नोटंबदी और जीडीपी विवाद
आर्थिक संवृद्धि पर नोटबंदी के
प्रभाव को नकारता CSO का आँकड़ा:
फरवरी,2016
में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) द्वारा जारी आँकड़े जहाँ नोटबंदी की वजह से
आर्थिक गतिविधियों के प्रभावित होने की आशंकाओं को दरकिनार करते हुए अक्टूबर-दिसम्बर,2016
की तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि-दर के 7% रहने
का अनुमान लगाते हैं, वहीं चालू वित्त-वर्ष के दौरान इसके 7.1 प्रतिशत
के स्तर पर रहने की सम्भावना है। यह आँकड़ा जनवरी में जारी उस आँकड़े के समान ही है
जिसमें नोटबंदी के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया था। संशोधित आँकड़े के अनुसार,
पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 7.2%
और दूसरी तिमाही में 7.4% रही।वित्त वर्ष (2016-17) में पिछले वर्ष के 7.9%
की तुलना में जीडीपी की वृद्धि दर के 7.1% रहने
की संभावना है।
CSO
के आकलन में जीडीपी से भी अधिक दिलचस्प है विनिर्माण और निजी अंतिम उपभोग व्यय से संबंधित
आँकड़ा। इसके मुताबिक विनिर्माण और निजी (अंतिम)
उपभोग-व्यय के सन्दर्भ में पिछली तिमाही के क्रमशः 6.9% एवं 5.1% की तुलना में इस
तिमाही में 8.3% एवं 10.1% की वृद्धि के संकेत मिलते हैं, यद्यपि नवम्बर-दिसम्बर,2016 के
दौरान विनिर्माण-क्षेत्र में सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA) पिछले वर्ष की इसी अवधि के
12.8% से गिरकर 8.3% रह गया। संभव
है कि इसका कारण इस तिमाही के दौरान त्योहारों में अधिक खरीददारी और पुराने नोटों
को खपाने के लिए अधिक उपभोग या फिर अधिक बिक्री दिखाना हो। राष्ट्रीय आय (दूसरे अग्रिम अनुमान),2016-17 में कहा गया है कि विनिर्माण-क्षेत्र में सकल
मूल्य-वर्द्धन(GVA) के पिछले साल के10.6% के सापेक्ष7.7%
रहने का अनुमान है।
स्पष्ट
है कि नोटबंदी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था एवं इसके प्रदर्शन से सम्बद्ध ये आँकड़े नोटबंदी के प्रभाव को नकारते
हुए आते हैं। CSO
के इस आकलन के मुताबिक, नोटबंदी के प्रभाव के बावजूद भारत अब भी दुनिया की सबसे
तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनी हुई है, जबकि पड़ोसी देश चीन 6.8% की जीडीपी वृद्धि के साथ दिसम्बर
वाली तिमाही में भारत से पीछे रहा।
सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA) आर्थिक
संवृद्धि का कहीं बेहतर संकेतक:
यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या
जीडीपी के सन्दर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था का यह प्रदर्शन सकल
मूल्य-संवर्द्धन(GVA) से भी पुष्ट होता है? यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है कि सकल
घरेलू उत्पाद(GDP) की तुलना में सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA) आर्थिक गतिविधियों की
वास्तविक स्थिति को कहीं अधिक दर्शाता है क्योंकि सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA)
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों के द्वारा सृजित आउटपुट के वास्तविक मूल्य को
दर्शाता है और इसके साथ निवल अप्रत्यक्ष कर को जोड़ने पर सकल घरेलू उत्पाद(GDP)
प्राप्त होता है। जीडीपी की गणना के लिए वैश्विक स्तर पर
इसी तरीके को अपनाया जाता है।
इस सन्दर्भ में देखें, तो केन्द्रीय
सांख्यिकी संगठन(CSO) के अनुसार वित्त वर्ष 2016-17 में नोटबंदी के प्रभाव के कारण
मूल कीमत पर सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA) के 2015-16 के 7.8%(RE) के स्तर से घटकर 6.7%
रह जाने की सम्भावना है। यदि तीसरी तिमाही के लिए सकल मूल्य-वर्द्धन की
गणना के दायर से कृषि और लोक-प्रशासन को बाहर
रखा जाय, तो सकल मूल्य-वर्द्धन 6.4% से घटकर 5.7% रह जाएगा। वित्त वर्ष 2016-17 में
कृषि, वन और मत्स्य-क्षेत्र का सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA)
पिछले साल के 0.8% प्रतिशत के सापेक्ष 4.4% रहने का अनुमान है। कृषि क्षेत्र
में सकल मूल्य वर्द्धन(GVA) दूसरी तिमाही के 3.2% के सापेक्ष तीसरी तिमाही में
6.6% के स्तर पर रहा और खनन-क्षेत्र ने नोटबंदी के प्रभाव से उबरते हुए 7.5% के सकल
मूल्य-संवर्द्धन को सुनिश्चित किया। लोक-प्रशासन, रक्षा और अन्य
सेवाओं ने पिछले साल की इसी तिमाही के 7.5% के सापेक्ष 11.9% की द्विअंकीय सकल
मूल्य-वर्द्धन को हासिल किया। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि CSO के आकलन में कृषि-क्षेत्र, लोक-प्रशासन, प्रतिरक्षा एवं अन्य खर्चों से सम्बंधित जीडीपी-वृद्धि
का अनुमान वास्तविकता के कहीं अधिक करीब है।
स्पष्ट है कि सकल घरेलू उत्पाद(GDP) की तुलने में सकल
मूल्य-संवर्द्धन(GVA) निजी अनुमानों के करीब है। अगर सकल
मूल्य-वर्द्धन की तुलना में जीडीपी में वृद्धि की दर अधिक है, तो इसका कारण यह है
कि अप्रैल-दिसम्बर,2016 के दौरान ईंधन पर उच्च उत्पाद कर और सेवा कर-राजस्व में
होनेवाली वृद्धि के परिणामस्वरूप केन्द्रीय अप्रत्यक्ष कर-राजस्व में 25% का उछाल
आया है। अप्रैल-दिसम्बर,2016
के दौरान केन्द्रीय उत्पाद कर में पिछले वर्ष की तुलना में 43% और सेवा-कर में
23.9% का उछाल आया। नवम्बर और दिसम्बर
माह के दौरान केन्द्रीय उत्पाद कर में पिछले वर्ष के इसी माह के सापेक्ष क्रमशः
33.7% एवं 31.6% की वृद्धि हुई, जबकि सेवा-कर में क्रमशः 15.5% एवं 12.4% की
वृद्धि। अगर अप्रत्यक्ष
करों के सन्दर्भ में देखें, तो नवम्बर और दिसम्बर माह के दौरान पिछले वर्ष के इसी
माह के सापेक्ष इसमें 23.1% एवं 14.2% की वृद्धि हुई। अप्रत्यक्ष करों में यह वृद्धि ईंधन की उच्च
कीमतों और अपेक्षाकृत अधिक लेन-देन के कर-राजस्व के दायरे में आने के कारण संभव हो
सका। साथ ही,
पुरानी मुद्रा को खपाने के लिए पुरानी मुद्रा में करों के अग्रिम
भुगतान की सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है।
इसी प्रकार पुरानी
मुद्रा को खपाने और कालेधन को सफ़ेद करने के लिए कारोबारियों द्वारा अपनी बिक्री को
अधिक करके दिखाए जाने के कारण भी नवम्बर महीने में अतिरिक्त उपभोग की प्रवृत्ति
दिखती है और इसका असर अप्रत्यक्ष कर-संग्रहण पर पड़ा। दूसरे शब्दों में कहें, तो करों में उछाल और
सब्सिडी में कमी ने तीसरी तिमाही में बेहतर सकल घरेलू उत्पाद का आधार तैयार किया
है।
आँकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर उठते
प्रश्न:
ऐसी
आशंका जताई जा रही थी कि तीसरी तिमाही और इस वित्त-वर्ष के दौरान नोटबंदी के फैसले
से आर्थिक गतिविधियाँ बुरी तरह प्रभावित होंगी। इसी आशंका के कारण भारतीय रिजर्व
बैंक के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास
संगठन (OECD) ने इस दौरान नोटबंदी के भारतीय अर्थव्यवस्था पर अल्पावधि में
असर को स्वीकारते हुए भारत में जीडीपी वृद्धि-दर से सम्बंधित अपने पहले के अनुमान
को संशोधित करते हुए कम किया है। जहाँ मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने 6.5% की आर्थिक संवृद्धि दर का अनुमान लगाया था, वहीं अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष ने 2016-17 की दूसरी छमाही में इसके 6% के स्तर पर रह जाने की सम्भावना
व्यक्त की थी। अखिल भारतीय विनिर्माता संगठन (AIMO) ने छोटे और मध्यम इकाइयों से
सम्बद्ध लगभग सभी औद्योगिक गतिविधियों में ठहराव के संकेत दिए थे।CSO द्वारा जारी आँकड़ा सरकार के उस आकलन को भी झुठलाता है जिसमें उसने
आशंका जताई थी कि नोटबंदी के अर्थव्यवस्था पर अस्थाई प्रभाव की आशंका जताने के
साथ-साथ मध्यावधि में V-शेप में रिकवरी की बात की गयी थी। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी
फिच ने भी अक्तूबर-दिसंबर,2016 के दौरान 7% जीडीपी
वृद्धि-दर के CSO के आकलन को ‘चकित
करने वाला’ बतलाते हुए कहा कि “नोटबंदी के
बाद जारी आँकड़े नकदी-आधारित खपत एवं सेवा-गतिविधियों में गिरावट का संकेत देते
हैं। हो सकता है कि सरकारी आँकड़ा नोटबंदी के नकारात्मक प्रभाव को शामिल करने में सक्षम
नहीं हो, हालाँकि संगठित क्षेत्र आश्चर्यजनक तरीके से मजबूत बना रहा।”
आशंकाओं का आधार:
नोटबंदी
के दौरान बहुत सारे छोटे कारोबार, विशेष रूप से अनौपचारिक प्रकृति वाले कारोबार
बंद हो गए जिसने इसमें काम करने वाले मजदूरों को अपने वापस गाँवों की ओर लौटने को विवश
किया। गाँवों में मनरेगा के तहत् रोजगार की माँगों में वृद्धि इसे पुष्ट करती है।
नवंबर और दिसंबर के महीनों में नगदी की किल्लत की वजह से न सिर्फ खुदरा बाजार में
कारोबार घटा, बल्कि मोटर-वाहनों की खरीद, जमीन-जायदाद की कीमतों
और इससे सम्बद्ध कारोबार में भी भारी गिरावट देखी गई। रियल एस्टेट के अलावा ऑटोमोबाइल,
उपभोक्ता गैर-टिकाऊ वस्तुएँ(FMCGs), मीडिया,
मनोरंजन, पेंट और खुदरा कारोबार जैसे उपभोक्ता-उन्मुख क्षेत्रों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
दुपहिया वाहन, उर्वरक और ट्रैक्टर की बिक्री का
प्रभावित होना ग्रामीण भारत पर नोटबंदी के प्रतिकूल प्रभाव का संकेतक है। यहाँ तक
कि खरीफ फसलों की बिक्री एवं मुनाफे के साथ-साथ रबी की बोआई भी प्रभावित हुई,
यद्यपि सरकार ने इससे इन्कार किया है। सभी बड़े औद्योगिक समूहों ने माना कि नगद लेन-देन
बाधित होने की वजह से उनके उत्पादन पर असर पड़ा है। शुरुआती दिनों में बैंकों में
नगदी न होने की वजह से रोजमर्रा के खर्चे भी बाधित हुए थे। मानव-श्रम की बर्बादी हुई, सो अलग।
आर्थिक समीक्षा,2016-17 से मेल
नहीं:
भले ही आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन
(OECD) और अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष(IMF) ने इसी वृद्धि का अनुमान लगाया है, पर इन दोनों में से किसी के
पास भी आँकड़ा-संग्रहण का स्वतंत्र मैकेनिज्म नहीं है। ये दोनों संगठन भारत सरकार
द्वारा उपलब्ध कराये गए आँकड़ों पर निर्भर करते हैं। इसलिए इनके हवाले CSO के आँकड़े
की प्रमाणिकता का तर्क गले नहीं उतरने वाला है। इसीलिए भी कि CSO के आँकड़े आर्थिक
समीक्षा में दिए गए रुझानों के मेल में नहीं हैं। आर्थिक समीक्षा में 2016-17 के लिए सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि से
सम्बंधित अनुमानों को 7.6% से घटाकर 6.5% कर दिया गया, जबकि CSO ने इसे 7.9% से
मामूली रूप से घटाकर 7.1% किया है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि
राष्ट्रीय आय का आकलन नोटबंदी के प्रभाव को कम कर आँकता है क्योंकि इसका आकलन औपचारिक
क्षेत्र संकेतकों पर आधारित होता है और इसके आकलन में अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक
और नकदी-आधारित क्षेत्रकों को या तो शामिल नहीं किया जाता है, या फिर इसका सटीक
प्रतिनिधित्व नहीं होता है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि
अर्थव्यवस्था में निवेश-गतिविधियों, जो रोजगार-सृजन की संकेतक हैं, का संकेत देने
वाले सकल स्थिर पूँजी-निर्माण में वृद्धि-दर इस तिमाही में महज 3.5% रही है और यह
इस तिमाही के आँकड़े पर प्रश्नचिह्न लगाती है। आर्थिक समीक्षा में भी बैंकिंग
सेक्टर में सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA) के जमा में होने वाली अस्थाई वृद्धि पर आधारित
होने के कारण अतिरंजित जीडीपी आकलन की संभावना को स्वीकार किया गया।
आकलन-विधि की सीमायें: अनौपचारिक क्षेत्र:
CSO के इस आकलन में तिमाही आधार पर आँकड़ों की अनुपलब्धता के कारण
अनौपचारिक क्षेत्र के प्रदर्शन को शामिल नहीं किया गया है, जबकि भारतीय
अर्थव्यवस्था में जीडीपी का लगभग 45% अनौपचारिक क्षेत्र से सम्बद्ध है और नकदी पर
आधारित होने के कारण इसी ने नोटबंदी के प्रभाव को सबसे अधिक झेला है।
लेकिन, इस आलोचना में भी आंशिक सच्चाई ही है। CSO त्वरित आकलन के लिए सामान्यतः संगठित
क्षेत्र के प्रदर्शन के आधार पर ही असंगठित क्षेत्र के प्रदर्शन का अनुमान लगाती
है।सरकार
ने प्रेस नोट में कहा है, "अर्द्ध-कॉर्पोरेट और
असंगठित क्षेत्र (विनिर्माण) के सन्दर्भ में
सकल मूल्य-वर्द्धन का अनुमान औद्योगिक
उत्पादन सूचकांक(IIP) का उपयोग कर लगाया गया है", जबकि यह सूचकांक (IIP)
संगठित क्षेत्र के प्रदर्शन को दर्शाता है। साथ ही, कृषि क्षेत्र में सकल मूल्य
वर्द्धन(GVA) का अनुमान खरीफ एवं रबी फसल की संभावना के आधार पर, सेवा क्षेत्र में
संग्रहित बिक्री कर, डिपोजिट-क्रेडिट, टेलीफोन कलेक्शन आदि के आधार पर और
विनिर्माण-क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक(IIP) एवं सूचीबद्ध कंपनी द्वारा
फाइलिंग के आधार पर लगाया जाता है। स्पष्ट है कि गैर-कृषि
असंगठित क्षेत्र के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए वास्तविकता तक पहुँचने के लिए
जनवरी,2018 में जारी किये जानेवाले जीडीपी के पहले संशोधित आँकड़े की प्रतीक्षा
करनी होगी।
विनिर्माण-क्षेत्र के प्रदर्शन पर
विचार:
सामान्यतः
यह स्वीकार जाता है कि नोटबंदी ने माँग में कमी और आपूर्ति-श्रृंखला में अवरोध
उत्पन्न करते हुए मुख्य रूप से अनौपचारिक क्षेत्र,जिसका जीडीपी में योगदान
45% और कुल रोजगार में 90% के आसपास है, की आर्थिक गतिविधियों और इसके कारण रोजगार को प्रभावित किया।लेकिन,अक्टूबर-दिसम्बर,2016के दौरान उद्योग और उसमें भी विशेष
रूप से विनिर्माण-क्षेत्र में स्थिर मूल्य पर 7.7% और चालू कीमत पर 10.3% वृद्धि
का आकलन अनुमान से परे है। वर्तमान में नई गणना-पद्धति के अंतर्गत CSO औद्योगिक
उत्पादन सूचकांक(IIP) के बजाय कंपनी मामलों के मंत्रालय के समक्ष केवल सूचीबद्ध
कंपनियों द्वारा घोषित सकल मूल्य-वर्द्धन को आधार बनाया जाता है। इसके
अंतर्गत अपंजीकृत कंपनियाँ, अनौपचारिक विनिर्माण उत्पादक और शेयर बाजार में असूचीबद्ध
पंजीकृत फर्म शामिल नहीं है।
इस आलोक में देखें, तो यह आँकड़ा न तो पूरे विनिर्माण-क्षेत्र का
प्रतिनिधित्व करता है और नही CSO द्वारा जारी औद्योगिक उत्पादन सूचकांक(IIP) से ही
संगत है। अक्टूबर-दिसम्बर,2016 के दौरान CSO ने जहाँ विनिर्माण-क्षेत्र के लिए 10.3%
वृद्धि का अनुमान लगाया है, वहीं औद्योगिक उत्पादन सूचकांक ने 0.2% की वृद्धि का
अनुमान। इसी प्रकार दलाल स्ट्रीट निवेश
जर्नल द्वारा तीसरी तिमाही के लिए 4,220 कंपनियों (विनिर्माण से बेहतर की गई ऊर्जा क्षेत्रों में कंपनियों
सहित) के बिक्री-परिणामों के आधार पर 5.74% वृद्धि का संकेत दिया गया है जो CSO के
अनुमान से काफी कम है। CSO के द्वारा कई तिमाहियों की गिरावट के बाद निवेश में 3.5% की वृद्धि का अनुमान भी
संदेहास्पद है, लेकिन पूँजीगत वस्तुओं के उत्पादन में उसी दौरान 7.8% फीसदी गिरावट आई। इसी तरह
वास्तविक निजी उपभोग व्यय में वृद्धि 10% से अधिक रही, लेकिन उपभोक्ता वस्तुओं के
उत्पादन में लगभग 10% की गिरावट आई।इसकी
पुष्टि नोटबन्दी के आरंभिक दो महीनों के दौरान ग्राहकों, कारोबार और मालों की
धुलाई करने में लगे ट्रकों की गतिविधियों में गिरावट से भी होती है। आशंका
यह भी व्यक्त की जा रही है कि कंपनियों ने विमुद्रीकृत मुद्रा के एक हिस्से को 'बिक्री' के
रूप में और जीडीपी अनुमान में 'आउटपुट' के रूप में दिखाया
है।
यह सब विनिर्माण-क्षेत्र से सम्बंधित CSO के आँकड़े पर प्रश्नचिह्न लगता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि
नोटबंदी की पृष्ठभूमि में बदले हालात में संगठित क्षेत्र के प्रदर्शन के आधार पर असंगठित
क्षेत्र के उत्पादन का अनुमान कहाँ तक उचित है, विशेषकर तब जब संगठित और असंगठित
क्षेत्रों पर नोटबंदी के प्रभाव नाटकीय रूप से अलग-अलग रहे हैं?
निर्माण-क्षेत्र और रियल एस्टेट का
प्रदर्शन:
आम तौर पर निर्माण-गतिविधियों
में मानसून के बाद तेजी आती है, लेकिन जुलाई-सितम्बर,2016 की तुलना में अक्टूबर-दिसम्बर,2016
के दौरान निर्माण-क्षेत्र की वृद्धि-दर में गिरावट दिखाई पड़ती है। नवम्बर-दिसम्बर,2016
के दौरान निर्माण-क्षेत्र में सकल मूल्य-वर्द्धन(GVA) पिछले वर्ष की इसी अवधि के
3.2% से गिरकर 2.7% रह गया। मकानों-दुकानों के बाजार भाव का सर्किल रेट से
नीचे के स्तर पर जाना और पंजीकरण-कार्यालयों द्वारा सर्किल रेट से कम पर रजिस्ट्री
करने से इन्कार रियल स्टेट में मंदी की ओर इशारा करता है जिसका प्रतिकूल असर बैंकों
के कर्ज-कारोबार से लेकर सीमेंट एवं इस्पात सहित भवन-निर्माण सामग्रियों के कारोबार
और इसके कारण मिलने वाले रोजगार पर पड़ा। इस दौरान निजी कर्ज लेने वालों की संख्या
तो घटी ही, वाहन और आवास कर्ज के रूप में भी बैंकों का
कारोबार कमजोर रहा। लेकिन, सरकार का मानना है कि यह
गिरावट अनिवार्यतः नोटबंदी के प्रभाव को नहीं दर्शाती है क्योंकि वित्तीय लेन-देन
को पारदर्शी बनाए जाने की दिशा में होने वाली पहलों एवं रियल एस्टेट नियमन अधिनियम
के पारित होने के कारण रियल एस्टेट सेक्टरपुनर्गठन की दौर से गुजर रहा है। यह तर्क, कि बैंकों द्वारा
ऋण-वितरण में गिरावट को कम्पनियों के द्वारा बांड-बाज़ार से ली गई दोगुनी उधारी ने बहुत हद
तक प्रतिसंतुलित करने का काम किया, कम-से-कम माँग एवं उपभोग पर इसके प्रतिकूल
प्रभावों की विवेचना करने में असमर्थ है। जहाँ
तक भविष्य की संभावनाओं का प्रश्न है, जनवरी 2017 में सीमेंट-डिस्पैच में 13% की गिरावट और बैंक-ऋण में वृद्धि का दिसंबर 2016 के स्तर पर स्थिर होना
निर्माण-क्षेत्र की बेहतर संभावनाओं को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं करता।
अन्य क्षेत्रों का सन्दर्भ:
नवम्बर-दिसम्बर,2016 के दौरान उपभोग
से सम्बद्ध वित्तीय, रियल एस्टेट और कारोबारी
सेवाओं में वृद्धि दर पिछले वर्ष की इसी अवधि के 14.3% के सापेक्ष गिरकर और पिछली तिमाही के सापेक्ष आधे से भी अधिक
घटकर 3.1% रह गया। इसी प्रकार दिसम्बर,2016 में नोटबंदी के प्रभाव में
दोपहिया वाहनों की बिक्री में 22%, बैंकों द्वारा ऋण-वितरण में 5%, सीमेंट की
उठान में 9% और रियल एस्टेट सेक्टर में घरों की बिक्री में 40% की गिरावट दिखाई
पड़ती है। लेकिन, इस बात को
ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में यही सेक्टर नहीं हैं, वरन् ऐसे कई
क्षेत्र शामिल हैं। इसी माह
इस्पात-उत्पादन में 15%, विद्युत्-उत्पादन में 6% और रिफाइनरी-उत्पादों में 6.4%
की वृद्धि भी दिखाई पड़ती है। आशंका यह भी व्यक्त की जा रही है कि कंपनियों
ने विमुद्रीकृत मुद्रा के एक हिस्से को 'बिक्री' के
रूप में और जीडीपी अनुमान में 'आउटपुट' के रूप में दिखाया
है।
यह सच है कि निम्न आधार और लागत-दक्षता
के कारण सूचीबद्ध कंपनियों के कॉर्पोरेट-परिणाम आय में उल्लेखनीय सुधार का संकेत
देते हैं, फिर भी तीसरी तिमाही के लिए सकल मूल्य वर्द्धन (विनिर्माण) में 8.3% प्रतिशत की मजबूत वृद्धि का CSO
का अनुमान बहुत यथार्थपरक नहीं प्रतीत होता है। 2016-17 में 7.7% की वार्षिक वृद्धि के लिए विनिर्माण-क्षेत्र को जनवरी-मार्च तिमाही में 6.7% के सकल मूल्य-वर्द्धन को हासिल करना होगा।
प्रति-संतुलनकारी कारक:
नीति
आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगाड़िया ने अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन का कारण
नोटबंदी-बाद की अवधि में स्थिर मुद्रास्फीति की दर को बतलाया। उनका यह भी मानना था
कि आर्थिक गतिविधियों पर नोटबंदी के प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर आँका गया। अगर नोटबंदी का
इतना ही व्यापक प्रभाव होता, तो इसका असर कीमतों पर होना चाहिए था, लेकिन
कीमतों में स्थिरता इसके विपरीत संकेत देती है। सरकार का कहना है कि
अधिकतर रिपोर्ट सांख्यिकी पर आधारित नहीं होने के कारण विश्वसनीय नहीं है। उसका
कहना है कि नोटबंदी के प्रभाव के साथ जीएसटी और सरकार द्वारा किये जाने वाले कई
सुधार भरोसा जगाने वाले लग रहे हैं। सरकार का यह भी कहना है कि पिछले वर्ष की
तुलना में संवृद्धि दर में गिरावट से सम्बंधित ये आँकड़े नोटबंदी के नकारात्मक
प्रभाव की बजाय पिछले वर्ष की उच्च संवृद्धि की पृष्ठभूमि में आधार-प्रभाव को दर्शाते हैं।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की
जरूरत है कि नोटबंदी का प्रभाव इस तिमाही के उत्तरार्द्ध में कहीं अधिक पड़ा और वह
भी इस तिमाही के पूर्वार्द्ध में त्योहारों के मौसम के कारण बहुत हद तक
प्रति-संतुलित हो गया। दूसरी बात यह कि नोटबंदी के कारण आर्थिक गतिविधियों पर
पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव की भरपाई खनन-क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन, लगातार दो
वर्षों तक सूखे के बाद बेहतर मानसून के कारण कृषि क्षेत्र मेंपिछले वर्ष के -2.2%
की गिरावट की तुलना में 6% की होने वाली वृद्धि, कोयले
की बेहतर उपलब्धता के कारण विद्युत्, गैस एवं जलापूर्ति में 6.8% की वृद्धि और
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के
परिणामस्वरुप वेतन-पेंशन में वृद्धि के कारण लोक-प्रशासन, प्रतिरक्षा एवं अन्य
सेवाओं में 11.9% की वृद्धि के द्वारा की गई। नीति आयोग के अनुसार, अक्टूबर-दिसम्बर,2016-17 में CSO ने कृषि-क्षेत्र पर नोटबंदी के प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर आँकते हुए 4.4% कृषि-संवृद्धि दर का अनुमान लगाया है, जबकि इसके
कम-से-कम 6% रहने की संभावना है।
फरवरी,2016 में बिजनेस लाइन में
प्रकाशित 1700 कंपनियों
के परिणामों का विश्लेषण यह बतलाता है कि अक्टूबर-दिसंबर,2016 वाली तिमाही में
बिक्री में वृद्धि की दर पिछले वर्ष के 5% की तुलना में वृद्धि दर 9.1% रही। इसी
तरह इस तिमाही लाभों में वार्षिक आधार पर वृद्धि 30% के करीब रही, जो
जुलाई-सितम्बर वाली तिमाही के 13.6% के सापेक्ष अधिक है। यह पिछले तीन
वर्षों के दौरान इस तिमाही में सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है।इनके द्वारा दी गई
सूचनाओं से पता चलता है कि उपभोक्ताओं द्वारा डिजिटल भुगतान के विकल्प को अपनाने
के साथ शहरी माँगें तेजी से वापस पटरी पर लौटीं। इस तिमाही वैश्विक मूल्य प्रतिक्षेप
(Price Rebound) द्वारा उत्प्रेरित कमोडिटी क्षेत्र से सम्बंधित उद्योगों का भी
प्रदर्शन बेहतर रहा। इस दौरान कुछ क्षेत्रों मेंडिजिटल भुगतान के कारणकारोबार को असंगठित
क्षेत्र से संगठित क्षेत्र की ओर बढ़ते देखा जा सकता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता
है कि संगठित क्षेत्र और विशेष रूप से पहले ही डिजिटल लेन-देन की ओर बढ़ चुके
क्षेत्र नोटबंदी से बहुत हद तक अप्रभावित रहे।
स्पष्ट है कि CSO द्वारा
जारी रिपोर्ट जीडीपी के सन्दर्भ में जिस विवाद का सृजन करती है, उसका सम्बंध एक ओर
जीडीपी-गणना की विधि से जाकर जुड़ता है, तो दूसरी ओर आर्थिक संवृद्धि को लेकर इसके
दावों से। इन दावों को न तो पूरी तरह से ख़ारिज किया जा सकता है और न ही
स्वीकार किया जा सकता है, पर इन दावों को लेकर विवाद की गुंजाईश है और आनेवाले में
इनमें गर कुछ विशेष संशोधन की जरूरत पड़े, तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं; पर इस
सन्दर्भ में अभी कुछ निश्चित तौर पर कहना मुश्किल है। लेकिन, इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि नोटबंदी का आर्थिक गतिविधियों पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ा या फिर अर्थव्यवस्था अप्रभावित रही, इसे किसी भी दृष्टि से
उचित नहीं माना जा सकता, यहाँ तक कि CSO की यह रिपोर्ट भी प्रभाव की संभावनाओं को
नहीं नकारती। इस सन्दर्भ में जो भी दावे-प्रतिदावे किये जा
रहे हैं, वे राजनीतिक कहीं अधिक हैं और आर्थिक कम।
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