Thursday 7 January 2016

नेपाल: पहले निकटस्थ पड़ोस की भारतीय नीति की त्रासदी

         नेपाल: "पहले निकटस्थ पड़ोस" की 
               भारतीय नीति की त्रासदी
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मुझसे अगर कोई पूछे कि नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमंत्रित्व काल के पिछले उन्नीस महीने के दौरान विदेश नीति के मोर्चे पर की गई पहलों में आप किस क़दम को मास्टर स्ट्रोक के रूप में देखते हैं, तो निश्चय ही मेरा जवाब होगा अपने शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया जाना। यह शायद सबसे महत्वपूर्ण पहल थी जिसके ज़रिए उन्होंने पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंध को अनौपचारिक टच देते हुए विदेश नीति को नई दिशा और नई गति देने की कोशिश की थी। साथ ही, इस बात का संकेत भी देने का प्रयास किया गया कि अब छोटे पड़ोसी देश भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकता में शीर्ष पर होंगे।
"पहले नज़दीक़ पड़ोस" की नीति:
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"मोदी डाॅक्ट्रिन"(अगर ऐसा कुछ है,) गुजराल डाॅक्ट्रिन से इस मायने में भिन्न है कि यह पड़ोसी देशों के साथ "एकतरफ़ा रियायतों" की जगह समानता पर आधारित संबंधों की प्रस्तावना करता है जो पड़ोसी देशों में विद्यमान हीनभावना तथा पहचान के संकट के साथ-साथ "बड़े भाई" की भूमिका से संबंधित उनकी आशंकाओं के निवारण में समर्थ है। यह अगर मोदी डाॅक्ट्रिन की शक्ति है, तो सीमा भी। सीमा इसलिए कि यह दक्षिण एशियाई राष्ट्र के इस सच की अनदेखी करता है:"अगर दक्षिण एशियाई राष्ट्र आकार-प्रकार या फिर किसी भी दृष्टि से भारत के समकक्ष नहीं हैं, तो फिर उनके साथ समानता पर आधारित सम्बंधों की स्थापना की दिशा में पहल बेमानी है।"
दरअसल आवश्यकता थी गुजराल डाॅक्ट्रिन की एकतरफ़ा रियायतों की नीति को समानता पर आधारित संबंधों के ज़रिए समर्थन प्रदान करने की, ताकि पारस्परिक संदेह और अविश्वास को दूर करते हुए पारस्परिक विश्वास की बहाली को सुनिश्चित किया जा सके और भारत के पड़ोसी देशों को भारतीय हितों के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील बनाया जा सके। लेकिन, वर्तमान सरकार की आक्रामक विदेश नीति, जो आर्थिक हितों और सुरक्षा चिंताओं को विदेश नीति के केन्द्र में रखती है और हर क़ीमत पर जल्दबाज़ी में बिना समय दिए उसका त्वरित समाधान चाहती है, कहीं-न-कहीं इस ज़मीनी वास्तविकता की अनदेखी करती है। 
निकटस्थ पड़ोस नीति का व्यावहारिक पक्ष:
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नवनिर्वाचित भारतीय प्रधानमंत्री ने जब अपनी विदेश यात्रा की शुरूआत भूटान और नेपाल से की, तो इससे पड़ोस में उत्साह का माहौल भी बना और सकारात्मक संदेश भी पहुँचा। लेकिन, शीघ्र ही यह उत्साह थमता भी दिखाई पड़ा। अफ़ग़ानिस्तान और श्रीलंका में क्रमश: अशरफ़ घानी और महिंदा राजपक्षे की भारत-विरोधी नीतियों के कारण भारत को प्रतिकूल परिसि्थतियों का सामना करना पड़ा, यद्यपि फ़रवरी,2015 में श्रीलंका में सत्ता-परिवर्तन और नवम्बर,2015 तक आते-आते पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान नीति की प्रतिक्रिया में अफ़ग़ान सरकार के रूख में परिवर्तन के बाद भारत के लिए अनुकूल परिस्िथतियाँ बनी हैं। जहाँ तक पाकिस्तान का प्रश्न है, तो पिछले सोलह महीने का अनुभव यह बतलाता है कि वर्तमान में भारत की कोई पाकिस्तान नीति नहीं है। हम अभी "ट्रायल एंड एरर" की नहीं, "एरर एंड एरर" की नीति पर चल रहे हैं और पता नहीं कबतक इस नीति पर चलते रहेंगे? मालदीव रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भारतीय विदेश नीति में उपेक्षित और तिरस्कृत है। वहाँ मोदी सरकार ने चीन को "वाक ओवर" दे रखा है। उपलब्धि के नाम पर बंगलादेश और म्याँमार है, पर उसे भी पिछली सरकार की विदेश नीति की निरंतरता में देखे जाने की ज़रूरत है। जिस लैंड बार्डर एग्रीमेंट को भारतीय संसद की अनुमति को उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, दरअसल वह भी पिछली सरकार की उपलब्धि है जो विपक्ष में रहते हुए भाजपा की नकारात्मक भूमिका के कारण अटका बुआ था। जहाँ तक नेपाल की बात है, तो इसे निकटस्थ पड़ोस के प्रति भारतीय नीति की त्रासदी की संज्ञा दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
नेपाल: निकटस्थ पड़ोस नीति की त्रासदी
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नेपाल पर चर्चा शुरू करने के पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि नेपाल भारत का ऐसा पड़ोसी देश है जिसने 1950 के दशक से ही भारत के विरूद्ध चीनी कार्ड का प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल किया है और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की है। भारत की नेपाल नीति को निर्धारित करते समय इस बात को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि नेपाल के साथ भारत ने अक्सर बड़े भाई वाली भूमिका निभाई है और जब-तब हाथ मरोड़ने की कोशिश की है। तीसरी बात यह कि भारत और चीन के बीच बफ़र स्टेट के रूप में नेपाल की भूमिका उसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बना देती है। चौथी बात यह कि भारत की नेपाल नीति हमेशा से लुँज-पुँज रही है और इस कारण नेपाल की भारत पर निर्भरता के बावजूद नेपाल-भारत द्विपक्षीय संबंध कभी बहुत बेहतर नहीं रहा है। भारत-विरोधी शक्तियाँ नेपाल में हमेशा से सक्रिय रही हैं।
पहली नेपाल यात्रा,अगस्त 2014:
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प्रधानमंत्री बनने के बाद छह महीने के अंदर मोदी जी को दो बार नेपाल की यात्रा करनी पड़ी। अगस्त,2014 में पहली बार मोदी जी नेपाल दौरे पर गए । भूटान के बाद यह उनका दूसरा विदेशी दौरा था। इस यात्रा के दौरान उन्होंने द्विपक्षीय संबंध को जो अनौपचारिक रूप देने का प्रयास किया और जिस तरह से उनकी इस यात्रा विभिन्न राजनीतिक दलों और उसके नेताओं (यहाँ तक कि माओवादी दल के प्रमुख प्रचंड भी )की ओर से ज़बरदस्त रेस्पान्स मिला, निश्चय ही उसने द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊर्जा से लैस करते हुए इसमें नई गरमाहट पैदा की। 
दूसरी नेपाल यात्रा,नवम्बर,2014:
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लेकिन, समस्या की शुरूआत भी इसी पृष्ठभूमि में हुई।नवम्बर,2014 में काठमांडू में आयोजित सार्क सम्मिट में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को काठमांडू जाना था। इस दौरान वे जनकपुर में पब्लिक मीटिंग को सम्बोधित करना चाहते थे और उसी दौरान लड़कियों के बीच साइकिल का वितरण उनके द्वारा किया जाना था। लेकिन, इस कार्यक्रम को अनुमति के प्रश्न के राजनीतिकरण की पृष्ठभूमि में नेपाल की सरकार ने अंतिम समय में अनुमति देने से इन्कार किया। इसने नेपाली मधेशियों को नाराज़ किया और वे इसका विरोध करते हुए सड़कों पर उतरे। उन्होंने नेपाल सरकार के विरोध में और भारत के साथ-साथ भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन में नारे लगाए। इसका असर कहीं-न-कहीं द्विपक्षीय संबंधों पर भी पड़ा।
नेपाल-भूकम्प प्रकरण:
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अप्रैल,2015 में आए नेपाल भूकम्प ने भी द्विपक्षीय संबंधों को ज़बरदस्त झटका दिया। राहत और बचाव के संदर्भ में भारत की ओर से जो त्वरित प्रतिक्रिया आई और जो प्रो-एक्टिव स्टेप्स लिए गए, उम्मीद की जा रही थी कि यह क़दम द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूती देगा, लेकिन हुआ ठीक उलटा। जिस तरह से भूकम्प-राहत एवं बचाव सहायता पर मीडिया और सोशल मीडिया में भारतीयों की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं, उससे ऐसा लगा कि भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश था जो राहत एवं बचाव कार्य में नेपाल को सहायता प्रदान कर रहा है। इस क्रम में सोशल मीडिया में ऐसी टिप्पणियों और फ़ोटोग्राफ़ की बाढ़-सी दिखाई पड़ी जिससे नेपाल की संप्रभुता के प्रति असम्मान और अनादर का भाव प्रकट होता हो। इसकी नेपाल में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और अंततः नेपाली दबाव में भारत को अपना राहत एवं बचाव दल वापस बुलाना पड़ा जिससे भारत की काफ़ी फ़ज़ीहत हुई। इस पूरे प्रकरण में भारत की औपचारिक प्रतिक्रिया भी बहुत कुछ इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया वाली ही रही।
नेपाली संविधान का निर्माण:
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नेपाल के नये संविधान के निर्माण की प्रक्रिया 2006 में शुरू हुई और सितम्बर,2016 में पूरी हुई। इस क्रम में तीन महत्वपूर्ण मसलों पर मतभेद उभरकर सामने आए: संघवाद, राज्यों की संख्या, चुनाव-पद्धति और राजनीतिक व्यवस्था: संसदीय प्रणाली या अध्यक्षात्मक व्यवस्था। आरम्भ से ही भारत नृजातीय पहचान पर आधारित संघीय ढाँचे, संसदीय व्यवस्था और धर्मनिरपेक्ष नेपाल के पक्ष में रहा है। लेकिन, केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनने के बाद से भारत ने धर्मनिरपेक्ष नेपाल के प्रश्न पर चुप्पी साध ली और संघ परिवार ने हिन्दू राष्ट्र के रूप में नेपाल की पहचान को बनाए रखने के लिए प्रयास शुरू किए जिसका नेपाल के सेक्यूलर तबके तक ग़लत संदेश गया और इसके द्वारा ऐसे प्रयासों का ज़बरदस्त विरोध किया गया। लीक दस्तावेज़ यहाँ तक बतलाते हैं कि हिन्दू राष्ट्र के रूप में नेपाल की पहचान को क़ायम रखने के लिए मोदी सरकार ने नेपाल को संदेश भी भेजा।
खैर, इन तमाम मतभेदों के बावजूद प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत ने नेपाल को यह संदेश देने की कोशिश की कि वह संविधान के निर्माण को नेपाल का आंतरिक मसला मानता है और इसमें वह कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। नेपाल ने भी औपचारिक और अनौपचारिक रूप से भारत को यह आश्वस्त किया कि वह भारत की चिंताओं का ध्यान रखेगा। पर, सितम्बर,2015 में जब नेपाल ने अपने संविधान को अंतिम रूप दिया, तो यह भारत के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हुआ। भारत ने नेपाल को सात सूत्री दिशानिर्देश दिए और इसके अनुरूप संविधान में संशोधन करने के लिए कहा। ये दिशानिर्देश संघीय ढाँचे, राज्यों के निर्माण एवं इसके स्वरूप तथा नागरिकता संबंधी प्रावधानों से संबंधित थे । यह सच है कि नेपाल ने वादाखिलाफी की; फिर भी नेपाल का संविधान कैसा हो, इसका निर्णय नेपाल की जनता के द्वारा होना चाहिए, न कि भारत के द्वारा। इसीलिए इसे भारत की सबसे भयंकर भूल के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।
भारत की चूक:
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नेपाल मामले में भारत ने कूटनीतिक अपरिपक्वता का परिचय देते हुए कई भूलें की जिसकी भारी क़ीमत भारत को आने वाले समय में चुकानी पड़ सकती है। आज मधेशियों के अलावा सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के द्वारा भारत का विरोध किया जा रहा है और नेपाल मेंँ मौजूद मधेशी संकट के लिए पूरी तरह से भारत को ज़िम्मेवार माना जा रहा है। यद्यपि ऐसा माना जाना उचित नहीं है, तथापि भारत को इस ज़िम्मेवारी से मुक्त भी नहीं किया जा सकता है। नेपाल मेंँ भारत- विरोधी भावनाएँ चरम् पर हैं और प्रतिक्रिया में नेपाल चीन के क़रीब जा रहा है। यद्यपि चीन नेपाल में भारत का स्थान नहीं ले सकता है, फिर भी नेपाल में चीन के लिए स्पेस क्रिएट होता जा रहा है। इसके कारण नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण नेपाल का नया संविधान है जो भारत की बजाय चीनी अपेक्षाओं कहीं अधिक क़रीब है और जो आने वाले समय में चीन के प्रभाव को बढ़ाने वाला एवं भारत के प्रभाव को सीमित करने वाला साबित हो सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के लिए नेपाल तेज़ी से दूसरा पूर्वी पाकिस्तान और श्रीलंका बनने की राह पर तेज़ी से अग्रसर है, यदि समय रहते िस्थति को क़ाबू में नहीं किया गया। अगर आज नेपाल में भारत के सामरिक हित दाँव पर लगे चुके हैं, तो इसके लिए भारत की रणनीतिक भूलों को ज़िम्मेवार माना जा सकता है:
1.भारत द्वारा बैंक चैनल डिप्लोमेसी की उपेक्षा
2.नेपाली आश्वासन पर भारत द्वारा आँख मूँदकर
   भरोसा करना
3.नए संविधान के मसले पर भारत का
   आक्रामक रूख
4.भारत के ख़ुफ़िया तंत्र का पूरी तरह से विफल
   होना
5.नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी (वास्तव में ऐसा
   हो अथवा नहीं, पर इसको लेकर नेपाल में
   स्ट्रांग परसेप्शन बन चुका है।)
आज नेपाल भारत से यह अपेक्षा करता है कि वह मधेशियों के बीच अपने गुडविल का इस्तेमाल करते हुए मधेशी संकट, जिसके अलगाववादी रूप लेने के संकेत मिल रहे हैं,से बाहर निकलने में उसकी मदद करे। यह भारत के लिए अपने गुडविल और खोए हुए विश्वास की पुनर्बहाली हेतु एक अवसर भी है और यह भारत के हित में भी है ।

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