Friday 10 July 2020

अमेरिका अमेरिका है, और भारत भारत!


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अमेरिका अमेरिका है, और भारत भारत!
#VikasDubeyEncountered
#RIPRuleofLaw
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भारत अमेरिका नहीं है:
कई बार भारत और भारतीयों, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, को यह गलतफहमी हो जाती है कि भारत अमेरिका है, जबकि वास्तविकता यह है कि भारत न तो अमेरिका है, न अमेरिका होने की इसमें क्षमता है, न अमेरिका हो सकता है और न इसे अमेरिका होना चाहिए। एक अमेरिका है जहाँ जॉर्ज फ्लायड की हत्या पूरे अमेरिका ही नहीं, पश्चिमी दुनिया में हल-चल पैदा करती है और अमेरिकन पुलिस घुटनों के बल नतमस्तक होती है, अमेरिकी जनता के सामने नहीं, रूल ऑफ़ लॉ और मानवाधिकारों के पक्ष में खड़ी अमेरिकी जनता के समक्ष; और एक भारत है जहाँ कस्टडियल डेथ को आम जनता और उससे भी अधिक तथाकथित पढ़ा-लिखा तबका सेलिब्रेट कर रहा है। हैदराबाद एनकाउंटर से लेकर कानपुर एनकाउंटर तक इस प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। और, हद तो तब हो जाती है जब तूतीकोरिन जिले के सथानकुलम पुलिस थाने में व्यापारी पी. जयराज एवं उनके पुत्र जे. बिनिक्स को लॉकडाउन के उल्लंघन के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो जाती है, और हम मुर्दा समाज की भाँति इसे महज एक घटना के रूप में देखते हुए यूँ आगे बढ़ जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वास्तविकता यह है कि इन तीनों घटनाओं में एक ही पैटर्न दिखाई पड़ता है और वह है रूल ऑफ़ लॉ का कैजुअलिटी का शिकार होना  
‘रूल ऑफ़ लॉ’ को तिलांजलि:
जो लोग भी दिसम्बर,2019 में डॉ. प्रियंका रेड्डी रेप केस में हैदराबाद पुलिस के चार आरोपियों के एनकाउंटर के पक्ष में खड़े हैं या जो विकास दुबे के एनकाउंटर के पक्ष में खड़े हैं, उन्हें तमिलनाडु पुलिस के खिलाफ आवाज़ उठाने का कोई हक नहीं है दरअसल यह कस्टडियल डेथ का मसला है जिनमें पुलिस या तो जनभावनाओं के दबाव में या फिर किसी अन्य कारण से हिरासत में लिए गए आरोपी की ‘बलि’ चढ़ा देती है, और जनता के भीतर थोड़ी देर के लिए ‘न्याय का भ्रम’ पैदा होता है जो व्यवस्था की अकर्मण्यता एवं नपुंसकता से उपजे आक्रोश के लिए के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करता है लेकिन, अंततः इसका शिकार ‘रूल ऑफ़ लॉ’ हो रहा है और ‘रूल ऑफ़ लॉ’ को तिलांजलि का मतलब है भारतीय संविधान एवं उसके मूल्यों को तिलांजलि, क्योंकि ‘रूल ऑफ़ लॉ’ भारतीय संविधान की आत्मा है, उसकी आधारभूत विशेषता है और इस एपिसोड में ‘रूल ऑफ़ लॉ’ का एनकाउंटर हुआ है
पुलिस और अपराधी का फर्क:
भारतीय समाज का एक वर्ग है जो राज्य एवं अपराधी के फर्क की अनदेखी कर रहा है और विलंबित न्याय या न्याय-तंत्र एवं न्याय-प्रक्रिया की खामियों का फायदा उठाकर अपराधियों की बच निकलने की प्रवृत्ति का हवाला देते कस्टडियल डेथ को एनकाउंटर के रूप में प्रस्तुत किए जाने को जस्टिफाई कर रहा है अमित कुमार सिंह ने ठीक ही लिखा है, पुलिस और माफिया में यही अंतर होता है कि पुलिस एक तंत्र के भीतर काम करती है और माफिया उस तंत्र को चुनौती देता है। माफिया जिस तंत्र को चुनौती देता है, उसी तंत्र का नाम है विधि का शासन है। अगर इसी तरह विधि के शासन में पुलिस की आस्था भी समाप्त हो जाए, तो फिर पुलिस और माफिया के बीच कोई सैद्धांतिक अंतर नहीं बचता है।” यहाँ पर इस बात को ध्यान में र्काहे जाने की ज़रुरत है कि समस्या जनसामान्य नहीं, समस्या वह पढ़ा-लिखा वर्ग है जो सत्यको गढ़ने का काम कर रहा है, और वह सत्य को गढ़ता हुआ अपने गतिविधियों के ज़रिए रूल ऑफ लॉऔर संविधानवाद की अंत्येष्टि करता है। यह वर्ग असामाजिक तत्वऔर राज्यके फ़र्क़ को समझने के लिए तैयार नहीं है, इसलिए नहीं कि वह इस फ़र्क़ को नहीं समझता है, वरन् इसलिए कि वह संकीर्ण स्वार्थों के कारण इस फ़र्क़ को छुपा जाता है। देश के सजग नागरिक के रूप में हमें यह समझना होगा कि यदि राज्य या राज्य के संस्थानों ने ‘रूल ऑफ़ लॉ’ की अनदेखी करनी शुरू की, उस दिन से राज्य एवं असामाजिक तत्व के बीच का फर्क मिट जाएगा और असामाजिक तत्वों की तरह राज्य के व्यवहार की शिकार अंततः निरीह जनता ही होगी, जैसा तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले में देखने को मिलता है। और, यह महज एक उदाहरण है, एकमात्र उदाहरण नहीं। ऐसे उदाहरण भरे पड़े मिलेंगे। 
क्या इससे दिवंगत पुलिसकर्मियों को न्याय मिला:
आज जो लोग विकास दूबे के कस्टडियल डेथ को एनकाउंटर बतलाकर उसे सेलिब्रेट कर रहे हैं और इसको लेकर प्रश्न उठाने वालों को अपराधियों का शागिर्द ठहरा रहे हैं, उनसे मेरा प्रश्न है कि क्या विकास दूबे के एनकाउंटर से दिवंगत आठ पुलिस वालों और उनके परिजनों को न्याय मिला? क्या, अब, उनकी आत्मा को शांति मिलेगी? क्या उनके परिजनों को इससे संतुष्ट हो जाना चाहिए? मैं नहीं कह सकता हूँ कि दिवंगत पुलिस वालों के परिजनों की इस घटना को लेकर क्या प्रतिक्रिया रही होगी, पर मैं यह जनता हूँ कि अगर उनके परिजनों की जगह मैं होता, तो उन लोगों कई पहचान को सार्वजनिक करने और उन्हें सलाखों के पीछे पहुँचाने की माँग करता, जिन्होंने विकास दुबे तक पुलिस रेड की अग्रिम सूचना पहुँचाई और जिन्होंने उत्तर प्रदेश से भागने में विकास दूबे की मदद की। 
यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जो पुलिस वाले मारे गए, उसके लिए सिर्फ़ विकास दूबे ज़िम्मेवार नहीं है। उसके लिए विकास दूबे से अधिक वे पुलिस वाले ज़िम्मेवार हैं जिन्होंने विकास दूबे के लिए पुलिस की मुखबिरी की और रेड की गोपनीय सूचना विकास दूबे तक पहुँचाई और जिनके राज के बारे में केवल विकास दूबे को जानकारी थी। विकास दूबे की हत्या के ज़रिए इस राज को हमेशा के लिए विकास के साथ दफ़न कर दिया गया। अब वह राज कभी बाहर नहीं आ पाएगा, और कल फिर कोई विकास दूबे किसी आठ पुलिस वाले को मार जाएगा।
साथ ही, विकास की हत्या के लिए वे राजनीतिज्ञ, जिनके तार सत्तारूढ़ दल समेत लगभग सभी राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं, भी ज़िम्मेवार हैं जिन्होंने विकास दूबे को संरक्षण और प्रोत्साहन प्रदान किया। जिन राजनीतिज्ञों के तार विकास से जुड़े हुए थे और जिनकी बदौलत विकास ने चौदह सौ किलोमीटर की यात्रा तय की और अपनी जान-बचाने के लिए उज्जैन के महाकाल मन्दिर में जाकर समर्पण किया (यह बात अलग है कि उसकी यह तरकीब काम नहीं आई), अब उन राजनीतिज्ञों के सन्दर्भ में तमाम जानकारियाँ विकास के साथ ही दफन हो गयी। और, ‘रूल ऑफ लॉके साथ-साथ संविधान का इनकाउंटर हुआ, सो अलग। मैं अपने मित्र संतोष सिंह की इस बात से सहमत हूँ कि ‘विकास का एनकाउंटर हमारे सिस्टम पर तमाचा है।’ मैं तो इससे एक कदम आगे बढ़कर यह कहना चाहूँगा, “यह सभी समाज के मुँह पर जोरदार तमाचा है।” उन्होंने यह प्रश्न सही ही उठाया है कि क्या इस एनकाउंटर से पुलिस-अपराधी गठजोड़ में कमी आएगी या यह समाप्त हो जाएगा, या फिर राजनीतिज्ञों और अपराधियों के गठजोड़ तथा इस गठजोड़ के कारण अपराधियों को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण में कमी आएगी या यह समाप्त हो जाएगा; या फिर पुलिस प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप पर विराम लग जाएगा?
जिम्मेवारी और समाधान:
दरअसल आठ पुलिस वालों की मौत के लिए जिम्मेवार विकास दूबे नहीं है। इसके लिए जिम्मेवार है वह समाज जो विकास दूबे जैसे लोगों का महिमा-मंडन करता है और उसमें रोबिनहुड की छवि ढूँढता हुआ उसे के व्यक्ति से प्रवृत्ति में तब्दील कर देता है। इसके लिए जिम्मेवार है वह राजनीतिक तंत्र, जो चुनाव-सुधारों की प्रक्रिया पर कुण्डली मार कर बैठा हुआ है और बेहतर जीत सकने की क्षमता (Winnability) के मद्देनज़र अपराधियों का दोनों बाँहें खोलकर स्वागत करता है और उसे संरक्षण प्रदान करता हुआ ज़रुरत-बेज़रूरत उसके इस्तेमाल की सम्भावनाओं को खुला रखता है। इसके लिए जिम्मेवार है वह सत्ता, जो प्रकाश सिंह वाद में पुलिस-सुधारों के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों की अनदेखी करती हुई पुलिस के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप की सम्भावनाओं को बनाये रखती है। इसके लिए जिम्मेवार है वह न्याय-तंत्र, जिसकी कमियों का फायदा उठाकर या तो अपराधी बेदाग़ बच निकलते हैं, या फिर मुकदमों को अपने जीवन के अंतिम समय तक टालते रहते हैं जिसके कारण न्याय इतना विलंबित हो जाता है कि आम लोगों का न्याय-तंत्र में भरोसा नहीं रह जाता; और फिर वे अपनी क्षणिक संतुष्टि के ऐसे असंवैधानिक कृत्यों के समर्थन में खड़े हो जाते हैं जिसकी कीमत बाद में उन्हें ही चुकानी पड़ती है। इसीलिए यदि आप मारे गए पुलिसकर्मियों और उनके प्रति वाकई संवेदनशील हैं, राज्य द्वारा संस्थानिक हत्या के विरोध में खड़े होइए और चुनाव-सुधार, पुलिस-सुधार एवं न्यायिक सुधार के लिए आवाज़ बुलंद करते हुए ऐसे असामाजिक तत्वों को समर्थन प्रदान करने वाले मानसिकता के खिलाफ भी खड़े होते हुए उन्हें बेनकाब करें, अन्यथा देर-सबेर आप और हम भी इस संस्थानिक हत्या के शिकार होंगे और उस समय अन्य लोग हमारी मृत्यु को उसी तरह सेलिब्रेट कर रहे होंगे जिस तरह आज आप और हम कर रहे हैं।    
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