Saturday, 25 March 2017

कविता ने जना है मुझे!

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कविता ने जना है मुझे!
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मै कविता को नहीं जनता,
कविता ने जना है मुझे!
और फिर, बढ़ चला मैं
निरंतर अपने पथ पर,
लड़खड़ाता, गिरता-परता
कविता रुपी अपनी जननी को पीछे छोड़;
उस सन्तान की भाँति,
जो जीवन की दौड़ में
माँ-बाप को पीछे छोड़,
निकल जाते हैं दूर कहीं,
वहाँ, जहाँ से वापस नहीं लौटा जा सकता,
या फिर कह लें,
वापस लौटने की चाह नहीं रह जाती,
इसलिए कि उसकी नज़रों में
वापस लौटने की ज़रुरत नहीं रह जाती!
इसलिए अब
मुझे लगता है
कि न तो मैं कविता को जनता,
और न ही कविता मुझे;
अगर कभी उसने जाना भी हो, तो
वह शायद कविता ही जाने!
कहीं ऐसा तो नहीं
कि कल फिर कविता की ज़रुरत हो,
और फिर तबतक कविता निकल जाए
मुझसे दूर, हाँ, बहुत दूर,
इतनी दूर,
जहां से वह लौट नहीं सकती,
उस माता-पिता की तरह
जो बच्चों से दूर निकल
भविष्य के अनंत गर्भ में विलीन हो जाते हैं;
और जहाँ पर मैं जा नहीं सकता,
उस बच्चे की तरह,
जिसने माता-पिता के रहते
उसे भुला दिया, पर 
उनके जाने के बाद उन्हें याद कर रहा हो,
उन्हें पाने को बेचैन हो!
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