Sunday 3 January 2016

भारत की पाकिस्तान नीति:पठानकोट के आईने में

भारत की पाकिस्तान नीति: 
पठानकोट के आईने में
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अगर मैं यह कहूँ कि पंजाब िस्थत पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमला मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं है, तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब-जब भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने की दिशा में पहल की जाती है, उसे पटरी से उतारने के लिए पाकिस्तान िस्थत भारत विरोधी शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। इसका एक लम्बा इतिहास है जिसमें मैं उलझना नहीं चाहूँगा, बस इतना कहना चाहूँगा कि पठानकोट हमला उसी की अगली कड़ी है।
प्रधानमंत्री मोदी कहाँ विफल हैं?
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति में निकटस्थ पड़ोस को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। ऐसी िस्थति में निश्चय ही उनकी विदेश नीति की सफलता या विफलता को पाकिस्तान के संदर्भ में देखा जाना अपेक्षित है। नई सरकार की पाकिस्तान नीति पिछले उन्नीस महीने के दौरान अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के दबाव और उनके उत्साही राष्ट्रवादी समर्थक समूहों के दबाव के बीच झूलती रही है। शायद इसीलिए उसमें निरंतरता का अभाव दिखता है।इसका एक कारण यह भी है कि वे अपनी कट्टर राष्ट्रवादी छवि के भार तले भी दबे हुए हैं। वे बार-बार इससे बाहर निकलना चाह रहे हैं, पर निकल नहीं पा रहे हैं। खै़र, पिछले कुछ दिनों से वे अपने दायरे को लाँघते दिखाई पड़ रहे हैं। पर, समस्या है कि उन्होंने निकटस्थ पड़ोस के प्रति अपनी नीति को उन लोगों के हवाले कर दिया है जिन्हें इस मामले में विशेषज्ञता हासिल नहीं है, चाहे वे अजीत डोभाल (जो आई.बी. के प्रमुख रह चुके हैं और हार्ड लाईनर हैं), राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हों या फिर एस. जयशंकर ( जो अमेरिका और कुछ हद तक चीन मामलों के विशेषज्ञ हैं),विदेश सचिव।
मोदी सरकार की पाकिस्तान नीति में निरंतरता के अभाव के कारणों पर चर्चा के बाद मैं वापस लौटना चाहूँगा उनकी विफलता के प्रश्न पर। उन्होंने अपनी विदेश नीति को दो स्तंभों पर आधारित बनाया: आर्थिक हित (व्यापार, पूँजी और निवेश) और राष्ट्रीय सुरक्षा। पठानकोट आतंकी हमला राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में सरकार की नीतिगत विफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस हमले को उनकी पाकिस्तान नीति की विफलता से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में नीतिगत विफलता इसलिए कि सरकार पिछले उन्नीस महीने के दौरान ख़ुफ़िया एजेंसी के बीच सहयोग और सामंजस्य सुनिश्चित कर पाने में विफल रही, वह भी तब जब राष्ट्रीय सुरक्षा उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। इंटेलिजेंस के पास इनपुट उपलब्ध थे, फिर भी सुरक्षा मशीनरियाँ इसे टालने में असमर्थ रही।
पाकिस्तान नीति पर पुनर्विचार का प्रश्न:
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इधर भारत में भी पिछले कुछ वर्षों के दौरान पाकिस्तान-विरोधी लाॅबी का तेज़ी से उभार दिखाई पड़ रहा है। कट्टर राष्ट्रवाद के नाम पर यह लाॅबी मोदी जी की पाकिस्तान नीति की आलोचना से भले परहेज करे, पर पठानकोट जैसी घटनाएँ इन्हें पाकिस्तान नीति पर पुनर्विचार हेतु दबाव बनाने का मौक़ा ज़रूर दे देती हैं। इसलिए ऐसी घटनाओं के बाद अचानक इनकी सक्रियता बढ़ जाती है। इसमें सहायक बनते हैं कुछ मीडिया हाउस और उनके स्वयंभू एंकर। इन लोगों को लगता है कि हर हमला भारत के लिए एक मौक़ा है पाकिस्तान के अस्तित्व को मिटाने का, जिसे गँवाया नहीं जाना चाहिए। इन्हें यह भी ग़लतफ़हमी है कि भारत जब चाहे पाकिस्तान के अस्तित्व को मिटा सकता है। 
दरअसल इन्हें इस बात का आभास भी नहीं है कि ये ऐसाकर पाकिस्तान में मौजूद भारत-विरोधी शक्तियों और आतंकी ताक़तों की मंशा को ही पूरा कर रहे हैं।इस बात को समझने के लिए पाकिस्तान के डायनामिक्स को समझना ज़रूरी है। 

पाकिस्तान का डायनामिक्स:
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पाकिस्तान में दो ताक़तें सक्रिय हैं: इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें और उदार लोकतांत्रिक ताक़तें। इस्लामिक चरमपंथी ताक़तें भारत-विरोधी रूझान रखती हैं। इनके केन्द्र में पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई. है जिसकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है और उस राजनीतिक महत्वाकांक्षा का पूरा होना पाकिस्तानी समाज में उसके सपोर्ट बेस पर निर्भर करता है। इसे यह सपोर्ट बेस हासिल होता है इस्लामिक चरमपंथ और भारत-विरोध के नाम पर। जब भी पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार बेहतर भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंध की दिशा में बढ़ती है, पाकिस्तानी सेना आई.एस.आई. और आतंकियों की सहायता से द्विपक्षीय संबंध को पटरी से उतारने की कोशिशों में लग जाती है। अक्सर इसके द्वारा पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार पर भारतीय दबाव के समक्ष झुकने और भारत को लेकर नरम रूख अपनाने का आरोप भी लगाया जाता है। 
                   पाकिस्तान की उदार लोकतांत्रिक शक्तियाँ भारत के साथ बेहतर सम्बंध चाहती हैं। लेकिन, इनके साथ समस्या यह है कि ये अभी मज़बूत िस्थति में नहीं हैं। इन्हें लगातार सेना के दबाव में काम करना होता है। पाकिस्तान की कट्टरपंथी ताक़तों और उनके भारत-विरोधी मानस के दबावों को भी झेलना पड़ता है। इन तमाम दबावों के बीच जब इनके द्वारा बेहतर संबंध की दिशा में पहल की जाती है और इस बीच इस तरह की घटनाओं के साथ सक्रिय होती पाकिस्तान- विरोधी शक्तियों और राष्ट्रवादी शक्तियों के दबाव में भारत के द्वारा कठोर प्रतिक्रिया दी जाती है, तो भारत के साथ बेहतर संबंध की चाह रखनेवाली उदार लोकतांत्रिक धारा पर दबाव काफ़ी बढ़ जाता है और यह अप्रासंगिक होने की कगार पर पहुँच जाती है। पाकिस्तानी मिलिट्री इस्टैब्लिशमेंट और भारत -विरोधी शक्तियों को इन्हें बदनाम करने और इन पर जमकर हमला बोलने का मौक़ा मिल जाता है। अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों के मद्देनज़र और एक ज़िम्मेवार पड़ोसी देश होने के नाते भारत को चाहिए कि पाकिस्तान की इन उदार लोकतांत्रिक ताक़तों के हाथ को मज़बूत करे, वो भी राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों से समझौता किए बग़ैर। 
क्या होना चाहिए?
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पठानकोट आतंकी हमले में शामिल ताक़तों को इस बात की छूट नहीं दी जानी चाहिए कि वे द्विपक्षीय संबंधों को पटरी से उतार सकें। यह तब तक संभव नहीं है जबतक सत्तापक्ष और विपक्ष के साथ-साथ भारतीय जनमानस इन बातों को समझने के लिए तैयार नहीं होते।हाँ, एक नेता के रूप में भारतीय प्रधानमंत्री को और एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा को भी इस बात को समझना होगा कि चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में, सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए आज़माए गए नुस्खे कई बार भारी पड़ते हैं। आज वही ग़लती कांग्रेस कर रही है जो विपक्ष में रहते हुए और यहाँ तक कि कई बार सत्तापक्ष में रहते हुए भाजपा ने की थी। और अंत में, सरकार भाषणबाज़ी से आगे बढ़कर राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों को लेकर गंभीर हो और उस दिशा में पहल करे ताकि ख़ुफ़िया एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल के ज़रिए ऐसी सुरक्षा चूकों की संभावना को न्यूनतम किया जा सके, अगर समाप्त नहीं किया जा सके तो।

1 comment:

  1. Jabarjast knowledge bhara post.....thanks sir ji....

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