योजना आयोग से नीति आयोग तक
आज़ादी के बाद देश ने भले ही संघीय ढाँचे
को स्वीकार किया था, लेकिन देश के
समक्ष मौजूद चुनौतियों के राष्ट्रीय स्वरूप के मद्देनज़र ऐसे संस्थागत ढाँचे की
ज़रूरत महसूस हुई जो संघीय अपेक्षाओं पर भी खरा उतरे और राष्ट्रीय चुनौतियों के
समाधान में भी समर्थ हो सके। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें 1950 में योजना
आयोग की स्थापना हुई थी। लेकिन,कांग्रेस के केन्द्रीय राजनीति के साथ-साथ प्रांतीय राजनीति में प्रभुत्व ने
योजना आयोग को सलाहकारी संस्था नहीं रहने दिया। व्यवहार में संघीय अपेक्षाओं के
विपरीत इसकी सलाहें राज्यों के लिए बाध्यकारी होतीं चलीं गईं और राष्ट्रीय विकास
परिषद का अनुमोदन महज़ औपचारिकता में तब्दील हो गया। यह स्थिति लगभग 1980 के दशक के पहले तक
बनी रही.
योजना आयोग की भूमिका को पुनर्परिभाषित
करने की जरूरत:
1967 के बाद प्रांतीय राजनीति में कांग्रेस के
प्रभुत्व का क्षरण शुरू हुआ है, फिर भी अधिकांश राज्यों में कांग्रेस की सरकारें
मौजूद रहीं। लेकिन, 1980 के दशक तक आते-आते प्रांतों के स्तर पर आने वाले
राजनीतिक बदलावों ने क्षेत्रवाद के उभार को संभव बनाया। क्षेत्रवाद के इस उभार ने
केन्द्रवादी रूझान वाले भारतीय संघवाद को सहकारी संघवाद की ओर उन्मुख होने के लिए विवश किया। स्पष्ट है
कि क्षेत्रवाद के द्वारा प्रस्तुत चुनौती ने सरकारिया आयोग के गठन के मार्ग को
प्रशस्त किया और सरकारिया आयोग ने राजनीतिक-प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के मार्ग को.
ध्यातव्य है कि इस समय तक आते-आते स्थानीय चुनौतियों से निबटना कहीं अधिक
महत्वपूर्ण हो गया।
1989-1990 में साम्यवादी ब्लॉक के बिखराव और साम्यवाद के अवसान की पृष्ठभूमि में भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था समाजवादी रूझानों से पूँजीवादी बाजारवाद की ओर उन्मुख हुई और इसी की अपेक्षाओं के अनुरूप भारतीय आयोजन भी आदेशात्मकता से निर्देशात्मकता की ओर.
गठन की पृष्ठभूमि:
ऐसा नहीं कि योजना आयोग ने बदलती हुई परिस्थिति के अनुरूप ख़ुद को बदलने की कोशिश नहीं की, लेकिन योजना आयोग द्वारा की गई पहलें उन बदलावों के साथ तालमेल बैठा पाने में सफल नहीं रही क्योंकि योजना आयोग में बदलाव की गति अत्यंत धीमी रही,जबकि बाहरी दुनिया में बदलाव की गति कहीं तीव्र थी। इसीलिए योजना आयोग न तो ख़ुद को सहकारी संघवादी ढाँचे के अनुरूप ढाल पाया और न ही विकेन्द्रीकरण के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित कर पाया। न तो निर्णय-प्रक्रिया को स्पष्ट एवं पारदर्शी बना पाया और न ही सुशासन एवं सहभागिता की अपेक्षाओं पर ही खड़ा उतर पाया। यहाँ तक कि अपने तिरेसठ वर्ष के जीवन-काल में उन समस्याओं का हल देते हुए संतुलित और समावेशी विकास को भी सुनिश्चित नहीं कर पाया. इन सबके लिए आवश्यकता थी संस्थागत एवं क्रियाप्रणालीगत सुधारों के जरिये बदलती हुयी सामाजिक-आर्थिक अपेक्षाओं पर खरा उतरने की.
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें दो ही विकल्प शेष रह गए थे: या तो योजना आयोग की संरचना, स्वरूप एवम् क्रियाप्रणाली में मूलभूत बदलाव लाए जाएँ या फिर योजना आयोग की जगह किसी नए संस्थागत ढाँचे को खड़ा किया जाए।
नीति आयोग की संरचना :
भारत के प्रधानमंत्री नीति आयोग के पदेन
अध्यक्ष होंगे. उन्हीं के द्वारा नीति आयोग के उपाध्यक्ष की नियुक्ति की जाएगी.
इसके अलावा नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी होंगे जिनकी नियुक्ति प्रधान
मंत्री के द्वारा की जायेगी,जो
सचिव रैंक के अधिकारी होंगे और जिनका निश्चित कार्यकाल होगा.
आयोग के अंतर्गत गवर्निंग काउंसिल और
क्षेत्रीय परिषद् होगा. गवर्निंग कौंसिल में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और
संघशासित प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर एवं प्रशासक शामिल होंगे. क्षेत्रीय काउंसिल
एक से अधिक राज्यों से जुड़े हुए विशिष्ट मसलों को सुलझाएगा या फिर एक से अधिक
राज्यों को प्रभावित करने वाली आकस्मिकताओं से निबटेगा.
इसके अलावा प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत
विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में मौजूद होंगे.
आयोग की पूर्णकालिक सांगठनिक फ्रेमवर्क
में अध्यक्ष,उपाध्यक्ष,
मुख्य कार्यकारी अधिकारी,अग्रणी अनुसन्धान
संस्थानों से दो अंशकालिक सदस्य (रोटेशनल आधार पर),पूर्णकालिक
सदस्य और चार कैबिनेट मंत्री (पदेन,प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत)
शामिल होंगे.
नीति आयोग के गठन का उद्देश्य:
नीति आयोग का गठन थिंक टैंक के रूप में किया गया। इसका उद्देश्य आर्थिक मसले पर विभिन्न हितधारकों के बीच व्यापक विचार-विमर्श हेतु प्लेटफ़ार्म उपलब्ध कराना है ताकि राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रकों एवं रणनीतियों के संदर्भ में साझे विजन का विकास हो सके। इससे स्थानीय, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हुए उन्हें पूरा कर पाना संभव हो सकेगा।
इसके लिए यह नीतियों और योजनाओं के निर्माण के स्तर पर राज्यों को भागीदारी देते हुए केन्द्र एवं राज्य के बीच बेहतर तालमेल को सुनिश्चित करने के साथ-साथ सहयोगी संघवाद को मज़बूती प्रदान करता है तथा इसके लिए एक संस्थागत ढाँचे को उपलब्ध कराता है। इसके अतिरिक्त इसके ज़रिए सुशासन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ऐसा सपोर्ट सिस्टम विकसित करना है जो ज्ञान, नवाचार एवं उद्यमता को प्रोत्साहन दे।
नीति आयोग-योजना आयोग
तुलना:
योजना आयोग उस दौर की उपज थी जब समाजवादी
विकास मॉडल को अपनाया गया था। इसीलिये समय के साथ इसने समाजवादी अर्थव्यवस्था की
जरूरतों के अनुरूप ही आकर ग्रहण किया। लेकिन, पिछले ढाई दशकों के दौरान आर्थिक
उदारीकरण की पृष्ठभूमि में भारतीय अर्थव्यवस्था में जो संरचनागत बदलाव आये, उन
बदलावों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक ऐसी संस्था की जरूरत महसूस की गई
जो बाजारोन्मुख सोच को रखते हुए कहीं अधिक सक्रियता से सामने आए। केन्द्र में
सत्तारूढ़ वर्तमान सरकार चीन के आर्थिक संवृद्धि के मॉडल से कहीं अधिक प्रभावित और
प्रेरित दिखती है। उसकी इच्छा है गुजरात मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाने की और
इसके लिए आवश्यक है निर्णय-प्रक्रिया में मौजूद अवरोधों को दूर करते
हुए त्वरित निर्णय को संभव बनाना। नीति आयोग इसी दिशा में एक
प्रभावी पहल है।
नीति आयोग का गठन एक थिंक-टैंक के रूप में किया गया है.
इससे यह अपेक्षा की गई है कि यह देश और देश के बाहर नीतिगत मामलों में फीडबैक लेते
हुए काम करेगा. यह अंतर्राष्ट्रीय थिंक-टैंक और भारतीय उच्च शिक्षण एवं
अनुसंधान संस्थानों के साथ भ्हर्तिया नीति-निर्माताओं की बेहतर अनुक्रिया और परसपर
संवाद-संपर्क पर बल देता है। यह
लोगों की भागीदारी के ज़रिए शासन में सुधार पर बल देता है। योजना आयोग की भी परिकल्पना एक सलाहकारी विशेषज्ञ संस्था के रूप में ही की
गई थी. अब प्रश्न उठता है कि इसके गठन के पहले तक तो योजना आयोग की भूमिका भी कुछ
ऐसी ही थी, तो फिर फर्क क्या है दोनों में? इस फर्क को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. संरचना:
योजना आयोग को राष्ट्रीय विकास परिषद् को रिपोर्ट करना होता
था जिसमें राज्यों के प्रतिनिधि शामिल होते थे. इसके विपरीत नीति आयोग
प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है नीति आयोग में संघीय गवर्निंग कौंसिल की
परिकल्पना की गई है जिसमें सभी राज्य के मुख्यमंत्रियों और केंद्रशासित प्रदेश के
प्रशासकों को शामिल किया जाता है.
2. संगठन:
योजना आयोग की तरह ही प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष होते हैं
और उन्हीं के द्वारा इसके उपाध्यक्ष की नियुक्ति की जाती है.योजना आयोग में इन
दोनों के अलावा सदस्य-सचिव और आठ पूर्णकालिक सदस्य होते थे, जबकि नीति आयोग में मुख्य कार्यकारी
अधिकारी(CEO) का नया पद सृजित किया गया है जो सचिव स्तर
के अधिकारी होंगे. साथ ही, इसमें दो पूर्णकालिक और दो
अंशकालिक सदस्य होंगे.
3. एप्रोच:
योजना आयोग के द्वारा जहाँ टॉप-डाउन एप्रोच को अपनाया जाता
था,वहीं नीति आयोग द्वारा बॉटम-अप एप्रोच को.
4. दायरा:
योजना आयोग के द्वारा पारंपरिक रूप से नीतियों का निर्माण
किया जाता था और उसके बाद फंडों के आवंटन के पहले राज्यों से संपर्क किया जाता था.
फिर राष्ट्रीय विकास परिषद् को अंतिम रूप से उसका अनुमोदन करना होता था. लेकिन, व्यवहार में योजना आयोग का दायरा नीतियों
के निर्माण से आगे उनके क्रियान्वयन और निगरानी तक जाता था. इसके विपरीत नीति आयोग का लक्ष्य है क्षमता-विकास, विभिन्न स्तरों पर समन्वय तथा प्रेरक के
दायित्वों का निर्वाह। योजनाओं का निर्माण, क्रियान्वयन और पर्यवेक्षण इसका लक्ष्य नहीं है।
5. विवेकाधीन मदों में फंड-आवंटन:
योजना आयोग के पास राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय स्कीमों पर
चलायी जानेवाली विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के लिए सरकारी फंडों के आवंटन के
निर्धारण की शक्ति भी थी,लेकिन नीति आयोग
के पास राज्यों के बीच विवेकाधीन अनुदान के वितरण की ऐसी कोई जिम्मेवारी इसे नहीं
सौंपी गई है.
6. संस्था का स्वरुप:
यद्यपि योजना आयोग एक सलाहकारी विशेषज्ञ संस्था थी,तथापि व्यावहारिक रूप में इसके फैसले
राज्यों के लिए बाध्यकारी होते थे क्योंकि उसके द्वारा फंडों को उसके द्वारा तैयार
की जानेवाली परियोजनाओं के क्रियान्वयन से जोड़ दिया जाता था. इसके कारण अक्सर
योजना आयोग पर राजनीतिक आधार पर भेदभाव और केन्द्रीय प्रभुत्व को सुनिश्चित करने
वाली संस्था होने के आरोप लगते थे. इसके विपरीत नीति आयोग विशुद्ध रूप से
थिंक-टैंक के रूप में काम करती है और यह एक सलाहकारी संस्था है.
7. परिसंघीय स्वरुप:
योजना आयोग की संरचना और क्रियाप्रणाली देश के संघीय ढांचे
के विपरीत था, जबकि नीति आयोग
में राज्यों को प्रतिनिधित्व देकर इसे देश के संघीय ढांचे के अनुरूप ढालने की
कोशिश की गई है. नीति आयोग न तो राज्यों से बिना पूछे योजनाओं का निर्माण करेगी और
न ही उसे राज्यों के ऊपर थोपने का काम करेगी.
8. आयोजन से सम्बन्ध:
योजना आयोग योजनाओं का निर्माण करने वाली शीर्ष केन्द्रीय
संस्था थी, मगर नीति आयोग के
सन्दर्भ में अबतक यह स्पष्ट नहीं है कि इसका सम्बन्ध आयोजन से होगा या नहीं,
या फिर नीति आयोग के ज़माने में आयोजन को जारी भी रखा जायेगा या नहीं?
9. नीति आयोग सामर्थ्यकारी सरकार की अवधारणा पर बल देता है, जबकि
योजना आयोग का बल सार्वजनिक सेवाओं की डिलीवरी पर है। यहाँ पर इस बात को ध्यान में
रखने की ज़रुरत है कि योजना आयोग के रहते हुए ही सामर्थ्यकारी सरकार की अवधारणा पर
चर्चा शुरू हो चुकी थी और आर्थिक समीक्षा का एक पूरा-का-पूरा चैप्टर इसी पर
केन्द्रित था.
10.नीति आयोग का एक और काम जो इसे योजना आयोग से भिन्न
बनाता है और वह है आर्थिक सन्दर्भों में राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतों को पूरा
करना. यह अंतर्मंत्रालय-संवाद एवं समन्वय को भी सुनिश्चित करता है।
चीनी नेशनल डेवलपमेंट रिफार्म कमीशन से भिन्नता:
नीति आयोग ने योजना आयोग को प्रतिस्थापित किया और इस क्रम में यह योजना आयोग एवं राष्ट्रीय विकास परिषद के समन्वित रूप प्रतीत होती है। यह वही नहीं है जो चीनी नेशनल डेवलपमेंट रिफार्म कमीशन(NDRC) है। इन दोनों की भिन्नताओं को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. नीति आयोग
की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं और उनके द्वारा मनोनीत उपाध्यक्ष नीति आयोग की
पूरी कार्यवाही देखते हैं। इसके विपरीत न तो चीनी प्रधानमंत्री NDRC को नेतृत्व प्रधान करते हैं और न ही NDRC उन्हें
रिपोर्ट ही करती है। NDRC चीनी राज्य परिषद ( Chinese State Council) को रिपोर्ट करता
है जो चीनी सरकार की सर्वाधिक शक्तिशाली एजेंसी है। चीनी प्रधानमंत्री इसके मुखिया
तो हैं, पर इसकी संरचना इतना व्यापक एवं वैविध्यपूर्ण
है कि इसमें चीनी प्रधानमंत्री की राय अंतिम नहीं होती है।
2. नीति आयोग
में निर्णायक अधिकारिता प्रधानमंत्री के पास होती है। इसके विपरीत NDRC में सामूहिक अधिकारिता होती है।
3. नीति आयोग
की तुलना में NDRC का स्वरूप कहीं अधिक व्यापक और
समावेशी है जिसके अंतर्गत सभी उच्च पदस्थ अधिकारियों को शामिल किया गया है। इसमें
छब्बीस से अधिक विभाग हैं और एक हज़ार से अधिक नौकरशाह इससे जुड़े हैं।लेकिन, नीति आयोग में चार कैबिनेट मंत्री इसके पदेन सदस्य होते हैं। रक्षा मंत्री
और विदेश मंत्री को इसके अंतर्गत शामिल न किया जाना कई प्रश्न खड़े करता है।
4. नीति आयोग
का पूरा मॉडल प्रतिस्पर्धी- सहयोगी संघवाद पर होता है और इसी की अपेक्षाओं के अनुरूप यह बॉटम-अप एप्रोच को
लेकर चलता है. इसके विपरीत NDRC टॉप-डाउन एप्रोच
को अपनाता है. चीन के एकीकृत ढांचे के कारण उससे ऐसी अपेक्षाएं नहीं होती हैं.
इसीलिए उसमें राज्यों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है.
5. NDRC अभी
भी पंचवर्षीय योजनाओं से सम्बद्ध है,लेकिन नीति आयोग के
सन्दर्भ में इस बात को लेकर अभी भी अस्पष्टता की स्थिति है कि यह पिछले बासठ
वर्षों से चले आ रहे आयोजन के मॉडल को बनाये रखेगा या फिर उसे छोड़ देगा.
6. जहाँ NDRC चीनी जीवन के आर्थिक,सामाजिक और सामरिक नीतियों से
सम्बद्ध सभी पहलुओं को समाहित करता है और इस तरह उसके मैंडेट का दायरा कहीं अधिक
व्यापक है, वहीं नीति आयोग की परिकल्पना थिंक-टैंक के रूप
में की गई है. इसका मैंडेट विशुद्ध रूप से इकनोमिक और अधिक-से-अधिक कहें तो,
इससे सम्बद्ध सामाजिक-आर्थिक पहलुओं से है.
7. चीनी NDRC नीति आयोग की तुलना में योजना आयोग
के कहीं अधिक करीब दिखती है. योजना आयोग की तरह ही NDRC परियोजनाओं के निर्माण से लेकर उसके प्रचालन और क्रियान्वयन तक की प्रक्रिया
में शामिल होती है. NDRC की तरह नीति आयोग के पास
क्रियान्वयन-सम्बन्धी जिम्मेवारी नहीं है.
8. नीति आयोग की अगर किसी से तुलना हो सकती है, तो चीनी डेवलपमेंट रिसर्च सेण्टर (DRC) से. योजना आयोग के ज़माने में योजना आयोग और
डेवलपमेंट रिसर्च सेण्टर (DRC) के बीच सामरिक,पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में एक-दुसरे के साथ सहयोग को लेकर समझौता हुआ था. हाल में नीति आयोग का भी डेवलपमेंट रिसर्च सेण्टर (DRC) के साथ इकनोमिक और मैक्रो-इकनोमिक क्षेत्र में सहयोग हेतु समझौता हुआ है.
नीति आयोग और संघवाद:
डेवलपमेंट रिसर्च सेण्टर (DRC) के बीच सामरिक,पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में एक-दुसरे के साथ सहयोग को लेकर समझौता हुआ था. हाल में नीति आयोग का भी डेवलपमेंट रिसर्च सेण्टर (DRC) के साथ इकनोमिक और मैक्रो-इकनोमिक क्षेत्र में सहयोग हेतु समझौता हुआ है.
नीति आयोग और संघवाद:
नीति आयोग में राज्यों के प्रतिनिधित्व के ज़रिए नीति-निर्माण प्रक्रिया में राज्यों को भागीदारी दी गई है और उनकी चिंताओं का समाधान देने का प्रयास किया गया है। साथ ही, नीति आयोग ने नीतियों एवं योजनाओं के निर्माण के लिए टॉप-डाउन एप्रोच की जगह बॉटम-अप एप्रोच को अपनाकर भी स्थानीय एवं क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समाहित करने और तदनुरूप नीतियों एवं योजनाओं के निर्माण के मार्ग को प्रशस्त किया है। इसके लिए गवर्निंग काउंसिल की परिकल्पना की गई है जो वास्तव में नीति आयोग के संघीय पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय परिषद की परिकल्पना के ज़रिए क्षेत्रीय स्तर पर राज्यों के बीच पारस्परिक सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए भी संस्थागत ढाँचा सृजित किया गया है। नीति आयोग के पास राज्यों के बीच विवेकाधीन अनुदान के वितरण का भी अधिकार नहीं है।
नीति आयोग:एक मूल्याङ्कन :
योजना आयोग उन राजनीतिज्ञों और अधिकारियों को उपकृत करने वाले डंपिंग यार्ड में तब्दील हो गया था, जिनकी अकादमिक गतिविधियों में विशेष रूचि नहीं थी और जो एक थिंकटैंक की विशेषज्ञता की कसौटी पर खड़े नहीं उतरते थे। यह अपेक्षा की जा रही है कि नीति आयोग इन विसंगतियों से मुक्त होगा। अब यह कहाँ तक संभव हो पाता है, यह तो आने वाला समय बताएगा। योजना आयोग की तरह ही नीति आयोग की परिकल्पना भी सरकार के एक थिंकटैंक के रूप में की गयी है, पर यह महज थिंकटैंक नहीं है। इसकी कई भूमिकायें हैं। यह एक सलाहकारी संस्था भी है जो नीतियों के निर्माण, उससे सम्बद्ध योजनाओं के निर्माण एवं उसकी कार्य-योजना तैयार करने में अहम् भूमिका निभाती है। यह सरकार से सम्बद्ध है और इसका हिस्सा भी। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि पहले आयोजन की जरूरत होती है, फिर उसके अनुरूप नीतियाँ तैयार होतीं हैं और अंत में उन्हें क्रियान्वित किया जाता है। योजना आयोग के दौर में फोकस प्लानिंग पर था, पर नीति आयोग का फोकस पॉलिसी पर है। योजना आयोग के द्वारा लक्ष्यों का निर्धारण तो किया जाता था, पर इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नीतियाँ कैसी हों और उसे कैसे प्राप्त किया जाय, इसमें योजना आयोग की कोई भूमिका नहीं होती थी।
नीति आयोग का अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि यह
योजना आयोग से बहुत अलग नहीं है, बस फ़र्क़ यह
है कि नीति आयोग में योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद को मिला दिया गया है।
योजना आयोग के भूतपूर्व सदस्य कीर्ति पारिख ने कहा कि विकेंद्रीकरण की सच्ची भावना
का मतलब है स्थानीय संस्थाओं को विकासात्मक योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन की
शक्ति प्रदान करना, जिसमें केन्द्र और राज्य की भूमिका समर्थकारी की
हो। पारिख का कहना है कि न तो गवर्निंग कौंसिल और न ही क्षेत्रीय कौंसिल में नया
जैसा कुछ नहीं है. दरअसल राष्ट्रीय विकास परिषद(NDC) को ही गवर्निंग कौंसिल के रूप में
रिड्यूस कर दिया गया है. राष्ट्रीय विकास परिषद् की संरचना संघीय
गवर्निंग काउंसिल से कहीं अधिक व्यापक थी क्योंकि उसमें मुख्यमंत्रियों और संघ-शासित प्रदेशों
के प्रशासकों/लेफ़्टिनेंट गवर्नरों के अलावा सभी
केंद्रीय मंत्री और योजना आयोग के सभी सदस्य शामिल होते थे। इसी प्रकार योजना आयोग के ज़माने में भी
जब कभी राज्यों के बीच मसले उभरकर सामने आते थे, इसके निपटारे के लिए संवाहकीय पैनल (Conductive Panel) का गठन किया जाता था।
यदि पिछले ढाई दशकों के दौरान योजना आयोग की
बदलती हुई भूमिका के आलोक में नीति आयोग को देखें, तो हम इस निष्कर्ष
पर पहुँचते हैं कि योजना आयोग ने बदलते हुए समय और बदलती हुई परिस्थितियों की
पृष्ठभूमि में जटिल होती जा रही चुनौतियों का सामना करते हुए जिन बदलावों की दिशा
में अनौपचारिक रूप से पहल की, नीति आयोग के ज़रिए उन्हीं बदलावों को को
औपचारिक एवं संस्थागत रूप देने का प्रयास किया गया। ग्यारहवाँ पंचवर्षीय योजना के
ड्राफ़्ट में यह कहा गया कि किसी भी पंचवर्षीय योजना को अंतिम रूप देने से पूर्व
उसे सरकार के विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों के साथ-साथ सभी राज्य सरकारों के पास भेजा जाना
चाहिए और राज्य सरकारों से अपेक्षा की गई कि वे इसे ज़िला योजना समिति के पास
भेजें और ज़िला योजना समिति द्वारा दिए गए फ़ीडबैक के आलोक में वे केन्द्र सरकार
के पास उस योजना ड्राफ़्ट को अपने फ़ीडबैक के साथ वापस भेजें। इन्हीं फ़ीडबैक के
आलोक में योजना-प्रारूप को अंतिम रूप दिया जाएगा और फिर
अनुमोदन के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद के पास भेजा जाएगा। इसी प्रकार बारहवीं
पंचवर्षीय योजना के निर्माण के दौरान योजना आयोग ने सोशल मीडिया के ज़रिए आमलोगों
तक से फ़ीडबैक माँगे और उस फ़ीडबैक के आलोक में योजना को अंतिम रूप दिया। इस तरह
से बारहवीं योजना तक आते-आते योजना-निर्माण प्रक्रिया को भागीदारीपूर्ण और
समावेशी स्वरूप वाला बनाने का प्रयास किया गया जिसने भारतीय आयोजन को लोकतांत्रिक
आयोजन की ओर उन्मुख किया।
जहाँ तक योजना-निर्माण प्रक्रिया में बॉटम-अप एप्रोच को
अपनाए जाने का प्रश्न है, तो यह न तो
नई संस्था का निर्माण कर देने मात्र से संभव है और न ही दस्तावेज़ों में उल्लेख
मात्र से। इसके लिए आवश्यकता है नज़रिए में परिवर्तन की और तदनुरूप नए संस्थागत
मैकेनिज़्म के विकास की, जो कम-से-कम अभी दिखाई नहीं पर रहा। अगर पंचायतों, जिलों और राज्यों से फ़ीडबैक प्राप्त करना और इस
आलोक में नीति आयोग द्वारा योजनाओं का निर्माण ही बॉटम-अप एप्रोच है, तो फिर इस दिशा में क़वायद तो योजना आयोग ने भी
की थी। फिर, क्या फ़र्क़ रह गया योजना आयोग और नीति आयोग में? अत: आवश्यकता इस बात की है कि बॉटम-अप एप्रोच को
मूर्ति रूप देने के लिए मृतप्राय ज़िला योजना समिति और राज्य योजना बोर्ड को सक्षम
और प्रभावी बनाया जाय। महत्वपूर्ण योजना आयोग की जगह नीति-आयोग का गठन नहीं है, महत्वपूर्ण है उन चिंताओं का समाधान, जिन्होंने
प्लानिंग मैकेनिज़्म में सुधार की आवश्यकता को जन्म दिया। ऐसा योजना आयोग को बनाए
रखते हुए भी संभव है और उसकी जगह पर नई संस्था के गठन के बावजूद संभव नहीं है।
विकेन्द्रीकृत आयोजन(Decentralised Planning)
विकेन्द्रीकृत आयोजन की
पृष्ठभूमि:
संसाधनों एवं चुनौतियों की विविधता और बढ़ती क्षेत्रीय असमानता की पृष्ठभूमि में सामाजिक हस्तक्षेप के बिना बाजारोन्मुखी विकास के प्रति
प्रतिबद्ध अर्थव्यवस्था में विचलन स्वाभाविक है। भारतीय संघ में स्थानिक साम्यता
सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी केन्द्र और वित्त आयोग की है। लेकिन, बुनियादी ढाँचे, सामाजिक सेवाओं, वित्तीय
प्रदर्शन, न्याय आदि से सम्बंधित
मापदंडों का उपयोग करते हुए हाल का एक अध्ययन दर्शाता है कि 2001 से 2012 के दोरान क्षेत्रीय
असमानताओं की खाई चौड़ी होती चली गई। इस असमानता को कम करते हुए स्थानिक इक्विटी
सुनिश्चित करना सहकारी संघवाद का प्रमुख उद्देश्य है तथा स्थानीय सरकार और विकेन्द्रीकृत
आयोजन की रणनीति एवं भारतीय मैकेनिज्म के जरिये इसे सुनिश्चित करने का प्रयास किया
गया है।
उस संघीय राजनीति के लिए, जो बाजार-प्रेरित संसाधनों
के आवंटन और आर्थिक संवृद्धि के लिए प्रतिबद्ध है, प्रभावी स्थानीय शासन आवश्यक है।
अनुभवहीनता या अक्षमता के आधार पर स्थानीय सरकारों के प्रति उदासीनता का प्रदर्शन
का मतलब केंद्रीकरण को प्रोत्साहन है, जो निश्चय ही किसी राष्ट्र
के रूपांतरण को सुनिश्चित करने का उचित तरीका नहीं
है।
73-74वाँ संविधान संशोधन और विकेन्द्रीकृत आयोजन:
73-74वें संविधान संशोधन के लागू
हुए बाईस वर्ष बीत जाने के बावजूद जिला आयोजन समिति (DPC) वाले संवैधानिक प्रावधान की उपेक्षा हुई, जबकि
संविधान इससे अपेक्षा करता है कि संसाधनों के आवंटन (Resource Endowment), पर्यावरण-संरक्षण, अवसंरचना-विकास एवं
स्थानिक आयोजन पर फोकस के साथ जिला आयोजन समिति (DPC) जिले के लिए विकास-आयोजन का ड्राफ्ट तैयार करे। इस प्रकार इस संविधान-संशोधन के
जरिये स्थानीय स्तर पर आयोजन के लिए संस्थागत ढांचे को सृजित करने की कोशिश की गयी
और उसे प्रभावी बनाने का प्रयास किया गया। दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी अपने छठे रिपोर्ट में विकेन्द्रीकृत
आयोजन-प्रक्रिया के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में जिला आयोजन समिति(DPC) को प्रभावी बनाने की
आवश्यकता पर बल दिया गया है। पंचायती-राज
मंत्रालय द्वारा जारी अधिकार-हस्तांतरण रिपोर्ट (Devolution Report),2015 के अनुसार बारह राज्यों ने
एकीकृत जिला विकास योजना तैयार करने की जानकारी दी, पर उनमें से अधिकांश नागरिकों
के अनुमोदन एवं प्रोफेशनल स्क्रूटनी की कसौटी पर खड़े नहीं उतरते। कई राज्यों ने तो
एकीकृत जिला योजना तैयार करने की जरूरत नहीं समझी और यहाँ तक कि डीपीसी का गठन तक नहीं
किया है।
नीति आयोग और
विकेन्द्रीकृत आयोजन:
अब, जबकि योजना आयोग को
भंग कर नीति आयोग का गठन किया जा चुका है, प्रश्न यह उठता है कि क्या नीति आयोग के अंतर्गत जिला विकास योजनाओं
की तैयारी को संस्थागत रूप प्रदान करने के लिए डीपीसी को पुनर्जीवित किया जाएगा? इसकी प्रकार्यात्मक
जिम्मेदारियों को रेखांकित करते हुए नीति आयोग ने गाँव के स्तर पर विश्वसनीय योजना
तैयार करने और सरकार के उच्च स्तर पर उत्तरोत्तर प्रगति के लिए तंत्र विकसित करने
का प्रस्ताव किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO) के सतत विकास लक्ष्य(SDG) के लिए नीति आयोग को
नोडल एजेंसी के रूप में अधिकृत किया गया है, जबकि लोकहित से सम्बद्ध विविध मुद्दों
एवं सामाजिक न्याय सहित इससे सम्बंधित अधिकांश लक्ष्यों को विकेन्द्रीकृत शासन के
जरिये ही प्रभावी तरीके से क्रियान्वित किया जा सकता है।
कोलाम मॉडल:
इस सन्दर्भ में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के
दोरान कोलाम(केरल) के जिला आयोजन समिति(DPC) की पहल पर चार वर्षों तक ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के स्तर पर निर्वाचित
स्थानीय जन-प्रतिनिधियों एवं विभिन्न क्षेत्रों से सम्बद्ध विभागों से निरंतर
परामर्श के पश्चात् आम-सहमति बनाते हुए समेकित जिला विकास योजना तैयार की गई, ताकि
सके बेहतर क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया जा सके। भारत जैसे विविधता से भरे देश में प्रत्येक
जिला अल्पकालिक, मध्यकालिक एवं दीर्घकालिक नजरिये को ध्यान में रखते हुए जिले के
विकास के लिए मॉडल निर्धारित करे। 2013 में ‘समग्र पंचायती राज की
ओर’ (Towards Holistic Panchayat Raj) के नाम से सार्वजनिक वस्तु एवं सेवा की दक्ष डिलीवरी पर जारी विशेषज्ञ समिति
के रिपोर्ट में कोलाम मॉडल की प्रासंगिकता पर बल दिया गया और इसे अपनाए जाने की
आवश्यकता पर बल दिया गया।
अबतक के अनुभवों के आलोक में नीति आयोग:
जहाँ तक पिछले दो वर्षों के दौरान
इसकी भूमिका के मूल्यांकन का प्रश्न है, तो ऐसा करना नीति आयोग ही नहीं, किसी भी
संस्था के लिए जल्दबाजी होगी क्योंकि संस्थाओं के निर्माण एवं विकास में वर्षों लग
जाते हैं, तब कहीं जाकर उसका स्वरुप उभर कर सामने आता है। इस क्रम में उस संस्था
से सम्बंधित अनुभव एवं फीडबैक तथा उस आलोक में सुधार की कोशिशों की उस संस्था के
स्वरुप-निर्धारण एवं उसके विकास में अहम् भूमिका होती है। इसीलिए अगर नीति आयोग से
सम्बंधित अबतक के अनुभवों के आलोक में विचार करें, तो हम
कह सकते हैं कि नीति आयोग अबतक उन अपेक्षाओं पर खड़ा नहीं उतरा है जो इसकी स्थापना
के समय जगाई गई थी। सबसे पहले, नीति आयोग ने पंचवर्षीय
आयोजन के मॉडल को छोड़ते हुए योजनाओं का विघटन तीन स्तरों पर किया है:
1. पंद्रह वर्षों के लिए विज़न-दस्तावेज़
2. सात वर्षों के लिए क्रियान्वयन योजना
3. तीन वर्षों के लिए अल्पावधिक कार्ययोजना
इसके कारण नीति आयोग के विचारों एवं सरकारी नीतियों के बीच समेकन/समन्वयन (Synchronisation) संभव हो पाएगा और निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति भी संभव हो सकेगी। साथ ही, समय रहते योजनाओं की विसंगतियों को दूर कर्र पाना भी संभव हो सकेगा। दूसरी बात, केंद्र-प्रायोजित योजनाओं के सन्दर्भ में 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के आलोक में केंद्र-प्रायोजित योजनाओं की 28 अम्ब्रेला स्कीम में पुनर्संरचना के जरिये न केवल ऐसी योजनाओं की संख्या में कमी की गई, वरन् राज्यों को अंतरित संसाधनों में बिना शर्त अंतरित संसाधनों के अनुपात में वृद्धि की गई ताकि राज्य उन संसाधनों का अपनी जरूरतों एवं प्राथमिकताओं के अनुसार इस्तेमाल कर सकें। तीसरी बात, नीति आयोग के गठन के साथ राज्यों को फण्ड-आवंटन में योजना आयोग वाली भूमिका भी समाप्त हो गई। लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले ढाई दशकों के दौरान योजना आयोग की यह भूमिका सीमित होती चली गयी। इसीलिए नीति आयोग के गठन के समय केद्र द्वारा राज्यों को अंतरित संसाधन का महज 5% हिस्सा (सात लाख करोड़ की अंतरित राशि में महज 25,000 करोड़ की राशि) योजना आयोग के चैनल से वितरित हुआ, जबकि वित्त आयोग के चैनल से 50% राशि और केन्द्रीय मंत्रालयों के चैनल से 45% राशि का अंतरण। पाँचवीं बात, अबतक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सहित अंतर-मंत्रिस्तरीय आवंटन में योजना आयोग की अहम् भूमिका थी, लेकिन दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इस जिम्मेवारी का निर्वाह वित्त मंत्रालय के द्वारा किया जाता है। नीति आयोग के गठन के बाद यह काम वित्त मंत्रालय के जिम्मे दे दिया गया। अबतक बिना योजना आयोग की अनुमति के केन्द्रीय मंत्रालयों के द्वारा कोई योजना नहीं शुरू की जा सकती थी, लेकिन अब इसकी जरूरत नहीं होगी। इसी प्रकार 2013-14 के बाद फण्ड-अंतरण में केन्द्रीय मंत्रालय की भूमिका सीमित होती चली गयी और वित्त मंत्रालय की भूमिका का विस्तार हुआ। चौथी बात, योजनागत व्यय एवं गैर-योजनागत व्यय को लेकर योजना आयोग एवं वित्त मंत्रालय के बीच लम्बे समय से रस्साकशी चल रहे थी, लेकिन रंगराजन समिति,2011 की सिफारिशों के अनुरूप 2017-18 के बजट में योजनागत व्यय एवं गैर-योजनागत व्यय के फर्क की समाप्ति की घोषणा की गई और इसी के साथ लम्बे समय से चला आ रहा विवाद समाप्त हुआ। नीति आयोग के सञ्चालन परिषद् की तीसरी बैठक में यह संकेत दिया गया कि आने वाले समय में सरकार का फोकस विकास एवं वेलफेयर खर्चों और प्रशासनिक खर्चों में अलगाव पर होगा
लेकिन, जिस तरीके से नीति आयोग ने
विवादस्पद मुद्दों पर सरकार की नीतियों एवं योजनाओं का
बचाव किया है, वह स्वतंत्र थिंकटैंक के रूप में इसकी छवि को प्रश्न के दायरे में
लाकर खड़ा कर देता है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि
यह एक अराजनीतिक संस्था नहीं है। दूसरी बात यह कि नोटबंदी (Demonetisation) जैसे
महत्वपूर्ण मसले पर इसकी किसी भी प्रकार की भूमिका का नहीं होना और दबाव के बढ़ने
एवं जरूरत पड़ने पर इसका सरकार के बचाव में सामने आना कहीं-न-कहीं इसके राजनीतिक
संस्था होने वाली धारणा को ही पुष्ट करता है। आज यह एक थिंकटैंक के रूप में ‘आउट
ऑफ़ द बॉक्स’ आईडिया अगर नहीं दे पा रही है, तो इसका कारण यह है कि या तो इसे सरकार
से अलग हटकर सोचने की छूट नहीं है, या फिर यह एस आकार पाने की स्थिति में नहीं है।
यह भी बतलाया जा रहा है कि प्रतिभाशाली विशेषज्ञों के अभाव के कारण नीति आयोग को
इस स्थिति से गुजरना पर रहा है। तीसरी बात, नीति आयोग की परिकल्पना स्वतंत्र
निगरानी एवं मूल्यांकन संस्था के रूप में भी की गई है, लेकिन नीति आयोग इस दायित्व
के निर्वहन में अबतक सफल नहीं दिख रही है। विश्व बैंक का एक अध्ययन राष्ट्रीय
ग्रामीण आजीविका मिशन और राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन को रोजगार के मोर्चे पर बुरी
तरह से असफल बतलाता है, जबकि भारत 2015 तक शिक्षा, स्वास्थ्य, भूखमरी, स्वच्छता और
जेंडर से सम्बंधित सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों(MDG) को प्राप्त करने में असफल क्यों
रहा, इसकी अबतक पड़ताल संभव नहीं हो सकी है। यहाँ तक कि बारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं
के मध्यावधि मूल्यांकन काम जून,2016 में जाकर पूरा हुआ और उस पर विचार करने के लिए
गवर्निंग काउंसिल को योजनावधि के दौरान अवसर तक नहीं मिला जो मध्यावधि मूल्यांकन
की पूरी-की-पूरी कवायद पर ही प्रश्नचिह्न लगाता है। यहाँ तक कि पंचवर्षीय योजनाओं
का स्थान लेने वाले तीन वर्षीय कार्यवाही एजेंडे को अंतिम रूप देने का काम अबतक
पूरा नहीं हुआ है। इसी प्रकार नीति आयोग अबतक रोजगार-अवसरों के सृजन के
मोर्चे पर बुरी तरह विफल रहा है। ये स्थितियाँ नीति आयोग के औचित्य एवं डिजाईन के
प्रश्न पर पुनर्विचार का आधार तैयार करती हैं।
अबतक के अनुभवों के आलोक में यह कहा
जा सकता है कि नीति आयोग की जवाबदेही का निर्धारण करते हुए इसे सरकार द्वारा चलायी
जा रही फ्लैगशिप योजनाओं एवं कार्यक्रमों की निगरानी एवं मूल्यांकन में महत्वपूर्ण
भूमिका प्रदान की जाय। नरेश चन्द्र सक्सेना का कहना है कि फण्ड-आवंटन से सम्बंधित
योजना आयोग वाली भूमिका न रहने के कारण यह अधिकारिता के अभाव में नख-विहीन एवं
दन्त-विहीन संस्था में तब्दील होकर रह गई है। नीति आयोग केवल थिंक-टैंक के रूप में
तब्दील होकर रह गई है। सवाल यह उठता है कि ऐसी स्थिति में क्या राज्य सरकारें नीति
आयोग की उन रिपोर्टों को गंभीरता से लेगी?
इसीलिए इनका मानना है कि एक संस्था के रूप में नीति आयोग को अधिकार-संपन्न
बनाया जाय ताकि राज्य नीति आयोग की अहमियत समझें और उसके साथ संवाद स्थापित करें।
यह भी कहा जा रहा है कि नीति आयोग को कहीं अधिक सक्रियता प्रदर्शित करनी चाहिए।
उससे सम्बंधित सूचनाएँ पब्लिक डोमेन में उपलब्ध होनी चाहिए ताकि आमलोगों के पास
जानकारियाँ उपलब्ध रहे। साथ ही, इसकी क्रियाविधि को सहकारी संघवाद की भावनाओं के
अनुरूप बनाया जाय, ताकि राष्ट्रीय विकास परिषद्(NDC) के अप्रासंगिक हो जाने के
कारण सृजित शून्य की भरपाई की जा सके। राज्यों की अक्सर शिकायतें रहती हैं कि नीति
आयोग के प्लेटफार्म पर उनकी बातों को सुनने वाला कोई नहीं है। ऐसा कोई प्लेटफार्म
नहीं है जहाँ वे अपनी बातें रख सकें और जहाँ उनकी बातें सुनी जाय।
एक संस्था के रूप में नीति
आयोग कितना प्रभावी है और इसकी प्रभाविता को लेकर सरकार कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा
महज इसकी बैठकों और उसके एजेंडे से लगाया जा सकता है। नीति आयोग के गठन के ढाई
वर्ष पूरे होने को हैं और इन ढाई वर्षों के दौरान नीति आयोग के सञ्चालन परिषद् की
महज तीन बैठकें हुई हैं। आयोग की गवर्निग काउंसिल की पहली बैठक फरवरी,2015
को हुई थी, दूसरी बैठक जुलाई,2015
में और तीसरी बैठक लगभग 21 महीने बाद अप्रैल,2017 में। इन बैठकों के दौरान भी जोर
नीति आयोग की भूमिका को पुनर्परिभाषित करने पर रहा है। नीति आयोग ने अब तक योजनाओं
और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की समीक्षा की दिशा में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की
है। जबकि आवश्यकता इस बात की थी कि विभिन्न क्षेत्रों में राज्यों के बेहतर
प्रदर्शन से प्रेरणा लेते हुए नीति आयोग उन केन्द्रीय योजनाओं में अपेक्षित संशोधन
के जरिये अन्य राज्यों को भी उस मॉडल को अपनाने के लिए
प्रेरित करता, उसके बेहतर क्रियान्वयन हेतु राज्यों की मदद
में आगे आता और जरूरत पड़ने पर बाहरी विशेषज्ञों की भी सेवायें लेता। पर, इस दिशा में नीति आयोग का अबतक का प्रदर्शन कहीं-न-कहीं निराश करने वाला
रहा है।
नीति आयोग: हालिया प्रगति
अप्रैल,2017 में नीति आयोग के सञ्चालन परिषद् की
तीसरी बैठक का आयोजन किया गया। यह बैठक इस बार इसलिए अधिक महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इसमें देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास का तीन
वर्षीय एजेंडा भी प्रस्तुत किया गया,
जिसे सभी राज्यों के
सहयोग से तैयार किया गया। इस बैठक में देश में तेजी से बदलाव लाने के लिए
विजन-दस्तावेज़ प्रस्तुत किया गया जिसमें देश की आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान करने के
लिए अगले पंद्रह साल का
रोडमैप प्रस्तुत किया गया। इसी के अंतर्गत तीन वर्षीय कार्यवाही एजेंडा (Action Plan) के साथ-साथ सात वर्षीय रणनीतिक
दस्तावेज़ ‘नेशनल डेवलपमेंट एजेंडा’ भी शामिल है। इसके जरिये पंचवर्षीय
योजनाओं को प्रतिस्थापित किया जाना है, यद्यपि तीन वर्षीय कार्यवाही
एजेंडे को अंतिम रूप दिया जा सकना संभव नहीं हो सका, जबकि इसे अप्रैल,2017 से ही लागू होना था। यह बैठक
वर्तमान राजनीतिक माहौल से अप्रभावित नहीं रही। न केवल पश्चिम बंगाल और दिल्ली
के मुख्यमंत्री इस बैठक में शामिल नहीं हुए, वरन् विपक्षी दल के द्वारा शासित
राज्यों के मुख्यमंत्रियों के द्वारा उठाये गए मुद्दों पर भी इसकी छाप दिखाई पड़ती
है।
ध्यातव्य है कि नीति आयोग की सर्वोच्च संस्था गवर्निंग
कांउसिल के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और इसमें सभी राज्यों के
मुख्यमंत्री/उपराज्यपाल और नीति आयोग के विशेषज्ञ सदस्य बतौर सदस्य शामिल हैं। इसके अलावा केंद्रीय गृह
मंत्री और वित्त मंत्री सहित महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री भी इसमें बतौर सदस्य
शामिल हैं। इसकी पहली बैठक फरवरी,2015 और दूसरी बैठक जुलाई,2015 को हुई थी। इसकी पहली और दूसरी बैठकों
में भी केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को प्रगाढ़ बनाने और नीति आयोग को दोनों
के बीच पुल की तरह काम करने का विचार रखा गया था। तब गरीबी दूर करने और कृषि
क्षेत्र में विकास संबंधी योजनाएं तैयार करने के लिए मुख्यमंत्रियों के तीन समूह
बनाए गए थे।
इस बैठक में पिछली बैठकों में किए गए फैसलों के क्रियान्वयन
की समीक्षा की गई। साथ ही, मध्यप्रदेश
के मुख्यमंत्री ने किसानों की आय को दोगुना करने के सन्दर्भ में एक रोडमैप भी
प्रस्तुत किया, जबकि प्रधानमंत्री ने सभी
राज्यों के मुख्यमंत्रियों से यह आग्रह किया कि वे देशभर में लोकसभा एवं विधानसभा
के एक साथ चुनाव के प्रश्न पर सार्थक बहस को आगे बढ़ायें। प्रधानमंत्री ने बजट-प्रस्तुति की तारीख में बदलाव का
औचित्य बतलाते हुए कहा कि यह कदम वित्तीय वर्ष की शुरुआत में धन की समय-समय पर
उपलब्धता में मदद करता है। अबतक बजट-योजना को आम तौर पर संसद द्वारा मई तक मंजूरी
नहीं दी गई थी, जिसके बाद उन्हें राज्यों और
मंत्रालयों को सूचित किया जाता था। तबतक मानसून के आ जाने के कारण काम शुरू करने
के लिए इसके समाप्त करने का इंतज़ार करना पड़ता था। साथ ही, उन्होंने राज्यों से अप्रैल-मार्च की बजाय जनवरी-दिसंबर को
नए वित्त वर्ष के रूप में स्वीकारे जाने की अपील करते हुए कहा कि भारत जैसे
कृषि-प्रधान देश में कृषि-आय की महत्वपूर्ण भूमिका के मद्देनजर वार्षिक बजट
कृषि-आय प्राप्त होने के तुरंत बाद तैयार किया जाना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक
मतभेदों को दरकिनार करते हुए प्रत्यक्षतः या परोक्षतः विकास से सम्बद्ध सभी
संस्थाओं अर्थात् केंद्र सरकारों, राज्यों, स्थानीय निकायों और गैर-सरकारी संगठनों से मिशन मोड एप्रोच
के साथ मिल-जुलकर काम करते हुए 2022 के लिए लक्ष्यों के
निर्धारण और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने
के लिए प्रयत्नशील होने का आग्रह किया। उन्होंने नीति आयोग के व्यावसायिक दृष्टिकोण
की और संकेत करते हुए कहा कि सरकारी इनपुट्स पर निर्भर रहने की बजाय आयोग ने बाहर के
विशेषज्ञों एवं पेशेवरों की सेवायें ली हैं जिसके कारण इसका व्यवसायीकरण हुआ है।
पंचवर्षीय
योजनाओं को प्रतिस्थापित करने की रणनीति:
'भारत की
बदली हुई वास्तविकता' के साथ विकास रणनीति को सम्बद्ध करने के लिए सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं को
विज़न, रणनीति और कार्यवाही एजेंडे फ्रेमवर्क के जरिये
प्रतिस्थापित करने की घोषणा की। अधिकांशतः कार्यकारी(Executive) निर्णयों को
समाहित करनेवाला कार्यवाही एजेंडा (Action Plan) तीन साल की अवधि के लिए होगा, जबकि रणनीतियों को समाहित करने
वाला नेशनल डेवलपमेंट एजेंडा सात साल की अवधि के लिए होगा जिसके अंतर्गत उन फैसलों
को समाहित किया जाएगा जिनके लिए विधायी परिवर्तन की आवश्यकता होगी। विज़न दस्तावेज़
पंद्रह वर्षों के लिए होगा जिसके अंतर्गत उन संस्थागत परिवर्तनों को शामिल किया
जाएगा जिनके लिए संवैधानिक सुधारों की आवश्यकता हो सकती है।
तीन वर्षीय कार्यवाही योजना(2017-20)
इस बैठक में तीन वर्षीय
कार्यवाही योजना, जो सात वर्षीय रणनीतिक नेशनल डेवलपमेंट एजेंडा का हिस्सा है और
ये दोनों पंद्रह वर्षीय विज़न दस्तावेज के हिस्से हैं, की भी रूपरेखा प्रस्तुत की
गयी जो पंचवर्षीय योजना का स्थान ग्रहण करेगी। वित्त वर्ष 2017-18 से शुरु होकर 2019-20 तक चलेने वाले इस एक्शन प्लान के ड्राफ्ट मसौदे पर राज्य
सरकारों से टिप्पणियाँ माँगी गई है और इसे राज्यों से परामर्श के पश्चात् अंतिम रूप दिया जाएगा। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है
कि तीन वर्षीय योजना की योजनावधि चौदहवें वित्त आयोग के कार्यकाल(2015-20) के ही अनुरूप है जिससे केंद्र और राज्य, दोनों के वित्त-पोषण के अनुमानों को
स्थिरता प्रदान करना संभव हो सकेगा। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कबतक इसे अंतिम रूप
दिया जाएगा और यह कब से प्रभावी होगा?
इस कार्यवाही एजेंडे में
तीन सौ ऐसे बिंदुओं को चिह्नित किया गया जिन पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता
है। एजेंडा में उच्च प्राथमिकता
वाले क्षेत्रों में अतिरिक्त राजस्व स्थानांतरित करने, 2022 तक किसानों की आय दोगुनी
करने का लक्ष्य, ज़मीन की कीमतें कम करने और
कृषि आय पर कर लगाने जैसे उपायों के जरिये कराधार का विस्तार शामिल है। इसके विविध
पहलुओं को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1.
फोकस बिंदु: इस तीन वर्षीय कार्यवाही योजना के सात भागों
में सात विषयों को फोकस किया गया है:
a. राजस्व और व्यय से सम्बंधित इसके पहले भाग में ग्रोथ
आउटलुक, आवश्यक संसाधनों और व्यय-आवंटन पर चर्चा होगी।
b. इसके दूसरे भाग में कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र में
रूपांतरण के लिए कार्यवाही की चर्चा होगी जो किसानों की आय को दोगुना करने एवं
औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र में बेहतर रोजगार अवसर के उद्देश्यों से परिचालित होगी।
c. इसके तीसरे हिस्से में शहरी विकास और ग्रामीण
अर्थव्यवस्था में रूपांतरण के लिए क्षेत्रीय रणनीतियों का जिक्र होगा, ताकि
क्षेत्रीय विकास को सुनिश्चित किया जा सके।
d. इसके चौथे भाग में परिवहन-संपर्कता, डिजिटल कनेक्टिविटी, सार्वजनिक-निजी साझेदारी, ऊर्जा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, नवाचार और उद्यमिता
क्षेत्रों की चर्चा होगी जो विकास में सहायक हैं।
e. इसका पाँचवाँ भाग कर-नीति एवं प्रशासन, कानून का शासन, और प्रतिस्पर्धा-अनुकूल नीतियों एवं विनियमों जैसे शासन से सम्बंधित
मुद्दों पर केंद्रित होगा।
f. इसका छठा भाग स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास जैसे
सामाजिक क्षेत्र से सम्बद्ध मुद्दों पर केन्द्रित होगा।
g. इसका सातवाँ एवं अंतिम भाग पर्यावरण और
जल-संसाधन प्रबंधन जैसे सतत विकास से सम्बंधित मुद्दों पर केन्द्रित होगा।
2. भूमि की कीमतों में कमी: ड्राफ्ट एजेंडा जमीन की कीमतों में कमी लाये
जाने की आवश्यकता पर बल देता है, ताकि शहरीकरण के लिए भू मी की उपलब्धता में
वृद्धि के जरिये वहनीय कीमतों पर आवास की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। इसमें
जमीन के प्रयोग से सम्बंधित नियमों को भी लचीला बनाये जाने, बीमार उद्योगों (Sick Industries) के द्वारा धारित ज़मीनों को रिलीज़ करने, अधिक उदार फ्लोर-स्पेस
इंडेक्स, किराया-नियंत्रण अधिनियम
में सुधार और छात्रावास (Dormitory Housing) को बढ़ावा देने की
आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।
3. एनपीए की
समस्या: ड्राफ्ट एजेंडे में भारतीय
स्टेट बैंक की अगुवाई वाली परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कम्पनी(ARC) को मजबूती प्रदान कर और निजी
परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियों(ARC) को बड़ी संपत्ति की नीलामी के समर्थन के जरिए भारतीय बैंकों
में बढ़ती एवं उच्च गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों(NPA) की चुनौतियों का सामना
करने का प्रस्ताव है।
4. कराधार के
विस्तार पर जोर: ड्राफ्ट
एक्शन एजेंडे में कर-वंचना(Tax Evasion) की चुनौती से प्रभावी तरीके से निपटने, कराधार के विस्तार
और सुधारों के माध्यम से कर ढाँचे के सरलीकरण पर बल दिया गया है। इसमें मौजूदा सीमा-शुल्क
ढाँचे में सुधार के जरिये सात प्रतिशत के एकीकृत दर का सुझाव दिया गया है, ताकि
आयातित वस्तुओं के गलत वर्गीकरण और इसके कारण होने वाली राजस्व-हानि की समस्या के
निपटते हुए सीमा-शुक से प्राप्त होने वाले राजस्व में वृद्धि को सुनिश्चित किया जा
सके। नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय ने निजी आयकर पर दी जाने
वाली छूटों की वापसी और कृषि-आय को आयकर के दायरे में लाये जाने की वकालत की। इससे
कराधार का विस्तार भी संभव है और सामाजिक क्षेत्र से सम्बंधित स्कीमों के लिए
संसाधनों की उपलब्धता भी बढ़ायी जा सकती है। कृषि आय पर कर हेतु आय-सीमा के
निर्धारण के सन्दर्भ में कहा गया कि यह गैर-कृषि आयकर के सामान ही होना चाहिए और
इसके लिए आय की गणना पिछले तीन साल या पाँच साल के आधार पर होनी चाहिए क्योंकि
मानसून पर निर्भरता के कारण कृषि-आय की प्रवृति अस्थिर होती है।
5. रोजगार-अवसरों
का सृजन: इस एक्शन प्लान में नीति आयोग ने जॉबलैस ग्रोथ
की स्थिति से उबरने के लिए रोजगार-अवसरों के सृजन में सहायक टैक्सटाइल, फुटवियर, इलेक्ट्रॉनिक्स
और पर्यटन जैसे क्षेत्रों पर जोर दिया है। साथ ही, इसके मद्देनजर आवास सहित
ढाँचागत क्षेत्र को भी प्राथमिकता दी गई है। पर्यटन क्षेत्र में मार्च 2019 तक 50 सर्किट विकसित करने पर जोर दिया गया है। ड्राफ्ट एजेंडे में निर्यात-प्रोत्साहन
एवं उच्च उत्पादकता वाले रोजगार-अवसर हेतु तटीय रोजगार क्षेत्र (Coastal
Employment Zone) के सृजन और कानूनों में सुधार के जरिये
श्रम-बाजार की लोचशीलता में
वृद्धि को सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
त्रिवर्षीय कार्ययोजना में क्षेत्र-आधारित उपायों
के साथ-साथ कौशल-विकास और स्वरोजगार को बढ़ावा देने वाली योजनाओं को भी प्रभावी
बनाने की रणनीति सुझाई गई है। खुद श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2013-14 में रोजगार-अवसरों की तलाश कर रहे 15 वर्ष से अधिक उम्र के महज 60 प्रतिशत लोगों को ही पूरे साल काम मिल पाया। इस तरह 40 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिन्हें पूरे 12 महीने का काम नहीं मिला,
जबकि 3.7 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिन्हें कोई काम ही नहीं मिला।
दीर्घकालिक दस्तावेज़:
यह तीन वर्षीय कार्यवाही योजना सात साल की रणनीतिक दस्तावेज़
नेशनल डेवलपमेंट एजेंडा का हिस्सा है, जो पंद्रहवर्षीय
विज़न दस्तावेज़ के अंतर्गत शामिल है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष ने इस बैठक में सतत एवं समावेशी
विकास के मद्देनज़र पंद्रह वर्षीय विज़न-दस्तावेज़ की रूपरेखा प्रस्तुत
की और इस सन्दर्भ में सत्रह सतत विकास लक्ष्य पहचाने गए हैं। इस दस्तावेज़ में 2032 तक शौचालय, एलपीजी, बिजली और डिजिटल कनेक्शन की सुविधा के साथ सभी के लिए आवास; निजी वाहन, एयर कंडीशनर और सफेद वस्तुओं (उपभोक्ता वस्तुओं) तक सबकी
पहुँच और सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल के साथ पूरी तरह से साक्षर जनसंख्या के
लक्ष्य को हासिल किया जाना है। साथ ही, उस समय तक सकल घरेलू उत्पाद में तीन गुनी
वृद्धि और प्रति व्यक्ति आय में दो लाख रुपये की वृद्धि का महत्वाकांक्षी लक्ष्य
भी रखा गया है। ऐसा माना जा रहा है कि तीन वर्षीय एजेंडा इन लक्ष्यों को हासिल
करने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण एवं प्रभावी कदम होगा।
नीति आयोग के
उपाध्यक्ष अरविन्द पनगारिया ने विज़न दस्तावेज की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहा कि:
1. जहाँ 1999-2000 और 2015-16 के दौरान भारतीय सकल
घरेलू उत्पाद(GDP) 46 लाख करोड़ रुपये
के स्तर से बढ़कर 137 लाख करोड़ रुपये हो गया, वहीं अगले पंद्रह वर्षों के दौरान इसके 2015-16 के 137 लाख करोड़ रुपये से
लगभग तीन गुना बढ़कर 2030 तक 469 लाख करोड़ रुपये (लगभग 7.25 ट्रिलियन अमेरिकी
डॉलर) हो जाने की संभावना है।
2. 1999-2000 और 2015-16 के दौरान भारतीय
जीडीपी में लगभग 91 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि हुई, वहीं 2015-16 और 2030-31 के दौरान इसमें 332 लाख करोड़ रुपये की
वृद्धि की सम्भावना है। इस प्रकार इसमें रुपये एवं डॉलर के सन्दर्भ में औसतन
क्रमशः 8% एवं 10% की वार्षिक वृद्धि संभावित है।
3. प्रति व्यक्ति आय के
भी 2015-16 के 1,06,589 रुपये से बढ़कर 2031-32 में 3,14,776 रुपये हो जाने की संभावना है।
4. देश की शहरी आबादी
के 2011 के 37.7 करोड़ के स्तर से बढ़कर 2031-32 में 60 करोड़ हो जाने की
संभावना है।
5. इसी प्रकार केंद्र
एवं राज्य के खर्च 2015-16 में 38 लाख करोड़ रुपये थे, जिसके 2031-32 में 130 लाख करोड़ रुपये हो जाने की संभावना है।
6. इस गणना के लिए 2015-16 की कीमतों को आधार
बनाया गया है।
नीति आयोग और संघवाद:
केंद्रीय योजनाओं की कामयाबी काफी कुछ राज्य सरकारों से
मिलने वाले सहयोग पर निर्भर करती है, लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है कि राजनीतिक एवं
वैचारिक कारणों से केंद्र-राज्य के बीच तालमेल न हो पाने के कारन यह सहयोग अवरुद्ध
होता है। आमतौर पर विपक्षी दलों की राज्य सरकारों द्वारा केंद्र से अपेक्षित सहयोग
न मिल पाने या फिर उस पर पक्षपात का आरोप लाया जाता है और केंद्रीय योजनाओं के
प्रति ढीला-ढाला रवैया अपनाया जाता है जो उसके क्रियान्वयन एवं लक्ष्यों की
प्राप्ति को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में योजना आयोग के
कन्ट्रोल एंड कमांड एप्रोच के मुखर आलोचक रहे नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने
के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि वे नीति आयोग के जरिये सहकारी संघवाद की अवधारणा
को मजबूती प्रदान करेंगे। लेकिन, न तो प्रधानमंत्री और
न ही नीति आयोग अबतक राज्यों की अपेक्षाओं पर खड़े उतर सके हैं। यही कारण है कि स्वच्छ
भारत अभियान एवं कृषि से सम्बंधित योजनाओं से लेकर स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया
जैसी केन्द्रीय योजनायें अबतक अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न कर पाने में असफल रही हैं। फिर
भी, नीति आयोग केंद्र एवं राज्य के बीच बेहतर तालमेल के जरिये इसमें अहम् भूमिका
निभा सकता है।
इसी आलोक में इस बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि नीति आयोग एक सामूहिक संघीय निकाय है
जिसकी शक्ति प्रशासनिक एवं वित्तीय नियंत्रण की बजाय उसके विचारों में है। नीति आयोग के संघीय स्वरुप की और इशारा करते हुए उन्होंने
कहा कि 2014-15 से 2016-17
के बीच केंद्र द्वारा राज्यों को अंतरित
राजस्व में 40% का इजाफा हुआ और इस दौरान केन्द्रीय योजनाओं से सम्बद्ध कोष
40% से घटकर 25% रह गया। मतलब
यह कि राज्य केंद्र के द्वारा अंतरित राजस्व का अपनी जरूरतों एवं अपनी
प्राथमिकताओं के अनुसार अब कहीं खुलकर इस्तेमाल कर सकेंगे। उन्होंने तमाम राजनीतिक
एवं वैचारिक मतभेदों को दरकिनार करते हुए जीएसटी पर आम सहमति को सहकारी संघवाद के
उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए राज्यों से जीएसटी के लिए जरूरी एसजीएसटी
विधेयक को बिना विलंब के शीघ्र पारित करने का आग्रह भी किया।उन्होंने नीति-निर्माण
में राज्यों की भागीदारी पर बल देते हुए कहा कि मुख्यमंत्रियों को बजट या योजनाओं की मंजूरी के लिए
नीति आयोग के पास आने की जरूरत नहीं है। उन्होंने यह भी स्पष्ट
किया कि ड्राफ्ट मसौदे पर मुख्यमंत्रियों की ओर से आने वाले सुझावों को ध्यान में रखते
हुए ही विज़न-दस्तावेज को अंतिम रूप दिया जाएगा। साथ ही, नीति के जरिए अहम मुद्दों
मसलन-केंद्रीय योजनाओं, स्वच्छ भारत, स्किल डिवेलपमेंट और
डिजिटल पेमेंट आदि पर भी मुख्यमंत्रियों की राय ली जाएगी। इस तरह राज्य
भी अब नीति-निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगे। इसके मद्देनजर राज्य
नीति-निर्माण में आयोग के साथ सहयोग की अपील की। फलतः केंद्र के द्वारा राज्य
सरकारों को साथ लेकर आगे बढ़ने की इस पहल से बेहतर नतीजों की उम्मीद बनती है। उन्होंने इस
तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि पहली बार राज्य सरकारों से केंद्र-प्रायोजित
योजनाओं की सूची तैयार करने एवं इसकी फंडिंग में केंद्र-राज्य हिस्सेदारी के पैटर्न
के सन्दर्भ में सुझाव माँगा गया है और संसाधन-अवरोधों के बावजूद राज्यों की
सिफारिशों को स्वीकार किया गया। उन्होंने मुख्यमंत्रियों द्वारा उठाए गए क्षेत्रीय
असंतुलन के मुद्दे से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि राष्ट्रीय और राज्य के स्तर पर
प्राथमिकता के आधार पर इस चुनौती से निपटने की जरूरत है। उनहोंने राज्यों से यह
आह्वान किया कि वे आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान करने के लिए पूँजीगत व्यय और
बुनियादी ढाँचे के सृजन (मसलन सड़क,
बंदरगाह, बिजली और रेल) की रफ्तार तेज करें।
लेकिन, विपक्षी मुख्यमंत्री, विशेषकर बिहार और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने फंड-आवंटन में राजनीतिक भेदभाव के आरोप लगाए। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि कुछ केंद्र-प्रायोजित योजनाओं के तहत निधि-आवंटन को कम किया गया, जिसके कारण उन्हें पूरा करना कहीं अधिक मुश्किल हो गया है। इस सन्दर्भ में उन्होंने राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, बाढ़-प्रबंधन कार्यक्रम, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (जो अब प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का हिस्सा है) और राष्ट्रीय ग्रामीण पेय-जल कार्यक्रम जैसे केन्द्रीय योजनाओं का हवाला दिया। इसीलिये अगर उन्हें पूरा किया जाना है, तो केंद्र सरकार अतिरिक्त फण्ड रिलीज़ किया जाय। केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने नीति आयोग द्वारा योजना आयोग के प्रतिस्थापन पर सवाल खड़ा करते हुए राष्ट्रीय विकास परिषद(NDC) और अंतरराज्यीय परिषद(ISC) जैसे मंचों अप्रासंगिक होने के कारण रचनात्मक बहस के लिए कम होती जगह की ओर इशारा किया।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि
समय-समय पर होने वाली इन बैठकों में मौखिक आश्वासनों के जरिये भी केंद्र एवं राज्य
के बीच बेहतर समन्वय को नहीं सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके लिए टकराव की
राजनीति छोड़नी होगी। साथ ही, नीति आयोग को केंद्र और राज्य के बीच निरंतर
संपर्क-संवाद सुनिश्चित करने वाले प्लेटफार्म के रूप में सामने आना होगा।
विश्लेषण:
गवर्निंग काउंसिल की तीसरी
बैठक में जिस विज़न-दस्तावेज़ की रूपरेखा प्रस्तुत की गई, उसने नीति आयोग की भूमिका
को लेकर कुछ प्रश्नों को जन्म दिया है। पहला प्रश्न तो यह उठता है कि क्या नीति
आयोग का काम अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर भर प्रस्तुत करना है, या फिर इससे आगे बढ़कर
इसके सामने मौजूद चुनौतियों और उन चुनौतियों से निपटने के लिए उपयुक्त रणनीति
सुझाने की अपेक्षा भी इससे की जाती है? यह प्रश्न तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है
जब हम देखते हैं कि नीति आयोग ने पिछले सवा दो वर्षों के दौरान सरकारी नीतियों और
कार्यक्रमों का खुलकर बचाव किया है। अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलकर कभी भी
सरकारी योजनाओं की विफलता के मूल्यांकन की कोशिश नहीं की है। विज़न-दस्तावेज को
देखकर ऐसा लगता है कि नीति आयोग
अर्थव्यवस्था की सुनहली तस्वीर को प्रस्तुत कर ही अपने कर्तव्यों की
इतिश्री समझ रहा है। दूसरा प्रश्न यह कि विज़न-दस्तावेज़ में कहीं-न-कहीं ग्रोथ को
कहीं अधिक महत्व दिया गया है और आर्थिक-सामाजिक विकास एवं समावेशन वाले पहलुओं की
उपेक्षा की गई है। यही कारण है कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजानिक
निवेश और इसकी गुणवत्ता का प्रश्न कहीं-न-कहीं उपेक्षित है। तीसरा प्रश्न, इसमें
इस प्रश्न का कहीं विश्लेषण नहीं मिलता है कि गरीबी एवं बेरोजगारी से लेकर शिक्षा,
स्वास्थ्य, कुपोषण, क्षेत्रीय असंतुलन, सामजिक-आर्थिक विषमता, शहरी-ग्रामीण अंतराल
आदि के मोर्चे पर अबतक हम क्यों विफल रहे और किस प्रकार आनेवाले समय में इन विफलताओं
से निपटा जाएगा? चौथी बात, यही बातें जॉबलेस ग्रोथ के सन्दर्भ में भी कही जा सकती
हैं। क्या बिना रोजगार-अवसरों की चुनौती का सामना किये इन मोर्चे पर बेहतर परिणाम
हासिल किये जा सकते हैं। इन तमाम प्रश्नों से जूझे बिना विज़न-दस्तावेज़ के कोई
अहमियत नहीं है।
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि 31 मार्च,2017 को बारहवीं
पंचवर्षीय योजना की समाप्ति के साथ पंचवर्षीय योजनायें इतिहास में तब्दील हो गई।
इसे तीन वर्षीय कार्यवाही योजनाओं से प्रतिस्थापित होना है, यह बात अलग है कि
अप्रैल,2017 तक इसे अंतिम रूप दिया जा सकना संभव नहीं हो सका है।
प्रभावी रूप से जब तक परिषद द्वारा इसकी पुष्टि नहीं की जाती है, तब तक भारत के
नीतिगत ढाँचे में शून्य है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि
योजनायें कितने वर्षों के लिए हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि वे
कितनी प्रभावी हैं।
Hi...
ReplyDeleteFirstly i would like to thank you for providing such an informative stuff.
You have provided almost a book on NITI AAYOG.
secondly i will request to shorten the material you provided so that we don't get bored reading.. however, i will request to provide more article on other important topics.
Dear Santosh, if it's comprehensive, then it'll be lengthy. So, Dear, pardon me. You'll realise its benefit as development of inter disciplinary approach, when you read it regularly. Please, don't make haste in concluding.
DeleteSir, I requested you to write about urban area, problem, remedies and about smart city program
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