Tuesday, 21 March 2017

अरुणाचल संकट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

      
               अरुणाचल संकट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु के रूप में 
मई,2016 में उत्तराखंड मामले में और जुलाई,2016 में अरुणाचल मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भारतीय संवैधानिक इतिहास के साथ-साथ केंद्र-राज्य संबंधों में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु बनने जा रहा है. आने वाले समय में इसकी चर्चा उसी तरह होगी जिस तरह आज तक सरकारिया आयोग की अनुशंसाओं और बोम्मई केस,1994 में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए फैसले की होती रही है. कई मायने में ये फैसले इनसे भी बढ़कर हैं, सन्दर्भ चाहे राज्यपाल की अधिकारिता और संविधान के दायरे को लांघकर उनकी अति-सक्रियता का हो या फिर स्पीकर की राजनीतिक पक्षधरता का.
उत्तराखंड संकट की पृष्ठभूमि में भारत के राजनैतिक, संवैधानिक एवं न्यायिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब पहले उत्तराखंड उच्च न्यायालय और फिर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति-शासन को असंवैधानिक घोषित करते हुए एक बर्खास्त-सरकार को पुनर्बहाल किया है. केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति-शासन के पक्ष में राष्ट्रपति के समाधानका जो तर्क प्रस्तुत किया, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इस तर्क के साथ उसे एक सिरे से ख़ारिज कर दिया कि लोग ग़लत फ़ैसले ले सकते हैं, चाहे वे राष्ट्रपति हों या जज। ये कोई राजा का फ़ैसला नहीं है जिसकी न्यायिक समीक्षा नही हो सकती है। स्टिंग ऑपरेशन के सन्दर्भ में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कहा कि अगर राष्ट्रपति भ्रष्टाचार के आरोपों के आधार पर राज्यों में अपना शासन थोपने लगेंगे, तो कोई राज्य सरकार पांच मिनट से ज्यादा नहीं चल पाएगी। जब केंद्र सरकार फ़ैसले से पहले राष्ट्रपति-शासन हटाकर नई सरकार नहीं बनाने के सन्दर्भ कोई आश्वासन देने को तैयार नहीं हुई, उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस के. एम. जोसफ़ और जस्टिस वी. के. बिष्ट की बेंच ने अपना फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले में केंद्र सरकार को निष्पक्ष होना चाहिए, लेकिन वो प्राइवेट पार्टी जैसा व्यवहार कर रही है। ......अगर केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन ख़त्म कर सरकार बनाने की कोशिश करती है, तो ये न्याय का उपहास होगा।निश्चय ही अरुणाचल के घटनाक्रमों के आलोक में उत्तराखंड उच्च न्यायालय अतिरिक्त सतर्कता बरत रहा था. उत्तराखंड हाइकोर्ट ने बाग़ियों की याचिका खारिज करते हुए स्पीकर के फ़ैसले पर मुहर लगाई और कहा  कि उन विधायकों ने अपने कृत्य से ख़ुद ही अपने मूल राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ दी. उत्तराखंड हाईकोर्ट ने महीने भर से कम समय में यह साहसिक और ऐतिहासिक फैसला किया है जिसकी बाद में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी पुष्टि की गई। न्यायपालिका के इतिहास में उत्तराखंड हाईकोर्ट का आदेश आने वाले समय में तमाम फैसलों का बुनियाद बनेगा और विरोधी दलों की राज्य सरकारों में राजनीतिक और संवैधानिक आत्मविश्वास पैदा करेगा।
अरुणाचल के मामले में  तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नयी सरकार को असंवैधानिक घोषित करते हुए पुरानी सरकार को पुनर्बहाल किया. और यह सब कुछ संभव हुआ है सरकार की बर्खास्तगी के महज सात महीने के भीतर. जस्टिस खेहर ने अपने फैसले में कहा कि जब राजनीतिक-प्रक्रियाओं की हत्या हो रही हो, तो कोर्ट मूक दर्शक बना नहीं रह सकता. इसके पहले ऐसा उदाहरण पाकिस्तान में मिलता है जब 1993 में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमत्री नवाज़शरीफ़ की बर्खास्त सरकार को वहां की सुप्रीम कोर्ट ने बहाल कर दिया था। उस समय 1994 के एस. आर, बोम्मई फैसले में नवाज़शरीफ सरकार की बहाली का भी उदाहरण दिया गया था।
वैसे, न्यायपालिका के ऐसे कदमों की आहट अक्टूबर,2005 में ही सुनायी पड़ने लगी थी जब सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने छह महीने के अन्दर अपना फैसला सुनते हुए बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह की भूमिका पर प्रश्न उठाते हुए राष्ट्रपति-शासन से सम्बंधित राष्ट्रपति के आदेश को असंवैधानिक घोषित किया था.  लेकिन, जबतक यह फैसला आया तब तक चुनाव-प्रक्रिया शुरू होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने दखल देने से इंकार कर दिया।  
सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय इस मामलों में भी अबतक के निर्णय से अलग था कि इस मामले की सुनवाई के दौरान इन घटनाक्रमों में केंद्र सरकार की सक्रिय भूमिका लगातार कोर्ट के निशाने पर रही. आनेवाले समय में सुप्रीम कोर्ट के इन निर्णयों को देखते हुए केंद्र में सत्तारूढ़ कोई भी सरकार किसी प्रांतीय सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले कई कई बार सोचेगी.  
अरुणाचल मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
जस्टिस जगदीश सिंह केहर की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एमबी लोकुर, न्यायमूर्ति पीसी घोष और न्यायमूर्ति एनवी रमन शामिल हैं। उच्चतम न्यायालय ने नबाम रेब़िया एवं बमांग फ़ेलिक्स बनाम भारत संघ एवं अन्य वाद,2016 में सर्वसम्मति से लिए गए अपने ऐतिहासिक फैसले में जनवरी में अरुणाचल प्रदेश की तत्कालीन नबाम तुकी सरकार के गिरने के लिए जिम्मेदार राज्यपाल के सभी फैसलों को रद्द करते हुए  इन्हें संविधान का उल्लंघन करने वाला करार दिया तथा नबाम तुकी के नेतृत्व वाली बर्खास्त कांग्रेसी सरकार को बहाल करने का आदेश दियापरिणामतः कोर्ट की नज़रों में सोलह दिसम्बर और उसके बाद स्पीकर की बर्खास्तगी, राष्ट्रपति शासन और फिर राष्ट्रपति शासन की वापसी की पृष्ठभूमि में कालीखो पूल के नेतृत्व में नयी सरकार का गठन जैसी घटनाएँ घटी ही नहीं. इसीलिये सुप्रीम कोर्ट ने इन घटनाओं पर विचार करने की ज़रुरत ही नहीं महसूस की. 
अरुणाचल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:

A. राज्यपाल की भूमिका
1.    राज्यपाल के विवेकाधिकार के सन्दर्भ में संवैधानिक बेंच ने सरकारिया आयोग और पूँछी आयोग की रिपोर्टों के आलोक में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि अनुच्छेद 163(2) राज्यपाल को असीमित विवेकाधिकार नहीं प्रदान करता है. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल संवैधानिक विवेकाधिकार का इस्तेमाल तभी कर सकते हैं जब वे किसी संवैधानिक सिद्धांत पर आधारित हों, अन्यथा नहीं. लेकिन, यह राज्यपाल के अधिकार से बाहर है कि वह अपनी संवैधानिक स्थिति का इस्तेमाल करते हुए इन राजनीतिक विवादों को सुलझाने की कोशिश करे।
2.    संविधान सभा की बहसों के आलोक में संवैधानिक बेंच ने यह फैसला किया कि संविधान-निर्माताओं ने राज्यपाल को बिना मंत्रीपरिषद की सलाह के विधानसभा के निर्धारित सत्र को पहले बुलाने की शक्ति नहीं प्रदान की है, या फिर दूसरे शब्दों में कहें, तो इस शक्ति से राज्यपाल को वंचित रखा है. इसी पृष्ठभूमि में संवैधानिक बेंच ने अनुच्छेद 163(2) को अनुच्छेद 174 के साथ जोड़कर पढ़ते हुए विधानसभा के सत्र को निर्धारित तिथि 14 जनवरी 2016 से एक महीने पूर्व 16-18 दिसम्बर 2015 पहले बुलाने से सम्बंधित राज्यपाल के आदेश को असंवैधानिक मानते हुए खारिज कर दिया.
3.    अनुच्छेद 163 को अनुच्छेद 175 के साथ पढ़ते हुए संवैधानिक बेंच ने (16-18) दिसम्बर, 2015 के दौरान संपन्न अरुणाचल प्रदेश विधानसभा के छठे सत्र की कार्यवाही के एजेंडे के निर्धारण से सम्बंधित राज्यपाल के निर्देश को भी असंवैधानिक माना.
4.    फलतः नौ दिसम्बर, 2015 को राज्यपाल द्वारा जारी निर्देश का अनुपालन करते हुए  जो भी कार्यवाही की गई, उसे खारिज कर दिया गया.
5.    संविधान के दायरे में रहते हुए गवर्नर राष्ट्रपति को समय-समय पर सूचना देते रहें, इसमें कुछ गलत नहीं है; लेकिन, खुद राजनीति में कूदना नैतिक रूप से और संवैधानिक तौर पर गलत है।
6.    सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत दल-बदल कानून का जिक्र करते हुए कहा कि दो तिहाई विधायकों के अलग होने पर ही उसे मान्यता दी जा सकती है। साठ सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 47 विधायक निर्वाचित हुए थे। इनमें से 21 ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। यह संख्या कानूनी रूप से उन्हें अलग गुट की मान्यता प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अतः अवैध रूप से अलग हुए गुट को लेकर राज्यपाल की कार्रवाई को संवैधानिक रूप से मंजूरी नहीं दी जा सकती।
7.    अनुच्छेद 356 के तहत संवैधानिक ढांचे पर चोट पहुंचने का मामला बिलकुल अलग है। लेकिन, दल-बदल कानून का समस्त दायरा विधानसभा में निहित है। इसके लिए संविधान अंतिम उपाय है। जैसा कि 14 विधायकों ने अपनाया और सदस्यता समाप्त करने के आदेश को गुवाहाटी हाई कोर्ट में चुनौती दी और स्थगनादेश हासिल किया।
8.    पहले निर्णय से लेकर तीसरे निर्णय के मद्देनजर 15 दिसम्बर 2015 की यथास्थिति बहाल करने का आदेश दिया जाता है।
9.    जस्टिस मदन बी. लोकुर ने अपने ऑब्जर्वेशन में कहा कि राज्यपाल ने 14 दिसम्बर,2015 को मंत्रीपरिषद द्वारा भेजे गए प्रस्ताव की अनदेखी कर निर्वाचित सरकार को नीचा दिखलाया है क्योंकि इससे इस बात का संकेत मिलता है कि उस दिन राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच संवाद पूरी तरह से टूट चुका था, जबकि इस स्थिति से बचने के लिए संविधान-निर्माताओं ने उत्तरदायी सरकार की संकल्पना को स्वीकार किया था. असंवाद की इस स्थिति में उत्पन्न गतिरोध को दूर करने की दिशा में पहल की जिम्मेवारी राज्यपाल की बनती है.
इस निर्णय का महत्व इस बात में है कि इसने राज्यपाल के विवेकाधिकार के बारे में अस्पष्टता को दूर किया जिसकी लम्बे समय से प्रतीक्षा थी और जो भविष्य में ऐसी ही स्थितियों में राज्यपाल पर  बाध्यकारी होगा. भविष्य में राजभवन राजनीति का अड्डा नहीं बनेगा या राजभवन से राजनीति नहीं की जा सकेगी. संवैधानिक बेंच की नज़रों में राज्यपाल का व्यवहार केवल निष्पक्ष होना ही नहीं चाहिए, बल्कि यह स्पष्ट रूप से निष्पक्ष प्रतीत भी होना चाहिए। उत्तर-पूर्व के छोटे से राज्य अरुणाचल प्रदेश की निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने के मसले पर संविधान पीठ का फैसला राज्यपाल के अधिकारों के बारे में मील का पत्थर साबित होगा। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि उत्तराखंड हो या अरुणाचल, दोनों ही मामलों में राज्यपाल कोर्ट के फैसले के बाद भी अपने पद पर बने रहे, तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का नैतिक मतलब क्या रह जाता है?
B.  स्पीकर की भूमिका:
इस फैसले का महत्व यहीं तक सीमित नहीं है. इस फैसले में स्पीकर की भूमिका को भी पुनर्परिभाषित किया गया है जिसका तत्काल प्रभाव उत्तराखंड मामले में देखने को मिला है जहाँ दलबदल के सन्दर्भ में उत्तराखंड विधानसभा के स्पीकर का निर्णय भी इस फैसले के आलोक में प्रश्न के घेरे में खड़ा किया गया है. इस मामले में अनुच्छेद 179(c) को दलबदल कानून में स्पीकर की भूमिका से जोड़कर देखते हुए इसकी पुनर्व्याख्या की गई है:
1.    जस्टिस दीपक मिश्रा ने अनुच्छेद 179(c) की व्याख्या करते हुए कहा कि संविधान निर्माताओं की यह अपेक्षा थी कि स्पीकर या डिप्टी स्पीकर की बर्खास्तगी-प्रस्ताव पर मतदान के दौरान विधानसभा के सभी सदस्य मतदान में भाग लें. इसीलिये यदि विधानसभा के समक्ष स्पीकर को हटाये जाने का प्रस्ताव लंबित है, तो स्पीकर इस प्रस्ताव के निपटारे तक दलबदल से सम्बंधित मामलों में निर्णय नहीं सुनायेंगे.
2.    अनुच्छेद 179 स्पीकर को हटाने से सम्बंधित मसले में राज्यपाल को दखल का अधिकार नहीं देता है। विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को हटाने का काम विधायकों का है। अगर राज्यपाल इन सब बातों में दखल देता है, तो उसके हर कदम को संदेह की नजर से देखा जाएगा।
3.    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि विधानसभा की कार्यवाही का एजेंडा तय करना राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। फिर भी, राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा ने विधानसभा-सत्र का एजेंडा तय किया।
4.    चौदह सदस्यों की सदस्यता रद्द करने से सम्बंधित स्पीकर के निर्णय को गोहाटी उच्च न्यायालय द्वारा अवैध करार दिए जाने को  सही माना क्योंकि निर्णय देते वक़्त स्पीकर के द्वारा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का पालन नहीं किया.
5.    संवैधानिक बेंच ने स्पीकर द्वारा चौदह सदस्यों की सदस्यता रद्द किये जाने के आधार पर राज्यपाल के कृत्य के औचित्य को स्वीकार करने की बजाय कहा कि अगर स्पीकर ने चौदह सदस्यों की सदस्यता रद्द कर कुछ गलत किया है, तो उच्च न्यायालय में इसे चुनौती देते हुए इसका निराकरण संभव है. इस सन्दर्भ में राज्यपाल कुछ नहीं कर सकते हैं. 
इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो हम यह कह सकते है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला की संविधान सभा की बहसों और दलबदल कानून के आलोक में स्पीकर की भूमिका को पुनर्परिभाषित करता हुआ राज्यपाल-स्पीकर टकराव की संभावनाओं को टालता हुआ संविधान द्वारा निर्धारित दायरे में रहकर अपनी-अपनी जिम्मेवारियों के निर्वाह के मार्ग को प्रशस्त करता है.


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