भारतीय वित्त-वर्ष में बदलाव
भारतीय वित्त-वर्ष
की परम्परा:
भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जहाँ
के वित्त वर्ष और सामान्य वर्ष का कैलेंडर अलग-अलग होता है। भारत में तो और भी
भयावह स्थिति है जहाँ नए वर्ष की शुरूआत जनवरी से, वित्त-वर्ष की शुरूआत अप्रैल
से, कृषि-वर्ष की शुरूआत जून से और रिज़र्व बैंक के वित्त-वर्ष के साथ-साथ शैक्षणिक
सत्र की शुरूआत जुलाई से होती है। यद्यपि इसका बहुत बड़ा आर्थिक असर नहीं है, तथापि
इसके कारण व्यावहारिक समस्यायें तो आती ही हैं। हाँ, यह जरूर है कि पिछले डेढ़ सौ
साल के दोरान हम इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। जुलाई में जबतक शैक्षिक-सत्र की शुरूआत
होती है, तबतक सामान्य
कैलेंडर में आधा वर्ष और वित्त वर्ष का एक-चौथाई हिस्सा निकल चुका होता है। इसीलिए
सरकार के द्वारा शिक्षण-संस्थानों को मिलने वाले सालाना अनुदान का एक ही
शिक्षा-सत्र में इस्तेमाल संभव नहीं हो पाता है। इतना ही नहीं, भारतीय समाज एवं
संस्कृति की विविधता का असर वित्त-वर्ष की प्रचलित संकल्पना पर भी दिखाई पड़ता है। गुजरात
में पारंपरिक रूप से अक्टूबर-नवंबर के समय दीवाली से नए साल की शुरुआत मानी जाती
है, तो बंगाल में (13-15) अप्रैल के
बीच पोइला बैसाख से। महाराष्ट्र
में मार्च-अप्रैल में गुड़ी पड़वा से नए साल की शुरूआत मानी जाती है, तो पंजाब में 13 अप्रैल को बैसाखी से। और, इसी दौरान लोग नए बही-खाते की शुरूआत करते हैं। मतलब यह कि सरकारी वित्त-वर्ष का पालन करते हुए भी भारतीय
व्यापारियों ने कभी भारतीय परंपरा को नहीं छोड़ा और अपने बही-खातों की शुरूआत
पारंपरिक रूप से करते रहे। आधिकारिक
रूप में भारत में शक कैलेंडर को मान्यता दी गई है और इसके अनुसार शक संवत् 1939 चल रहा है, पर यह प्रचालन में नहीं आ
पाया। हाल के दिनों में विक्रम संवत, जो मार्च-अप्रैल में पड़ने
वाली चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से शुरू होता है, को लोकप्रिय बनाते हुए एक अप्रैल
को नव संवत्सर मनाने की परंपरा तेज़ हुई है; यद्यपि इसकी
शुरूआत की तिथि निर्धारित नहीं है, जैसा कि इस साल यह तिथि 28 मार्च को पड़ी थी।
वित्त-वर्ष में बदलाव की
पहल:
वित्त-वर्ष में बदलाव की माँग कोई नई नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था
की कृषि पर निर्भरता, कृषि की मानसून पर निर्भरता और मानसून की अनिश्चितता की
पृष्ठभूमि में देश
में जब-जब सूखा पड़ा है, वित्त-वर्ष में बदलाव की माँग जोर पकड़ने
लगी है। गाँधीवादियों और समाजवादियों के
द्वारा तो इसकी माँग आजादी के बाद से ही की जाती रही है। अगर समाजवादियों ने वित्त
वर्ष को कृषि वर्ष से जोड़ने की माँग की, तो अन्य ने वित्त-वर्ष को दीपावली से
जोड़ने की, जब देश के कारोबारियों का नया साल शुरू होता है। उस समय तक खरीफ की फसल
भी तैयार हो चुकी होती है और मानसून का भी पूरा-पूरा आकलन संभव हो पाता है। इसी
आलोक में 1955 में मेघनाद साहा के नेतृत्व में CSIR कैलेंडर रिफार्म समिति का गठन
किया गया। इस समिति ने भारत के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित तीस से अधिक कैलेंडरों
का परीक्षण करते हुए शक संवत् को नेशनल कैलेंडर के रूप में अपनाए जाने की अनुशंसा
की, ताकि कैलेंडर वर्ष को मानकीकृत किया जा सके। इसी आलोक में 1957 में शक संवत्
को नेशनल कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया गया, यह बात अलग है कि यह प्रयास बहत
सफल होता नहीं दिखा।
एल. के. झा समिति की सिफारिशें:
आगे चलकर जब 1979-80 एवं 1982-83
में भयंकर सूखा पड़ा, तो वित्त-वर्ष में बदलाव की माँग एक बार फिर से जोर पकड़ी। इसी आलोक में बढ़ते हुए दबाव के मद्देनजर इस प्रश्न पर
विचार के लिए 1984 में एल. के. झा की अध्यक्षता
में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया, जिसने अप्रैल,1985 में प्रस्तुत अपनी सिफारिश में
वित्त-वर्ष को कैलेंडर-वर्ष में तब्दील करने के प्रश्न पर सहमति जताई।
समिति ने इस प्रश्न पर विचार करते
हुये कहा कि अप्रैल-मार्च वाला वित्त-वर्ष में
नीति-निर्माताओं और सरकार के लिए बजट-निर्माण की प्रक्रिया में मानसून-आकलन का
समायोजन संभव नहीं रह जाता है, जबकि बजट सामाजिक-आर्थिक चिंताओं के निराकरण का एक
महत्वपूर्ण उपकरण है और देश के सामाजिक-आर्थिक आयामों के निर्धारण में कृषि-क्षेत्र
की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि भारत में बोआई और खेती की दृष्टि दो प्रमुख
फसल-सीजन हैं: खरीफ और रबी। खरीफ की
निर्भरता दक्षिण-पश्चिम मानसून पर होती है, जबकि रबी की निर्भरता त्तर-पश्चिम
मानसून पर। इनमें भी जल-सघन खरीफ की मानसून पर निर्भरता कहीं अधिक है और इसीलिए
रबी की तुलना में खरीफ के उत्पादन में अस्थिरता कहीं ज्यादा है, जबकि खरीफ फसलों
में चावल और दलहन खाद्य एवं पोषण-सुरक्षा में और विशेष रूप से चावल कृषि-निर्यात
में अहम् भूमिका निभाता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए एल. के. झा समिति
इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वित्त-वर्ष कोई भी हो, वह दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। फिर भी, उसने अपनी रिपोर्ट में वित्त-वर्ष में
बदलाव की सिफारिश करते हए कहा कि बजट अक्टूबर में तैयार किया जाना चाहिए जब
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून समाप्त हो चुका होता है, खरीफ-उत्पादन की जानकारी उपलब्ध
होती है और अपेक्षाकृत अधिक निश्चितता के साथ रबी का भी अनुमान लगाया जा सकता है।
निश्चय ही समिति नए वित्त-वर्ष के रूप में जनवरी-दिसम्बर के पक्ष में थी, ताकि
मानसून के प्रभावों का भी बेहतर समायोजन संभव हो सके। इससे वित्त-वर्ष और कैलेंडर-वर्ष के
अलग-अलग होने के कारण जो अनावश्यक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, उससे भी बचा जा
सकेगा।
बदलाव के पक्ष में तर्क देते हुए झा समिति ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि “राष्ट्रीय
सांख्यिकी से सम्बंधित आँकड़ें केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन(CSO) के द्वारा
राष्ट्रीय खातों की संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की सिफारिशों और दिशा-निर्देशों के अनुरूप
संग्रहित किये जाते हैं और इनके द्वारा संग्रहित ये आँकड़े संयुक्त राष्ट्र के
समक्ष भी प्रस्तुत किये जाते हैं। ध्यातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा
कैलेन्डर वर्ष के आधार पर आँकड़े जारी किये जाने के कारण कैलेन्डर वर्ष को ही
प्राथमिकता दी जाती है। इसलिए अगर कैलेंडर वर्ष को वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार
किये जाने की स्थिति में राष्ट्रीय लेखा को अंतरराष्ट्रीय व्यवहारों के
अनुरूप बनाया जा सकेगा, और अंतर्राष्ट्रीय आधार पर ये आँकड़े
तुलनीय हो सकेंगे। समिति ने केन्द्रीय सांख्यिकी
संगठन(CSO) का हवाला देते हुए यह भी स्पष्ट किया कि वित्त-वर्ष में परिवर्तन के कारण कोई महत्वपूर्ण व्यवधान उत्पन्न
नहीं होगा। इसके उलट यह विभिन्न सांख्यिकीय श्रृंखलाओं की अवधि में एकरूपता के जरिए
अपेक्षाकृत अधिक साफ़-सुथरी व्यवस्था को जन्म देगा।
स्पष्ट है कि समिति की दृष्टि से वित्त-वर्ष में बदलाव
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के प्रभाव से बजट को बचाने का काम करेगी। लेकिन, मानसून-पूर्वानुमान
में व्याप्त अनिश्चितताओं और इस अनिश्चितता से मुकाबले के लिए समुचित एवं पर्याप्त
तैयारी में विफलता के मसले पर सहमति न बनने के कारण यह बदलाव संभव नहीं हो सका। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने तीन आधारों
पर इसे स्वीकार नहीं किया:
1.
बदलाव के लाभ अत्यंत कम हैं।
2.
वित्त-वर्ष में बदलाव बाजार से
आँकड़ों के संग्रहण को प्रभावित करेगा और सामान्य स्थिति की पुनर्बहाली में लम्बा
समय लगेगा।
3. बदलाव के कारण कर-कानूनों एवं कर-व्यवस्था के साथ-साथ व्यय से
सम्बंधित वित्तीय प्रक्रिया में व्यापक बदलाव की जरूरत होगी।
स्पष्ट है
कि तत्कालीन केंद्र सरकार को इसके बदलावों से लाभ कम और परेशानियाँ ज्यादा होती
हुई दिखाई पडीं, इसलिए उसने वित्त-वर्ष में बदलाव का विचार त्याग दिया।
शंकर आचार्य
पैनल:
आगे चलकर 2014 और
2015 में लगातार दो वर्षों तक भारत की कृषि-अर्थव्यवस्था को कम बारिश और सूखे की
चुनौती का सामना करना पड़ा, जिससे निपटने के लिए अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत महसूस
हुई। इसीलिये इस चुनौती से निपटने के लिए वित्त-वर्ष के दरम्यान ही कृषि से
सम्बंधित वित्तीय योजनाओं को पुनर्गठित करने की जरूरत पड़ी। इसी पृष्ठभूमि में एक लम्बे अंतराल के बाद एक बार फिर से
वित्त-वर्ष में बदलाव का प्रश्न राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आता दिखा। जुलाई,2016 में
वर्तमान वित्त-वर्ष में बदलाव, इन बदलावों के औचित्य, और इन बदलावों के आर्थिक
प्रभावों, विशेषकर कृषि-अर्थव्यवस्था एवं किसानों पर उसके प्रभावों के प्रश्न पर
विचार के लिए वित्त-मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार शंकर एन. आचार्य की
अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का गठन किया गया। समिति में पूर्व
कैबिनेट सचिव के. एम. चंद्रशेखर, राजीव कमार ओंर पी. वी. राजरामना भी शामिल थे।
यद्यपि दिसम्बर,2016 में प्रस्तुत समिति की रिपोर्ट को अबतक सार्वजानिक नहीं किया
गया है, तथापि ऐसा माना जा रहा है कि समिति ने बदलाव के पक्ष में तर्क देते हुए
विभिन्न कृषि-फसलों, कारोबार, करारोपण व्यवस्था एवं प्रक्रिया, सांख्यिकी और
आँकड़ा-संग्रहण पर इसके प्रभाव का उल्लेख किया है। कमेटी ने वित्त वर्ष को कैलेंडर
वर्ष एक जनवरी से ही करने की सिफारिश की है, लेकिन अबतक इस रिपोर्ट को सार्वजानिक
नहीं किया गया है। चूँकि इस कदम में केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों के हित बहुत कुछ जुड़े हुए हैं, ऐसे में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले विस्तृत चर्चा की आवश्यकता
है।
नीति आयोग के नोट:
इससे पहले कि इस पैनल की
रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाता और इस पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू होती,
नीति आयोग के माध्यम से सरकार ने अपनी मंशा जाहिर कर दी कि वह वित्त-वर्ष में बदलाव
के पक्ष में है। नीति आयोग ने इस बदलाव के पक्ष
में मानसून एवं कृषि-आय से सम्बंधित आँकड़ों के संग्रहण में आने वाली कठिनाइयों का
हवाला दिया और कहा कि यह बदलाव सरकार के लिए समय पर महत्वपूर्ण सांख्यिकीय आँकड़ों
की उपलब्धता को सुनिश्चित करेगा जिससे सरकार बजट-आकलन प्रक्रिया का अधिक प्रभावी
तरीके से निष्पादन कर सकेगी। इसी आलोक में
नीति आयोग के नोट में दीपावली को वित्त-वर्ष की शुरूआत के लिए उपयुक्त समय माना
गया है जो रबी की तुलना में खरीफ के अपेक्षाकृत अधिक महत्व और जीडीपी में योगदान
की बजाय रोजगार की दृष्टि से कृषि के महत्व पर आधारित है; यद्यपि इस नोट में नीति
आयोग ने यह भी स्वीकार किया कि जैसे-जैसे मानसून-पूर्वानुमान में सटीकता आयेगी और
सिंचाई-सुविधा के विस्तार के साथ कृषि की मानसून पर निर्भरता घटेगी, और जीडीपी में
कृषि के योगदान में कमी आयेगी, वित्त-वर्ष में बदलाव का प्रश्न बहुत प्रासंगिक
नहीं रह जायेगा। इस नोट में नीति आयोग ने
यह संभावना व्यक्त की है कि इसके दीर्घकालिक लाभ इसकी तात्कालिक लागत और इसके
क्रियान्वयन में आने वाले अवरोधों पर भारी पड़ेंगे। संसदीय पैनल ने भी इस मसले को आगे ले जाने का
सुझाव दिया।
नीति आयोग की बैठक:
अप्रैल,2017 में दिल्ली में नीति आयोग की गर्वनिंग काउंसिल की तीसरी बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए नया वित्त-वर्ष अपनाने पर ज़ोर दिया और मुख्यमंत्रियों से वित्त-वर्ष में बदलाव के सुझाव पर गौर
करने एवं इसे लागू करने के लिए उपयुक्त सुझाव देने की अपील की। उन्होंने कहा कि वित्त-वर्ष में बदलाव से सरकार को कृषि की दशा का आकलन करने में आसानी होगी और
किसानों की बेहतरी के लिए बजट में बेहतर प्रावधान किए जा सकेंगे। उन्होंने बदलाव के पक्ष में तर्क
देते हुए
कहा कि खराब समय-प्रबंधन के कारण कई अच्छी पहलें और योजनायें
अपेक्षित परिणाम दे पाने में विफल रही हैं।
इसीलिए एक ऐसी मजबूत व्यवस्था विकसित करने की आवश्यकता है जो विविधताओं के बीच भी
प्रभावी तरीके से कार्य कर सके। इसके मद्देनजर उन्होंने सरकार के तीनों स्तर पर और
संसद एवं राज्य विधानसभाओं में व्यापक बहस चलाए जाने की अपील की।
मध्यप्रदेश के द्वारा पहल:
इससे पहले कि इस प्रश्न पर व्यापक
विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू होती, मई,2017 में मध्यप्रदेश के कैबिनेट ने
जनवरी-दिसम्बर को नए वित्त-वर्ष के रूप में अपनाते हुए अगला बजट इस वर्ष दिसम्बर
माह में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया, जो इस दिशा में संकेत करता है कि किस
प्रकार आज की राजनीति गंभीर-से-गंभीर मसलों पर भी विमर्श से परहेज करती दिख रही है। साथ ही, इस तरह के कदम संघीय भावना के भी
खिलाफ हैं क्योंकि ऐसे कदम अनावश्यक रूप से राज्यों पर केंद्र के दबाव को बढ़ाते
हैं। मध्यप्रदेश के द्वारा की गई इस
पहल के बाद आंध्रप्रदेश ने भी नए वित्त-वर्ष को अपनाने की दिशा में सकारात्मक
संकेत देते हुए कहा कि अगर केंद्र सरकार के द्वारा वित्त-वर्ष में बदलाव को लेकर
कोई निर्णय लिया जाता है, तो आन्ध्रप्रदेश इस निर्णय को स्वीकार करेगा।
संविधान-संशोधन
अपेक्षित:
अगर इस दिशा में पहल करते हुए प्रस्तावित बदलाव को व्यावहारिक
रूप दिया जाता है, तो सामान्य इस्तेमाल में लाये जाने वाले कैलेंडर और वित्त-वर्ष
के कैलेंडर में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। इससे उन बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों और निवेशकों को भी भारत में कारोबार करने में आसानी होगी जिनके द्वारा
जनवरी-दिसंबर के चक्र को वित्त-वर्ष के रूप में अपनाया गया है। किन्तु, इसके लिए कई विधियों
और कराधान कानूनों में संशोधन की आवश्यकता होगी।
भारतीय संविधान सरकारी लेखा-जोखा
पर स्वतंत्र रूप से नज़र रखने के लिए नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का प्रावधान लेकर उपस्थित होता है। अनुच्छेद 150 के अनुसार संघ और राज्यों के लेखाओं को ऐसे प्रारूप में रखा जाएगा जो
राष्ट्रपति भारत के नियंत्रक महालेखा-परीक्षक की सलाह के अनुरूप हो। वर्तमान
वित्त-वर्ष को जनरल क्लॉजेज ऐक्ट,1867 के तहत् अप्रैल-मार्च के रूप में परिभाषित
किया गया गया है और अनुच्छेद 367(1) के तहत् वित्त-वर्ष की इस परिभाषा
को तबतक के लिए स्वीकार किया गया है जब तक भारतीय संसद के द्वारा इसमें परिवर्तन
नहीं कर दिया जाता। अतः वित्त-वर्ष
में किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए संविधान में संशोधन की दिशा में पहल करनी होगी।
बदलाव के पक्ष में:
1. दुनिया के विभिन्न देशों में वित्त-वर्ष का निर्धारण वहाँ की
स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार किया जाता है, जबकि भारत आजादी के सत्तर साल बाद भी ब्रिटिश पंरपरा का अनुसरण कर रहे हैं। इसीलिए अप्रैल-मार्च वाले वित्त-वर्ष को औपनिवेशिक विरासत के रूप
में बतलाते हुए यह तर्क दिया जाता है कि ऐसा सिर्फ ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से भारतीय
अर्थव्यवस्था को समेकित करने के लिए किया गया था और इस क्रम में स्थानीय एवं राष्ट्रीय कारकों को अहमियत
नहीं की गई इसलिए इसकी जगह नए वित्त-वर्ष को
अपनाकर औपनिवेशिक विरासत से मुक्त होना समय की माँग है।
2.
भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में, जहाँ
कृषि-आय अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहाँ औद्योगिक क्षेत्र एवं सेवा क्षेत्र का विकास
भी बहुत कुछ कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन पर निर्भर करता है और जहाँ की आधी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है, वहाँ बजट को कृषि-संबंधी आय प्राप्त होने के तत्काल बाद तैयार
किया जाना चाहिए। इससे
वित्त-वर्ष को स्थानीय जरूरतों, और यहाँ की सामाजिक हकीकत से जुड़ने का अवसर मिलेगा।
3.
भारतीय कृषि और मानसून के
अंतर्संबंधों और भारतीय कृषि की मानसून पर निर्भरता के आलोक में नीति आयोग की
वेबसाइट पर मौजूद नोट में वित्त-वर्ष
में बदलाव की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया है कि जब तक सरकारी अधिकारियों को
नया आवंटन मिलता है, तब तक पिछले दक्षिण-पश्चिम मॉनसून का असर पुराना पड़ चुका
होता है और नए आवंटन के जमीनी स्तर तक पहुँचने तक अगला मॉनसून करीब होता है जिसके
कारण समायोजन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। इसीलिए बजट ऐसे समय में तैयार किया
जाना चाहिए जब बजट में मॉनसून के प्रभाव का समायोजन संभव हो सके, ताकि संसाधनों के
इष्टतम दोहन को सनिश्चित किया जा सके और अपेक्षित परिणाम पाया जा सके। इससे
बजट-लक्ष्यों को प्राप्त करना भी संभव हो सकेगा। इसीलिए
यह सरकार को बजट-निर्माण प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से नई दिशा देने में सक्षम बनाएगा।
4. जनवरी में बजट
पेश करने पर किसानों का खयाल रखने के साथ-साथ मुद्रास्फीति का आकलन, कारोबारियों के कारोबार का अंदाजा आदि लगाना आसान होगा। साथ ही, देश की बेहतरी के लिए बजट में बेहतर प्रबंधन किए जा सकेंगे।
अन्य देशों से तुलना:
यह कहना कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़ों के तुलनात्मक
आकलन को आसान बनाने के लिए वित्त-वर्ष में बदलाव की जरूरत है, भी उचित नहीं है
क्योंकि इस संबंध में वैश्विक स्तर पर एकरूपता का अभाव दिखता है। अमेरिकी खुफिया संस्था सेंट्रल
इंटेलिजेंस एजेंसी के वर्ल्ड फैक्टबुक के अनुसार दुनिया के 256 देशों में 156
देशों के द्वारा जनवरी-दिसम्बर अर्थात् कैलेंडर वर्ष को ही वित्त-वर्ष के रूप में
स्वीकार किया गया है, जबकि तैंतीस देशों के द्वारा अप्रैल-मार्च, बीस देशों के
द्वारा जुलाई-जून और बारह देशों के द्वारा अक्टूबर-सितम्बर को। 1974 में अमेरिका ने कांग्रेसनल बजट ऐंड इंपाउंडमेंट कंट्रोल एक्ट के जरिये संघीय सरकार के लिए जुलाई-जून की जगह अक्तूबर-सितंबर
को नए वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार किया था, जबकि
अमेरिकी राज्यों के वित्त-वर्ष अलग-अलग तारीख़ों से शुरू होते हैं। लेकिन, अमेरिकी आंतरिक राजस्व सेवा के द्वारा कर-वर्ष के
रूप में लेखा-जोखा और आय-व्यय की रिपोर्टिंग के लिए कैलेंडर वर्ष का इस्तेमाल किया
जाता है। अधिकांश अमेरिकी एवं यूरोपीय कंपनियों के द्वारा कारोबार के लिए कैलेंडर
वर्ष का ही इस्तेमाल किया जाता है। रूस, चीन, ब्राज़ील, फ्रांस एवं ग्रीस का वित्त-वर्ष एक जनवरी से शुरू होता है, तो मिस्र,
बांग्लादेश, ऑस्ट्रेलिया एवं पाकिस्तान का
वित्त-वर्ष एक जुलाई से और दक्षिण अफ्रीका, हांगकांग,
ब्रिटेन और कनाडा का वित्त-वर्ष एक अप्रैल से। स्पष्ट है कि पूरी दुनिया में एक जनवरी से वित्त-वर्ष शुरू
होने का कोई सर्वमान्य पैटर्न नहीं है। इस बदलाव से भारत में निवेश बढऩे की भी कोई उम्मीद नहीं है
क्योंकि वित्त-वर्ष में भिन्नता निवेश में गतिरोध की वजह भी नहीं है।
बदलाव के विरोध
में तर्क:
अर्थशास्त्री और
नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय और किशोर देसाई के नीति आयोग के वेबसाइट पर
प्रकाशित नोट में यह बताया गया है कि वर्तमान वित्त-वर्ष न तो मानसून से जुड़ता है, न कृषि से और न
भारतीय संस्कृति से। इसका जोर इस बात पर है कि अमेरिका और चीन सहित दुनिया के
ज्यादातर देशों के वित्त-वर्ष के साथ हमारे वित्त-वर्ष का मेल नहीं है क्योंकि
अमेरिका का केंद्रीय वित्त-वर्ष अक्टूबर से शुरू होता है, जबकि चीन का वित्त-वर्ष
एक जनवरी से। इसीलिए इसका मानना है कि वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया की
अर्थव्यवस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने के लिए अप्रैल-मार्च की जगह जनवरी-दिसंबर के
चक्र को नए वित्त-वर्ष के रूप में अपनाया जाय। लेकिन, इस नोट में इस बात की
उपेक्षा की गई कि अमेरिका और चीन में नए वित्त वर्ष की शुरूआत अलग-अलग समय पर होती
है। साथ ही, अगर इसी तर्क के आधार पर भारत में वित्त-वर्ष चक्र को बदलना उचित है,
तो सबसे पहले इस तरह के बदलाव की दिशा में पहल अमेरिका को करनी चाहिए जहाँ संघ एवं
राज्यों के वित्त-वर्ष अलग-अलग होते हैं। इतना ही नहीं, इस नोट में अप्रैल-मार्च
वाले वर्तमान वित्त-वर्ष को औपनिवेशिक विरासत बतलाया गया है, इस तथ्य की उपेक्षा
करते हुए कि भारतीय वित्त-वर्ष वही नहीं है जो ब्रिटिश वित्त-वर्ष है। ब्रिटिश
वित्त-वर्ष की शुरूआत छह अप्रैल से होती है, लेकिन भारतीय वित्त-वर्ष की एक अप्रैल
से।
इसी प्रकार यह सच है कि 1867 में ब्रिटेन की तर्ज़ पर भारत ने मई-अप्रैल की जगह
अप्रैल-मार्च को नए वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार किया ताकि भारतीय वित्त-वर्ष को
ब्रिटिश वित्त-वर्ष से सम्बद्ध किया जा सके, लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि यह भारतीय संस्कृति
एवं परम्परा के साथ-साथ स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप नहीं है। वास्तव में प्रस्तावित जनवरी-दिसम्बर की तुलना में वर्तमान
अप्रैल-मार्च वाला वित्त-वर्ष कृषि-मौसम से कहीं बेहतर सम्बद्ध है। मार्च के अंत
तक रबी की फसलें (गेहूँ, सरसों, चना आदि) कटने के लिए तैयार होती हैं, और फसलों की वृद्धि
के मामले में कृषि-कार्य कमोबेश पूरा होने के करीब होता है, केवल कटाई और विपणन का
कार्य शेष रह जाता है। जनवरी-दिसम्बर वाले प्रस्तावित वित्त-वर्ष में तो खरीफ फसल
भले ही तैयार हो गया हो, पर रबी की
बोआई अभी चल ही रही होती है और यह प्रक्रिया जनवरी के मध्य तक जारी रहती है। ऐसी
स्थिति में, जबकि फसल-वृद्धि की प्रक्रिया अभी आधी दूरी भी नहीं चल पाती, रबी-फसल
का आकलन मुश्किल होगा। इसीलिए कृषि की दृष्टि से तो जुलाई-जून का वर्ष ही उचित है
क्योंकि एक ओर रबी-फसलों की कटाई एवं विपणन का काम पूरा हो चुका होता है, दूसरी ओर
मानसून के एक माह पहले आने के कारण खरीफ फसलों की बोआई का काम लगभग पूरा हो चुका
होता है। इसीलिए अप्रैल-मार्च वाला वित्त-वर्ष परफेक्ट भले न हो, पर जनवरी-दिसम्बर
की तुलना में कृषि-अर्थव्यवस्था के अनुरूप समायोजन में कहीं कहीं अधिक समर्थ है। साथ ही, यह उस चैत्र महीने से भी बहुत दूर नहीं है जब सांस्कृतिक रूप से भारत
के एक बड़े हिस्से का नया वर्ष शुरू होता है। शायद इसीलिए
यह कहा जाता है कि वित्त-वर्ष को कृषि से जोड़ने का तर्क मूल रूप से राजनैतिक ही
रहा है। इसे विशेषज्ञों, यहाँ तक कि कृषि अर्थशास्त्रियों का भी कभी इसका समर्थन
नहीं मिला। दरअसल यह अंतर्राष्ट्रीय कारोबारियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों(MNC’s)
का बढ़ता हुआ दबाव है जिन्हें वित्त-वर्ष और कैलेन्डर वर्ष की भिन्नता के कारण
कहीं-न-कहीं परेशानियाँ झेलनी पड़ रही हैं।
जहाँ तक मॉनसून के खेती पर पडऩे वाले असर की बात है, तो
कृषि-क्षेत्र, जो मॉनसून से प्रत्यक्षतः प्रभावित होता है, का जीडीपी में योगदान
बमुश्किल 11 फीसदी है। इसीलिए जीडीपी में कृषि-क्षेत्र के अपेक्षाकृत सीमित
योगदान और मानसून-पूर्वानुमान में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता के मद्देनजर वित्त-वर्ष
में बदलाव के पक्ष में सरकार के द्वारा दिए जा रहे तर्कों बहुत औचित्य नहीं है।
दूसरी बात, वित्त-वर्ष जनवरी में शुरू हो, या फिर अप्रैल में; दोनों ही स्थितियों
में मानसून के आलोक में जो भी निर्णय लिए जायेंगे, वे चालू वित्त-वर्ष के सन्दर्भ
में तो प्रासंगिक हो सकते हैं, आगामी वित्त-वर्ष के सन्दर्भ में नहीं। आगामी वित्त-वर्ष
के सन्दर्भ में मानसून की अनिश्चितता और इस पर सरकार की निर्भरता आगे भी बनी रहेगी।
अतः अप्रैल से वित्त-वर्ष की शुरूआत की स्थिति में बजट जनवरी/फरवरी
में पेश किया जाएगा और ऐसी स्थिति में रबी फसल के पैदावार का आकलन आसान होगा। साथ ही, खरीफ
का अनुमान लगाने में भी परेशानी नहीं होगी। अगर बजट में रबी और खरीफ फसल की स्थिति
को ध्यान में रख कर प्रावधान किए जायेंगे, तो किसानों को ज्यादा फायदे होंगे। ऐसी स्थिति में जनवरी में बजट पेश करने पर किसानों का खयाल
रखने के साथ-साथ मुद्रास्फीति का आकलन, कारोबारियों के कारोबार का अंदाजा आदि लगाना आसान होगा। साथ ही, बेहतर बेहतर
बजट-प्रबंधन भी संभव हो सकेगा।
यह केवल
एक बजट का मामला नहीं है और इस बदलाव के लिए पूरी अर्थव्यवस्था में ऐसे संस्थागत
बदलाव लाने होंगे जिनकी लागत बहुत ज्यादा होगी। लगभग सभी प्रमुख आर्थिक संस्थानों
को भी अपना अंकेक्षण बदलना होगा। इस कदम से ऐसे वक्त में व्यापक उठा-पटक पैदा
होगी, जबकि देश का वित्तीय तंत्र नोटबंदी के प्रभाव से उभरने की कोशिश कर रहा है
और आनेवाले समय में वस्तु एवं सेवा कर(GST) व्यवस्था लागू होने की संभावना के कारण
इसे स्थिरता की जरूरत है। इतना ही नहीं, इस कदम की बदौलत देश के आर्थिक आँकड़ों को
लेकर विद्यमान अस्पष्टता और बढ़ेगी। इतना ही नहीं, इस बदलाव से कारोबार जगत को भी
नुकसान होने की बात कही जा रही है, क्योंकि इससे लेखा-जोखा की प्रक्रिया- कर
प्रक्रिया, नए वित्तवर्ष के साथ समायोजन बनाने, बही-खातों के रख-रखाव, पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन,
पुराने वित्तवर्ष से जुड़े सॉफ्टवेयर में बदलाव आदि करने पड़ सकते
हैं। स्पष्ट है कि इस तरह के बदलाव के लिए भारी-भरकम पूँजी की जरूरत होगी।
निष्कर्ष:
संक्षेप में कहें, तो वित्त-वर्ष
में बदलाव के किसी भी प्रश्न पर विचार करने के क्रम में इस बात को ध्यान में रखा
जाना चाहिए कि मनमाने तरीके से किसी भी वित्त-वर्ष को स्वीकार करने की बजाय
वित्त-वर्ष में बदलाव के प्रश्न पर भारतीय परिस्थितियों और भारतीय जरूरतों के
हिसाब से विचार किया जाना चाहिए। ऐसा कोई भी
निर्णय जल्दबाजी में न लिया जाय और किसी भी निर्णय से पूर्व सभी सम्बद्ध पक्षों के
साथ व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता है। साथ ही, इस क्रम में लागत-लाभ आकलन को भी
ध्यान में रखा जाय।
Reference:
2.
Notes On Change In Financial Year:NITI Aayog
4. Don’t Change the Financial
Year,Change the Calendar: By Sandeep Singh
No comments:
Post a Comment