विभूमंडलीकरण
(Deglobalisation)
विभूमंडलीकरण
(Deglobalisation) से आशय:
विभूमंडलीकरण (Deglobalisation) से आशय है वैश्वीकरण से उलटी दिशा में वापसी, अर्थात् वैश्वीकरण से वापस
राष्ट्रवाद के रास्तों पर लौटना (Reverse Trend of Globalisation)। मंदी-बाद के परिदृश्य में दुनिया वैश्वीकरण की दिशा से
लौटती दिख रही है, या फिर यूँ कह लें कि हर देश का नेतृत्व वैश्वीकरण से उलटी दिशा
में चलने का संकेत देता हुआ अपने देश की जनता को यह सन्देश देने की कोशिश में लगा
है कि वैश्वीकरण से राष्ट्रवाद की ओर वापसी उसकी सारी समस्याओं का समाधान है।
नव-आर्थिक
उदारवाद से मोहभंग की प्रक्रिया का शुरू होना:
1980 के दशक में मेक्सिको क्राइसिस की पृष्ठभूमि में लैटिन
अमेरिकी देशों को संकट से बाहर निकालने के नाम पर आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण एवं
वैश्वीकरण(LPG) के मॉडल को लागू करने की दिशा में पहल की गयी, लेकिन इक्कीसवीं सदी
के आरम्भ तक आते-आते नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की परिणति बढ़ती हुई
सामाजिक-आर्थिक असमानता एवं जॉबलेस ग्रोथ की स्थिति के कारण उच्च बेरोजगारी दर के
रूप में हुई और इसने इस मॉडल से मोहभंग के आधार को तैयार किया. इसी की पृष्ठभूमि
में 2000 के दशक की शुरुआत में दस लैटिन अमेरिकी देशों ने वामपंथ की ओर रुख किया,
यद्यपि अर्जेंटीना, ब्राजील, चीली,
ग्वाटेमाला और वेनेजुएला में भ्रष्टाचार के उच्च स्तर एवं आर्थिक
हेराफेरी के आरोपों के बीच वामपंथ से मोहभंग की स्थिति भी देखने को मिली है।
राष्ट्रवाद के नाम पर नियंत्रण का
खेल:
आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में एक विशिष्ट प्रकार का राष्ट्रवाद
संरक्षणवाद की वकालत करता हुआ दूसरे मुल्क के प्रति नफ़रत की बुनियाद पर खड़ा हो रहा
है।
यही आप्रवासियों के प्रति नफ़रत, किसी देश में काम करने वाली कंपनियों में स्थानीय
लोगों के लिए रोजगार-कोटा, घरेलू उद्योगों एवं घरेलू उत्पादों को संरक्षण प्रदान
करने के लिए संरक्षणवादी नीतियों की वकालत आदि के रूप में प्रकट हो रहा है।
फ्रांस लंदन, पोलैंड, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रिया आदि देशों
में ऐसे राजनीतिक दल और ऐसे नेतृत्व की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है जो इस तरह के
एजेंडे को आगे रखते हुए वहाँ के लोगों को अतीत के गौरव एवं महानता की पुनर्बहाली
और सुनहले भविष्य का सपना दिखा रहे हैं।
इंग्लैंड
में ब्रेक्जिट और अमेरिका में ट्रम्प की जीत उस दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उभार का
संकेत दे रही है जो भूमंडलीकरण के भविष्य को लेकर धुँधली तस्वीरें निर्मित कर रहा
है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा ट्रांस-पेसिफ़िक पार्टनरशिप(TPP) एग्रीमेंट,
ट्रांस-अटलांटिक ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप(TTIP) एग्रीमेंट और जलवायु
समझौतों से अलग होने की घोषणा के साथ-साथ अमेरिका के द्वारा विभिन्न देशों के साथ
संपन्न मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा के संकेत इसी दिशा में संकेत कर रहे हैं।
अमेरिका ही नहीं, यूरोपीय देशों में भी इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है। यूनाइटेड किंगडम में यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस
पार्टी के निजेल फराज (Nigel
Farage) के
नेतृत्व में ब्रेक्जिट के लिए सफलतापूर्वक आन्दोलन चलाये गए और इसने ऐसी परिस्थिति
उत्पन्न कर दी जिसने यूनाइटेड किंगडम को बिखराव के मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है और
ब्रेक्जिट के विरोध में स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग होने के प्रश्न पर दूसरे
जनमत-संग्रह के मुहाने पर खड़ा है। स्काॅटलैंड की प्रथम महिला निकोला स्टुर्गन (Nicola Sturgeon) 'ब्रेक्जिट' को ''स्काॅग्््जिट' का रूप देने में लगी हैं! यूरोपीय संघ से बाहर निकलने की माँग अब ब्रिटेन से
बाहर निकलकर यूरोपीय संघ के एनी देशों में भी फ़ैल रही है। फ्रांस में नेशनल
फ्रंट के मैरीन ले पेन के नेतृत्व में फ्रेक्जिट (Frexit) और नीदरलैंड में पार्टी
फॉर फ्रीडम के गीर्ट विल्डर्स के द्वारा नेक्जिट(Nexit) के लिए आन्दोलन चलाया जा
रहा है जो यूरोपीय संघ से जुड़ाव के प्रति
यूरोपीय देशों में गहराते असंतोष की ओर इशारा करता है। उनके अन्दर यह अहसास गहराता जा रहा है कि यूरोपीय
संघ से जुड़कर उन्होंने काफी कुछ गँवाया है। स्पष्ट है कि भारत, ब्रिटेन और अमेरिका
की तरह ही फ्रांस, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी,
फिनलैंड, नीदरलैंड और स्वीडेन जैसे यूरोपीय देशों
में भी धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के राजनीतिक उभार की प्रक्रिया तेज़ हो रही है।
अप्रासंगिक होता
वैश्वीकरण का मॉडल:
यद्यपि
अभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचाना जल्दबाजी होगी, तथापि दुनिया के विभिन्न हिस्सों
में भूमंडलीकरण के प्रति स्थानीय लोगों की प्रतिक्रियाएँ इस प्रश्न को जन्म दे रही
हैं कि कहीं पिछले ढाई दशकों से चला आ रहा वैश्वीकरण का मॉडल अब अप्रासंगिक तो
नहीं होने लगा है? पिछले ढाई दशकों के दौरान वैश्वीकरण द्वारा सृजित संभावनाओं के
दोहन के पश्चात् विकसित देशों और उनके कॉर्पोरेट समूह को अब यह लगने लगा है कि
वैश्वीकरण से लोगों के बढ़ते हुए मोहभंग के मद्देनज़र अपने हितों को साधने के लिए
उन्हें अब नए साधन एवं नए रास्ते तलाशने होंगे अन्यथा उनका विकास अवरुद्ध होगा।
इसका अंतर्विरोध यह है कि यह अपनी अंतर्राष्ट्रीय संभावनाओं को तो खुला रखना चाहता
है, पर इसे पता है कि आनेवाले समय में अंतर्राष्ट्रीय अपेक्षाओं पर खरा उतरने के
लिए उसे छूटें देनी होंगी जिसके लिए वह और वहाँ की जनता तैयार नहीं है। इसीलिये
राष्ट्रवादी आकांक्षाओं और जन-अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए राष्ट्रवादी
आकांक्षाओं के साथ तालमेल उसकी मजबूरी है। इस प्रवृत्ति को अमेरिका एवं यूरोप से
लेकर भारत एवं चीन तक देखा जा सकता है। राजनीतिक कॉरपोरेट नियंत्रित और संचालित
वैश्विक पूँजीवाद को और आगे ले जाने में भूमंडलीकरण के वर्तमान स्वरूप की
संदेहास्पद प्रासंगिकता कॉर्पोरेट पूँजीवाद को स्थानीय स्तर पर राष्ट्रवाद में नवीन
संभावनाओं की तलाश के लिए भी विवश कर रही है।
वैश्वीकरण
से उपजा असंतोष:
1980 के दशक में और उसके बाद विकसित देशों
ने उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का जो मॉडल आर्थिक संकट से बाहर निकालने एवं आर्थिक
संवृद्धि की प्रक्रिया को त्वरित करने के नाम विकासशील देशों के ऊपर थोपा, उसने
चाहे आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया को त्वरित करते हुए भौतिक प्रगति के मुकाम पर
पहुँचाया हो, पर इसके कारण दुनिया भर के लोगों के बीच गैर-बराबरी काफी ज्यादा बढ़ी
है। इसने जहाँ अमीरों को और अमीर बनाया है, वहीं गरीबों को और अधिक गरीब बनाया है।
इसका लाभ अत्यधिक अमीर (Super Rich) एवं मध्यम वर्ग को तो मिला है, पर अधिकाँश
आबादी, विशेषकर औद्योगिक देशों में कामगार एवं निम्न-मध्यवर्ग और विकासशील देशों
में गरीब, बेरोजगार एवं हाशिये पर के समूह से सम्बद्ध वंचितों की विशाल आबादी इसके
लाभों से वंचित रही। एक तो इसने ‘जॉबलेस ग्रोथ’ अर्थात् रोजगार-विहीन संवृद्धि
(Jobless Growth) की स्थित उत्पन्न की है, दूसरे जो थोड़े-बहुत रोजगार सृजित भी
हुए, वे निम्न उत्पादकता वाले रोजगार थे। और, इससे भी महत्वपूर्ण यह हुआ कि इसने
राष्ट्रीय सरकारों पर कॉर्पोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों(MNC’s) एवं
सीमा-पारीय कम्पनियों(TNC’s) के शिकंजों
को मज़बूत करते हुए उसे बेबस कर दिया है।
अब
प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसी परिस्थितियाँ क्यों उत्पन्न हुईं? भूमंडलीकरण ने ऐसे
कॉर्पोरेट्स
द्वारा निर्देशित सर्वव्यापी बाजार को निर्मित किया है जो
आज अपनी लाभ-केन्द्रित सोच के साथ तमाम आर्थिक सिद्धांतों, नियमों एवं कानूनों और
यहाँ तक कि राष्ट्र-राज्यों एवं वहाँ की सरकारों तक की गिरफ्त से बाहर निकलकर अपनी
मनमानी पर उतर चुका है और सही मायने में आज यह राष्ट्र-राज्यों एवं उसकी
सरकारों के नियमन एवं नियंत्रण से बाहर होकर उनके ही नियमन एवं नियंत्रण की स्थिति
में पहुँच चुका है जिसके कारण राष्ट्र-राज्य एवं राष्ट्रीय सरकारें इसके समक्ष या
तो असहाय हैं या फिर समर्पण की मुद्रा में, जिसने राष्ट्रों की संप्रभुता के प्रश्न
को बड़ी शिद्दत के साथ जन्म दिया है। आज प्रश्न उठ रहा है कि संप्रभु कौन है :
राष्ट्र-राज्य या फिर अकूत पूँजी के सहारे कॉर्पोरेट्स द्वारा निर्देशित
सर्वव्यापी बाज़ार? बाजार की शक्तियाँ इतनी प्रबल हो
चुकी हैं और इतने मुक्त रूप से काम कर रही हैं कि कोई भी देश या सरकार उन पर अंकुश
लगाने में सक्षम नहीं है। कारण है और इसका उन कॉर्पोरेट्स के हाथों निर्देशित होना
जिनके हाथों पूँजी संकेद्रित है। आज
पाँच सौ बहुराष्ट्रीय कंपनियों(MNC’s) के पास दुनिया की आधी से ज्यादा पूँजी है जो
पूँजी के भारी
सकेंद्रण की ओर संकेत करता है। दुनिया के महज 1 प्रतिशत लोगों के
द्वारा नियंत्रित इस पूँजी की आवाजाही दुनिया के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक और
अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्रक से दूसरे क्षेत्रक तक इन्हीं 1 प्रतिशत
लोगों की जरूरतों के हिसाब से होता है। ये न तो राष्ट्र की सीमाओं में बंधी हैं और
न ही राष्ट्रीय सरकारों द्वारा नियमन इनके लिए बहुत मायने रखता है। आज मीडिया और
सूचना तकनीकी इसी पूँजी द्वारा संचालित होकर इसके हितों के हिसाब से मुद्दों के
निर्धारण में लगी है ताकि राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को पुनर्परिभाषित करते हुए बाजार को
अपने हिसाब से संचालित किया जा सके। इस तरह भूमंडलीकरण के इस दौर में विज्ञान और तकनीकी के
साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट एवं सोशल मीडिया पर एकाधिकार और नियंत्रण
कायम करते हुए इस कॉर्पोरेट पूँजी ने आम लोगों को भ्रमित करते हुए वैश्विक स्तर पर
अपने पक्ष में आमराय बनाते हुए भोगवादी संस्कृति के प्रसार को सुनिश्चित किया। आज
इनके बीच का नापाक गठबंधन पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से लेकर सामाजिक-आर्थिक
समावेशन तक के प्रश्नों की उपेक्षा करते हुए अपने हितों के अनुरूप वैश्विक एवं
राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ आर्थिक नीतियों के स्वरुप-निर्धारण में लगी है। यही
कारण है कि वैश्वीकरण की तेज होती प्रक्रिया के साथ प्राकृतिक संसाधनों की कॉर्पोरेट-लूट
की कोशिशें तेज होती चली गईं और इसी के साथ उनके खिलाफ बढ़ते असंतोष की पृष्ठभूमि
में स्थानीय स्तर पर प्रतिरोधी आंदोलन भी, जिन्हें कॉर्पोरेट्स द्वारा राज्य-सत्ता,
पुलिस एवं प्रशासन के माध्यम से दृढ़तापूर्वक कुचलने की पुरजोर कोशिशें जारी हैं।
स्पष्ट है कि बाजार, पूँजी और तकनीक के इस खुले खेल ने देशों
के सामाजिक ताने-बाने, सांस्कृतिक अस्मिता और मानवीय चेतना
को बिखेर कर रख दिया है।
नवंबर,2016
में ‘द इकोनोमिस्ट’ में प्रकाशित
लेख ‘लीग ऑफ नेशनलिस्ट’ राष्ट्रवाद के राजनीतिक उभार की पड़ताल करते हुए कहा गया है कि आजकल दुनिया के विभिन्न हिस्सों में नए प्रकार के एकाधिकारवादी सरकारों (Authoritarian Government) का उदय हो चुका है जो वैश्वीकृत मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से विपक्ष को समाप्तप्राय करने पर तुली हुई हैं और उसे बस इतना बचे रहने देना चाहती है ताकि लोकतंत्र होने का भ्रम बना रहे। इसके लिए उनके द्वारा मीडिया घरानों का प्रभावी इस्तेमाल किया जा रहा है और उन्हें नियंत्रित करने के लिए विज्ञापन से लेकर सत्ता की शक्ति और उसके द्वारा सृजित दबाव तक का सहारा लिया जा रहा है। इतना ही नहीं, इन एकाधिकारवादी सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा मीडिया को नियंत्रित करने के लिए अपने समर्थक कॉर्पोरेट्स हाउस एवं उद्योगपतियों-पूँजीपतियों का इस्तेमाल विरोधी मीडिया घरानों में निवेश एवं उनके अधिग्रहण के लिए किया जा रहा है।
लेख ‘लीग ऑफ नेशनलिस्ट’ राष्ट्रवाद के राजनीतिक उभार की पड़ताल करते हुए कहा गया है कि आजकल दुनिया के विभिन्न हिस्सों में नए प्रकार के एकाधिकारवादी सरकारों (Authoritarian Government) का उदय हो चुका है जो वैश्वीकृत मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से विपक्ष को समाप्तप्राय करने पर तुली हुई हैं और उसे बस इतना बचे रहने देना चाहती है ताकि लोकतंत्र होने का भ्रम बना रहे। इसके लिए उनके द्वारा मीडिया घरानों का प्रभावी इस्तेमाल किया जा रहा है और उन्हें नियंत्रित करने के लिए विज्ञापन से लेकर सत्ता की शक्ति और उसके द्वारा सृजित दबाव तक का सहारा लिया जा रहा है। इतना ही नहीं, इन एकाधिकारवादी सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा मीडिया को नियंत्रित करने के लिए अपने समर्थक कॉर्पोरेट्स हाउस एवं उद्योगपतियों-पूँजीपतियों का इस्तेमाल विरोधी मीडिया घरानों में निवेश एवं उनके अधिग्रहण के लिए किया जा रहा है।
वैश्विक
आर्थिक संकट का उत्प्रेरक के रूप में:
वैश्वीकरण के इन अंतर्विरोधों को मुखर करने में 2008-09 के
वैश्विक वित्तीय-सह-आर्थिक संकट और उसके बाद के परिदृश्य में अनिश्चित आर्थिक
परिदृश्य की निरंतरता ने महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभायी क्योंकि अधिकांश
देशों ने वैश्वीकरण की इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए आर्थिक संरक्षणवाद का
सहारा लिया जिसने समस्या का समाधान देने के बजाय वैश्वीकरण के अंतर्विरोधों को और
गहराने का काम किया। आज भी वैश्विक आर्थिक परिदृश्य की अनिश्चितता बनी हुई है और
विशेष रूप से बढ़ते हुई बेरोजगारी की पृष्ठभूमि में रोजगार-अवसरों का सृजन आज भी
चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। यूरोपीय संघ के देशों में तो बेरोजागारी की औसत दर देश के
कुल कार्य-बल से दस फीसदी तक अधिक है, जबकि यूनान व स्पेन में यह आँकड़ा 20
फीसदी तक का है। युवाओं में, खासकर श्रम-बाजार
में उतरने वाले नए युवाओं में बेरोजगारी दर करीब 25 फीसदी हो
गई है। विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक ऐसी नीतियों को अपनाने की गयी और आज भी की जा रही है जो श्रमिक हितों के
विरोध में जाती हैं। इसने श्रमिकों की मोल-भाव क्षमता को कमजोर किया है, फलतः ब्लू-कॉलर
जॉब से लेकर ह्वाइट-कॉलर जॉब तक में संलग्न कामगारों की वास्तविक आमदनी में
स्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो रही है। अमेरिका में तो 1970 के
दशक के बाद से करीब 90 फीसदी कर्मियों की वास्तविक मजदूरी
में कोई वृद्धि भी नहीं हुई है। विशेष रूप से भारत जैसे देशों में श्रमिक-हितों के
प्रति संवेदनशील श्रम-कानूनों से बचने के लिए अब कम्पनियाँ अपनी ज़रुरत के हिसाब से
एजेंसियों के जरिये श्रमिकों की भर्ती कर रही हैं जिसके कारण श्रमिकों की
सुभेद्यता (Vulnerability) और भी बढ़ी है और वे इन श्रम एजेंसियों के हाथों शोषण के
लिए अभिशप्त हैं।
बढ़ता
हुआ सामाजिक-सांस्कृतिक टकराव:
उदारीकरण और वैश्वीकरण ने एक ओर सरकारों पर दबाव निर्मित
करते हुए सार्वजानिक खर्चों में कटौती का आधार तैयार किया, दूसरी ओर विकसित देशों
से विकासशील देशों की ओर श्रमिकों के पलायन को जन्म दिया जिसके परिणामस्वरूप
बुनियादी न्यूनतम सुविधाओं के साथ-साथ रोजगार-अवसरों को लेकर अप्रवासियों एवं
स्थानीय लोगों के बीच प्रतिस्पर्द्धा तेज हुई. इस प्रतिस्पर्द्धा में निम्न
श्रम-लागत के कारण अप्रवासी स्थानीय लोगों की तुलना में प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त की
स्थिति में थे. इसने सांस्कृतिक टकराव को जन्म देते हुए स्थानीय लोगों में
अप्रवासियों के प्रति असंतोष को जन्म दिया. इस असंतोष को उत्प्रेरित करने का काम
किया विकासशील देशों से विकसित देशों की और माइग्रेशन के बढ़ते हुए दबाव ने.
इस्लामिक
चरमपंथ की चुनौती:
यह परिदृश्य तब और जटिल हो गया जब पश्चिम एशियाई देशों में
इस्लामिक स्टेट्स एवं अन्य चरमपंथी संगठनों के बढ़ते हुए प्रभाव ने टकराव एवं
संघर्ष की स्थिति को जन्म देते हुए पश्चिम एशिया में राजनीतिक अस्थिरता को बढाने
का काम किया और इसकी पृष्ठभूमि में पश्चिम एशिया से यूरोपीय देशों की ओर पलायन तेज
होता चला गया. उधर इस बढ़ते हुए टकराव की पृष्ठभूमि में इन इस्लामिक चरमपंथी
संगठनों ने अमेरिका एवं इन यूरोपीय देशों पर आतंकी हमले बढ़ा दिए. इस स्थिति में
स्थानीय लोगों में न केवल मुसलमानों के प्रति असंतोष पैदा हुआ और उन्हें आशंका भरी
नज़रों से देखा जाने लगा, वरन् स्थानीय लोगों ने इन्हें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के
लिए खतरा समझते हुए अपने राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल भी माना।
मुख्यधारा
के राजनीतिक दलों की विफलता:
उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का प्रतिनिधित्व करने वाली
शक्तियों के द्वारा न केवल राष्ट्रीय सरकारों एवं उसके बहाने सत्तारूढ़ राजनीतिक
दलों को, वरन् अपने हितों के अनुरूप राष्ट्रीय सरकारों द्वारा अपनाई जानेवाली नीतियों
के विरोध को कम करने और उसे अप्रभावी बनाने के लिए विपक्षी दलों को भी साधा गया है।
इसने नव-आर्थिक उदारवादी नीतियों की राजनीतिक स्वीकार्यता को बढाने का काम किया। फलतः
राजनीति में गरीबों, शोषितों और वंचितों की आवाज़ उठाने वाला कोई शेष नहीं रह गया।
इसके परिणामस्वरूप गरीबों, शोषितों एवं वंचितों का मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से
विश्वास उठता चला गया। उन्हें लगने लगा कि अब उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी
स्थिति में राजनीतिक विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही मुख्यधारा की राजनीति ने जो
पॉलिटिकल स्पेस सृजित किया, उस पॉलिटिकल स्पेस को भरने की कोशिश आक्रामक रूप से दक्षिणपंथी
और धुर राष्ट्रवादी पार्टियों के द्वारा की जा रही है और इनके द्वारा सत्ता-प्रतिष्ठानों
के खिलाफ लोगों की नाराजगी को हवा देते हुए मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की विफलता
को भुनाने का प्रयास किया जा रहा है। अमेरिका और यूरोप में ही रोजगार एवं मजदूरी
संबधी चिंताओं को अभिव्यक्ति देते हुए लोगों को राजनीतिक रूप से गोलबंद करने की
कोशिश की जा रही है ताकि आर्थिक संरक्षणवादी नीतियों के सहारे आप्रवासियों
(Immigrants) की प्रतिस्पर्द्धा से संरक्षण प्रदान करते हुए अच्छे दिन और अतीत के
गौरव की पुनर्बहाली का नारा दिया जा रहा है। इसके लिए धार्मिक चरमपंथ एवं इसके खतरे को उभारते हुए
नृजातीयता एवं सांस्कृतिक पहचान के प्रश्न को भी दक्षिणपंथ के द्वारा हवा दिया जा
रहा है। आज इसके द्वारा लोकलुभावन वादों एवं
भविष्य के सुनहले सपनों के सहारे गरीबों, शोषितों एवं वंचितों की आवाज़ बनकर राजनीति
की फसल काटने की कोशिश की जा रही है और वे अपनी इस कोशिश में बहुत हद तक सफल भी
हैं। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें दुनिया में जहाँ भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था
विद्यमान है, वहाँ अपने देश की हुकूमत से नाराज गरीब, शोषित और वंचित राजनीतिक
लोकतंत्र के माध्यम से अपने असंतोष का इजहार कर रहे हैं।
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