यूनीफॉर्म सिविल कोड: विधि आयोग
की रिपोर्ट,2018
जून,2016 में विधि मंत्रालय ने विस्तृत
विचार-विमर्श के लिए समान नागरिक संहिता का मसला न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बीएस
चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग को सौंपा गया और इससे अपेक्षा की गयी
कि वह इस मसले पर विस्तृत विचार-विमर्श करते हुए इस सन्दर्भ में उपयुक्त सुझाव दे।
अक्टूबर,2016 में विधि आयोग ने एक प्रश्नावली तैयार की, जिसके जरिये यह जानने की
कोशिश की जाय कि कैसे समान नागरिक संहिता या फिर वैयक्तिक विधि के संहिताकरण के लिए
समाज को तैयार किया जा सके और क्या यह लैंगिक समानता सुनिश्चित कर सकेगी? दरअसल
इसके जरिये इस बात का अंदाज़ा लगाने का प्रयास किया गया कि समाज कहाँ तक इसके लिए
तैयार है। चूँकि समान नागरिक संहिता एक विस्तृत विषय है और इसे पूरा तैयार करने
में समय लगेगा जिसका उसके पास अभाव है, इसीलिए उसने इस मसले पर अंतिम रिपोर्ट देने
से परहेज़ करते हुए उसकी बजाए परामर्श-पत्र को तरजीह दी। अगस्त,2018 में अपने
कार्यकाल के अंतिम दिन आयोग के द्वारा प्रस्तुत परामर्श-पत्र और इसमें मौजूद
निष्कर्ष पिछले दो वर्षों के विस्तृत शोध और विचार-विमर्श का परिणाम हैं। अब अंतिम
रिपोर्ट के लिए नवगठित 22वें विधि आयोग की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी होगी।
वर्तमान परिदृश्य में समान
नागरिक संहिता का प्रश्न व्यावहारिक नहीं:
अगस्त,2018 में प्रस्तुत अपने परामर्श-पत्र में
आयोग ने कहा कि इस समय समान नागरिक संहिता की ‘न तो जरूरत है और न ही वांछित।’ विधि
आयोग ने अपने इस निष्कर्ष के पीछे मौजूद तर्कों की ओर इशारा करते हुए कहा कि:
1.
समान
नागरिक संहिता का मुद्दा व्यापक है और अबतक इसके संभावित नतीजों का सही तरीके से मूल्यांकन
नहीं हुआ है।
2.
न्यायमूर्ति
चौहान का यह मानना है कि देश के 26 प्रतिशत भूभाग, जिसके अंतर्गत पूर्वोत्तर,
जनजातीय इलाके और जम्मू-कश्मीर का हिस्सा आता है, में इस मसले पर संसद द्वारा
निर्मित कानून लागू नहीं होता है।
3.
आयोग
ने समुदायों के बीच समानता के प्रश्न की तुलना में समुदायों के भीतर लैंगिक समानता
के प्रश्न को कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना। उसका मानना है कि सभी धर्मों के लिए एक
समान कानून फिलहाल संभव नहीं है।
4.
आयोग
का यह भी तर्क है कि अधिकांश देश सार्वभौमिक नज़रिए के बजाय पहचान की विविधताओं एवं
विभिन्नताओं को मान्यता देते हुए उसके प्रति सम्मान-प्रदर्शन की उन्मुख हो रहे हैं।
यह मज़बूत लोकतंत्र की पहचान है। इसके पीछे यह धारणा है कि विभिन्नताओं की मौजूदगी
मात्र विभेद को जन्म नहीं देती है।
स्पष्ट है कि विधि आयोग की राय भी इस ओर इशारा
करती है कि देश की विविधता को समाप्त कर सब पर एकसमान वैयक्तिक विधि (Personal
Law) न तो थोपी जा सकती है और न ही थोपी जानी चाहिए। इसीलिए विधि आयोग ने समान नागरिकता
संहिता की दिशा में पहल की तुलना में पर्सनल लॉ में ‘चरणबद्ध’ तरीके से बदलाव को
कहीं अधिक व्यावहारिक माना तथा इस दिशा में पहल का सुझाव दिया।
आयोग ने विविधताओं और विभिन्नताओं के प्रति
सम्मान की बात तो की, पर यह स्पष्ट किया कि इन्हें किसी विशिष्ट समूह को सुविधाओं
से वंचित रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। आयोग ने सती प्रथा, देवदासी प्रथा,
तीन तलाक और बाल विवाह को धार्मिक आवरण में मौजूद सामाजिक बुराइयाँ मानते हुए जहाँ
मानवाधिकारों के मूलभूत संकल्पना के प्रतिकूल माना, वहीं इस बात पर भी जोर दिया कि
ये धर्म के लिए अनिवार्य भी नहीं हैं। लेकिन, उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन होने
के कारण आयोग ने परामर्श-पत्र में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह संवेदनशील
एवं विवादास्पद मसलों पर कुछ कहने से परहेज़ किया। आयोग ने विस्तृत परिचर्चा के बाद
जारी परामर्श-पत्र में विभिन्न धर्म-मतों से सम्बंधित पर्सनल लॉ में संशोधन के
जरिये बदलाव का सुझाव देते हुए उसके कुछ निश्चित पहलुओं को संहिताबद्ध करने और उन
पर अमल की आवश्यकता जतायी है। इसमें विभिन्न धर्मों में मान्य पर्सनल लॉ या वैयक्तिक
कानूनों के मुताबिक़ विवाह, संतान, दत्तक अर्थात् गोद लेने, विवाह-विच्छेद, पर्सनल
लॉ में ‘बिना गलती’ के तलाक, तलाक की स्थिति में भरण-पोषण एवं गुजारा-भत्ता, विरासत
और सम्पत्ति बँटवारा कानून जैसे प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। इस आलोक में आयोग
ने धार्मिक रीति-रिवाजों और मौलिक अधिकारों के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन एवं सद्भाव
की आवश्यकता पर बल देते हुए सभी धर्मों से सम्बंधित पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करने
का सुझाव दिया। इसने कहा
कि किसी एकीकृत राष्ट्र के लिए एकरूपता की ज़रुरत नहीं है। इसीलिए आयोग
के नज़रिए से बेहतर यह होगा कि विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ में सुधार करते हुए उसे
युक्तिसंगत, तर्कसंगत, आधुनिक अपेक्षाओं के अनुरूप और अधिकार सापेक्ष बनाया जाय।
इसी आलोक में विधि आयोग ने पर्सनल लॉ में कई प्रकार के सुधार के सुझाव दिए हैं:
1.
तलाकशुदा महिलाओं को शादी के बाद अर्जित संपत्ति में हिस्सा: आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि घर में महिलाओं
की भूमिका को पहचानते हुए उसे तलाक के समय शादी के बाद अर्जित संपत्ति में हिस्सा
मिलना चाहिए, चाहे उसका वित्तीय योगदान हो या नहीं हो। इसके लिए आयोग ने सभी धर्मों
से सम्बंधित वैयक्तिक एवं धर्मनिरपेक्ष कानूनों में तदनुरूप संशोधन का सुझाव दिया;
हालाँकि आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि यह बँटवारा
अनिवार्यत: बराबर होना चाहिए क्योंकि कई मामलों में इस तरह का नियम किसी एक पक्ष
पर अनुचित बोझ डाल सकता है। इस आलोक में ‘परिवार-कानून में सुधार’ विषय पर अपने
परामर्श-पत्र में इस मसले पर अदालत को विवेकाधिकार दिये जाने की बात की।
2.
पारसी माँ और उनकी संतानों को स्वेच्छा से अपना धर्म चुनने का अधिकार: भारतीय उत्तराधिकार कानून 1925 की कुछ धाराओं
के अनुसार पारसी औरतों को कम अधिकार मिले हैं। आयोग ने सुझाव दिया है कि पारसी
औरतें जब समुदाय से बाहर शादी करें, तो
उन्हें अपनी पारसी पहचान को सुरक्षित रखने और तदनुरूप आचरण का अधिकार मिले। साथ
ही, उनके बच्चों को भी स्वेच्छा से अपने धर्म चुनने का अधिकार प्राप्त हो। अगर ऐसा
होता है, तो पारसी माता और गैर-पारसी पिता की संतानों को भी अपनी मान का धर्म
अर्थात् पारसी धर्म चुनने का अधिकार मिल सकेगा। स्पष्ट है कि आयोग पारसी महिलाओं और
उनके बच्चों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-साथ समानता के अधिकार को
सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
3.
शादी की न्यूनतम आयु के सार्वभौमीकरण का सुझाव: आयोग ने वयस्कों के बीच शादी की अलग-अलग उम्र
की व्यवस्था को खत्म करने का सुझाव देते हुए कहा कि महिलाओं और पुरुषों के लिए
शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र समान होनी चाहिए। आयोग ने इसके पक्ष में तर्क देते
हुए कहा कि अगर मताधिकार के सन्दर्भ में बालिग होने की सार्वभौमिक उम्र को मान्यता
प्रदान की गयी है और अठारह वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों एवं महिलाओं, दोनों को
अपनी इच्छा के अनुरूप अपने प्रतिनिधि और अपनी सरकार चुनने का अधिकार दिया गया है,
तो क्यों नहीं शादी की न्यूनतम आयु के सन्दर्भ में भी ऐसे ही सार्वभौमिक और मानदण्डों
को स्वीकार किया गया है।
4.
हिंदू अविभाजित परिवार कानून की समाप्ति: आयोग ने हिंदू अविभाजित परिवार कानून को ख़त्म
करने का सुझाव दिया है जिसके सहारे टैक्स चोरी का काम होता है।
विश्लेषण:
यह अत्यंत आश्चर्य का विषय हो सकता है कि जिन
मसलों पर पूरा देश पिछले तीन-चार वर्षों से लगातार बहस में उलझा हुआ है, उनमें से
एक मसले पर पहले चुनाव आयोग ने कहा कि एक देश एक
चुनाव नहीं हो सकता है और अब दूसरे मसले अर्थात् समान नागरिक संहिता की
संभावनाओं को ख़ारिज करते हुए विधि आयोग ने भारतीय जनमानस, उसकी उदार सोच और धार्मिक
बहुलतावाद के साथ-साथ बहुलतावादी संस्कृति के प्रति उसके सम्मान को कहीं अधिक
अहमियत दी। इस आलोक में इस तथ्य से इनकार करना मुश्किल है कि राजनीति ने इन
मुद्दों को जन्म दिया, इन्हें वैधता दिलाने की कोशिश की, मूल मुद्दों से लोगों का
ध्यान भटकाकर इसका लाभ उठाया और विशेषज्ञ संस्थाओं के द्वारा इन संभावनाओं को
ख़ारिज करने के समाचार एवं इस पर विमर्श को दबाकर ऐसे ही नये मुद्दों की तलाश कर
रही है। स्पष्ट है कि समान नागरिक संहिता के राजनीतिकरण ने इस मसले को सुलझाने की
बजाय उलझाया कहीं अधिक है। इसके परिणामस्वरूप यह मसला सांप्रदायिक एजेंडे का शिकार
हो गया और इसका इस्तेमाल भारतीय समाज में सम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को नजाम देने के
लिए किया गया। इसके नाम पर चलने वाली बहसों के बहाने मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा
करने की कोशिश की गयी और ग़ैर-मुस्लिम भारतीय समाज, विशेषकर हिन्दुओं, के एक बड़े
हिस्से, जो अपेक्षाकृत कम पढ़ा लिखा है और दिमाग़ के बदले दिल से सोचता है, में इस
धारणा को बल दिया गया कि मुसलमानों को विशेष क़ानूनी संरक्षण हासिल है।
नोट: इस आलेख को पढ़ते हुए सामान नागरिक संहिता पर मेरे पूर्व के आलेख को ज़रूर पढ़ें, ताकि इस मसले पर समग्र समझ विकसित हो सके।इसका लिंक है:
http://sarthaksamwad.blogspot.com/2017/12/blog-post.html
नोट: इस आलेख को पढ़ते हुए सामान नागरिक संहिता पर मेरे पूर्व के आलेख को ज़रूर पढ़ें, ताकि इस मसले पर समग्र समझ विकसित हो सके।इसका लिंक है:
http://sarthaksamwad.blogspot.com/2017/12/blog-post.html
No comments:
Post a Comment