Sunday 23 April 2017

यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBIS):समग्र विश्लेषण

           यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBIS)
मुख्य आर्थिक सलाहकार(CEA) अरविन्द सुब्रमण्यम ने देश के प्रत्येक  नागरिक को उसकी बुनियादी जरूरतों के लिए जरूरी न्यूनतम धनराशि दिए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि यूनिवर्सिल बेसिक इनकम एक ऐसा विचार है जिसका वक्त शायद आ गया है; फौरन अमल के लिए नहींलेकिन कम-से-कम गंभीर सार्वजनिक विचार-विमर्श के लिए।” अरविंद सुब्रमण्यम का मानना है कि मौजूदा गरीबी-उन्मूलन योजनाओं के मुकाबले इस स्कीम को चलाना आसान होगा और इसे लागू करने से गरीबों की संख्या मौजूदा 22 % से घटकर आधा फीसद के स्तर पर आ जाएगी। आर्थिक समीक्षा,2016-17 में तो इस पर एक पूरा अध्याय समर्पित है।
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर से बेसिक इनकम स्कीम की ओर:
अबतक सरकारी सहायता केवल जरूरतमंद लोगों को दी जाती रही हैलेकिन वोटबैंक की राजनीति के कारण पिछले तीन-चार दशकों के दौरान सब्सिडी का बोझ बढ़ता चला गया और इसी के साथ लीकेज की समस्या भी गंभीर होती चली गयी। वर्तमान में करीब-करीब जीडीपी के 5% लागत से लगभग 950 योजनायें और उप-योजनायें प्रत्यक्षतः या परोक्षतः गरीबी-उन्मूलन के नाम पर चलायी जा रही हैं जिनमें ग्यारह सबसे बड़ी योजनाओं पर तकरीबन कुल रकम का 50% हिस्सा खर्च होता है। लेकिन, सब्सिडी के जरिये जो सहायता जरूरतमंदों तक पहुँचाने की कोशिश की जा रही है, वह सहायता संसाधनों के इष्टतम दोहन न हो पाने के कारण अपेक्षित मात्रा में गरीबों तक नहीं पहुँच  पा रही है। इसकी पुष्टि आर्थिक समीक्षा,2016-17 से भी होती है, जिसमें 2011-2012 की गणना के आधार पर में कहा गया है कि आबादी के सबसे गरीब 40 फीसदी लोगों का 40 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के साथ सरकार पर अपने खर्चों के यौक्तीकरण एवं सब्सिडी-सुधारों हेतु दबाव बढ़ा उसने  इस दिशा में पहल करते हुए सब्सिडी को तर्कसंगत एवं न्यायसंगत बनाने की कोशिश की। फलतः सब्सिडी में कमी के साथ-साथ इसके डिलीवरी मैकेनिज्म में भी सुधार करते हुए गैर-नकद अंतरण की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण(DBT) की दिशा में पहल की गई और इसके लिए जैम ट्रिनिटी (JAM Trinity) पर बल दिया गया। इस प्रकार इसने उस मैकेनिज्म के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जिसकी पृष्ठभूमि में जन-कल्याण से जुड़ी समस्त सरकारी योजनाओं को समाप्त कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम (UBIS) को लागू करने की बात की जा रही है।

यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBIS) से आशय:

अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि यूनिवर्सिल बेसिक इनकम की अवधारणा क्या है? यूनिवर्सिल बेसिक इनकम की अवधारणा अपने मूल रूप में सभी नागरिकों के लिए वित्तीय सहायता के रूप में प्रति माह उस न्यूनतम राशि के बिना शर्त अंतरण पर बल देती है जिससे वो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें और  जिससे उनके लिए गरिमामय जीवन संभव हो सके। यह रकम कितनी होगी, आर्थिक समीक्षा में इसके बारे में कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया गया है; लेकिन यह उम्मीद की जा रही है कि इसका निर्धारण गरीबी-रेखा के मानकों के अनुरूप किया जाएगा। मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने यह संकेत दिया है कि इस स्कीम(UBIS) के तहत् वित्तीय सहायता के रूप में देश के सभी नागरिकों की बजाय आबादी के एक हिस्से को बिना शर्त (10-15) हजार रुपये की राशि सालाना अंतरित की जा सकती है। साथ ही, इस स्कीम के लागू होने के बाद गरीबी-उन्मूलन से प्रत्यक्षतः या परोक्षतः सम्बंधित सरकार द्वारा चलायी जा रही केंद्र द्वारा प्रायोजित सभी केंद्रीय क्षेत्रक योजनाओं(CSS-CSS) को बंद कर दिया जाएगा और सभी तरह की सब्सिडी खत्म कर दी जाएगी। मनरेगा के रूप में कुछ इसी तरह की सामाजिक सुरक्षा योजना पिछली यूपीए सरकार ने भी शुरू की थी, बस फर्क यह है कि:

1.  मनरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ दिनों के लिए निर्धारित मजदूरी पर रोजगार की गारंटी देता है, जबकि यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम सालों भर दी जाने वाली न्यूनतम आय की गारंटी है।
2.  मनरेगा गारंटी तो देता है, पर अधिकार नहीं; जबकि विदेशों में बेसिक इनकम को लोगों के अधिकार के रूप में सुनिश्चित किया गया है।
उम्मीद की जा रही है कि यह स्कीम मनरेगा की तरह न सिर्फ आर्थिक-सामाजिक तौर पर गेमचेंजर साबित हो सकती हैबल्कि राजनीतिक तौर पर भी इसका दूरगामी असर हो सकता है।

यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBISका तर्काधार:

आर्थिक समीक्षा में सामजिक न्याय को सुनिश्चित करनानागरिकों को गरिमामय जीवन उपलब्ध करानागरीबी में कमीरोजगार-सृजन एवं श्रम-बाजार में लोचशीलता के जरिये लोगों को कार्य-विकल्प उपलब्ध करानाव्यापक प्रशासनिक दक्षता और वित्तीय समावेशन को इस स्कीम का लक्ष्य बतलाया गया है और संकेतों में कहा गया है कि वर्तमान में चलायी जा रही लोक-कल्याणकारी योजनाओं की तुलना में यह स्कीम इन लक्ष्यों की प्राप्ति में कहीं अधिक सहायक है। इसमें यह भी स्वीकार किया गया है कि राज्य सरकारों को ट्रांसफर की गई बड़ी रकम आर्थिक संवृद्धि या उपभोग में उतनी सहायक नहीं है। साथ ही, चूँकि पीडीएस और मनरेगा जैसी योजनाओं से हर साल 1.75 लाख करोड़ रुपये (लगभग जीडीपी का 1%) के कालेधन के सृजन में सहायक हैंइसीलिये इन स्कीमों को बंद कर उसकी जगह पर यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम की अवधारणा को लागू किया जाना चाहिए।
इसी आलोक में इन योजनाओं को प्रतिस्थापित करने वाली यह स्कीम अबतक की योजनाओं से इस मायने में भिन्न है कि यह एक और योजना नहींबल्कि अकेली ऐसी योजना होगी जिसके जरिये लाभार्थियों तक लाभ की राशि सीधे पहुँचाई जाएगी। इसके बारे में कहा जा रहा है कि यह अपवर्जन त्रुटियों (Exclusion Errorsको कम-से-कम करके निर्धनतम लोगों को लाभान्वित करेगी। साथ हीइससे गरीब के साथ-साथ मध्यवर्ग के लोग भी लाभान्वित होंगे जिससे आय की विषमता भी कम होगी और माँग एवं निवेश में वृद्धि के जरिये आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया भी त्वरित होगी। इसके पक्ष में यह भी तर्क दिया जा रहा है कि नकदी-अंतरण वस्तु-अंतरण (Transfer-In-Kindकी तुलना में बेहतर है क्योंकि यह लाभार्थियों को अपनी ज़रुरत के हिसाब से अंतरित राशि के इस्तेमाल की छूट देता है। साथ ही, इसमें लीकेज, संसाधनों के दुरूपयोग एवं अन्य छुपी हुई लागतों जैसी उन समस्याओं से भी राहत मिलेगी जिसका सम्बन्ध वस्तु-अंतरण से जाकर जुड़ता है। आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 'इस तरह से तैयार की गई स्कीम मौजूदा स्कीमों के प्रशासनिक स्तर में सुधार के साथ-साथ बेहतर जीवन-स्तर को सुनिश्चित कर सकती है।'

पायलट प्रोजेक्ट के रूप में बेसिक इनकम स्कीम(BIS):
प्रोफेसर गाय स्टैंडिंग के द्वारा इस स्कीम का सुझाव संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(UPAसरकार के समय ही दिया गया था और इन्हीं सुझावों के आलोक में इसकी व्यावहारिकता और प्रभावोत्पादकता की संभावनाओं की पड़ताल के लिए इसे देश के तीन जगहों पर पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर लागू किया गया था। इससे संबंधित पहला पॉयलट प्रोजेक्ट इन्दौर(मध्यप्रदेश) की एक पंचायत में लागू किया गयाजहाँ इसके बेहद सकारात्मक परिणाम आए। इंदौर के आठ गाँवों की 6,000 की आबादी के बीच यूनिसेफ की मदद से 2010-2016 के दौरान लागू इस स्कीम के तहत् पुरुषों और महिलाओं को 500 रुपये प्रति माह और बच्चों को 150 रुपये प्रति माह दिए गए जिसके कारण यहाँ के लोगों की आय में इजाफे के साथ-साथ रहन-सहन के स्तर में भी सुधार आया। इस अनुभव से उत्साहित होकर सरकार ने इस योजना को मध्य प्रदेश के ही एक और पंचायत तथा दक्षिणी दिल्ली के एक इलाके में सफलतापूर्वक लागू किया जहाँ इसके परिणाम सकारात्मक रहे।
आर्थिक समीक्षा,2016-17 का सन्दर्भ:
आर्थिक समीक्षा2016-17 के मुताबिकमौजूदा समय में चलाये जा रहे सोशल वेलफेयर स्कीम का लाभ जरूरतमंदों तक समुचित एवं पर्याप्त मात्रा में प्रभावी तरीके से नहीं पहुँच पा रहा है। इसीलिये जरूरतमंदों को इसका लाभ सही समय से मिले और गरीबी-उन्मूलन की प्रक्रिया तेज होइसके लिए इन सामाजिक कल्याण योजनाओं की जगह पर यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBIS) की सिफारिश की गई। इसके तहत् देश के प्रत्येक नागरिक को हर महीने बिना शर्त एक तयशुदा आमदनी सुनिश्चित किया जाएगा। स्पष्टतः इसके पीछे यह सोच काम कर रही है कि अबतक की सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं के लाभों के हस्तांतरण के मामले में निराशाजनक प्रदर्शन के मद्देनजर जरूरतमंदों तक सार्वभौमिक रूप से वित्तीय सहायता की सीधी पहुँच सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है। अगर ऐसा होता है, तो इससे गरीबी-उन्मूलन की प्रक्रिया तेज होगी और गरीबों के लिए बेहतर जिंदगी सुनिश्चित किया जा सकेगा। लेकिन, इसके लिए लाभार्थियों का जनधनआधार और मोबाइल से जुड़ा होना जरूरी होगा। अबतक इस तरह की स्कीम को सार्वभौमिक रूप से किसी भी देश में लागू नहीं किया गया है।  ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले समय में यह स्कीम सरकार की गरीबी-उन्मूलन रणनीति के केंद्र में होगा।
आर्थिक समीक्षा के अनुसारसभी नागरिकों के लिए आमदनी की योजना(UBIS) को लागू करने के लिए दो शर्तों को पूरा करना होगा:
1.  जैम(JAM) अर्थात् जनधनआधार एवं मोबाइल व्यवस्थाताकि सीधे लाभार्थी के खाते में नकदी का हस्तांतरण सुनिश्चित किया जा सके।
2.  इस पर होने वाले खर्च में भागीदारी को लेकर राज्य एवं केंद्र सरकार के बीच करार।
आर्थिक समीक्षा में सर्वाधिक आय वाले 25% लोगों को इसके दायरे से बाहर रखते हुए यह अनुमान लगाया गया कि इस पर जीडीपी के करीब (4-5)% तक का खर्च गरीबी को 22% के वर्तमान स्तर से 0.5% के स्तर पर ला पाने में समर्थ है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यूबीआई चाहे अभी लागू करने का समय न आया होलेकिन इस पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए लेकिन, आर्थिक समीक्षा में सार्वभौमिक बेसिक इनकम स्कीम से शरू हुई चर्चा अन्ततः अपर्याप्त तथा लक्षित नकद हस्तांतरण पर आकर समाप्त होती हैजो कहीं-न-कहीं अनिश्चितता की ओर इशारा करता है।
आर्थिक समीक्षा इसकी सार्वभौमिक प्रकृति की बजाय आंशिक प्रकृति (Partial BIS), या फिर अर्द्ध-सार्वभौमिक इनकम टॉप अप (QUITवाली प्रकृति का संकेत देती है क्योंकि बेसिक इनकम का मतलब उस न्यूनतम आय से है जिसमें व्यक्ति के लिए जीवन जीने की न्यूनतम बुनियादी सुविधायें उपलब्ध हो सकें। इस आय से कम कोई भी आय आंशिक बेसिक इनकम हैन कि बेसिक इनकम। चूँकि बेसिक इनकम के नाम पर प्रदान की जाने वाली राशि के सुरेश तेंदुलकर द्वारा प्रस्तावित गरीबी रेखा के आधे से भी कम रहने की संभावना हैइसीलिए इसे बेसिक इनकम या अर्द्ध बेसिक इनकम कहने की बजाय इनकम-टॉप अप कहना कहीं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
जहाँ तक बेसिक इनकम के कवरेज का प्रश्न हैतो आर्थिक समीक्षा क्रमिक एवं चरणबद्ध तरीके से इस दिशा में बढ़ने की संभावना की ओर संकेत करता है। आरम्भ में 75% आबादी के कवरेज की संभावना व्यक्त करती है। विकल्प के रूप में आरम्भ में इसे केवल महिलाओं या विशिष्ट समूह या फिर शहरी क्षेत्र तक सीमित रखने की सम्भावना भी व्यक्त की गयी है।
इसमें कहा गया है कि जिन जिलों में गरीबी अधिक हैवहाँ राज्य के पास उन्हें मदद देने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं। इसीलिये आर्थिक समीक्षा विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों में इस स्कीम को पायलट प्रॉजेक्ट के रूप में लागू करते हुए इसकी प्रभावोत्पादकता के आकलन का सुझाव देता हैंजबकि केंद्र सरकार रीडीस्ट्रिब्यूटिव रिसोर्स ट्रांसफर (RTT) के एक हिस्से का इस्तेमाल लाभार्थी के खाते में पैसे जमा करने में कर सकती है। इन राज्यों में जम्मू-कश्मीरअसममणिपुरमिजोरमनागालैंडअरुणाचल प्रदेशत्रिपुरासिक्किमहिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड शामिल हैं। इन राज्यों ने जन-धन और आधार वाले खातों को मुहैया कराने में अहम प्रगति की है।
स्पष्ट है कि आर्थिक समीक्षा यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम की रूपरेखा एवं इस सन्दर्भ में विस्तृत कार्ययोजना प्रस्तुत करने की बजाय इस पर और इससे सम्बंधित विभिन्न विकल्पों पर विचार करता हुआ विस्तृत विचार-विमर्श की अपेक्षा करता है।
बेसिक इनकम की अवधारणा की आविर्भावकालीन परिस्थितियाँ:
वैश्विक परिदृश्य में बेसिक इनकम स्कीम उन परिस्थितियों की उपज है जो उदारीकरण एवं वैश्वीकरण ने पिछले साढे तीन दशकों के दौरान सृजित की है। एक ओर जॉबलेस-ग्रोथ की स्थितिदूसरी ओर यंत्रीकरण(Automationके कारण रोजगाररत् श्रमिकों का बेरोज़गार होनाएक ओर आर्थिक संवृद्धि दर का तेज़ होनादूसरी ओर आर्थिक संवृद्धि के लाभों के अपेक्षाकृत असमान वितरण के कारण बढ़ती हुई आर्थिक विषमताएक ओर रोज़गार के सीमित होते अवसर और शिक्षा एवं स्वास्थ्य सहित तमाम बुनियादी सुविधाओं पर सार्वजनिक व्यय में निरंतर कटौतीदूसरी ओर बढ़ते हुए माइग्रेशन के कारण इन पर बढ़ता दबाव और इसकी पृष्ठभूमि में बढ़ता सामाजिक-सांस्कृतिक टकराव: वैश्वीकरण के इन अंतर्विरोधों ने निम्न वर्ग के साथ-साथ मध्य वर्ग के लिए जीने की परिस्थितियों को मुश्किल बनाया और इसकी पृष्ठभूमि में बढ़ते असंतोष को थामने के लिए बेसिक इनकम स्कीम की अवधारणा प्रस्तुत की गई। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन(ILO) की रिपोर्ट के अनुसार आने वाले वर्षों में यंत्रीकरण के कारण लाखों की संख्या में कामगारों के रोज़गार छिनने की संभावना है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें फ़िनलैंड ने प्रायोगिक तौर पर बेसिक इनकम स्कीम को लागू किया है और कनाडा एवं हॉलैंड द्वारा इसे लागू करने की संभावनाओं को तलाशा जा रहा हैयद्यपि स्विट्ज़रलैंड ने पिछले वर्ष इस विषय पर होने वाले जनमत-संग्रह में बेसिक इनकम स्कीम की संभावनाओं को नकार दिया। फ़िनलैंड जैसे देशों में इसे अभी बहुत ही छोटे स्तर पर पायलट प्रोजेक्ट के रूप में सशर्त आय-लाभ स्कीम, जो आय की निर्धारित सीमा(Means Test) और रोजगार की स्थिति(Work Test) से सम्बद्ध हैं, के विकल्प के रूप में शुरू किया गया हैं। स्पष्ट है कि बेसिक इनकम स्कीम का विचार विकसित देशों की उपज है।
जहाँ तक भारत की बात हैतो यहाँ भी उदारीकरण एवं वैश्वीकरण ने जॉबलेस ग्रोथ की स्थिति को जन्म दिया है। जो रोजगार सृजित भी हुए हैं, उनकी रोजगार-उत्पादकता निम्न है, जबकि रहन-सहन लागतें निरंतर बढ़ती चली गई हैं। पिछले तीन वर्षों के दौरान स्थिति और बिगड़ी है। सन् 2013-15 के दौरान भारत में रोज़गार-अवसरों के सृजन की प्रक्रिया के अवरूद्ध ही रही। यहाँ तक कि सन् 2015 में महज़ 1.35 लाख रोज़गार-अवसरों का सृजन हुआ। इस दबाव को और अधिक बढ़ाने का काम किया नोटबंदी के अनौपचारिक अर्थव्यवस्थाविशेष रूप से लघु एवं मध्यम उपक्रमों पर प्रतिकूल प्रभाव नेजिसके कारण रोजगाररत् लोग बेरोज़गार हुए और उन्हें वापस गाँवों की ओर रूख (Reverse Migration) करना पड़ा। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि रिवर्स-माइग्रेशन की प्रक्रिया के कारण नवम्बर-दिसम्बर,2016 में ग्रामीण भारत में मनरेगा के तहत् रोज़गार की माँगों में तीव्र वृद्धि का रूझान दिखाई पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप 2016-17 में मनरेगा मद में ख़र्च के 38,500 करोड़ रूपये के बजटीय आवंटन की तुलना में 58,000 करोड़ रूपये रहने की संभावना है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILOकी वैश्विक रोजगार और सामाजिक दृष्टिकोण’ (World Employment and Social Outlookके नाम से जारी रिपोर्ट बतलाती है कि आज भी हिंदुस्तान में 23 करोड़ लोग अति-निर्धनता (Extreme Povertyके शिकार हैं और उनकी प्रतिदिन की आय 1.90 डॉलर (127 रुपए) से कम हैजबकि 68 करोड़ लोग सामान्य ग़रीबी (Moderate Poverty) के शिकार हैंजिनकी प्रति दिन की आय 3.10 डॉलर (208 रुपए) से कम है। विश्व बैंक का अनुमान है कि अगले दशक के दौरान भारत में यंत्रीकरण (Automationके कारण 69% रोज़गार-अवसरों के छिनने की संभावना है। इस पृष्ठभूमि में भारत में चलायी जानेवाली यह स्कीम दो मायनों में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चलायी जा रही इसी तरह की स्कीम से भिन्न होगी:
1.     यह स्कीम कुछ अफ्रीकी देशों में विदेशी दानकर्ताओं के पैसे से चलाई जा रही है, लेकिन पूर्णतः आंतरिक स्रोतों से वित्त-पोषित होगा।
2.     अगर ऐसा पर हुआ, तो इसे सीमित स्तर की बजाय बड़े पैमाने पर ही करना होगा।
यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBISका प्रस्ताव:
लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गाय स्टैंडिंग के द्वारा इस स्कीम का सुझाव संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(UPAसरकार के समय ही दिया गया था। इन्होंने ही गरीबी-उन्मूलन के लिए चलायी जाने वाली सोशल वेलफेयर स्कीम्स और उन पर दी जाने वाली सब्सिडी के विकल्प के रूप में यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम(UBISका प्रस्ताव तैयार किया है जिसे चरणबद्ध तरीके से लागू किये जाने की सम्भावना है। मूल प्रस्ताव में अमीर-गरीबसबके लिए निश्चित आमदनी सुनिश्चित करने की बात की गई हैपर देखना यह है कि सरकार इसे सबके लिए लागू करती है या फिर उन जरूरतमंदों के लिएजिनके पास कमाई का जरिया नहीं है। उनका अनुमान है कि यह स्कीम सार्वजनिक खर्च में जीडीपी का (3-4)% की वृद्धि सुनिश्चित करेगाजिसकी भरपाई चरणबद्ध तरीके से सब्सिडी की पूरी तरह से समाप्ति के जरिये संभव है। इसके अतिरिक्त सरकार माइनिंग और बड़े प्रोजेक्टों पर अतिरिक्त कर अर्थात् सरचार्ज के जरिये भी संसाधन जुटाने की दिशा में पहल कर सकती है। इस तरह इस स्कीम के कारण सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ से भी बचा जा सकता है।
गाय स्टैंडिंग के अलावा वामपंथी-उदारवादी राजनीतिक चिन्तक फिलिप वैन परिजस ने भी अपनी पुस्तक रियल फ्रीडम फॉर ऑलमें इस अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए कहा कि बेसिक इनकम की अवधारणा अपने मूल रूप में केवल इनकम गारंटी कार्यक्रम को प्रतिस्थापित करने के लिए है। यह निःशुल्क बुनियादी शिक्षा एवं स्वास्थ्य योजनाओं का पूरक है, विकल्प नहीं। यह अच्छे एवं गरिमामय जीवन के स्वप्न को साकार करने में सहायक है जिसकी मुख्य विशेषता इसकी सार्वभौमिक प्रकृति एवं बिना किसी शर्त के राज्य द्वारा इसका व्यक्तिगत स्तर पर नकद-अंतरण है।
स्कीम की व्याख्या को लेकर मतभेद:
विकास-अर्थशास्त्री ज्याँ द्रेज़ ने भारत में इस प्रश्न पर वैचारिक सहमति की ओर इशारा करते हुए उसमें अन्तर्निहित गहरी असहमति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। समाजवादियों के लिए बेसिक इनकम स्कीम उस व्यापक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली का हिस्सा होगी जिसके अंतर्गत सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभालनि:शुल्क शिक्षाअच्छी सार्वजनिक सेवायेंमिड डे मील जैसी कुछ वस्तु-हस्तांतरण योजनायें और सामाजिक समर्थन के अन्य रूप भी शामिल होंगे। लेकिनआर्थिक नव-उदारवादियों के लिए बेसिक इनकम स्कीम पीडीएस और मनरेगा जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर दी जा रही सब्सिडी और इस पर होने वाले खर्चों में कटौती का एक प्रभावी एवं सशक्त माध्यम। इसीलिए आशंका है कि बिना किसी वैधानिक संरक्षण के यह स्कीम कहीं सामाजिक सुरक्षा-संजालों को कमजोर करते हुए वंचित समूह के उन हकों को छिनने के साधन में तब्दील न हो जाये जिसे उन्होंने लम्बे समय के संघर्ष के बाद हासिल किया है। 
सैद्धांतिक आधार:
यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम तीन मुख्य सिद्धांतों पर आधारित है:
1.   सार्वभौमिकताताकि सभी नागरिकों को इसके दायरे में लाया जा  सके;
2.   बिना शर्त अर्थात् न तो आय की शर्त और न ही रोजगार की शर्त; तथा
3.   बुनियादी आयताकि बिना किसी अतिरिक्त आय गरिमापूर्ण जीवन जीना संभव हो सके.
परआर्थिक समीक्षा के संकेत इस सन्दर्भ में बहुत आश्वस्त नहीं करते। इसकी सार्वभौमिक प्रकृति अंडर कवरेज एवं बहिष्करण से सम्बंधित विकृतियों (Errors of Omission), जो अधिकांश कल्याणकारी योजनाओं के सन्दर्भ में देखने को मिलती है, को भी समाप्त करेगी और लोगों को गरीबी-रेखा से नीचे जाने से रोकते हुए उनके लिए गरिमामय जीवन सुनिश्चित करेगी। साथ ही, इसकी बिना शर्त वाली प्रकृति रोजगार एवं निश्चित बुनियादी आय के बीच के सम्बन्ध को कमजोर कर सकती है। आर्थिक समीक्षा में यह तो कहा गया है कि सभी समाज को पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए, लेकिन यह भी स्वीकार किया गया है कि “संभव है कि आनेवाले समय में सामाजिक सुरक्षा या न्यूनतम समर्थन को रोजगार से जोड़कर उपलब्ध कराना संभव नहीं रह जाए।
स्कीम की आर्थिक लागत:
जहाँ तक इसकी आर्थिक लागत का प्रश्न हैतो आरम्भ में प्रणव बर्द्धन और विजय जोशी ने नन-मेरिट सब्सिडी में कमी के जरिये इसके वित्तीयन का प्रस्ताव रखा। प्रणब बर्द्धन ने प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 10,000 रुपये बेसिक इनकम में दिए जाने का सुझाव दिया जिसकी लागत जीडीपी के 10% तक हो सकती है और कर-छूटों में कमी एवं नन-मेरिट सब्सिडी पर खर्च होने वाली राशि, जो जीडीपी के 9% के आसपास है, में कमी के जरिये इसकी भरपाई की जायेगी इसके मद्देनजर आर्थिक समीक्षा में मिड-डे मील स्कीम(MDMS), मनरेगा(MNREGA), प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजनायें(PMGSY), राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन(NHM), प्रधानमंत्री आवास योजना(PMAY) एवं सर्व शिक्षा अभियान(SSA) सहित सभी केंद्र द्वारा प्रायोजित और केंद्रीय क्षेत्रक स्कीमों(CSS-CSP) को समाप्त करने का सुझाव दिया गया है उन्होंने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पब्लिक पॉलिसी(NIPFPPकी उस रिपोर्ट का हवाला दिया जिसके अनुसार भोजनरोजगारखादतेलगैसबिजलीपानी आदि पर मिल रही सब्सिडी तथा बेरोजगारी-भत्ते एवं वृद्धावस्था पेंशन पर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर प्रतिवर्ष जो धन खर्च करती हैंवह सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 14% है। विजय जोशी ने जीडीपी के 3.5% की लागत से गरीबी-रेखा के 20% के बराबर इनकम टॉप अप का सुझाव दिया विजय जोशी ने अपनी पुस्तक इंडियाज लाँग रोड: द सर्च फॉर प्रॉसपेरिटी’’ में गरीबी-रेखा के 20% के बराबर इनकम टॉप अप का सुझाव देते हुए कहा कि ग़रीबी-उन्मूलन के लिए सरकार को प्रति परिवार प्रति वर्ष 17,500 रुपए देना होगा जिसकी लागत जीडीपी के 3.5% के बराबर होगी।
क्रियान्वयन की चुनौतियाँ:
अभी इस स्कीम के सन्दर्भ में कई ऐसे प्रश्न हैं जो अनुत्तरित हैं, लेकिन इनका उत्तर इस स्कीम की प्रभावोत्पादकता के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण होगा:
1.  वर्तमान राजकोषीय परिदृश्य में इसे सार्वभौमिक नहीं बनाया जा सकता है। इस स्थिति में अंडर कवरेज और ओवर कवरेज की समस्या के मद्देनजर समावेशन एवं बहिष्करण विकृतियों को दूर करने की जरूरत हैताकि लाभार्थियों की सही तरीके से पहचान सुनिश्चित की जा सके। इसीलिये इसके लाभार्थियों की पहचान का मुद्दा महत्वपूर्ण हो जाता है। इसी से जुड़ा हुआ प्रश्न है कि किन लोगों को इस स्कीम के दायरे में रखा जाएगा और किन लोगों को इसके दायरे से बाहर, और इसका पैमाना क्या होगा?
2.  यह प्रश्न तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम पाते हैं कि जिस आधार कार्ड को इतना महत्व दिया जा रहा है और जो आधार कार्ड इसके क्रियान्वयन में अहम् रोल निभायेगा, इसके साथ दो समस्या है:
a.  यह हर शख्स की पहचान को स्थापित करता हैलेकिन यह लोगों का वर्गीकरण नहीं करता और
b.  आधार कार्ड भारतीय नागरिकों के साथ-साथ भारत में रह रहे बाहरी लोगों को भी उपलब्ध करवाया गया है। इनमें बांग्लादेशी लोग भी हैं।
3.  क्या सरकार इसके सन्दर्भ में कानूनी प्रावधान करने जा रही है ताकि इसे कानूनी रूप से बाध्य बनाया जा सके? अगर नहीं, तो फिर यह स्कीम किस प्रकार सामाजिक सुरक्षा का रूप ले पाएगी?
4.  भारत में रुपये की क्रयक्षमता की दृष्टि से क्षेत्रवार भिन्नता के मद्देनजर सभी राज्यों के लिए एक ही बेसिक इनकम उचित नहीं है।
5.  इसके लिए संसाधनों की उपलब्धता किस प्रकार सुनिश्चित की जायेगी, आर्थिक समीक्षा इस प्रश्न पर मौन है। इसके विपरीत यह बेसिक इनकम स्कीम द्वारा पहले से चली आ रही अन्य योजनाओं को प्रतिस्थापित करने और कार्यक्रमों एवं खर्चों की प्राथमिकताओं के पुनर्निर्धारण की बात करता है। मतलब यह कि इसके वित्तीयन के लिए न तो अमीरों पर अलग से कर नहीं लगाया जाएगा और न ही अलग से संसाधन जुटाए जायेंगे।
6.  यह कहना ही गलत है कि बेसिक इनकम स्कीम की मूल संकल्पना अमीरों से गरीबों को भुगतान-अंतरण के दर्शन पर आधारित नहीं है क्योंकि इसके लिए वित्तीय संसाधनों की जरूरत होगी जो किसी-न-किसी रूप में प्रत्यक्षतः या परोक्षतः उन लोगों से ही जुटाया जाएगा जो आर्थिक दृष्टि से सक्षम हैं। इसीलिए इसके पीछे गरीबी एवं बेरोजगारी की दोहरी चुनौती से निबटने के साथ-साथ पुनर्वितरण का विचार भी मौजूद है।
बेसिक इनकम स्कीम की व्यवहार्यता:
सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम इस योजना के प्रबल पैरोकार हैंजबकि नीति आयोग के अध्यक्ष अरविन्द पनगडिया राजकोषीय संसाधनों की अपर्याप्तता के कारण इसे आर्थिक दृष्टि से अव्यवहार्य मानते हैं। उन्होंने हालिया साक्षात्कार में सार्वभौमिक प्रकृति वाली इस स्कीम में 15.6 लाख करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाते हुए कहा कि " देश में आय के मौजूदा स्तर और स्वास्थ्यशिक्षाअवसंरचना एवं रक्षा क्षेत्र में निवेश-जरूरतों को देखते हुए हमारे पास 130 करोड़ भारतीय लोगों को उचित बुनियादी आय मुहैया कराने के लिए जरूरी वित्तीय संसाधन नहीं हैं।" निम्न सन्दर्भों में यह अव्यवहार्य प्रतीत होता है:
1.  आज केन्द्रीय बजट की 88% राशि राजस्व व्यय (Revenue Expenditureऔर मात्र 12% राशि पूँजीगत व्यय (Capital Expenditureके मद में ख़र्च होता है। पिछले दशक के दौरान पूँजीगत व्यय लगातार घट कर सकल घरेलू उत्पाद (GDPका 1.6 प्रतिशत रह गया है। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि ऐसी स्थिति में यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम की क्या व्यवहार्यता हो सकती है जब भारत में कर-जीडीपी अनुपात दस प्रतिशत के आसपास के स्तर पर है और भारत राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के रास्ते पर चलता हुआ राजस्व घाटे (Revenue Deficitको शून्य और राजकोषीय घाटे को तीन प्रतिशत से कम के स्तर पर लाने की कोशिश कर रहा है, यद्यपि सरकार के बढ़ते वित्तीय घाटे पर अंकुश के लिए फिस्कल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट (FRBMएक्ट2003 के अनुपालन पर नजर रखने के लिए गठित एफआरबीएम समिति ने राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को 3% की बजाय 3.5% तक रखने का सुझाव दे दिया है। इतना ही नहींउस पर कर-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और निगम-कर की दरों में कमी हेतु कार्पोरेट सेक्टर का दबाव बना हुआ है।
2.   प्रणव बर्द्धन ने अपने आकलन के क्रम में सब्सिडी में कमी के जरिये इसकी लगत की भरपाई को दिखाने के लिए 2003 में नेशनल इंस्टिट्यूट पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (NIPFPद्वारा जारी जिस रिपोर्ट को आधार बनाया है, वह रिपोर्ट 1998-99 के आँकड़ों को आधार बनाकर जारी किया गया है जब सब्सिडी जीडीपी के 9% के स्तर पर थीजबकि आज का राजकोषीय परिदृश्य 1998-99 के राजकोषीय परिदृश्य से बहुत हद तक अलग है। आज यह लगभग (3-4) प्रतिशत के स्तर पर आ चुका है। खाद्यान्न, उर्वरक एवं पेट्रोलियम सब्सिडी को छोड़कर आर्थिक समीक्षा में उल्लिखित दस योजनाओं के मद में कुल सब्सिडी 2014-15 में महज जीडीपी के 1.4% के स्तर पर था और शेष 940 उप-योजनाओं के सन्दर्भ में जीडीपी के 2.3% के स्तर पर। मतलब यह कि कुल सब्सिडी जीडीपी के 3.7% के स्तर पर थी।
3.   चालू वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान बजट अनुमान के मुताबिककेंद्र के पास कुल वित्तीय संसाधन 19.51 लाख करोड़ रुपये हैं जिनमें 53 प्रतिशत टैक्स से, 27 प्रतिशत उधार लेकर और बाकी 20 प्रतिशत जुटाये हैं संसाधन सरकारी कंपनियों से मिले लाभांशउनके मालिकाने की बिक्रीस्पेक्ट्रम एवं कोयला खदानों की नीलामी और दूसरों को दिये गये ऋणों की वसूली से प्राप्त हुए हैं। मतलब यह कि सरकार अपने एक चौथाई से ज्यादा वित्तीय संसाधन ऋण लेकर जुटाती हैजिस पर उसे हर साल बराबर ब्याज चुकाना होता है और वर्तमान में कुल वित्तीय संसाधन का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा ब्याज-अदायगी के मद में खर्च होता है, जो हर साल लिये गये ऋण के 92 प्रतिशत से ज्यादा है। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार पुराने ऋणों का ब्याज चुकाने के लिए नये ऋण लेते जाने के दुष्चक्र में फँस गयी लगती है। ऐसी स्थिति में यह अव्यवहार्य प्रतीत होता है
4.  इस फिस्कल स्पेस को हासिल करना आसान नहीं रहेगा क्योंकि अधिकांश नन-मेरिट सब्सिडी राज्यों के द्वारा दी जाती है और इससे निम्न वर्ग के साथ-साथ मध्यवर्ग भी प्रभावित होगा जिसको नाराज करना राजनीतिक दृष्टि से खतरे से खाली नहीं होगा। साथ ही, यह कदम बहुत व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता है।शायद यही कारण है कि आर्थिक समीक्षा में सब्सिडी में कमी के राजनीतिक निहितार्थों को समझते हुए मनरेगा एवं मिड-डे मील सहित तमाम अप्रभावी कल्याणकारी योजनाओं की समाप्ति के जरिये फिस्कल स्पेस के सृजन के संकेत तो दिए गए हैंपर इस बात की व्याख्या नहीं की गई है कि आखिर इन्हें अप्रभावी मानने का आधार क्या है और अगर ये अप्रभावी हैंतो फिर इन्हें प्रभावी बनाया जा सकता है या फिर नहीं? हालाँकि इन योजनाओं के डिजाईन-डिफ़ॉल्ट एवं दोषपूर्ण क्रियान्वयन से सम्बंधित कमियों की अनदेखी उचित नहीं होगीतथापि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि समय के साथ इनके क्रियान्वयन में सुधार हो रहा है।
5.  अगर यह फिस्कल स्पेस सृजित भी होता हैतो बेसिक इनकम स्कीम के अलावा शिक्षास्वास्थ्य देखभालपर्यावरण-संरक्षणआवश्यक बुनियादी ढाँचे से सम्बंधित जरूरतों को पूरा करने के लिए इन मदों पर सार्वजानिक व्यय में वृद्धि की भी आवश्यकता है। इसलिए इस फिस्कल स्पेस पर अकेले बेसिक इनकम स्कीम की दावेदारी व्यावहारिक नहीं प्रतीत होती है।
औचित्य पर पुनर्विचार अपेक्षित:
जहाँ तक बेसिक इनकम के पक्ष में दिए जाने वाले तर्कों का प्रश्न है, तो  नकदी की बजाय वस्तु-अंतरण के पक्ष में भी अपने तर्क हैं। वस्तु-अंतरण उसी उद्देश्य से संसाधनों के इस्तेमाल को सुनिश्चित करता है जिस उद्देश्य से वह स्कीम चलायी जा रही है। साथ हीयह लाभार्थियों को मुद्रास्फीतिक दबाव से भी संरक्षण प्रदान करता है। कई कल्याणकारी योजनायें केवल वस्तु-अंतरण की ही प्रकृति वाली नहीं हैं। अगर मिड-डे मील स्कीम को देखा जायतो यह वस्तु-अंतरण के साथ-साथ पोषकताशिक्षारोजगार-सृजन और सामाजिक साम्यता से भी सम्बद्ध है। इसी प्रकार मनरेगा में मजदूरी के नकद-भुगतान के साथ-साथ महिला-सशक्तीकरणसम्पदा-सृजन(Asset Creationऔर पर्यावरण-संरक्षण पर भी जोर दिया गया है। यही स्थिति उन अन्य नौ स्कीमों की भी है जिनका आर्थिक समीक्षा में उल्लेख मिलता है। इतना ही नहींअगर इस एप्रोच के साथ बढ़ा जायतो भारत ने पिछले डेढ़ दशकों के दौरान शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटीपीडीएसबाल-विकासपेंशन एवं मातृत्व लाभ से सम्बंधित जिन सामाजिक सुरक्षा-संजालों (Social Security Networkको विकसित किया हैवे वंचना से लोगों को संरक्षण प्रदान करने एवं बेहतर समाज के निर्माण में अहम् भूमिका निभाने की स्थिति में हैं और इसीलिए उन्हें समाप्त करने की बजाय उनके संरक्षण एवं सुदृढकरण की जरूरत है। इसकी पुष्टि विभिन्न शोधों से भी होती है जो गरीबी-उन्मूलन में सरकार द्वारा चलाये जानेवाले सामाजिक लोक-कल्याणकारी कार्यक्रमोंखासकर मनरेगाजन वितरण प्रणाली (PDS)मध्याह्न भोजन(MDM) योजना आदि की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित करते हैं इसीलिए इन कार्यक्रमों की जगह पर इस स्कीम की दिशा में किसी भी पहल से पूर्व यह सुनिश्चित करने की कोशिश हो कि इसका प्रतिकूल असर गरीबी-उन्मूलन पर न पड़े।
स्पष्ट है कि बेसिक इनकम स्कीम इसके पूरक हो सकते हैंपर इसके विकल्प नहीं। इसीलिए इसे विद्यमान फ्रेमवर्क में संशोधन या उसके विस्तार के रूप में लाया जाना चाहिएन कि इसके विकल्प या स्थानापन्न के रूप में। यदि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून(NFSAऔर ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना(MNREGAको समाप्त कर दिया गयातो गरीबी-रेखा के नीचे रहने वाले करोड़ों लोग इससे प्रतिकूलत: प्रभावित होंगे। मिड डे मील स्कीम से आठवीं कक्षा तक के डेढ़ करोड़ स्कूली बच्चे प्रति दिन लाभान्वित होते हैंजबकि मनरेगा लगभग बीस करोड़ अकुशल लोगोंजिनमें आधे लोग दलित-आदिवासी एवं एक तिहाई महिलायें हैंको 60-70 दिनों का रोजगार प्रदान करता है। इसी प्रकार पीडीएस को समाप्त किया जाना (50-60) प्रतिशत निम्न आय वाले गरीब उपभोक्ताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा जिन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं खरीद मैकेनिज्म के भंग होने के परिणामस्वरुप बाजार-कीमतों में होने वाली वृद्धि के कारण उच्च खाद्यान्न-कीमत चुकानी होगी। साथ ही, आदिवासी समुदाय से आने वाले किसी आदमी के लिए नकद-सहायता की तुलना में प्राथमिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सहित गैर-नकदी सहायता कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रत्यक्ष लाभ अंतरण(DBT):अबतक का अनुभव बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं:
एलपीजी सब्सिडी से भिन्न प्रत्यक्ष लाभ अंतरण(DBTका अबतक का अनुभव भी कल्याणकारी योजनाओं के स्थानापन्न के रूप में इस स्कीम को अपनाए जाने को पुष्ट नहीं करता है। 2015 में चंडीगढ़दादरा एवं नगर हवेली तथा पुदुचेरी में सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम (NFSAके अंतर्गत अन्न की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBTअथवा नकद-अंतरण की शुरुआत की। इस योजना का समवर्ती मूल्यांकन निराश करने वाला रहा। इससे यह पता चलता है कि 2016 के मध्य तक दूसरे चरण में लाभान्वितों के पाँचवें हिस्से तक नकदी ही नहीं पहुँची। पुदुचेरी में चरण-1 में केवल 25 प्रतिशत लाभार्थियों को नकद-अंतरण प्राप्त हो सकाजबकि चरण-2 में यह थोड़ा बेहतर होकर 37 प्रतिशत पर पहुँचा। नतीजतनसर्वेक्षण में शामिल होनेवाले अधिकांश लोगों ने नकदी की बजाय खाद्य पाने को ही तरजीह दी। इसलिए पीडीएस के सन्दर्भ में बॉयोमीट्रिक प्रमाणीकरणमनरेगा की मजदूरी के बैंकों के जरिये भुगतान और पुडुचेरी एवं चंडीगढ़ में डीबीटी-पीडीएस के सन्दर्भ में नकद-हस्तांतरण के कटु अनुभवों के आलोक में यह कहीं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है कि इसे पहले से चली आ रही स्कीमों का विकल्प मानने की बजाय इसके पूरक के रूप में लाया जाय और इसको जल्दबाजी में लागू करने की बजाय पहले पर्याप्त होमवर्क किया जाय।
दूसरी बात, आरम्भ से ही सरकार के द्वारा आधार परियोजना को फुल-प्रूफ परियोजना के रूप में पेश करते हुए सामाजिक कल्याण योजनाओं को इस पर आधारित करने की दिशा में पहल की जा रही है। लेकिन, पेंशनमनरेगापीडीएसछात्रवृत्ति जैसी कल्याणकारी योजनाओं में आधार के इस्तेमाल का अनुभव लाभान्वितों के छूट जाने (Exclusion Error) के साथ-साथ भ्रष्टाचार की समस्याओं की ओर इशारा करता है। स्पष्ट है कि समस्यायें वहाँ पर भी उभर कर सामने आ रही हैं, यह बात अलग है कि सरकार के द्वारा इसके कल्याणकारी स्वरूप को उभारने के लिए इसके नकारात्मक नतीजों की अनदेखी की जा रही हैया उसे नकारा जा रहा है। साथ हीइस सन्दर्भ में सरकार इसके लाभों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की भी कोशिश कर रही है जिसे डीबीटी के कारण गैस-सब्सिडी से संबद्ध बचत संबंधी सरकार के दावों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
तीसरी बात, इस स्कीम की आलोचना इस आधार पर भी की जा रही है कि यह स्कीम मुफ्तखोरी की संस्कृति को प्रोत्साहित करती हुई लोगों को कुछ न करने की प्रेरणा देगी।बिना किसी काम के या बिना किसी शर्त के नकदी का अंतरण बाजार में नकदी के प्रवाह को प्रभावित कर सकता है और इसका प्रतिकूल प्रभाव आर्थिक संवृद्धि पर भी पड़ सकता हैऔरशिक्षा एवंरोजगार से जुड़े कौशल-विकास कार्यक्रमों पर भी।चौथी बात, मध्य और अमीर वर्गजिसे सरकारी मदद की बिल्कुल जरूरत नहीं हैउसे यूबीआइ की जद में क्यों लाया जाए?
ज्याँ द्रेज़ और बेसिक इनकम स्कीम:
बेसिक इनकम स्कीम के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि यह जिलों के बीच सामाजिक मदों पर होने वाले खर्च (Social Spendingसम्बन्धी वर्तमान असंतुलन को भी दूर करेगा। ध्यातव्य है कि सामाजिक मदों पर होने वाले खर्च में निर्धनतम जिलों की हिस्सेदारी BPL जनसंख्या में उस जिले की हिस्सेदारी की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। लेकिनज्याँ द्रेज ने यह आशंका व्यक्त की है कि इस सन्दर्भ में बेसिक इनकम स्कीम का प्रदर्शन पूर्ववर्ती स्कीम की तुलना में कमतर भी हो सकता है। उन्होंने इसे सार्वभौमिक बनाए जाने की स्थिति में निम्न प्रति व्यक्ति लाभ या अन्य स्कीमों पर कम खर्च में कमी की भी आशंका व्यक्त की। संभव है कि करों में वृद्धि के जरिये इसकी भरपाई की रणनीति अपनाई जाय। ऐसी   स्थिति में इस बात की संभावना ज्यादा है कि यह वृद्धि अप्रत्यक्ष कर के सन्दर्भ में हो। इन सभी स्थितियों में इसकी कीमत हाशिए पर के समूह को ही चुकानी होगी। इसीलिए उनका मानना है कि संसाधनों की किल्लत के मद्देनजर बेसिक इनकम स्कीम को सीमित स्तर पर सार्वभौमिक मातृत्व लाभ और सामाजिक सुरक्षा पेंशन के साथ शुरू किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे आय या रोजगार गारंटी योजनाओं के एवज में अमीर से गरीब के लिए संसाधनों के पुनर्वितरण की विधि के रूप में प्रस्तावित किया गया है। इसका उद्देश्य शिक्षास्वास्थ्य और बुनियादी खाद्य उपभोग की बुनियादी जरूरतों को सुनिश्चित करने के बाद गरिमामय जीवन हेतु न्यूनतम आय उपलब्ध कराना है। लेकिन, आर्थिक समीक्षा से इस स्कीम की जो तस्वीर उभरती है, वह इन सन्दर्भों में निराश करने वाली है। इसीलिए सार्वभौमिक बेसिक इनकम स्कीम के जरिये वर्तमान में चल रहे सभी तरह के नकद और गैर-नकद अंतरण को प्रतिस्थापित करने वाली सोच को उचित नहीं माना जा सकता। हाँ, यह जरूर है कि इससे संसाधनों पर दबाव कम होगा, लेकिन ऐसा सामाजिक सुरक्षा संजालों की कीमत पर ही होगा। इसीलिए जब तक सरकार गंभीरता से कर-राजस्व को बढ़ाने या इसके लिए अतिरिक्त संसाधनों को जुटाने की गंभीर कोशिश नहीं करती है, तबतक बेसिक इनकम स्कीम का प्रस्ताव महज वर्त्तमान समस्याओं से विचलन(Diversion) और लोक-कल्याणकारी कार्यक्रमों की फंडिंग में कटौती का साधन भर बनकर रह जाएगा।
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सन्दर्भ:
1.  Economic Survey,2016-17
2.  Halting the welfare state: By Bhal Chandra Mungekar
3.  The Tale And Maths Of Universal Basic Income: Jeane Dreze
4.  Universal Basic Income For India Suddenly Trendy Look Out: By Jeane Dreze
5.  Getting the basics wrong: By Madhura Swaminathan
6.  Universal Basic Income in India: The Pros and Cons: By Sanmay Rath


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