Saturday 5 March 2016

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ख़तरे

कन्हैया को अवतार मत बनाओ। उसे कृष्ण बनाने की कोशिश उतनी ही ग़लत है जितनी उसको देशद्रोही बताने की कोशिश। देश को न तो दूसरा केजरीवाल चाहिए और न ही दूसरा मोदी। अब देश किसी दूसरे केजरीवाल और मोदी को बर्दाश्त करने या झेलने की स्थिति में नहीं है। समस्याओं का रोमांटिक हल हमें नहीं चाहिए। रोमांटिसाइज करने की कोशिश समस्या की गंभीरता को समाप्त कर देती है।

              रही बात अभिव्यक्ति की आज़ादी की, ऐसी आज़ादी हमें केवल सरकार से ही नहीं चाहिए। ऐसी आज़ादी हम एंटी डिफेक्शन लाॅ से भी चाहते हैं। ऐसी ही आज़ादी हमें कांग्रेस, वामपंथी और दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों  के अंतर्गत भी चाहिए जो तब तक संभव नहीं है जबतक राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र को सुनिश्चित नहीं किया जाता है और असहमति एवं विरोध के प्रति सम्मान नहीं प्रदर्शित किया जाता है। वामपंथ में अगर वैचारिक असहिष्णुता है, तो दक्षिणपंथ में तर्क की गुंजाइश का अभाव। इसीलिए अक्सर दक्षिणपंथ तर्क के ज़रिए विरोध को थामने में असामर्थ्य को महसूस कर व्यक्तिगत आक्षेप एवं चरित्र-हनन के एजेंडे को आक्रामक तरीक़े से उसका प्रतिरोध करने की कोशिश करता है। मूल मुद्दों से ध्यान भटका देता है। उधर वामपंथ को अभिव्यक्ति की आज़ादी सांगठनिक स्तर पर बर्दाश्त नहीं है और न ही उस स्थित में बर्दाश्त है जब सत्ता इसके हाथों में है। फिर वह इसे कुचल डालने में विश्वास करता है।कांग्रेस में बहुत हद तक यह आज़ादी है, पर तभीतक जबतक यह नेहरू-गाँधी परिवार के विरोध में नहीं जाता है।

                      हमें इन सबसे आज़ादी चाहिए। हमें ऐसी आज़ादी चाहिए जो हमें विचारधारा, राजनीतिक प्रतिबद्धता और देशद्रोही क़रार दिए जाने की चिंता किए बग़ैर अपनी बातों को रखने का अवसर दे। हमें आज़ादी चाहिए सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने की, जिसमें बाधक है असहिष्णुता, व्यक्तिगत आक्षेप, चरित्र हनन और हिन्दू विरोधी- राष्ट्र विरोधी क़रार दिया जाना।

                       कन्हैया, आज तुम इसी आज़ादी के प्रतीक हो मेरे लिए। राजनीति में प्रतीकों का महत्व होता है, लेकिन समस्या तब आती है जब राजनीति प्रतीकों के दायरे में सिमट कर रह जाती है।क्या कन्हैया के साथ-साथ भारतीय राजनीति इन प्रतीकों से आगे बढ़ पाएगी: यह प्रश्न लगातार मथ रहा है मुझे? इसके लिए तुम्हें निकलना हो इन प्रतीकोँ के दायरे से बाहर।निकल पाओगे तुम, अन्यथा कहीं कल आने वाली पीढ़ी को भी तो इस आज़ादी के लिए संघर्ष को विवश नहीं कर दोगे तुम? यह विश्वासघात होगा उन लिबरल्स के साथ , जिन्होंने तुम्हारे संघर्ष को अपना माना, इसलिए नहीं कि उन्हें तुम्हारे या तुम्हारी विचारधारा के प्रति सहानुभूति थी, वरन् इसलिए कि यह ख़ुद उनका संघर्ष था और जेएनयूएसयू के अध्यक्ष और राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार होने के कारण तुम उनकी सहानुभूति एवं संवेदना के हक़दार बने तथा उनकी आवाज़ बनकर उभरे।

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