Monday, 29 February 2016

जेएनयू विवाद: अगर मैं चुप रहा, तो मेरा अहसास मुझे कोसेगा !

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अगर मैं चुप रहा, तो मेरा अहसास मुझे कोसेगा
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दोस्तों, आज दिनकर की ये पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं:
कौन केवल आत्मबल से जूझ सकता देह का संग्राम है,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं पाशविकता  लेती जब खडग उठा।
पहली बार अपने आप पर वितृष्णा हो उठी। रवीश ने जब फ़ेसबुक छोड़ने का निर्णय लिया था, तो शायद मैंने रवीश से असहमति प्रदर्शित करते हुए बेमन से रवीश के इस निर्णय को स्वीकार किया था। मेरा मानना था कि रवीश को इनके बेहूदाना हरकत के समक्ष समर्पण नहीं करना चाहिए था, पर आज सोचता हूँ कि कितना मुश्किल रहा होगा रवीश के लिए यह निर्णय लेना। आज मैं भी ख़ुद को कुछ वैसी ही मन:स्थिति में पा रहा हूँ। बार-बार अपनी बेबसी का अहसास हो रहा है और बार-बार अटल जी की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा।
काल के कपाल पर , 
लिखता और मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ।
फिर शिव मंगल सिंह सुमन की ये पंक्तियाँ उत्प्रेरित करती हैं:
हार में कि जीत में,
किंचिंत नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य पथ पर जो मिला,
ये भी सही, वो भी सही।
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सबसे पहले  मैं अपने उन मित्रों को धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने मेरे पोस्ट से आहत होने और असहमत होने के बावजूद अपने प्रहारों को मुझ पर व्यक्तिगत और व्यावसायिक हमलों तक सीमित रखा। उससे आगे नहीं बढ़े । इस क्रम में कुछ सलाहें भी आई। शायद इन सबसे फ़र्क़ नहीं पड़ता, यदि उन्होंने तर्क-वितर्क के ज़रिए मुझे ग़लत साबित किया होता। लेकिन, उन्होंने व्यक्तिगत आक्षेप का रास्ता चुना और चरित्र हनन के ज़रिए मुझे चुप कराने की कोशिश की। 
                         खैर,...... सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर दूँ कि " पढ़ाना  मेरे लिए धर्म है, व्यवसाय नहीं।" Teaching is my religion and not my profession.  दूसरी बात यह कि आपने मेरे बारे में सोचा और मुझे सलाह दी,,  इसके लिए आपका बहुत -बहुत धन्यवाद । लेकिन, मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह आपकी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए।  हाँ, मैं अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पा रहा हूँ या नहीं,यह ज़रूर पब्लिक स्क्रूटनी का विषय हो सकता है और होना चाहिए। इस सन्दर्भ में मैं कुछ नहीं बोलूँगा:
बात बोलेगी,
हम नहीं!
इतना कहने के बाद मैं वापस लौटना चाहूँगा उन प्रश्नों की ओर, जो आपके द्वारा उठाए गए हैं। सबसे पहले "देशद्रोह" के आरोप पर।
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  देशद्रोह और मैं:
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आपमें से कुछ लोगों ने मेरे पोस्ट की व्याख्या करते हुए कहा कि मैं एंटी-नेशनल हूँ, मैं ग़द्दारों के साथ हूँ, किन्हीं को मुझसे जुड़े होने के कारण शर्म आने लगी, किन्हीं ने मुझे दिए हुए सम्मान को वापस लिया वग़ैरह-वग़ैरह । इस सन्दर्भ में मैं "अंधा-युग"नाटक में गांधारी के हवाले विदुर द्वारा कृष्ण को संबोधित ये पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा:
आस्था तुम लेते हो,
लेगा अनास्था कौन?
स्वीकार्य है मुझे, पर इस संदर्भ में मैं  अपने उस जवाब को उद्धृत करना चाहूँगा जो मैंने अपने एक छात्र को दिया:
""माफ़ी चाहूँगा कि मेरे कारण आपको ( मेरे शिष्य को नहीं क्योंकि मेरा शिष्य हर िस्थति में मुझ पर गर्व करेगा, अगर वो मुझे जानता है और अगर नहीं जानता, तो वह मेरा शिष्य नहीं है। सिर्फ़ पढ़ लेने से कोई मेरा शिष्य नहीं हो जाता। हाँ, बतौर एक गुरू यह मेरी विफलता अवश्य है।) शर्मिंदा होना पड़ा। मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है, पर इससे अधिक मैं कुछ नहीं कर सकता क्योंकि :
अगर मैं चुप रहा, तो मेरा अहसास मुझे कोसेगा।
मैं आपकी नज़रों में गिरकर रह सकता हूँ, पर अपनी नज़रों में नहीं। हाँ, किसी भी िस्थति में नहीं, चाहे इसकी जो परिणति हो। ये मेरे गुरू के दिए हुए संस्कार और मूल्य हैं जिस पर मुझे गर्व है और जिसकी रक्षा मैं हर क़ीमत पर करूँगा। 
एक बार फिर से आपकी आहत भावनाओं के लिए मैं माफ़ी चाहूँगा और आपसे सिर्फ़ इतना कहूँगा कि अगर कभी "अंधेर नगरी"के गोबरधन  दास की तरह मेरी ज़रूरत पड़े( वैसे भगवान न करें की आपको मेरी ज़रूरत पड़े),तो याद ज़रूर कीजिएगा।""
अब मैं वापस लौटता हूँ मूल प्रश्न पर। जिस परिप्रेक्ष्य में नौ फ़रवरी का वह पोस्ट लिखा गया, अगर उस परिप्रेक्ष्य को समझने की कोशिश की जाती या समस्याओं की समझ होती या फिर उसे समझने का प्रयास किया जाता, तो शायद ऐसी समस्या नहीं आती। लेकिन न तो आपके पास पोस्ट पढ़ने का समय है और न ही आप पूरा पोस्ट पढ़ते हैं, न समस्याओं की समझ है और न समस्याओं को समझने के लिए तैयार हैं, भाषा की िस्थति तो माशा अल्लाह है; फिर भी कमेंट करने के लिए आप तैयार रहते हैं। 
                 जिस देश के आप ठेकेदार बन बैठे हैं, किसने दी आपको यह ठेकेदारी? यह देश जितना आपका है, उससे रत्ती भर भी कम मेरा और उन लोगों का नहीं है जो आपसे असहमत हैं। आप अपने देश से जितना प्यार करते हैं, मैं उससे अगर अधिक नहीं, तनिक भी कम नहीं प्यार करता हूँ। हाँ, मेरे देश, मेरे धर्म  और मेरी संस्कृति ने आपकी तरह मुझे दूसरे देश एवं वहाँ के लोगों और दूसरे धर्म एवं संस्कृति का अपमान और अनादर करना नहीं सिखाया। न ही अपनी कुठा और भड़ास निकालने के लिए इन सबने मुझे दूसरों का चरित्र-हनन करना सिखाया।जानते हैं क्यों, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे देश, यहाँ के लोगों और मेरे धर्म का अपमान करे। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरा चरित्र-हनन करे।अगर कोई ऐसा करता है, तो मुझे लगता है कि कहीं-न-कहीं कुछ कमियाँ हममें रह गई होंगी जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। तब फिर शायद दुबारा यह िस्थति न आए। इसीलिए बंद कीजिए यह गुंडई। देश,धर्म और संस्कृति के नाम पर इन सबको बदनाम करना। यह देश, यह संस्कृति, यह धर्म आप जैसे देश,धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों की बदौलत नहीं बचा हुआ है। यह बचा हुआ है उस सहिष्णुता और समन्वय की बदौलत, जो हज़ारों वर्षों से प्राण-तत्व के रूप में इसके केन्द्र में बना हुआ है और जिसने न केवल भारतीय समाज और संस्कृति के वैविध्य की रक्षा करते हुए इसे सामासिक स्वरूप प्रदान किया है, वरन् इसे संरक्षण भी प्रदान किया है और आगे भी प्रदान करता रहेगा। अगर आपको विचारधारा की लड़ाई लड़नी हो, तो विचारधारा के स्तर पर लड़िए। गुंडई की बदौलत नहीं  और सत्ता के संरक्षण की बदौलत नहीं। आज आप या आप-समर्थित विचारधारा सत्ता में हैं, कल बाहर होगी।गुंडई में आप टिकेंगे नहीं क्योंकि आप मुट्ठी भर ही हैं। 
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मैंने नौ फ़रवरी का पोस्ट क्यों लिखा?
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उस शाम  न्यूज़ चैनल से जब इस घटना की जानकारी मिली, तो मैंने विभिन्न चैनलों की तलाश के क्रम में इंडिया न्यूज़ और फिर नौ बजे से टाइम्स नाउ पर चलने वाले डिबेट को देखा। डिबेट को देखकर वितृष्णा हो उठी। एक ओर इस घटना ने खिन्न कर दिया, दूसरी ओर दीपक चौरसिया एवम् अर्णव गोस्वामी द्वारा एंकरिंग के तरीक़े ने। ऐसा लगा, जैसे ये लोग ख़ुद को संघ टाइप का देशभक्त साबित कर ही दम लेंगे। इस क्रम में सामने वाले को भाजपा प्रवक्ता के साथ मिलकर बोलने नहीं देना तथा मीडिया ट्रायल चलाना चौंका गया। मुझे लगा कि इस मसले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की जा रही है, जेएनयू को बदनाम करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है और बहुत जल्द देशभक्ति का उन्माद पैदा किया जाएगा। इसी ख़तरे को भाँपते हुए मैंने नौ फ़रवरी वाला पोस्ट लिखा।

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सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन:
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अब प्रश्न उठता है कि क्या अफ़ज़ल की बरसी पर ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन ग़लत था? इसमें मुझे कुछ भी ग़लत नहीं दिखता। यह एक प्रकार का विरोध-प्रदर्शन है और ऐसे विरोध-प्रदर्शन की हर किसी को आज़ादी है। विशेष रूप से जेएनयू में ऐसे विरोध-प्रदर्शन के लिए हमेशा से लोकतांत्रिक स्पेस रहा है और ऐसे विरोध-प्रदर्शन हमेशा होते रहे हैं।
अब दूसरा प्रश्न उठता है कि इस विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किसके द्वारा किया गया? मुख्यधारा में शामिल किसी लेफ़्ट संगठन या अन्य  किसी भी छात्र-संगठन ने इस विरोध- प्रदर्शन का आयोजन नहीं किया था। इस कार्यक्रम का आयोजन क़रीब दस छात्रों द्वारा किया गया जो संभवत: अतिवादी वाम छात्र संगठन डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन से जुड़े रहे हैं जो अल्पज्ञात संगठन है और  जिसके सदस्यों की संख्या बामुश्किल पचास भी नहीं पहुँचेगी। हाँ, एबीवीपी द्वारा इस कार्यक्रम के आयोजन के विरोध के मद्देनज़र ऐसे आयोजन को लेफ़्ट का नैतिक समर्थन रहा हो, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। ऐसी अंडरस्टैंडिंग जेएनयू में देखी जाती रही है। मैं इसे भी ग़लत नहीं मानता हूँ।सोच, विचार और मत-भिन्नताओं के बीच संवाद की यह िस्थति सार्थक बहस की संभावनाओं को बल प्रदान करती है।
                        
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सांस्कृतिक कार्यक्रम या राजनीतिक कार्यक्रम?
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दरअसल इस कार्यक्रम का आयोजन अफ़ज़ल की बरसी पर उसकी फाँसी का विरोध करने के लिए किया गया । इससे बचा जा सकता था, पर पिछले तीन वर्षों से छात्रों के एक छोटे से समूह के द्वारा अफ़ज़ल की फाँसी की बरसी पर ऐसे आयोजनों की परिपाटी रही है। यह एक प्रकार का राजनीतिक कार्यक्रम था जिसके बारे में आयोजकों को पता था कि उन्हें इसके लिए विश्वविद्यालय-प्रशासन की अनुमति नहीं मिलेगी।शायद इसीलिए आयोजकों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर  अनुमति ली। इसकी भनक  एबीवीपी को मिली और उसने दक्षिणपंथी विचारधारा और संघ परिवार से जुड़े जेएनयू के कुलपति पर दबाव डालकर प्रोग्राम शुरू होने के ठीक पंद्रह मिनट पहले इस अनुमति को रद्द करवाया। इसके बावजूद आयोजकों ने तयशुदा समय पर प्रोग्राम का आयोजन किया। समस्या यहीं पर आकर उलझी।
                 एबीवीपी इस कार्यक्रम को न होने देना चाहती थी और हर स्थिति में अवरूद्ध करने पर आमदा थी। उसने इस संदर्भ में पुलिस और मीडिया को भी सूचित किया। दोनों पक्षों में तनातनी के  बीच एबीवीपी की ओर से स्लोगन लगाए गए और इधर से भी। इधर के  कुछ लोगों ने एंटी-इंडिया स्लोगन भी लगाया। अबतक के संकेत इशारा करते हैं कि कश्मीर की आज़ादी और भारत की बर्बादी का नारा लगाने वाले कैम्पस के बाहर के लोग थे जिन्हें अबतक पहचाना नहीं जा सका है।। हो सकता है कि कुछ कैम्पस के भीतर के भी हों, पर अब तक इसकी पुष्टि नहीं हुई है।
 
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सत्तारूढ भाजपा-सत्तारूढ कांग्रेस का फ़र्क़:                   
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भाजपा के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से अबतक एबीवीपी भाजपा के सहारे कैंपस  की राजनीति में और संघ एवम् भाजपा एबीवीपी के सहारे बौद्धिक वर्चस्व की लड़ाई में अपनी मज़बूत एवं प्रभावी उपस्थिति को सुनिश्चित करना चाहते हैं, बिना इस बात को समझे कि बौद्धिक लड़ाई बौद्धिक स्तर पर और राजनीतिक स्तर पर लड़ी जानी चाहिए। इसके कारण संघ, भाजपा और एबीवीपी के बीच एक नापाक गठबंधन बन रहा है जो कैम्पस के माहौल को भी गंदा कर रहा है और उसका राजनीतिकरण भी कर रहा है। इससे कैम्पस और बाहर का फ़र्क़ भी मिटता जा रहा है।
ऐसा नहीं कि पहले ऐसा नहीं होता था। पर, फ़र्क़ यह है कि कांग्रेस सरकारों की दौर में भी ऐसा होता रहा, पर न तो इस तरह की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई और न ही इस तरह का गठबंधन विकसित हुआ। इसे निम्न संदर्भों में देखा जा सकता है:
पहली बात यह कि कांग्रेस से सम्बद्ध छात्र संगठन एनएसयूआई को मुख्यधारा की छात्र राजनीति में प्रभावी उपस्थिति के कारण अपने मातृ-संगठन से वैसे अतिरिक्त सपोर्ट की ज़रूरत नहीं पड़ी जैसी ज़रूरत भाजपा से एबीवीपी को महसूस हो रही है। 
दूसरी बात यह कि कांग्रेस की अपनी कोई विचारधारा नहीं रही है।  वामपंथी विचारधारा इसके वैचारिक प्रेरणास्रोत के रूप में मौजूद रही है । इसके विचारधारा के स्तर पर वामपंथ को  वैचारिक समर्थन दिया। अत: प्रत्यक्ष रूप से न जुड़े होने के कारण काँग्रेस पर उस तरह के आरोप नहीं लगाए जा सकते हैं, जैसा संघ की दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रत्यक्ष जुड़ाव के कारण भाजपा पर लगाए जाते रहे हैं।
तीसरी बात यह कि जिस समय कांग्रेस ने वामपंथी विचारधारा को प्रोत्साहित किया, उस समय प्रतिरोधी विचारधारा बहुत मज़बूत और प्रभावी स्थिति में नहीं थी। साथ ही,मुख्यधारा में प्रभावी वैचारिक उपस्थिति के कारण उसे उस फोर्सफुल सपोर्ट की ज़रूरत भी नहीं थी जैसी ज़रूरत आज दक्षिणपंथी विचारधारा को है।
चौथी बात यह कि उस समय काँग्रेस  को इतनी जल्दबाज़ी भी नहीं थी क्योंकि उसे पता था कि उसे सत्ता में रहना है। पर, भाजपा के व्यवहार से ऐसा लगता है कि उसे ख़ुद यह विश्वास नहीं कि वह कितने दिन सत्ता में रहेगी? शायद इसीलिए वह जल्दबाज़ी में है।
पाँचवीं बात यह कि भाजपा वामपंथी बौद्धिक वर्चस्व को तर्क, बौद्धिकता और वैज्ञानिक सोच की बजाय आस्था और भावुकता के धरातल पर चुनौती देना चाहती है। उसे यह नहीं पता है कि इसे बौद्धिक चुनौती बौद्धिकता के धरातल पर ही दी जा सकती है जिसमें भाजपा और संघ परिवार सक्षम नहीं है। प्रमाण है जेएनयू संकट के प्रति वामपंथ की प्रतिक्रिया। जहाँ वामपंथ राष्ट्रवाद, सेडिशन और फ़्रीडम आॅफ स्पीच पर व्यापक बहस छेड़कर बौद्धिक बढ़त हासिल कर रही है, वहीं दक्षिणपंथ सत्ता, पुलिस, प्रशासन, मीडिया और संसद के सहारे आम भारतीयों में एंटी-नेशनल स्लोगन के माध्यम से देशभक्ति एवं महिषासुर-प्रकरण के माध्यम से हिन्दू-आस्था को उभारने की कोशिश कर रही है।

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अफजल की फाँसी का विरोध कहाँ तक उचित?
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हाल में पहले अफ़ज़ल और फिर याकूब मेनन को फाँसी ने मृत्युदंड पर नए सिरे से बहस को जन्म दिया है। इस बहस के आलोक में उन लोगों के लिए ऐसे आयोजनों की अहमियत को समझा जाना चाहिए जो मृत्युदंड के विरोध में थे या जिन्हें यह लगता था कि अफ़ज़ल की फाँसी ग़लत थी और जो नहीं चाहते थे कि  फिर कोई अफ़ज़ल हो। लेकिन, यह भी सच है कि इस कार्यक्रम के ज़रिए अफ़ज़ल गुरू की मौत को गौरवान्वित किया गया। 
अब प्रश्न यह उठता है कि अफ़ज़ल की फाँसी का विरोध और  इस सन्दर्भ में न्यायपालिका के फ़ैसले की आलोचना क्या उचित है? मुझे लगता है और मुझे ही नहीं, बहुतों को लगता है कि अफ़ज़ल गुरू मामले में सुप्रीम कोर्ट से चूक हुई है। भूतपूर्व गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने भी दबी ज़ुबान से इस बात को स्वीकार किया है। इसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
पहली बात यह कि संसद पर आतंकी हमले में अफजल गुरू की सीधी संलिप्तता नहीं थी, पर, षड्यंत्र करने में उसे आरोपित किया गया था।इसका मतलब यह नहीं कि वह निर्दोष था। 
दूसरी बात यह कि सुप्रीम कोर्ट ने अफ़ज़ल गुरू के मामले में निर्णय देते हुए कहा कि उसे दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त साक्ष्य तो नहीं हैं, पर परिस्थतियाँ  उस ओर ही इशारा कर रही हैं।
तीसरी बात यह कि उसे मृत्युदंड देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने "सामूहिक चेतना" का हवाला दिया और इसके आधार पर अपने निर्णय को जस्टिफाइ किया। 
चौथी बात यह कि उपरोक्त तथ्यों के आलोक में उसे जो सज़ा दी गई, वह उसके द्वारा किए गए अपराध की तुलना में ज़्यादा थी।
पाँचवी बात यह कि फाँसी देने के पहले न तो उसके परिवार वालों को  उससे मिलने दिया गया और न ही फाँसी देने के बाद उसके पार्थिव शरीर को ही उसके परिवार वालों को सौंपा गया।
छठी बात यह कि आतंकी हमलों में प्रत्यक्ष रूप से संलिप्तता के बावजूद अकाली दल के समर्थन और अफ़ज़ल गुरू को फाँसी के लिए दबाव बनाने वाली भाजपा के इस मसले पर नरम रूख के कारण राजाओना और भुल्लर के साथ रियायत बरती गई, जबकि संभावित लोकसभा चुनाव में भाजपा कहीं इसे चुनावी मुद्दा न बना ले और इसका उसे राजनीतिक लाभ न मिले, इसे सुनिश्चित करने के लिए यूपीए सरकार ने कसाब और अफ़ज़ल गुरू को कुछ दिनों के अंतराल पर अफ़रा-तफ़री में फाँसी पर चढ़ाया। 
इस आलोक में फाँसी का विरोध उचित ही जान पड़ता है, लेकिन मेरी नज़रों में आज इस मुद्दे की अहमियत सिर्फ़ इतनी है कि:
1.भविष्य में अफ़ज़ल वाली घटना न दुहराए।
2.फाँसी की सज़ा समाप्त हो।
3. जब तक फाँसी की सज़ा समाप्त नहीं होती,
    तब तक फाँसी के पूर्व की सारी
    औपचारिकताओं का निर्वाह अनिवार्यत: हो।
अब प्रश्न उठता है कि क्या अफ़ज़ल को फाँसी प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना ग़लत है? क्या इसे राजद्रोह माना जाए या फिर देशद्रोह? मेरी नज़रों में न तो अफ़ज़ल की फाँसी का विरोध ग़लत है और न ही सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना ही राजद्रोह है। देशद्रोह तो क़तई नहीं। अगर ऐसा है, तो एनजेएसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की वित्त मंत्री अरूण जेटली द्वारा "अनिर्वाचितों का आतंक" ( Tyranny Of The Unelected)  कहते हुए आलोचना को उचित कैसे ठहराया जा सकता है? अगर अफजल की फाँसी को "न्यायिक हत्या" ( Judicial Killing) कहना देशद्रोह है, तो अफ़ज़ल को शहीद मानने वाले और "न्याय का उपहार/मज़ाक़"( A Travesty Of Justice) कहकर आलोचना करने वाली पीडीपी के साथ गठबंधन को देशभक्ति का उदाहरण कैसे माना जा सकता है?हाँ, यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि आलोचना करते वक़्त भाषा मर्यादित और संयमित होनी चाहिए तथा यह न्यायपालिका की आलोचना तक सीमित रहे, न कि न्यायपालिका की अवमानना करे।

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एंटी-इंडिया स्लोगन कहाँ तक उचित ?
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अब प्रश्न उठता है कि  जेएनयू में नौ फ़रवरी की रात जो एंटी-इंडिया स्लोगन लगे , उसे क्या माना जाय? सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि एंटी-इंडिया-स्लोगन लगाए जाने की जितनी आलोचना की जाए,वह उतना ही कम है। दूसरी बात यह कि दोषियों की पहचान की जाए और उनके विरूद्ध कार्यवाही हो, चाहे वे जेएनयू के हों या फिर बाहर के। तीसरी बात यह कि इस बहाने पूरे जेएनयू को बदनाम किया जाना, जेएनयू के छात्रों की गिरफ़्तारी और पुलिसिया कार्यवाही के ज़रिए पूरे जेएनयू के छात्रों को आतंकित किया जाना ग़लत है। विशेषकर इस प्रकरण में दिल्ली पुलिस, जेएनयू प्रशासन, भाजपा, एबीवीपी, इलेक्ट्रानिक मीडिया,गृहमंत्री और मानव संसाधन मंत्री जो भूमिका रही और इनके बीच के मूक गठबंधन ने जिस तरह का माहौल सृजित किया उसकी जितनी निंदा की जाए, वह कम है।
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कन्हैया की गिरफ़्तारी:
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अब प्रश्न यह उठता है कि जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया की गिरफ़्तारी अनावश्यक थी। इससे केन्द्र सरकार की टकराव की राजनीति का पता चलता है। यह भी पता चलता है कि केन्द्र सरकार इस घटना का इस्तेमाल अपने लिए आँखों की किरकिरी बन चुके जेएनयू को हाशिए पर ले जाने , कैम्पस की छात्र राजनीति में वामपंथी वर्चस्व की समाप्ति, एबीवीपी को कैम्पस की राजनीति को मज़बूती से स्थापित करने और वामपंथ के बौद्धिक वर्चस्व को समाप्त करते हुए दक्षिणपंथी विचारधारा को बौद्धिक परिवेश की मुख्यधारा में स्थापित करने के उद्देश्यों से परिचालित है। साथ ही, इसके ज़रिए वह अपने राजनीतिक विरोधियों और अपने से असहमत लोगों को कड़ा संदेश देना चाहते हैं। यही वह बिंदु है जिसने कन्हैया की गिरफ़्तारी के बाद छात्रों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों 
और संघ-भाजपा विरोधियों को एक मंच पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर जिस तरह से इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ मिलकर संघ,भाजपा कन्हैया को बिना किसी प्रमाण के फ़र्ज़ी वीडियो के आधार पर बदनाम करने, उसे देशद्रोही साबित करने, जैश-ए-मोहम्मद से लिंकेज और अब विदेशी लिंकेज साबित करने के प्रयासों से इसकी पुष्टि होती है। जब कन्हैया पर सरकार कमज़ोर पड़ने लगी, तो उसने उमर ख़ालिद के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया।

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कन्हैया पर राजद्रोह का आरोप:
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अब प्रश्न यह उठता है कि कन्हैया, ख़ालिद और अबनिंरबन पर भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 124A के तहत् राजद्रोह का आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? थोड़ी देर के लिए मैं मानकर चल रहा हूँ कि कन्हैया सहित इनलोगों ने भारत-विरोधी नारे लगाए, फिर भी इनलोगों के विरूद्ध राजद्रोह से संबंधित इस धारा को लगाया जाना ग़लत है। सुप्रीम कोर्ट ने केदार नाथ सिंह बनाम् बिहार सरकार वाद,1962 में यह निर्णय दिया और बलवंत सिंह एवं अन्य बनाम् पंजाब राज्य वाद, 1995 सहित कई मामलों में दुहराया कि महज़ देश-विरोधी नारे मात्र लगाने से किसी पर राजद्रोह का मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है। राजद्रोह का आरोप तब तक नहीं लगेगा जबतक यह प्रमाणित नहीं हो जाता है कि उसकी यह गतिविधि राज्य के विरूद्ध हिंसा की ओर न ले जाय।और हिंसा की यह बात सिर्फ़ परसेप्शन न हो वरन् उसका ठोस आधार हो। इसीलिए देर-सबेर कन्हैया सहित इन लोगों पर राजद्रोह का आरोप वापस लेना ही होगा। 
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अब प्रश्न यह उठता है कि क्या राजद्रोह का आरोप वापस लिए जाने की स्थिति में क्या माननीय गृहमंत्री,माननीय  मानव संसाधन मंत्री, कमिश्नर(दिल्ली पुलिस) और संघ परिवार, भाजपा, एबीवीपी और इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया के स्वयंभू न्यायाधीश देशभक्तगण कन्हैया, उसके परिवारवाले  एवं उसके साथियों, जेएनयू समुदाय, सोशल मीडिया पर हम जैसे गाली सुनने वालों और देश की जनता से माफ़ी माँगेंगे और ख़ुद को शर्मिंदा महसूस करेंगे? कदापि नहीं, क्योंकि माफ़ी माँगने का माद्दा उन्माद पैदा करने वालों में नहीं होता।
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राष्ट्र और राष्ट्रवाद के दुश्मन
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आप "राष्ट्र" और आपके "राष्ट्रवाद" का दुश्मन कोई और नहीं, आप ख़ुद हैं। जानते हो क्यों? क्योंकि न तो आपको  युद्ध के नियम मालूम हैं, न उसके प्रति इतना सम्मान का भाव कि आप उन्हें जान सकें और न ही आपको ये पता है कि आपके विरोधी कहाँ पर प्रहार कर रहे हैं? बस हवा में तलवार भाँजे जा रहे हैं? मेरे देश को बचाना आपके वश में नहीं है। छोड़ दो इन्हें हमारे भरोसे। इतने पर भी अपने ख़ून-पसीने से सींच लेंगे हम। हाँ, यह ज़रूर है कि वह तुम्हारा "राष्ट्र" नहीं होगा। तुम्हारा "राष्ट्र" कभी नहीं होगा क्योंकि तुम्हारे "राष्ट्र" में दुर्गा की पूजा की इजाज़त तो है, पर महिषासुर की पूजा की नहीं। भारत जब भी होगा, "बापू के सपनों का भारत" ही होगा। इसके लिए चाहे मैं रहूँ या न रहूँ! मैं तुम्हारी नज़रों में तो गिर सकता हूँ, पर अपनी नज़रों में नहीं!
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फ़र्क़ क्या है: आपमें और मुझमें?
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जानते हैं मित्र, क्या फ़र्क़ है आपमें और मुझमें? आप जेएनयू के भीतर "एंटी-नेशनल स्लोगन" को अहम् मान रहे हैं और आपका मानना है कि कठोरतम कार्रवाई के ज़रिए इस पर अंकुश लगाया जा सकता है। आप इस बात को या तो नहीं समझ रहे या फिर समझते हुए भी इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि "देशभक्ति एक बहाना है। वास्तविक कारण है रोहित मामले से ध्यान भटकाना, संघ एवं भाजपा की आँख की किरकरी बने जेएनयू से वामपंथी वर्चस्व का अंत( जिसका सुनहरा अवसर एंटी-नेशनल स्लोगन ने प्रदान किया है) और उन लोगों को ( चाहे वे छात्र हों या शिक्षक या बुद्धिजीवी समूह) एक सख़्त संदेश देना जो संघ एवं भाजपा के एजेंडे को लागू करने के रास्ते में बाधा बने हुए हैं। साथ ही, काँग्रेस-मुक्त भारत के सपने को व्यावहारिक धरातल पर विपक्ष एवं विरोध-मुक्त भारत के एजेंडे में तब्दील करना, ताकि दक्षिणपंथ के राजनीतिक- बौद्धिक प्रभुत्व को न केवल सुनिश्चित किया जा सके, वरन् उसे विरोध-मुक्त किया जा सके। इन सबमें सहायक है देशभक्ति और राष्ट्रवाद। लेकिन, इस दृष्टिकोण के अपने ख़तरे हैं:
पहला, यह भारत जैसे विविधता से भरे समाज एवं संस्कृति के ताने-बाने को कमज़ोर करेगा तथा इसके लिए उपयुक्त बहुलतावादी राष्ट्रवाद को छिन्न-भिन्न करेगा।
दूसरी, यह अल्पसंख्यकों, आदिवासी जनजातियों और दलितों के हितों को ख़तरे में डालेगा। इससे हिन्दुओं का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होगा एवं सवर्ण हिन्दुओं के प्रभुत्व वाले धर्म केंद्रित राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा होगी जिसे आईआईटी, चेन्नई के अम्बेडकर-पेरियार स्टडी ग्रुप और हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला आत्महत्या प्रकरण से सशक्त चुनौती मिल रही थी। इनके लिए देशभक्ति और राष्ट्रवाद का उन्माद इसकी बेहतर काट हो सकता है।
तीसरा, यह भारतीय लोकतंत्र के भविष्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है और देश 1975 की तरह एक बार फिर से अधिनायकवाद के ख़तरे की ओर बढ़ सकता है।
चौथा, जादवपुर युनिवर्सिटी की घटना (16 फ़रवरी) इस बात का प्रमाण है कि इसके प्रति व्यापक प्रतिक्रिया की संभावना देश को बिखराव की ओर भी ले जा सकती  है।
पाँचवाँ, यह विश्वविद्यालय की स्वायत्ता में हस्तक्षेप को संस्थागत स्वरूप प्रदान करेगा। एफटीआईआई प्रकरण,आईटी बीएचयू से रैमन मैग्सैसे अवार्ड प्राप्त संदीप पाण्डेय को नक्सली बतलाकर बर्खास्त किया जाना, आईआईटी-चेन्नई, हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रकरण और अब जेएनयू प्रकरण इसके प्रमाण हैं तथा मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यह मसला यहीं पर समाप्त नहीं होने जा रहा है।
                    
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क्या होना चाहिए था?
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  अब निश्चय ही आपके मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि आख़िर होना क्या चाहिए? तो, इस संदर्भ में मैं कहना चाहूँगा कि:
पहला, एंटी-नेशनल स्लोगन के मसले पर सरकार को प्रो-एक्टिव रोल से परहेज़ करना चाहिए था। 
दूसरा, जेएनयू प्रशासन द्वारा गठित जाँच समिति की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करना चाहिए थी और उसके द्वारा की जाने वाली कार्यवाही का इंतज़ार करना चाहिए था।
तीसरी, ज़रूरत पड़ने पर उस रिपोर्ट के आधार पर कार्यवाही करने की दिशा में पहल की जा सकती थी।
चौथा, सरकार के ज़िम्मेवार पद पर बैठे लोगों,सत्तारूढ दल से जुड़े संगठनों और नेताओं तथा दिल्ली पुलिस को अनावश्यक बयानबाज़ी से परहेज़ करना चाहिए था।
पाँचवाँ, जेएनयू प्रशासन, इससे जुड़े शिक्षकों एवं छात्र- संगठनों को वार्ता इनगेज करने की दिशा में पहल भी अपेक्षित थी।
छठा, इस प्रक्रिया में उन छात्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए था जो ऐसी गतिविधियों में संलग्न थे। इससे समस्या की मूल जड़ों तक पहुँचने और उसके समाधान पर समावेशी विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू करने में मदद मिलती।
इससे समस्या को गंभीर होने से रोका भी जा सकता था और समय रहते इस पर अंकुश लगाने की दिशा में प्रभावी पहल भी संभव हो पाती। साथ ही, इस तरह की घटना को फैलने से रोका भी जा सकता था।
मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि जब दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों को अलगाववादियों के समर्थक राजनीतिक दल पीडीपी के साथ सरकार बनाने से परहेज़ नहीं है, कश्मीर एवम् उत्तर-पूर्व के विद्रोहियों से बात करने से परहेज़ नहीं है, नागा विद्रोहियों से बात करने हम सिंगापुर जा सकते हैं और नक्सलियों के साथ हम वार्ता की मेज़ पर बैठ सकते हैं; तो फिर इनको मौक़ा देने से परहेज़ क्यों ? उन्हें अपनी बातों को कहने का मौक़ा दिए बग़ैर आप कैसे इस पर अंकुश लगायेंगे? कम-से-कम सरकार का यह रवैया तो किसी सार्थक दिशा की ओर ले जाने वाला नहीं है।
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और अंत में••••••••
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मैं तो नहीं रूकने वाला। मैंने न तो अपनी आत्मा को बेचा है और न ही मुझे कोई बरगला सकता। रही बात आपकी, तो वो आप जानें। मैं तो सिर्फ़ इतना कहूँगा:
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध;
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी उनका भी अपराध!


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