंतिम विकल्प पीडीपी-भाजपा गठबंधन का ही है। अगर यह सफल होता है, तो कश्मीर की भी जीत होगी और कश्मीरियत की भी। साथ ही, यह कश्मीर में निहित भारतीय हितों के संरक्षण और प्रोत्साहन में सहायक होगी।लेकिन, यह सब तब संभव होगा जब भाजपा संकीर्ण राजनीतिक हितों को छोड़कर पीडीपी सरकार के साथ सहयोग की उस परम्परा को आगे बढ़ाए जो अटल जी ने स्थापित की थी। कश्मीर की समस्या के समाधान के संदर्भ में भारत के परिप्रेक्ष्य में यह सबसे बेहतर स्थिति है जब केन्द्र में दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सरकार है और राज्य में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद एवं अलगाववादी रूझान रखने वाले दलों की गठबंधन सरकार। इससे बेहतर स्थिति नहीं उत्पन्न हो सकती है क्यों जो समाधान इनके लिए स्वीकार्य होगा, वह अन्य के लिए सहज ही स्वीकार्य होगा। साथ ही, दोनों प्रमुख विपक्षी दलों: काँग्रेस एवं नेशनल काॅन्फ्रेंस को भी इस राज्य की संवेदनशीलता को समझते हुए संकीर्ण राजनीति से परहेज़ करना होगा। भाजपा नेतृत्व के साथ-साथ देश की जनता को भी समझना होगा कि पीडीपी जम्मू एवं कश्मीर की राजनीति की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करती है और वह देशद्रोही नहीं है। अफ़ज़ल की फाँसी का विरोध और कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की बात करना देशद्रोह नहीं है
यहाँ पर यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस गठबंधन के अपने ख़तरे भी हैं। अगर यह गठबंधन टूटता है या असफल रहता है, तो इसकी क़ीमत कश्मीर और कश्मीरियत के साथ-साथ पूरे देश को चुकानी होगी। साथ ही, एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा को भी इसकी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह गठबंधन पीडीपी की शर्तों पर हुआ है और पीडीपी व मुफ़्ती के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। कश्मीर में अगर किसी राजनीतिक दल के भविष्य में कुछ खोने की सम्भावना है, तो वह भाजपा है। । इसीलिए भाजपा को सँभलकर क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है।
(डिस्क्लेमर: आजकल "देशभक्ति" कुलाँचे मार रही है। जिसे देखो वही
"देशभक्ति" के रंग से सराबोर है:सरकार और पुलिस- प्रशासन से लेकर
मीडिया और न्यायपालिका तक। ऐसे में लगने लगा कि कहीं मैं मुख्यधारा
से कटता तो नहीं जा रहा हूँ। इसीलिए सोचा कि लाईन बदली जाए जिसके
लिए विषय बदलना आवश्यक था। फिर डर भी लगा कि अचानक बदला,
तो मेरी हिस्ट्री से लेकर केमिस्ट्री तक खँगाली जाएगी और कहा जाएगा कि
मैंने कहीं डर से तो लाईन नहीं बदली, कन्हैया की तरह। वैसे, रणनीति के
तहत् लाईन बदलना उतना बुरा भी नहीं।)
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