भाजपा से राज्यपाल तक:
गोवा और मणिपुर के विशेष सन्दर्भ में
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नये भारत (#IamNewIndia) में उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड से लेकर गोवा और मणिपुर तक लोकतंत्र
एवं जनमत की नई-नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही है और उन परिभाषाओं के आगे लोकतंत्र एवं
संविधान पस्त पड़ा है। निश्चय ही फ़रवरी-मार्च,2017 में संपन्न विधानसभा-चुनाव ने उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में
तीन-चौथाई बहुमत प्रदान कर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और विशेष रूप से
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मज़बूती दी है और भाजपा के हाथों मिलने वाली इस
शिकस्त से विपक्ष पस्त है। लेकिन, सत्तारूढ़ दल भाजपा को इससे संतोष नहीं मिला। अन्य राजनीतिक दलों से
भिन्न चाल, चरित्र एवं चेहरा का दावा
करने वाली भाजपा ने कांग्रेस के रंग में रँगते हुए उन्हीं साधनों का सहारा लेकर
गोवा एवं मणिपुर में सरकार का गठन किया जिसका अबतक वह विरोध करती रही है।
यह सच है कि अतीत में कई बार ऐसे अवसर आये हैं जब सरकार बनाने में सबसे बड़े राजनीतिक दल की तुलना में उस दल या गठबंधन को प्राथमिकता दी गयी जिसने सबसे अधिक सदस्यों के समर्थन का दावा प्रस्तुत किया और कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दल इससे लाभान्वित हुए, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि प्रक्रिया और औचित्य के आधार पर ऐसे निर्णय विवादस्पद रहे और उनकी आलोचना भी हुई। अबतक के अनुभव हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं कि सबसे पहले सबसे बड़े राजनीतिक दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना राज्यपाल का दायित्व है. पूँछी आयोग ने इसकी चर्चा संवैधानिक अभिसमय के रूप में की है और इससे सम्बंधित उन दिशा-निर्देशों का विस्तार से उल्लेख किया है जिसके अनुपालन की अपेक्षा राज्यपाल से की गई है.
गोवा की गवर्नर मृदुला सिन्हा के इस फैसले ने खंडित जनादेश से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों से निपटने के लिए अधिक स्पष्ट, व्यवस्थित और पारदर्शी व्यवस्था की आवश्यकता पर बहस को एक बार फिर से तेज़ कर दिया है। अगर राज्यपाल के विवेकाधिकार को अच्छी तरह से परिभाषित करने वाली स्पष्ट एवं पारदर्शी व्यवस्था अबतक विकसित नहीं हो सकी, तो इसकी जिम्मेवारी भी कांग्रेस की ही बनती है जिसने सरकारिया आयोग एवं पूँछी आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार करते हुए वैधानिक रूप देने की बजाय इसे अबतक लटकाए रखा है. साथ ही, अबतक इन अनुशंसाओं की उपेक्षा करते हुए जरूरत पड़ने पर खंडित जनादेश की अपने राजनीतिक हितों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करते हुए अनेक अवसरों पर न केवल सबसे बड़े राजनीतिक दल को सरकार बनाने से रोका है, वरन् विरोधी दलों की स्थिर सरकारों को अस्थिर भी किया है.
काँग्रेस 2.O बनती भाजपा
इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो गोवा एवं मणिपुर में भाजपा द्वारा सरकार बनाने यह निर्णय खंडित
जनादेश (Popular Mandate), जो कम-से-कम गोवा में भाजपा
के विरोध में है, की उपेक्षा करता है। ऐसा लगता है कि अटल-आडवाणी युग तक ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ का दावा करने वाली भाजपा के चाल-चेहरे-चरित्र में परिवर्तन आ चुका है
और आज वह पार्टी भर रह गई है, डिफरेंस कबका समाप्त हो चुका है। वैसे भी, सत्ता ‘डिफरेंट’ बने रहने का मौक़ा कहाँ शेष रहने देती है! इसे भाजपा से लेकर ‘आप’ तक के अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। आज भाजपा भी
राज्यों में सत्ता तक पहुँचाने के लिए राज्यपाल और अनु. 356 जैसे उन्हीं कांग्रेसी
हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है जिसके लिए अबतक उसके द्वारा कांग्रेस की आलोचना की
जाती रही है। यह स्थिति संघवाद की उस संकल्पना के विरुद्ध है जिसका आश्वासन देकर
भाजपा सत्ता में आयी है। आज भाजपा में भी वही हाईकमान संस्कृति विकसित होती दिखाई
पड़ रही है जो अबतक कांग्रेस की विशेषता रही है और जिसने समय के साथ कांग्रेस के
अंतर्गत स्थानीय नेतृत्व के उभार की प्रक्रिया को बाधित किया।
यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा ने अपनी चुनावी संभावनाओं को बल प्रदान करने के लिए बड़ी संख्या में कांग्रेस सहित दूसरे दल के नेताओं को शामिल किया। इसे उत्तर प्रदेश और बिहार से लेकर उत्तर-पूर्व तक देखा जा सकता है। असम के हेमंत विस्वाल से लेकर अरुणाचल प्रदेश के प्रेमा खांडू और मणिपुर के एन. बीरेन शाह तक इसको देखा जा सकता है जिन्होंने पूर्वोत्तर भारत में भाजपा को निर्णायक सफलता दिलाने में अहम् भूमिका निभायी है। आज प्रेमा खांडू और एन. बीरेन शाह क्रमशः अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के मुख्यमंत्री हैं।
वापस लौटते हैं
गोवा पर। गोवा में मनोहर पर्रीकर के नेतृत्व में जिस भाजपा सरकार का गठन हुआ है,
उसमे मुख्यमंत्री के साथ साथ और मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता की शपथ ली। इनमें
भाजपा को जिन आठ सदस्यों का समर्थन मिला, उनमें छह विधायकों को मंत्री बना दिया
गया जो सरकार गठन के क्रम में होने वाले लेन-देन की और ही इशारा करता है। इनमें
भी सरकार बनानी के लिए विजय सरदेसाई के नेतृत्व वाली जिस गोवा फॉरवर्ड
पार्टी (GFP) का समर्थन हासिल किया गया है, उसने अक्टूबर
2016 को जारी अपने छह सूत्री एजेंडे में मौजूदा
बीजेपी सरकार को सत्ता से हटाने को शीर्ष पर रखा था।इसी प्रकार जिस एन. बीरेन शाह को भाजपा ने मणिपुर का
मुख्यमंत्री बनाया है, वे महज तीन महीने पहले कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए हैं। भले ही भाजपा कांग्रेस पर अन्तर्कलह के कारण विधायक दाल का नेता न चुनने का आरोप लगाए, पर उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड, जहाँ मुख्यमंत्री के चयन में सात-आठ दिन लग गए, के
सापेक्ष भाजपा ने गोवा एवं मणिपुर, दोनों ही राज्यों में मुख्यमंत्री नियुक्त करने
में जो तेजी दिखाई गई, वह उसके इरादों को लेकर संदेह को जन्म देता है।
स्पष्ट
है कि समय के साथ कांग्रेस और भाजपा का फर्क मिटाता जा रहा है और भाजपा 1970-1980
के दशक के कांग्रेस बनाने की प्रक्रिया में है। इसीलिए उसे
अगर कांग्रेस 2.0 कहा जाय, तो अनुचित नहीं होगा।
गोवा से मणिपुर तक:
हाल में जिन पाँच राज्यों में चुनाव हुआ, उनमें मणिपुर और गोवा भी शामिल है। मणिपुर में पिछले पंद्रह वर्षों
से काँग्रेस की सरकार है, जबकि गोवा में भाजपा की; लेकिन हालिया चुनाव में में दोनों राज्यों के चुनाव-परिणामों ने किसी
भी राजनीतिक दल को स्पष्ट मैंडेट देने के बजाय त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति सृजित
किया।दोनों ही राज्यों में जनादेश सत्तारूढ़ दल के खिलाफ था, बस फर्क यह था कि चालीस
सदस्यीय गोवाविधानसभा में जहाँ कांग्रेस सत्रह सीटों के साथ सत्तारूढ़ दल को दूसरे
नंबर धकेल कर सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभर कर सामने आयी, वहीं साठ सदस्यीय मणिपुर
विधानसभा में भाजपा के शानदार प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस अट्ठाईस सीटों के साथ
सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में बहुमत के करीब पहुँचने में सफल रही। इनमें भी
गोवा की स्थिति थोड़ी अलग रही जहाँ आठ सदस्यीय मंत्रीपरिषद में मुख्यमंत्री समेत छह
मंत्री बुरी तरह से चुनाव हार गए। इसीलिए खंडित ही सही, पर जनादेश उसके खिलाफ था। ऐसी स्थिति में लोकतांत्रिक नैतिकता का तक़ाज़ा यह था कि गोवा में
भाजपा विपक्ष की रचनात्मक भूमिका को स्वीकार करे और सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप
में कांग्रेस को सरकार गठन करने दे। मणिपुर में भी मैंडेट कांग्रेस के विरुद्ध था, पर सबसे बड़े राजनीतिक दल
होने के नाते वहाँ पर भी कांग्रेस की दावेदारी भाजपा की तुलना में कहीं अधिक मजबूत
थी। लेकिन, आज के दौर में लोकतांत्रिक नैतिकता की अपेक्षा न तो भाजपा से की जा
सकती है और न ही काँग्रेस एवं आप समेत अन्य दलों से। तब तो और भी नहीं, जब कांग्रेस-मुक्त भारत के लक्ष्यों से प्रेरित भाजपा कांग्रेस को
थोड़ी-भी रियायत देने के लिए तैयार नहीं हो और इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद की कोई भी
रणनीति अपनाने के लिए तैयार हो। ध्यातव्य है कि गोवा में भाजपा को काँग्रेस के
सत्रह स्थान के मुक़ाबले तेरह स्थान मिले हैं, जबकि मणिपुर में काँग्रेस के इक्कीस स्थान के मुक़ाबले अट्ठाईस
स्थान।
गोवा-मणिपुर के घटना-क्रम:
जब गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा से मिलकर भाजपा ने चालीस सदस्यीय
गोवा विधानसभा में गोवा फ़ॉरवर्ड पार्टी (GFP) और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (MGP) के तीन-तीन विधायकों सहित कुल इक्कीस विधायकों के समर्थन का पत्र
सौंपा, तो राज्यपाल ने सबसे बड़े राजनीतिक दल काँग्रेस से विचार-विमर्श किये
बगैर मुख्यमंत्री के पद की शपथ लेने और सरकार बनाने के लिए मनोहर पर्रीकर को
आमंत्रित किया जो कहीं-न-कहीं सरकारिया आयोग, एम. एन. वेंकटचेल्लैय्या की अध्यक्षता वाले संविधान समीक्षा आयोग और
पूँछी आयोग से लेकर विभिन्न मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए
दिशा-निर्देशों की अनदेखी करता है।
गोवा वाली स्थिति ही मणिपुर में भी उत्पन्न होती दिखाई पड़ रही है
जहाँ भाजपा काँग्रेस से ही नेतृत्व उधार लेकर और काँग्रेसी रणनीति के सहारे उसी को
मात देने की कोशिश में सफल रही। इसी प्रकार मणिपुर की
राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला का यह कहना कि “यह राज्यपाल होने के नाते
उनका कर्तव्य है कि वो दावों की सच्चाई परखें। इसीलिए वो एक सामान्य कागज को ‘समर्थन पत्र’ के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगी जब तक वो एनपीपी विधायकों से खुद नहीं
मिल लेतीं।” यह बोम्मई वाद,1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए इस रूख के विपरीत है :“किसी भी मुख्यमंत्री को बहुमत का समर्थन प्राप्त है अथवा नहीं, इसका निर्धारण न तो राज्यपाल के समक्ष विधायकों के पैरेड से होगा और
न ही राजभवन में शक्ति-प्रदर्शन के ज़रिए। बहुमत का निर्धारण विधानसभा के फ़्लोर
पर होगा।” बिहार से संबंधित रामेश्वर प्रसाद वाद,2005 में तो इससे भी एक क़दम आगे बढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि
राज्यपाल का प्राथमिक दायित्व सरकार के गठन को सुनिश्चित करना है, न कि विधायकों की खरीद-फरोख्त के नाम पर सरकार के गठन में बाधा
उत्पन्न करना।” निश्चय
ही इस प्रकरण में गोवा और मणिपुर के राज्यपाल का आचरण संवैधानिक अभिसमय का
अतिक्रमण करता हुआ संवैधानिक एवं वैधानिक अपेक्षाओं के विपरीत है।
सरकार
बनाने के पक्ष में भाजपा के तर्क:
दोनों जगहों पर सरकार
बनाने के पीछे भाजपा-नेतृत्व के द्वारा यह तर्क दिया जा रहा है कि उसे काग्रेस की
तुलना में अधिक मत मिले हैं जो पब्लिक मैंडेट के उसके पक्ष में होने का प्रमाण है।
गोवा में कांग्रेस को 28.4 प्रतिशत
मतों के साथ 17 सीटें मिली हैं, जबकि भाजपा को 32.5 प्रतिशत
मत मिलने के बावजूद केवल 13 सीटें। मणिपुर में भी कांग्रेस
को 35.1 प्रतिशत वोटों के साथ 28 सीटें मिली, जबकि भाजपा को 36.3 प्रतिशत
सीटों के बावजूद 21 सीटें। यह तर्क नहीं कुतर्क है क्योंकि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में
निम्न सदन के लिए ‘फर्स्ट पास्ट, द पोस्ट’ सिस्टम को अपनाया गया है जिसके अंतर्गत उस उम्मीदवार को विजयी
घोषित किया जाता जिसे उस निर्वाचन-क्षेत्र में सबसे ज्यादा मत हासिल हुआ है और फिर
जिस राजनीतिक दल को सदन में जितनी सीटें हासिल होती हैं, बहुमत का निर्धारण उसी के
परिप्रेक्ष्य में होता है, न कि किसी दल द्वारा प्राप्त मतों के प्रतिशत के पारिप्रेक्ष्य में।
भाजपा
का यह भी तर्क है कि खंडित जनादेश और त्रिशंकु विधानसभा की इस स्थिति में उस
चुनाव-पश्चात् गठबंधन को सरकार बनाने के आमंत्रित करना स्वाभाविक है जो बहुमत को
लेकर राज्यपाल को आश्वस्त कर पाने की स्थिति में होता है. गोवा के सन्दर्भ में
भाजपा चुनाव-पश्चात् गठबंधन बना पाने में समर्थ रही और इस सन्दर्भ में उसने
राज्यपाल को लिखित दस्तावेज सौंपे, जबकि कांग्रेस ऐसा कर पाने में असमर्थ रही.
यहाँ तक कि कांग्रेस अपने विधायक दल का नेता तक चुन पाने में असमर्थ रही. अरुण
जेटली ने अपने ब्लॉग में यह तर्क दिया कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब राज्यपाल ने
सबसे बड़े राजनीतिक दल के बजाय बहुमत का समर्थन दिखाने वाले गठबंधन को सरकार बनाने
के लिए आमंत्रित किया है. सन् 2002 में जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस(28) के
सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरने के बावजूद पीडीपी(15) एवं कांग्रेस(21) के
चुनाव-पश्चात् गठबंधन को, सन् 2005 में झारखण्ड में भाजपा द्वारा तीस सीटें जीतने के
बावजूद सत्रह विधायकों वाले झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (JMM)
के नेतृत्व वाले चुनाव-पश्चात् गठबंधन को और
सन् 2013 में दिल्ली में भाजपा के 31 सीटों के साथ सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप
में उभरने के बावजूद आप को सरकार गठन के लिए आमंत्रित किया गया. इसी प्रकार 1952
में मद्रास, 1967
में राजस्थान और 1982 में हरियाणा में ऐसा ही हुआ. राज्यपाल के निर्णय के साथ-साथ
भाजपा द्वारा सरकार बनाने के निर्णय का बचाव करते हुए उन्होंने मार्च,1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन
द्वारा जारी उस विज्ञप्ति का हवाला दिया जिसे उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को
सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हुए जरी किया था। ऐसा माना जा रहा है कि गोवा एवं मणिपुर के राज्यपाल ने इसी मॉडल का
अनुकरण किया।
के.
आर. नारायणन मॉडल,1998:
मार्च,1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति
के. आर. नारायणन द्वारा जारी विज्ञप्ति में कहा गया कि “ आम चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल या चुनाव-पूर्व गठबंधन
को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में राष्ट्रपति या राज्यपाल सबसे बड़े
राजनीतिक दल या गठबंधन के नेता को सरकार बनाने का पहला अवसर प्रदान करे, शर्त यह
है कि इस प्रकार नियुक्त प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री निर्धारित समय के भीतर सदन
के पटल पर बहुमत साबित करना होगा। यह प्रक्रिया सभी स्थितियों में नहीं अपनाई
जायेगी क्योंकि एस असंभव है कि सबसे बड़े राजनीतिक दल/ गठबंधन से भिन्न राजनीतिक
दलों या गठबंधन का समूह एक इकाई के रूप में सबसे बड़े राजनीतिक दल /गठबंधन को
संख्या-बल की दृष्टि से पीछे छोड़ दे। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति उस दल/गठबंधन के
नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ के लिए आमंत्रित करेगा जो बहुमत के समर्थन के
दावों के सन्दर्भ में संतुष्ट करने की स्थिति में हो।"
स्पष्ट है कि उन्होंने इस संवैधानिक अभिसमय को यह कहते हुए प्रश्न के
दायरे में खड़ा किया कि यह सार्वकालिक फार्मूला नहीं हो सकता है क्योंकि कई बार ऐसा
संभव है कि ऐसे सांसदों का समूह संख्या की दृष्टि से उस दल या गठबंधन को पीछे छोड़
दे जो चुनाव के बाद सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरकर सामने आया है. ऐसी
स्थिति में सबसे बड़ा राजनीतिक दल या गठबंधन न होने के बावजूद ऐसे गठबंधन को सरकार
बनाने के लिए अधिकृत करना कहीं अधिक उचित होगा. ऐसा माना जाता है कि 1996 में
तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल सिंह के द्वारा सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता अटल
बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने और संसद में बहुमत साबित करने
में विफल रहने पर तेरह दिनों के बाद उनके द्वारा इस्तीफा दिए जाने के अनुभवों के
आलोक में ‘नारायणन मॉडल’ विकसित हुआ. इसी फार्मूले के तहत् 1998 में कांग्रेस एवं
संयुक्त मोर्चा ने सरकार बनाने के दावे से परहेज का निर्णय किया जिससे भाजपा के
नेतृत्व में सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ.
कांग्रेस की जिम्मेवारी:
दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में काँग्रेस का रूख भी कहीं कम विवादास्पद
नहीं रहा. चुनाव-परिणाम
के दिन ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा गोवा और मणिपुर सहित चार राज्यों में
सरकार गठन के निश्चित संकेतों के बावजूद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व त्वरित
प्रतिक्रिया दे पाने, समय रहते हुए सरकार गठन की दिशा में पहल करने और इसके लिए त्वरित
प्रतिक्रिया दे पाने में असफल रहा, जबकि गोवा फॉरवर्ड पार्टी(GFP) के साथ पहले कांग्रेस की ही बातचीत शुरू हुई थी. इसने दिगंबर कामत को
मुख्यमंत्री बनाये जाने की शर्त पर कांग्रेस को समर्थन देने के स्पष्ट संकेत भी
दिए थे, पर आंतरिक गुटबाज़ी की वजह से कांग्रेस ने
टालमटोल भरा रवैया अपनाया. इससे पहले कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व गोवा फॉरवर्ड
परत्य की शर्तों पर कोई निर्णय ले पाता, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के द्वारा डील को अंतिम रूप दिया जा चुका था.
जब कांग्रेस के हाथ से चीजें निकल गई, तो उसने कोर्ट के माध्यम से स्थिति को अपने पक्ष में मोड़ना चाहा, पर तबतक काफी देर हो चुकी
थी. वह कोर्ट से यह तो अपेक्षा कर रही थी कि कोर्ट जनादेश को पलटने की भाजपा की
कोशिश को रोकने के लिए गोवा के मुख्यमंत्री के रूप में मनोहर पर्रीकर के
प्रस्तावित शपथ-ग्रहण पर रोक लगाये, पर कोर्ट को इस बात को लेकर आश्वस्त करने के लिए तैयार नहीं थी कि
बहुमत के उसके दावे का आधार क्या है और अगर उसे बहुमत का समर्थन हासिल है, तो उसने राज्यपाल के समक्ष
सरकार बनाने का दावा क्यों नहीं किया? स्पष्ट है कि सरकार न बनाने के लिए कांग्रेस की कहीं कम जिम्मेवारी
नहीं है, भाजपा ने तो कांग्रेस की इस
कमजोरी का फायदा भर उठाया. यह घटनाक्रम कांग्रेस के लिए सबक है. उसे समझना होगा कि
आज राजनीति बदल चुकी है. इसमें न तो राजनीति सुस्ती के लिए कोई जगह है और न ही
पार्टटाइम राजनीति करने वालों के लिए.
कांग्रेस द्वारा याचिका दायर करना:
न्यायालय द्वारा समर्थित सरकारिया आयोग और पूँछी आयोग की रिपोर्ट का
हवाला देते हुए कांग्रेस विधायक दल के नेता चंद्रकांत कावेलकर की ओर से अधिवक्ता
देवदत्त कामत द्वारा दायर की गई याचिका में केंद्र और गोवा को पक्ष बनाते हुए तर्क
दिया गया कि राज्यपाल ने भाजपा-नीत गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने
में जल्दबाजी की क्योंकि वहाँ कोई चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं था. इतना ही नहीं,
जनादेश भी भाजपा के खिलाफ था जिसे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण मिलने वाली
बढ़त के सहारे उसके द्वारा मनमाने तरीके से जोड़-तोड़ करके बहुमत हासिल करने और
जनादेश को पलटने की कोशिश कर रही है. इसीलिए राज्यपाल का फैसला पूरी तरह से मनमाना,
असंवैधानिक और अवैध है. याचिकाकर्ता का कहना था कि विधानसभा-चुनाव में कांग्रेस के
सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरने के कारण राज्यपाल के द्वारा संवैधानिक अभिसमयों
का पालन करते हुए उसके नेता के रूप में उन्हें सरकार गठन के लिए आमंत्रित किया
जाना चाहिए था और सदन के पटल पर बहुमत सिद्ध करने का मौका दिया जाना चाहिए.
याचिकाकर्ता का मानना है कि संवैधानिक अभिसमय संवैधानिक कानून की तरह ही बाध्यकारी
है और इसीलिए इनका अनुपालन अपेक्षित है। चूँकि राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ
न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आती हैं, इसीलिए याचिकाकर्ता ने मनोहर पर्रिकर
के शपथ-ग्रहण पर रोक लगाने और मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा नेता की नियुक्ति के
राज्यपाल के फैसले को निरस्त करने का आग्रह किया.
न्यायपालिका का रूख:
काँग्रेस द्वारा मनोहर पर्रिकर को शपथ-ग्रहण से सम्बंधित राज्यपाल के
निर्णय पर रोक से सम्बंधित याचिका को ख़ारिज करते हुए अदालत ने कहा कि अगर आपके पास
बहुमत था, तो आपने लिखित दस्तावेजों
के साथ राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने की कोशिश क्यों नहीं की? अगर आपको राज्यपाल द्वारा
अवसर न दिए जाने की आशंका थी, तो न मानने की स्थिति में राजभवन के समक्ष धरना के विकल्प को आजमाया
जा सकता था. सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावित शपथ-ग्रहण पर रोक लगाने से इनकार
करते हुए कहा कि आपने सरकार के गठन के लिए सीधे न्यायालय से क्यों संपर्क किया? मुख्य न्यायाधीश जे.एस.
खेहर ने गोवा कांग्रेस विधायक दल (CLP) के नेता चंद्रकांत कावेलेकर के इस रूख को स्वीकार किया कि “सदन के पटल पर
बहुमत-परीक्षण बहुमत साबित करने का सबसे मान्य तरीका है और कौन-सा गठबंधन स्थिर
सरकार प्रदान करने में सक्षम है, इसे
सुनिश्चित करने के लिए "जल्द से जल्द" बहुमत-परीक्षण किया जाना चाहिए. ”शीर्ष अदालत का मानना था कि इसमें उठाए गए सभी मुद्दों का समाधान शक्ति-परीक्षण
कराने के सामान्य निर्देश से हो सकता है. मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता
वाली तीन सदस्यीय पीठ ने निर्देश दिया कि 16 मार्च को दिन में 11 बजे
विधानसभा का सत्र बुलाया जाए. पीठ ने यह स्पष्ट किया कि सदस्यों की शपथ के बाद उस
दिन सदन का एकमात्र कामकाज शक्ति परीक्षण कराना होगा.पीठ ने निर्देश दिया कि चुनाव
आयोग से संबंधित औपचारिकताओं सहित शक्ति-परीक्षण कराने के लिए सभी ज़रूरी चीज़ें 15 मार्च तक पूरी हो जानी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि चूँकि कांग्रेस मनोहर पर्रिकर के बहुमत
के दावे को गलत और पर्रिकर के बजाय बहुमत के समर्थन को अपने पक्ष में सिद्ध कर
पाने के साथ-साथ में असफल रही है, इसीलिए प्रस्तावित शपथ-ग्रहण को नहीं रोका जा सकता है. अदालत ने यह
भी स्पष्ट किया कि राज्यपाल के स्वविवेक की संवैधानिकता का निर्धारण कोर्ट की बजाय
फ्लोर टेस्ट के जरिये होगा.
कोर्ट का कहना था कि “आप हमें बहुमत का समर्थन दिखाइए, हम
उपयुक्त आदेश दे देंगे.” लेकिन, कोर्ट ने याचिकाकर्ता की चिंताओं, कि बहुमत साबित करने के लिए पंद्रह दिनों के समय का इस्तेमाल
प्रतिवादी द्वारा अनुचित तरीके से बहुमत का समर्थन जुटाने के लिए किया जा सकता है, से सहमत होते हुए 48 घंटे
के भीतर बहुमत साबित करने का निर्देश दिया; यद्यपि इस निर्देश के कारण सदन के पटल पर बहुमत-परीक्षण हेतु लेवल
प्लेइंग फील्ड का सृजन संभव नहीं हो सका. फलतः मनोवैज्ञानिक बढ़त भाजपा को प्राप्त
हुई और कांग्रेस बैकफुट पर रही. यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत-परीक्षण के लिए
1998 में उत्तरप्रदेश एवं 2005 में झारखण्ड की तरह कम्पोजिट फ्लोर टेस्ट के मौखिक
आग्रह को नहीं स्वीकारा, लेकिन सदन के पटल पर बहुमत-परीक्षण की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के
सन्दर्भ में याचिकाकर्ता की चिंता से सहमति प्रदर्शित की और दोनों पक्षों को
प्रोटेम स्पीकर का नाम देने के लिए कहा जो नए सदस्यों के शपथ-ग्रहण की प्रक्रिया
और फ्लोर टेस्ट की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित करेंगे.
न्यायपालिका के निर्णय
का औचित्य:
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति हो, तो क्या राज्यपाल अपने विवेक से निर्णय ले सकता है; या फिर उसे एक निश्चित दायरे में रहकर काम करना होता है? संवैधानिक
परम्परा (Constitutional Convention) के मुताबिक गोवा और मणिपुर में कांग्रेस को
पहले आमंत्रित किया जाना चाहिए था और भाजपा को तभी आमंत्रित किया जाना चाहिए था जब
कांग्रेस या तो सरकार बनाने में अपनी असमर्थता जाहिर करती या फिर बहुमत सिद्ध कर
पाने में असफल रहती.
स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न, कि सबसे बड़े राजनीतिक दल
कांग्रेस से विचार-विमर्श किये बिना गोवा के राज्यपाल द्वारा भाजपा विधायक दल के
नेता मनोहर पर्रीकर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए आमंत्रित किया जाना सही
था या नहीं, से बचकर त्रिशंकु विधानसभा
की स्थिति में सरकार-गठन के सन्दर्भ में अस्पष्टता की स्थिति को दूर करने का
ऐतिहासिक अवसर गँवा दिया। सोलह मार्च को बहुमत-परीक्षण का शान्तिपूर्वक संपन्न
होना और मनोहर पर्रीकर द्वारा बहुमत सिद्ध करने में सफलता ने भले ही राज्यपाल के
निर्णय और उनके निर्णय में हस्तक्षेप न करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की भले ही
पुष्टि की हो, पर किसी विशिष्ट दिन सदन के
सत्र को बुलाये जाने और उसके एजेंडे के निर्धारण के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का
निर्णय कहीं-न-कहीं चिंताजनक है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. इससे पूर्व भी झारखण्ड
वाद,2005 और उत्तराखंड वाद,2016 में इसी तरह के निर्णय
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए जा चुके हैं.
अबतक अनुभव:
त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सरकार गठन के क्रम में
राज्यपाल को "एक ऐसे नेता
का चयन करना चाहिए जिसके उसकी दृष्टि में विधानसभा में बहुमत प्राप्त करने की
सम्भावना हो”। ऐसे मुख्यमंत्री को बोम्मई फैसले में निर्धारित दिशानिर्देशों के मुताबिक विधानसभा
के पटल पर निर्दिष्ट अवधि के भीतर अपना बहुमत साबित करना होगा। इस सन्दर्भ में 1960 में गठित पहले प्रशासनिक सुधार आयोग (1st ARC) ने भी राज्यपाल
की विवेकाधीन शक्तियों के इस्तेमाल को शासित करने वाले गाइडलाइन्स के विकास के
सन्दर्भ में अनुशंसा की थी, लेकिन श्रीमती इन्दिरा गाँधी की सरकार ने इसके विरुद्ध
निर्णय लिया. इसने इस बात पर जोर दिया कि
गवर्नर का मुख्य उद्देश्य अपने संवैधानिक दायित्वों के अनुरूप देश के संविधान एवं
विधान का संरक्षण एवं परिरक्षण होना चाहिए। साथ ही, राज्यपाल को निष्पक्ष एवं
पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए, और राज्य के सभी दलों में उसके प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए।
सरकार का गठन और पूँछी आयोग
जस्टिस मदन मोहन पूँछी की अध्यक्षता में केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर
गठित दूसरे आयोग द्वारा अप्रैल,2010 में रिपोर्ट प्रस्तुत किया गया.
इस रिपोर्ट में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल के लिए मार्गदर्शक
सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल को निम्न क्रम में किसी
राजनीतिक दल को सरकार गठन करने के लिए आमंत्रित करना चाहिए:
1. सबसे पहले उस चुनाव-पूर्व गठबंधन को एक राजनीतिक दल मानते हुए सरकार
गठन के लिए आमंत्रित करना चाहिए जिसके पास सबसे बड़ी संख्या है।
2. फिर उस सबसे बड़े राजनीतिक दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया
जाय जिसे अन्य दलों का समर्थन प्राप्त है।
3. फिर चुनाव-पश्चात् गठबंधन को सरकार गठन के लिए आमंत्रितकिया जाना
चाहिए जिसके सभी सहयोगी दल सरकार में शामिल हो रहे हैं.
4. और अंत में, चुनाव-पश्चात् गठबंधन को सरकार गठन के लिए आमंत्रितकिया जाना चाहिए
जिसके कुछ सहयोगी दल सरकार में शामिल हो रहे हैं उर कुछ सहयोगी दल सरकार से बहार
रहकर समर्थन प्रदान कर रहे हैं.
सरकार का गठन और सरकारिया आयोग,1988:
इससे पूर्व 1988 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में रणजीत सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में गठित केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर
पहले आयोग ने उस दल या गठबंधन को
सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने का सुझाव दिया जिसे विधानसभा में बहुमत का
व्यापक समर्थन हासिल है। लेकिन, सदन में यदि किसी दल को बहुमत नहीं है, तो सबसे पहले उस चुनाव-पूर्व गठबंधन, फिर सबसे बड़े राजनीतिक दल, फिर सरकार में शामिल सभी सहयोगी दलों से निर्मित चुनाव-पश्चात्
गठबंधन और अंत में सरकार को बाहर एवं भीतर से समर्थन दे रहे सहयोगी दलों से
निर्मित चुनाव-पश्चात् गठबंधन के नेता को सरकार गठन के लिए आमंत्रित किया जाना
चाहिए जिसके पास सबसे बड़ी संख्या है। इस पूरी प्रक्रिया में गवर्नर से अपेक्षा की
गई कि उसी गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे जिन्हें सदन में बहुमत का समर्थन हासिल
हो।इन्हीं सुझावों को सन् 2000 में एम. एन. वेंकटचेलैय्या की अध्यक्षता में गठित संविधान समीक्षा आयोग के द्वारा दुहराते हुए कहा गया कि बहुमत का परीक्षण सरकार गठन के तीस
दिनों के भीतर होना चाहिए।
न्यायिक निर्णयों में देखा जाय, तो बोम्मई केस,1993 में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यह तो बतलाता है कि किसी भी मुख्यमंत्री को सदन का विश्वास प्राप्त है अथवा नहीं, इसका निर्धारण सदन के पटल पर शक्ति-परीक्षण के जरिये किया जाना चाहिए; लेकिन यह नहीं बतलाता कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किसे सरकार बनाने का पहला मौका मिलना चाहिए?
न्यायिक निर्णयों में देखा जाय, तो बोम्मई केस,1993 में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यह तो बतलाता है कि किसी भी मुख्यमंत्री को सदन का विश्वास प्राप्त है अथवा नहीं, इसका निर्धारण सदन के पटल पर शक्ति-परीक्षण के जरिये किया जाना चाहिए; लेकिन यह नहीं बतलाता कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किसे सरकार बनाने का पहला मौका मिलना चाहिए?
आगे चलकर रामेश्वर प्रसाद बनाम् भारत संघ वाद, 2006 में
राज्यपाल की निष्पक्षता एवं संवैधानिक शासनादेश (Constitutional Mandate) के
संरक्षण में उनकी भूमिका से सम्बंधित सरकारिया आयोग की सिफारिशों का समर्थन करते
हुए पाँच सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने कहा कि ‘राजभवन राजनीतिक दलों के पार्टी
कार्यालय के विस्तार बनते जा रहे हैं और राजनीतिक दल सरकारिया आयोग द्वारा की गई
सिफारिशों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि वे विशेष समय पर
परिस्थिति का लाभ उठाना चाहते हैं और अनुकूल स्थिति के न रहने पर वे अपने हितों के
संरक्षण के लिए इसकी अनदेखी का हवाला देते हैं.” बिहार से सम्बंधित इस मामले में दिए गए निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट
कहा था कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सबसे पहले सबसे बड़े राजनीतिक दल
को सरकार के गठन का अवसर दिया जाना चाहिए.
इस संदर्भ में पिछले वर्ष अरुणाचल प्रदेश से सम्बंधित नबाम रबिया एवं बमांग फेलिक्स बनाम् अरुणाचल प्रदेश विधानसभा उपाध्यक्ष वाद,2016 में राज्य सरकार के अल्पमत में आने की स्थिति में सदन के पटल पर विश्वास मत हासिल करने हेतु निर्देश से सम्बंधित राज्यपाल के विवेकाधिकार पर सरकारिया और पूँछी कमीशन की अनुशंसाओं का समर्थन किया.
इस संदर्भ में पिछले वर्ष अरुणाचल प्रदेश से सम्बंधित नबाम रबिया एवं बमांग फेलिक्स बनाम् अरुणाचल प्रदेश विधानसभा उपाध्यक्ष वाद,2016 में राज्य सरकार के अल्पमत में आने की स्थिति में सदन के पटल पर विश्वास मत हासिल करने हेतु निर्देश से सम्बंधित राज्यपाल के विवेकाधिकार पर सरकारिया और पूँछी कमीशन की अनुशंसाओं का समर्थन किया.
जून 2005 में राज्यपालों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए भारत के
तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सरकारिया आयोग की सिफारिशों की
प्रासंगिकता पर बल देते हुए कहा: "यद्यपि संविधान द्वारा नियंत्रण एवं संतुलन
के प्रति विशेष सावधानी एवं संवेदनशीलता प्रदर्शित की गयी है, तथापि राज्यपाल से यह अपेक्षा की गई है कि वे केन्द्रीय प्रभुत्व
वाली संघीय व्यवस्था और राज्यों की स्थानीय राजनीति द्वारा उत्पन्न दबाव से परे
रहकर रोज़मर्रा की राजनीति से ऊपर ऊपर उठे और इन सबसे स्वतंत्र रहते हुए अपने
संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करें।”
संवैधानिक अभिसमयों का
महत्व:
संविधान सभा की अंतिम बैठक की अध्यक्षता करते हुए डॉ राजेंद्र प्रसाद
ने भविष्य में संवैधानिक अभिसमयों के विकास के प्रति आशा प्रदर्शित करते हुए कहा:
"लोकतांत्रिक संविधान एवं लोकतांत्रिक संस्थानों के सफल संचालन के लिए उन
लोगों में दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति सम्मान, उसके साथ
सुलह और समायोजन की तत्परता अपेक्षित है जिनके हाथों में इसके संचालन एवं
क्रियान्वयन की जिम्मेवारी है। जिनका संविधान में उल्लेख नहीं होता, उन्हें संवैधानिक अभिसमयों द्वारा पूरा किया जाता है।”
‘संवैधानिक अभिसमय’ के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन
रिकार्ड्स एसोसिएशन बनाम् भारत संघ वाद,1993 में सात सदस्यीय संवैधानिक
बैंच ने यह स्पष्ट किया कि “संवैधानिक कानून और स्थापित संवैधानिक अभिसमय में कोई अंतर नहीं है.
दोनों अपने प्रचालन के क्षेत्र में बाध्यकारी हैं. एक संवैधानिक अभिसमय की
विद्यमानता एवं प्रचालन को लेकर अदालत की संतुष्टि के बाद संवैधानिक अभिसमय देश के
संवैधानिक कानून का हिस्सा हो जाता है और इसे उसी तरीके से लागू किया जा सकता है.” 2016 में भी पाँच न्यायाधीशों के संवैधानिक बैंच ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम् यूनियन ऑफ इंडिया
वाद में शीर्ष अदालत ने ‘संवैधानिक अभिसमय की कानूनी पवित्रता’ पर बल
दिया था।
निष्कर्ष:
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहें, तो राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण और भाजपा द्वारा सरकार का गठन तकनीकी दृष्टि से भले ही असंवैधानिक नहीं हो, पर यह कदम न तो संवैधानिक नैतिकता की दृष्टि से उचित माना जा सकता है और न ही इस कदम को लोकतान्त्रिक जनादेश का सम्मान मन जा सकता है. हाँ, यह जरूर है कि एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को लोकतान्त्रिक नैतिकता का प्रश्न उठाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि भारतीय संवैधानिक इतिहास में संविधान और संवैधानिक नैतिकता के साथ-साथ लोकतान्त्रिक जनादेश का अतिक्रमण सबसे ज्यादा उसी के द्वारा किया गया. इस तरह की अस्वस्थ परिपाटी को विकसित करने का श्रेय तो उसे ही जाता है. दूसरी बात यह कि कांग्रेस को इस बात के लिए कठघरे में खड़ा किया जा सकता है कि उसके नेताओं ने सरकार बनाने के लिए पहलकदमी नहीं दिखाई और समय रहते इस बाबत दावा नहीं पेश कर सके, लेकिन इसका मतलब क्लीन-चिट नहीं है। भाजपा तो बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में उसी काँग्रेसी परम्परा को विकसित कर रही है जिसकी अबतक उसके द्वारा आलोचना की जाती रही। पर, इस प्रकरण ने राज्यपाल की भूमिका को लेकर उठने वाले प्रश्न को एक बार फिर से जीवंत बना दिया।
जहाँ तक न्यायपालिका के निर्णय का प्रश्न है, तो अदालत का यह तर्क कि संवैधानिक अभिसमय उसी स्थिति में लागू होगा जब सबसे बड़े राजनीतिक दल के पास सरकार बनाने के लिए अपेक्षित समर्थन हो, कहीं-न-कहीं चिंतित करने वाला है. यह हमें वापस उसी युग में ले जाएगा जब राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का मनमाने तरीके से केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक हित में इस्तेमाल करते थे. पीठ का यह भी मानना था कि अगर चुनाव-पश्चात् गठबंधन के पास सदन में बहुमत का दावा किया जा रहा है, तो राज्यपाल से सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण की अपेक्षा उचित नहीं है. अदालत का यह रूख उसके निर्णय से असहमति की गुंजाइश को जन्म देता है. लेकिन, सरकार बनाने के लिए सबसे पहले सबसे बड़े राजनीतिक दल को आमंत्रित करने के सिद्धांत को पुनर्बहाली के प्रति अदालत की अनिच्छा इस निर्णय को विवादास्पद बनाती है। इसमें संदेह नहीं है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल त्रिशंकु विधानसभा में सरकार-गठन के लिए आमंत्रित करते हुए संभावित अनिश्चितता को दूर करने के लिए सदन के पटल पर विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दे सकता है, लेकिन सरकार-गठन के लिए आमंत्रित करने का वरीयता-क्रम वही होना चाहिए जो सरकारिया आयोग द्वारा सुझाया गया है और जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई केस, बिहार वाद और अरुणाचल वाद में एकाधिक अवसरों पर उद्धृत करते हुए दुहराया, ताकि जनादेश की उपेक्षा करते हुए राज्यपाल के पदों के राजनीतिक दुरूपयोग और जोड़-तोड़ की राजनीति के सहारे सरकारों के गठन की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सके.
स्पष्ट है कि खंडित जनादेश की सूरत में राज्यों में सरकार बनाने के दिशा-निर्देश और स्पष्ट होने चाहिए। सबसे पहले सबसे बड़े दल या गठजोड़ के नेता को आमंत्रित करने की परंपरा को अगर सांविधानिक बाध्यता में बदला जाए, तो कई तरह के विवादों पर विराम लगाया जा सकता है। गोवा और मणिपुर में भाजपा को यह साबित करने का मौका मिला कि वह पार्टी विथ डिफरेंस है जिसे उसने गँवा दिया। और, इसी के साथ भारतीय लोकतंत्र ने गँवाया स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं को विकसित करने का अवसर, पर इसकी चिंता किसको है: न सत्ता पक्ष को और न ही विपक्ष को। इस क्रम में दो बातों में को ध्यान में रखने की ज़रुरत है और वह यह कि:
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहें, तो राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण और भाजपा द्वारा सरकार का गठन तकनीकी दृष्टि से भले ही असंवैधानिक नहीं हो, पर यह कदम न तो संवैधानिक नैतिकता की दृष्टि से उचित माना जा सकता है और न ही इस कदम को लोकतान्त्रिक जनादेश का सम्मान मन जा सकता है. हाँ, यह जरूर है कि एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को लोकतान्त्रिक नैतिकता का प्रश्न उठाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि भारतीय संवैधानिक इतिहास में संविधान और संवैधानिक नैतिकता के साथ-साथ लोकतान्त्रिक जनादेश का अतिक्रमण सबसे ज्यादा उसी के द्वारा किया गया. इस तरह की अस्वस्थ परिपाटी को विकसित करने का श्रेय तो उसे ही जाता है. दूसरी बात यह कि कांग्रेस को इस बात के लिए कठघरे में खड़ा किया जा सकता है कि उसके नेताओं ने सरकार बनाने के लिए पहलकदमी नहीं दिखाई और समय रहते इस बाबत दावा नहीं पेश कर सके, लेकिन इसका मतलब क्लीन-चिट नहीं है। भाजपा तो बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में उसी काँग्रेसी परम्परा को विकसित कर रही है जिसकी अबतक उसके द्वारा आलोचना की जाती रही। पर, इस प्रकरण ने राज्यपाल की भूमिका को लेकर उठने वाले प्रश्न को एक बार फिर से जीवंत बना दिया।
जहाँ तक न्यायपालिका के निर्णय का प्रश्न है, तो अदालत का यह तर्क कि संवैधानिक अभिसमय उसी स्थिति में लागू होगा जब सबसे बड़े राजनीतिक दल के पास सरकार बनाने के लिए अपेक्षित समर्थन हो, कहीं-न-कहीं चिंतित करने वाला है. यह हमें वापस उसी युग में ले जाएगा जब राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का मनमाने तरीके से केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक हित में इस्तेमाल करते थे. पीठ का यह भी मानना था कि अगर चुनाव-पश्चात् गठबंधन के पास सदन में बहुमत का दावा किया जा रहा है, तो राज्यपाल से सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण की अपेक्षा उचित नहीं है. अदालत का यह रूख उसके निर्णय से असहमति की गुंजाइश को जन्म देता है. लेकिन, सरकार बनाने के लिए सबसे पहले सबसे बड़े राजनीतिक दल को आमंत्रित करने के सिद्धांत को पुनर्बहाली के प्रति अदालत की अनिच्छा इस निर्णय को विवादास्पद बनाती है। इसमें संदेह नहीं है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल त्रिशंकु विधानसभा में सरकार-गठन के लिए आमंत्रित करते हुए संभावित अनिश्चितता को दूर करने के लिए सदन के पटल पर विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दे सकता है, लेकिन सरकार-गठन के लिए आमंत्रित करने का वरीयता-क्रम वही होना चाहिए जो सरकारिया आयोग द्वारा सुझाया गया है और जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई केस, बिहार वाद और अरुणाचल वाद में एकाधिक अवसरों पर उद्धृत करते हुए दुहराया, ताकि जनादेश की उपेक्षा करते हुए राज्यपाल के पदों के राजनीतिक दुरूपयोग और जोड़-तोड़ की राजनीति के सहारे सरकारों के गठन की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सके.
स्पष्ट है कि खंडित जनादेश की सूरत में राज्यों में सरकार बनाने के दिशा-निर्देश और स्पष्ट होने चाहिए। सबसे पहले सबसे बड़े दल या गठजोड़ के नेता को आमंत्रित करने की परंपरा को अगर सांविधानिक बाध्यता में बदला जाए, तो कई तरह के विवादों पर विराम लगाया जा सकता है। गोवा और मणिपुर में भाजपा को यह साबित करने का मौका मिला कि वह पार्टी विथ डिफरेंस है जिसे उसने गँवा दिया। और, इसी के साथ भारतीय लोकतंत्र ने गँवाया स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं को विकसित करने का अवसर, पर इसकी चिंता किसको है: न सत्ता पक्ष को और न ही विपक्ष को। इस क्रम में दो बातों में को ध्यान में रखने की ज़रुरत है और वह यह कि:
- ऐसी स्थिति में सरकार का गठन कांग्रेस या भाजपा किसी भी दल के द्वारा किया जाय, बिना लेन-देन के यह संभव नहीं है.
- ऐसी स्थिति में अक्सर केंद्र में सत्तारूढ़ दल अक्सर बढ़त की स्थिति में होता है.
बस फर्क यह है
कि भाजपा ने जल्दबाजी करके कहीं-न-कहीं अपने को बैकफुट पर कर लिया.
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