पहले चर्चा अपने पाखंड की। मैं एक पुरूष हूँ और पुरूष होने के नाते पुरूषवादी समाज का हिस्सा भी। दोहरे मानदंड मेरे भी हैं। शायद पुरूषवादी समाज द्वारा गढ़ी गई नैतिकता को मैं अबतक पूरी तरह से नहीं ठुकरा पाया हूँ, इसलिए नहीं कि मुझे इससे प्रेम है या मोह है; वरन् इसलिए कि यह मेरे संस्कारों में आबद्ध है और इसलिए भी कि नैतिकता के नए प्रतिमानों में वैसा प्रबल आकर्षण नहीं जो मुझे अपनी तरफ़ खींच ले। शायद ये बहुत विश्वास जगा नहीं पाते।
देखा है मैंने अपने पापा को, छोटी-से-छोटी बातों पर माँ को डाँटते हुए, तब भी जब माँ सही थी। फ़र्क़ महसूस किया है मैंने शिद्दत के साथ, थाली और स्कूल के स्तर पर। डाँटता हूँ मैं भी अपनी पत्नी को बात-बेबात और मुझे लगता है कि मैं सही हूँ।झगड़ा करता हूँ मैं भी उससे। थोपता हूँ मैं भी अपने निर्णय उसके ऊपर वक़्त-बेवक्त।प्यार भी करता हूँ बेइंतहा उससे,इतना कि उसके सम्मान के साथ तनिक भी समझौता गँवारा नहीं है मुझे। चाहता हूँ इस प्यार के साथ अधिकार मैं भी, यह बात अलग है कि भावनाएँ अंदर ही दबी रह जाती हैं,उसका इज़हार नहीं कर पाता और कभी करता भी हूँ, तो उन शब्दों के माध्यम से,जो उसकी नज़रों में "अभिव्यक्ति है मेरे फ़्रस्ट्रेशन की"।
बस इन्हीं सारे अहसासों के साथ लगा हूँ मैं, अपने रूढिबद्ध संस्कारों से मुक्त होने की कोशिश में। और, आप मुझसे अपेक्षा करते हैं कि मैं भी आप ही की तरह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाऊँ।ना, ना,ना: मुझसे नहीं होगा यह सब, कम-से-कम तबतक नहीं जबतक मैं अपने अंतर्विरोधों से बाहर नहीं निकल जाता। दुआ कीजिए मेरे लिए और बद्दुआ भी देना चाहें, तो स्वीकार है मुझे; पर तबतक के लिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की ज़िम्मेवारी मैं उन महिलाओं पर छोड़ता हूँ जो मुझ जैसे पाखंडियों से मुक्त होने के लिए छटपटा रही हैं, लड़ रही हैं, संघर्ष कर रही हैं और मुझ जैसे पाखंडी जिनके संघर्षों को डायल्यूट करने की कोशिश में लगे हैं!
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