नेपाल की आतंरिक राजनीति: भारत और चीन
प्रमुख
आयाम
1. राजनीतिक
अस्थिरता से जूझता नेपाल
2. कम्युनिस्ट पार्टी की आतंरिक राजनीति
3. बाह्य
शक्तियों के लिए सृजित होता स्पेस
4. सत्तारूढ़
दल के आतंरिक मतभेद का गहराना
5. भारत
पर राजनीतिक षडयंत्र का आरोप
6. दक्षिणपंथ
की शरण में जाते प्रधानमंत्री ओली
7. राजनीतिक
अस्तित्व बचाने के लिए उग्र-राष्ट्रवाद
8. नेपाल
की राजनीति में चीन की बढ़ती सक्रियता
9. चीन की बढ़ती राजनीतिक सक्रियता से उपजा आक्रोश
10.
नेपाल में भारत की बढ़ती मुश्किलें
11.
वामपंथी नेपाल के साथ डील करने की
मुश्किलें
भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों में पिछले
ढ़ाई दशकों के दौरान तेजी से बदलाव आये हैं। राजनीतिक
संक्रमण के दौर से गुजरते नेपाल के साथ कूटनीतिक तालमेल बिठा भारत के लिए आसान
नहीं होने जा रहा था, इसका अंदाज़ा तो भारत को पहले से था; पर भारत ने कूटनीतिक
भूलों के जरिये स्थिति को अपने लिए कहीं अधिक मुश्किल और जटिल बनाया। फलतः भारत-नेपाल सम्बंध तेजी से बिगड़े, और इसका
पूरा-पूरा फायदा चीन ने उठाया। चीन ने अपनी पूँजी और निवेश की बदौलत अपने
आर्थिक-सामरिक हितों को नेपाल के आर्थिक-सामरिक हितों के साथ समेकित करना शुरू
किया जिसके परिणामस्वरूप नेपाल में चीन की सामरिक उपस्थिति महत्वपूर्ण होती चली
गयी और आज वह नेपाल में ऐसा प्रभाव कायम कर चुका है जैसा पहले भारत का हुआ करता था।
राजनीतिक अस्थिरता से जूझता नेपाल:
सितम्बर,2015 में नई संवैधानिक व्यवस्था के लागू होने के बाद से नेपाल
लगातार राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। अक्तूबर, 2015 में इस नई व्यवस्था के अंतर्गत के. पी. शर्मा ओली सुशील कोईराला को हराकर
पहले चुने गए प्रधानमंत्री बने थे, लेकिन अगस्त,2016 में उन्हें
पुष्प कमल दहल प्रचंड के पक्ष में गद्दी छोड़नी नेपाल के प्रधानमंत्री बने। फिर,
सिर्फ़ नौ महीने के बाद उनकी जगह नेपाली काँग्रेस पार्टी के शेर बहादुर देउबा
प्रधानमंत्री बने,
और फिर बेहतर राजनीतिक प्रबंधन के ज़रिये उग्र राष्ट्रवाद की नाव पर सवार होकर फरवरी,2018 में के. पी. शर्मा ओली दोबारा नेपाल के प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे। इस
प्रकार पिछले क़रीब साढ़े चार सालों में चार बार नेपाल के प्रधानमंत्री बदल चुके
हैं, और अब एक बार फिर से नेपाल में राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन की अटकलें
जोरों पर हैं।
ध्यातव्य है कि सन् 2018 में सत्ता की चाह ने दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों:
खड्ग प्रसाद शर्मा ओली और पुष्प कमल दहाल प्रचंड को एक प्लेटफ़ॉर्म पर लाकर खड़ा कर
दिया क्योंकि ये दोनों अलग-अलग रहकर नेपाली काँग्रेस की राजनीतिक चुनौती का सामना
करते हुए बहुमत तक पहुँच पाने की स्थिति में नहीं थे। फलतः पहले दोनों वामपंथी दलों:
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (एमाले) और
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी) संयुक्त मोर्चा का गठन करते हुए दिसम्बर,2017 में सम्पन्न नेपाली राष्ट्रीय
असेंबली चुनाव लड़ा और सफलता हासिल की। इस
चुनाव में नेपाली जनता ने नेपाली काँग्रेस के साथ-साथ राजतंत्र और हिन्दू-राष्ट्र
समर्थक पार्टियों को पूरी तरह नकार दिया।
नेपाल का चुनाव-परिणाम भारतीय कूटनीतिक
विफलता का प्रमाण है और भारत के लिए ज़बरदस्त झटका भी। अंतिम क्षण तक भारत ने अनौपचारिक
तौर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की प्रक्रिया को
अवरुद्ध करने की भरपूर कोशिश की थी, लेकिन उसकी यह कोशिश विफल रही और संयुक्त मोर्चा सत्ता तक पहुँचने में सफल
रहा।. माओवादी नेता प्रचंड और एमाले नेता ओली ने इस असंभव समीकरण को संभव बना कर
सबको हैरानी में डाल दिया। माओवादी दल के बाबूराम भट्टाराई टूट कर मोर्चे से अलग
चले गए, लेकिन दोनों दलों की एकता बनी रही। बाद में, सन् 2018 में दोनों दलों के विलय
के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (NCP) का गठन हुआ था। इस विलय के समय
से ही ऐसा माना जा रहा था कि यह गठबंधन कभी भी बिखर सकता है।
कम्युनिस्ट
पार्टी की आतंरिक राजनीति:
अगर समान राजनीतिक हितों ने दो प्रबल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को एक
प्लेटफ़ॉर्म पर लाकर खड़ा कर दिया, तो कॉमन चुनौती के न रह जाने पर दोनों की
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की टकराहट ने उन्हें आमने-सामने लाकर खड़ा भी कर दिया है
जिसकी परिणति देर-सबेर शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन के रूप में होनी ही है।
समस्या सिर्फ यह नहीं है कि नेपाली काँग्रेस पस्त स्थिति में है और इसके कारण इन
दोनों के सामने कोई ऐसी राजनीतिक चुनौती नहीं रह गयी है जो इनके राजनीतिक अस्तित्व
एवं राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर प्रश्नचिह्न लगा सके, वरन् समस्या यह भी है कि
दोनों सत्ता-सुख का स्वाद चख चुके हैं और ज्यादा लम्बे समय तक सत्ता से विरत रहना
दोनों के लिए बहुत ही मुश्किल है। इसलिए वर्तमान में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की
टकराहट और इसकी पृष्ठभूमि में चलने वाले सत्ता-संघर्ष ने नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी
को बिखराव के कगार पर लाकर खड़ा दिया है।
बाह्य शक्तियों के लिए सृजित होता स्पेस:
दरअसल वामपंथी दल ही नहीं, वरन् नेपाल के सभी राजनीतिक दल अपने शीर्ष नेतृत्व की सत्ता की राजनीति और व्यक्तिगत
महत्वाकांक्षाओं की टकराहट के कारण गुटबन्दी की समस्या से गंभीर रूप से ग्रस्त है। सत्ता के लिए इन विभिन्न गुटों के बीच निरंतर
संघर्ष की स्थिति बनी रहती है और इस राजनीतिक परिदृश्य में नेपाल की आतंरिक राजनीति में हमेशा से भारत का दखल रहा है। इसने नेपाल
की राजनीति को भारत-समर्थन एवं भारत-विरोध की दो राजनीतिक धाराओं में विभाजित कर
रखा है। जहाँ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी का पारंपरिक रुझान चीन की ओर रहा है, वहीं
नेपाली काँग्रेस का पारंपरिक रुझान भारत की ओर। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले)
की स्थिति इन दोनों के बीच वाली रही है। लेकिन, समीकरण इतना आसान भी नहीं रहा है। हर
दल गुटबन्दी की समस्या से गंभीर रूप से ग्रस्त रहे हैं और उन्होंने अपनी राजनीतिक स्थिति
को मज़बूत करने के लिए बाह्य शक्तियों से संपर्क साधने एवं उनके समर्थन को हासिल
करने की निरंतर कोशिश की है। इस क्रम में 1990 के दशक में नेपाल की राजनीति में माओवादियों
के प्रवेश और वैचारिक जुडाव एवं निकटता के कारण उन्हें चीनी सहयोग एवं समर्थन ने
नेपाल की राजनीति में चीन के हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त किया। और, फिर नेपाल में
चीन की बढ़ती हुई रूचि और सक्रियता ने नेपाल की आतंरिक राजनीति को प्रभावित करने
वाली शक्ति के रूप में चीन को भारत के समानान्तर लाकर स्थापित कर दिया। अब, आलम यह
है कि किसी दल का एक गुट अगर भारत के प्रति सहानुभूति रखता है, तो दूसरा गुट उसे
प्रतिसंतुलित करने के लिए चीन के प्रति सहानुभूति रखता है। नेपाली कम्युनिस्ट
पार्टी के सन्दर्भ में देखें, तो वर्तमान में सत्तारूढ़ वामपंथी दल का ओली गुट अगर
प्रो-चाइना रुझान रखता है, तो भारत को लेकर प्रचण्ड-गुट का रुख नरम है। यहाँ पर यह
जानकारी कइयों के लिए चौंकाने वाले हो सकती है कि एक दौर में नेपाली माओवादी दल के
प्रचण्ड अपने चीन-समर्थक रुख के लिए जाने जाते थे, जबकि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी
(एमाले) के ओली अपने भारत-समर्थक रुख के लिए जाने जाते थे।
स्पष्ट
है कि पिछले डेढ़ दशकों से नेपाल राजनीतिक अस्थिरता की दौर से गुजर रहा है और नेपाल
की आतंरिक राजनीति अफगानिस्तान, मालदीव एवम् बांग्लादेश की तर्ज़ पर ही भारत-समर्थन
और भारत-विरोध की दो धाराओं में बँट चुकी है। यही कारण है कि जब भी भारत-विरोधी शक्तियाँ इस राजनीतिक अस्थिरता का
शिकार होती हैं, वे आसानी से भारत पर नेपाल की आतंरिक राजनीति में दखल और राजनीतिक
षडयंत्र में संलिप्तता का आरोप लगाकर नेपाली जनमानस की सहानुभूति हासिल करना चाहती
हैं और उन्हें अपने पक्ष में करना चाहती हैं।
सत्तारूढ़ दल के आतंरिक मतभेद का गहराना: हालिया सन्दर्भ
ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी के अंदर अंदरूनी खींचतान की एक वजह यह
भी है कि के. पी. शर्मा ओली इस समझ के साथ प्रधानमंत्री बने कि ढ़ाई साल वे प्रधानमंत्री
रहेंगे और ढ़ाई साल प्रचण्ड; और इस लिहाज से अब प्रधानमंत्री पद पर प्रचंड की
दावेदारी बनती है। इसी
आलोक में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे के लिए ओली पर दबाव बढ़ने लगा और अप्रैल,2020
में ऐसा लग रहा था कि ‘उनकी प्रधानमंत्री पद से ओली की छुट्टी होने वाली है’,
लेकिन राजनाथ सिंह द्वारा मानसरोवर सड़क के उद्घाटन ने ओली को मुद्दा दे दिया
और फिर ओली ने इसे भुनाने के लिए नेपाली राष्ट्रवाद के मुद्दे को तूल देना शुरू
किया। लेकिन, इन सबके बावजूद नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी(NCP) के दोनों संयुक्त चेयरमैन:
पुष्प कमल दहल प्रचंड और प्रधानमंत्री केपी ओली के
बीच हाल के दिनों में मतभेद गहराते दिख रहे हैं। पार्टी की स्टैंडिंग
कमेटी की दो बैठकों में शामिल नहीं होने की वजह से ओली को पार्टी सदस्यों की ओर से
आलोचना झेलनी पड़ी। जून,2020 के अन्त में पार्टी की स्टैंडिंग समिति की बैठक हुई
जिसमें ओली-प्रचंड की राजनीतिक तकरार अपने चरम पर पहुँच गयी। पार्टी
की इस बैठक में दूसरे ज्वाइंट चेयरमैन पुष्पकमल दहल
प्रचण्ड ने ओली के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि एक व्यक्ति, एक पद
सिद्धांत का अनुपालन करते हुए वे पार्टी के चेयरमैन और प्रधानमंत्री में से किसी
एक पद पर बने रहें और दूसरे पद को छोड़ दें। लेकिन, चुप्पी साधे ओली ने अपने
विरोध में खड़े वामदेव गौतम को उप्रधानमत्री पद
का ऑफर देते हुए उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश की, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर
नज़र जमाए वामदेव ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ध्यातव्य है कि नेपाली
कम्युनिस्ट पार्टी की 44 सदस्यीय स्टैंडिंग समिति में ओली-समर्थकों
की संख्या सिर्फ 13 सदस्य हैं।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें हालात जून,2020
के अंत में नेपाली प्रधानमंत्री ओली ने दिल्ली से आ रही मीडिया रिपोर्ट, काठमांडू में भारतीय दूतावास की गतिविधियाँ और
अलग-अलग होटलों में चल रही बैठकों का हवाला देते हुए नेपाल के राजनीतिज्ञों के साथ
मिलकर उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए षडयंत्र में शामिल होने का भारत पर
आरोप लगाया। ओली की इस टिप्पणी के बाद सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी का
अंतर्विरोध गहराता हुआ नज़र आया और ओली के साथ पार्टी के ज्वाइंट चेयरमैन पुष्प कमल
दहाल प्रचण्ड ने उनसे इस्तीफे की माँग करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ओली को उन
तथ्यों को सार्वजानिक पटल पर रखना चाहिए जो उनके आरोपों को पुष्ट करते हों। ध्यातव्य है कि जुलाई,2016 में अल्पमत में आने के बाद इस्तीफ़ा देने को विवश
ओली ने भारत को इसके लिए ज़िम्मेदार बतलाया था।
भारत पर राजनीतिक षडयंत्र का आरोप:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें ओली ने अपने देश और अपनी ही पार्टी के कुछ
नेताओं पर भारत के साथ मिलकर प्रधानमंत्री पद से हटाने हेतु षडयंत्र करने के आरोप
लगाए।
यह नया नहीं है क्योंकि भारत पर अक्सर नेपाल की आतंरिक राजनीति में दखल
देने के आरोप लगाए जाते हैं और अबतक के अनुभवों के आलोक में इस आरोप को पूरी
तरह से नकारा भी नहीं जा सकता है। पर, प्रधानमंत्री ओली के इस आरोप में दो
चीजें महत्वपूर्ण हैं: आरोप की टाइमिंग और इस षडयंत्र में नेपाली राजनीतिज्ञों,
विशेषकर अपने ही दल के कम्युनिस्ट साथियों की संलिप्तता के परोक्ष संकेत। उन्होंने
ये आरोप तब लगाए हैं जब उनकी अपनी ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (NCP) में उन्हें
प्रधानमंत्री पद से हटाने की माँग ज़ोर पकड़ रही है और जब नेपाली जन-मानस में भारत
का गुडविल निम्नतम बिंदु पर पहुँच चुका है।
ऐसे
में सहज ही इस बात का अहसास होता है कि नेपाल के राजनीतिक दल एवं उनके विभिन्न गुट
अक्सर अपनी असफलता का ठीकरा भारत के सिर फोड़ने की कोशिश करते हैं और भारत को जबरन नेपाल
की आतंरिक राजनीति में घसीटते हैं। भारत के सामरिक हित कुछ इस कदर नेपाल से जुड़े
हुए हैं, वह चाह कर भी खुद को इससे अलग नहीं रह पाता है। यहाँ पर ‘रियल पॉलिटिक’ की
भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। हर देश कूटनीतिक पहलों के जरिये अपने राष्ट्रीय
सामरिक हितों को साधने की कोशिश करता है और इस क्रम में कई बार रेडलाइन भी क्रॉस होते
हैं। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि नेपाल का
वर्तमान राजनीतिक संकट सत्तारूढ़ दल के आतंरिक मतभेद और गुटबन्दी का परिणाम है
जिसके लिए भारत या किसी अन्य को जिम्मेवार ठहराना उचित नहीं है। सारी
लड़ाई पार्टी के अध्यक्ष पद और प्रधानमंत्री पद को लेकर हैं। वर्तमान में के.
पी. शर्मा ओली प्रचंड के साथ संयुक्त रूप से अध्यक्ष भी हैं और प्रधानमंत्री भी। अब
प्रचण्ड चाहते हैं कि ओली दो में से एक पद छोड़ें, लेकिन ओली इसके लिए तैयार नहीं
हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर पार्टी पर उनकी पकड़ कमजोर हुई, तो देर-सबेर
प्रधानमंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ सकता है। इसलिए अपने राजनीतिक हितों को साधने
के लिए उन्होंने नेपाली जनमानस की राष्ट्रवादी भावनाओं को भारत-विरोध की ओर उन्मुख
कर दिया। नेपाल
की राजनीति भी अब पाकिस्तान और भारत की तर्ज़ पर विकसित हो रही है। जिस
तरह पाकिस्तान में घटने वाली हर घटना के लिए भारत को जिम्मेवार ठहराते हैं, उसी
प्रकार अब नेपाल में भी घटने वाली हर घटना के लिए भारत को जिम्मेवार ठहराया जा रहा
है। नेपाल की जनता लंबे समय से सत्ता के इस खेल को देख
रही है और अब इससे ऊब चुकी है।
दक्षिणपंथ की शरण में जाते प्रधानमंत्री ओली:
अब समस्या यह भी है कि भले ही नेपाली प्रधानमंत्री ओली वामपंथी सरकार
को नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं, पर उनका चाल, चरित्र एवं चेहरा किसी प्रतिक्रियावादी
दक्षिणपंथी सरकार वाला है। वामपंथ राष्ट्र, राष्ट्रवाद और धर्म को ऐसे भावनात्मक
मुद्दे के रूप में देखता है जो लोगों का ध्यान मूल मसलों से भटकाते हैं और जिनकी
आड़ में शोषक वर्ग शोषण की निर्बाध प्रक्रिया को चलाता है, लेकिन ओली ने वामपंथी
राजनीति के साथ-साथ नेपाल की आतंरिक राजनीति में
अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए उग्र राष्ट्रवाद का धारदार हथियार के
रूप में इस्तेमाल किया है और उनकी इस चाल के आगे उनके विरोधी पस्त होते रहे हैं।
राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए उग्र-राष्ट्रवाद:
वर्तमान में ओली अपने राजनीतिक अस्तित्व की लडाई लड़ रहे हैं, पड़ोसी
देश भारत के प्रति रवैये से लेकर आर्थिक मोर्चे और कोविड-19 के मसले पर वे अपनी ही
पार्टी की स्टैंडिंग कमिटी में घिरे हुए हैं। ऐसी स्थिति में
भारत उन्हें जीवन-दान देता हुआ नज़र आ रहा है क्योंकि वर्तमान के तनाव भरे माहौल
में जो भी उनके खिलाफ आवाज़ उठाएगा, बड़ी आसानी से उस पर भारत के साथ षडयंत्र करने
और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप लगाए जा सकते हैं।
उन्हें यह लग रहा है कि वे राष्ट्रवाद की भावना के सहारे राजनीतिक परिस्थितियों से
निपट लेंगे। इसी
आलोक में उन्होंने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए सामान्य से दिख रहे
सीमा-विवाद को संविधान-संशोधन के जरिये एक ऐसे मोड़ पर पहुँचा दिया जहाँ भारत-नेपाल
द्विपक्षीय सम्बन्ध दाँव पर लग पहुँच चुका है। लेकिन, वे यहीं
तक सीमित नहीं हैं।
आर्थिक नाकेबन्दी से लेकर अपने नेतृत्व को मिलने वाली हर चुनौती के
लिए भारत को कसूरवार ठहराना और इसका इस्तेमाल भारत-विरोधी भावनाओं को उभारने के
लिए करना उनकी इसी रणनीति का हिस्सा है। इसी आलोक में जून,2020 में उन्होंने नेपाल का नया राजनीतिक नक़्शा जारी करते हुए लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल का हिस्सा दिखाया।
उन्होंने इस नक़्शे को नेपाली असेम्बली में बाजाब्ता संविधान-संशोधन विधेयक के रूप
में पारित करवाते हुए अपने प्रतिद्वंद्वियों: पुष्प कमल दहाल प्रचंड और माधव कुमार
नेपाल को बैकफुट पर धकेलते हुए अपना साथ देने के लिए मजबूर कर दिया। अगले
दिन उन्होंने नेपाल में कोरोना के प्रसार के लिए
भारत और भारतीयों को जिम्मेवार ठहराते हुए इस षडयंत्र में नेपाल के
राजनीतिज्ञों की संलिप्तता के आरोप भी लगाए। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो “भारत
का वायरस चीन और इटली से भी ज़्यादा ख़तरनाक है।” वे यहीं तक
नहीं रुके।
यहाँ से आगे बढ़ते हुए उन्होंने मधेशियों के साथ भारत के रोटी-बेटी के सम्बन्ध के
मद्देनज़र मधेशियों की भारतीय बहुओं के लिए न्यूनतम
सात साल के नेपाली प्रवास की शर्त के साथ नेपाली नागरिकता के प्रावधान
से सम्बंधित वैधानिक पहल भी की है। इसके अतिरिक्त प्रधानमन्त्री
पद से अपदस्थ करने के षडयंत्र में भारत की संलिप्तता के आरोप और राम के
जन्म-स्थल ‘अयोध्या’ के नेपाल में होने के दावे
को भी इसी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। उनकी हर चाल ने
भारत को चौंकाया है और उनके विरोधियों को पस्त किया है।
अब तो वे एक कदम और भी आगे बढ़ चुके हैं। राष्ट्रवाद के बाद वे अब हिंदुत्व के भी ध्वजवाहक बनने की कोशिश करते दिख
रहे हैं, और इस क्रम में ऐसा लग रहा है कि वे अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए
भारत-नेपाल द्विपक्षीय सम्बंध की बलि चढ़ाने का निर्णय कर चुके हैं। ऐसा लग रहा है
कि अपने भारतीय समक्ष की तरह ओली भी राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के कॉकटेल तैयार करने
की कोशिश कर रहे हैं ताकि अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूती प्रदान की जा सके। इस
क्रम में उनकी ये कोशिशें नेपाल के समाज एवं राजनीति के संप्रदायीकरण का आधार
तैयार कर रही हैं। इस दिशा में पहल करते हुए उन्होंने 14 जुलाई को दावा किया, “असली
अयोध्या, जिसका प्रसिद्ध हिन्दू महाकाव्य रामायण में वर्णन है, वो नेपाल के बीरगंज
के पास एक गाँव है। वहीं भगवान राम का जन्म हुआ था। भगवान राम भारत के नहीं, बल्कि नेपाल के राजकुमार थे।” उनके इस बयान को
लेकर भारत में ही नहीं, नेपाल में भी कड़ी
प्रतिक्रिया हुई है। वरिष्ठ पत्रकार धरूबा
एच. अधिकारी ने नेपाली प्रधानमंत्री ओली की राजनीतिक वैचारिक विडंबना
को उद्घाटित करते हुए कहा, “ओली की पार्टी का नाम है कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल।
नाम में 'कम्युनिस्ट' लगा है। कम्युनिज़म
यानी साम्यवाद धर्म को नहीं मानता। ओली ने जब शपथ ली थी, तो उन्होंने भगवान का नाम
लेने से मना कर दिया था। जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनकपुर में पूजा
की, तो ओली ने नहीं की। लेकिन, ऐसे समय ओली को राम और
अयोध्या की चिंता हो रही है। हैरानी की बात है।”
नेपाल की राजनीति में चीन की बढ़ती सक्रियता:
स्पष्ट है कि भारत अपने निकटस्थ पड़ोसी देश नेपाल की राजनीति में 1950 के दशक से ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यद्यपि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी का पारंपरिक रुझान चीन की ओर रहा है, तथापि राजनीतिक सत्ता की चाह ने इसे भारत को लेकर अपने
रुख नरम करने के लिए विवश किया और यह भारत के 'सहयोग' से
सत्ता में भी पहुँची। लेकिन नेपाल की घरेलू जरूरतों, भारत के बदलते हुए
रवैये और इसकी पृष्ठभूमि में भारत को लेकर नेपाली जन-मानस की बदलती सोच ने इसे
वापस चीन की तरफ धकेला। इसे सपोर्ट मिला, नेपाल
में चीन की बढ़ती रूचि एवं सक्रियता के कारण। लेकिन,
इस स्थिति ने नेपाल के परिदृश्य को जटिल बनाया है और इसके कारण भारत की मुश्किलें बढ़ीं। अपनी कूटनीतिक भूलों के ज़रिये भारत ने अपनी
मुश्किलें और भी बढ़ा लीं। चीन हो या फिर प्रधानमंत्री
ओली, इन दोनों ने तो महज इस माहौल को अपने पक्ष में भुनाया है और अब भी वे इसे
अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश में लगे हैं। चीन तो महज इस
स्थिति को हवा देकर इसे कैपिटलाइज करने की कोशिश में लगा है, ताकि निवेश से लेकर
सामरिक संबंधों को मज़बूती प्रदान की जा सके।
अब तो आलम
यह है कि नेपाल की राजनीति में चीनी दख़ल बढ़ता जा रहा है और चीन की राजदूत
संकट में घिरे ओली को बचाने की हरसंभव कोशिश कर रही हैं। हाल में चीन की राजदूत
हाओ याँकी ने पार्टी को बिखरने से रोकने के लिए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के सीनियर
नेताओं: वर्तमान प्रधानमंत्री ओली, पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड,
पूर्व प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल और पूर्व प्रधानमंत्री झाला
नाख खनाल के साथ बैठक हुई थी। यहाँ तक कि चीन का संदेश लेकर वे राष्ट्रपति बिद्या
देवी भंडारी से भी मिलने गईं, वो भी बिना विदेश-मंत्रालय को इसके बारे में बताए। इन
मुलाक़ातों और चर्चाओं के बीच सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रस्तावित बैठक, जो
प्रधानमंत्री ओली के राजनीतिक भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जा रही थी,
रद्द हो गई। ऐसा माना जा रहा है कि गुटों में बँटी नेपाल की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट
पार्टी को टूटने से बचाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और उन्हीं की
कोशिशों के कारण ओली का प्रधानमंत्रित्व अबतक सुरक्षित है। भारतीय मीडिया में कहा जा रहा है कि चीन ओली सरकार
को बचाने में लगा है क्योंकि ओली भारत-विरोधी हैं। यहाँ तक कि चीनी राजदूत होउ यांकी पर ओली को हनी
ट्रैप में फँसाने का भी आरोप लगाया जा रहा है। लेकिन, उनका रवैया
अत्यन्त विनम्र है जिसके कारण यह पता लगाना मुश्किल है कि नेपाली राजनीति में उनका
कितना दख़ल है। पर, भारत के लिए नेपाल के हालात किस खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुके हैं,
उसकी ओर इशारा करते हुए राजनीतिक विश्लेषक कनक मणि दीक्षित ने
कहा है, “अगर सीपीएन टूट जाती है, तो भारत क़सूरवार ठहराया
जाएगा; और अगर पार्टी इकट्ठा रहती है, तो इसका श्रेय चीन को मिलेगा।” राजनीतिक विश्लेषक युबराज घिमिरे
का मानना है, “नेपाल में चीन के बढ़े प्रभाव से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा
सकता है। इसे इस सदी में 'भारत के नेपाल में अति-आक्रामक
पालिसी की प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जाना चाहिए।”
चीन की बढ़ती
राजनीतिक सक्रियता से उपजा आक्रोश:
अब तो
आलम यह है कि नेपाल में पिछले ढ़ाई महीने से संकटग्रस्त नेपाली
प्रधानमंत्री ओली के साथ चीनी राजदूत होउ याँकी की मुलाकातों के बढ़ते सिलसिले को
लेकर विपक्ष से लेकर मीडिया तक यह सवाल उठा रहा है कि घरेलू राजनीति में किसी
राजदूत की ऐसी सक्रियता ठीक नहीं है। नेपाली अख़बार इस
बात को लेकर आशंकित हैं कि चीन धीरे-धीरे नेपाल की घरेलू राजनीति में अपने 'माइक्रो
मैनेजमेंट का दायरा' बढ़ा रहा है। वे इसे द्विपक्षीय संबंधों
और कूटनीति, दोनों ही लिहाज से ठीक नहीं मानते हैं। मई,2020 में भारत में नेपाल के राजदूत रहे लोकराज बराल ने नेपाल टाइम्स से कहा था कि चीन नेपाल की
राजनीति में माइक्रो मैनेजमेंट की ओर बढ़ रहा है, कुछ वैसा ही मैनेजमेंट जैसा कुछ
साल पहले तक भारत करता था।
नेपाल की मीडिया ही नहीं, विरोधी दल, उसके नेता
और यहाँ तक कि नेपाली छात्र भी चीनी राजदूत की बढ़ती राजनीतिक सक्रियता से आशंकित
हैं। वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि प्रधानमंत्री ओली द्वारा एक देश की कीमत पर
दूसरे देश के पक्ष लिए जाने से राजनीतिक रूप से अस्थिर और आर्थिक तौर पर कमज़ोर
नेपाल की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। सात
जुलाई को इसके ख़िलाफ़ काठमांडू में नेपाली छात्रों ने चीनी दूतावास के बाहर प्रदर्शन
भी किया था और यह माँग की थी कि दूतावास सत्ताधारी नेताओं के घर से संचालित न हो।
लेकिन, कम्युनिस्ट पार्टी के प्रवक्ता काजी श्रेष्ठा ने इस बात से इंकार किया है कि
नेपाल की आंतरिक राजनीति किसी बाहरी ताक़तों के कहने पर चल रही है। पर, भारत और
नेपाल के बाहर की तो बात ही छोड़ दें, नेपाल के भीतर और खुद उनके दल में ही ऐसे लोग
मौजूद हैं जो उनकी बातों को गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं है।
नेपाल
में भारत की बढ़ती मुश्किलें:
आज अगर भारत नेपाल
में अपने सामरिक हितों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है, इसके लिए बहुत हद तक वह
स्वयं ही जिम्मेवार है और थोड़ी-बहुत जिम्मेवारी नेपाल के आतंरिक राजनीतिक परिदृश्य
को जाती है। भारत के साथ समस्या यह रही कि संवैधानिक राजतन्त्र से संवैधानिक
लोकतन्त्र तक की इस यात्रा में इसने खुद को किंग-मेकर की भूमिका में देखते हुए लगातार
नेपाल की आतंरिक राजनीति पर नज़र रखी और ज़रुरत-बेज़रूरत उसमें हस्तक्षेप भी किया
जिसने भारत की सकारात्मक भूमिका को दरकिनार करते हुए नेपाल में भारत की प्रति
व्यापक प्रतिक्रिया को जन्म दिया। इस दौरान भारत के साथ समस्या यह भी रही कि उसकी नेपाल-नीति में नीतिगत-निरंतरता का अभाव रहा
और उसकी प्राथमिकताएँ भी अंतर्विरोधी रही। साथ ही,
भारत नेपाल के मामले में पूरे इलाक़े में नफ़ा-नुक़सान के समीकरण को देखता है।
समस्या यह भी है कि नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य से
राजनीतिज्ञों की वह पीढ़ी अब पीछे छूट रही है जो भारत के साथ लगाव और होमली महसूस
करता था। अब नेपाल में राजनीतिज्ञों और नीति-नियंताओं
की नयी पीढ़ी का आविर्भाव हो चुका है जो भारत के साथ वैसा भावनात्मक
जुड़ाव नहीं महसूस करती है जैसा पुरानी पीढ़ी। साथ ही, इस पीढ़ी ने नेपाल की आतंरिक
राजनीति में भारत के हस्तक्षेप को बड़े करीब से महसूस किया है और जिसे लगता है कि
भारत नेपाल की स्वतंत्रता एवं संप्रभुता की अनदेखी करता हुआ उसके साथ दोयम दर्जे
का व्यवहार करता है। इस पृष्ठभूमि
में यह भारत के साथ अलगाव महसूस करता है जिसके परिणामस्वरूप भारत की नेपाल की
आतंरिक राजनीति तक पहुँच और उसे प्रभावित करने की उसकी क्षमता सीमित हुई है।
रहा-सहा काम नेपाल में चीन की बढ़ती सक्रियता और नेपाल को चीनी शह कर दे रही है। नेपाल
के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमिरे का कहना
है, “चीन और नेपाल के रिश्ते बेहतर हुए हैं। सन् 2006
तक नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत की निर्णायक हैसियत होती थी,
लेकिन अब वो बात नहीं रही। नेपाल में
चीन की उपस्थिति बढ़ी है। चीन की रुचि भी नेपाल में बढ़ी है। चर्चा का
विषय यह है कि नेपाल और भारत में दूरी कितनी बढ़ी है।”
वामपंथी नेपाल के साथ डील करने की मुश्किलें:
स्पष्ट है कि नेपाल में वामपंथियों की जीत ऐसे समय में मिली जब भारत
सहित दुनिया के विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता पर काबिज होती जा रही
हैं। अब भारत की समस्या यह है कि उसे उस नेपाल से डील करना है जो वर्तमान में
कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत है, उन कम्युनिस्टों के शासन के अंतर्गत, जिनकी
विचारधारा के खिलाफ भारत की दक्षिणपंथी सरकार ने पिछले छह वर्षों से मोर्चा खोल
रखा है। इसलिए स्वाभाविक है कि इनके साथ डील करने में परेशानी हो, विशेषकर तब इसकी
संभावना और भी बढ़ जाती है जब भारत, भारत की सरकार और भारतीय जनमानस खुले मन से एक स्वतंत्र
एवं संप्रभु राष्ट्र के रूप में नेपाल को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वह
एक ऐसे नेपाल का सपना देखता है जो भारत की कृपा पर निर्भर हो और भारत के इशारों पर
नाचता हो। यही भारत की नेपाल-नीति में झोल है जो समय के साथ घटने की बजाय बढ़ता जा
रहा है। राजनीतिक विश्लेषक युवराज घिमिरे
भारत के विरोधाभास की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “एक ऐसे देश की सरकार, जो ख़ुद
माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानती रही हो, वो पड़ोसी
मुल्क में उन्हीं माओवादियों की सत्ता में भागेदारी तय करवाती है और फिर दूसरी
शक्तियों को भी इसमें भागीदार बनाती है और चारों तरफ़ से घिरे मुल्क की ब्लॉकेड
करवाती है, तो इस सबका असर जनता के मन पर पड़ता है।” इस मनोदशा में सीमा-विवाद
जैसी घटनाएँ भारत-विरोधी माहौल को और हवा देती हैं। इससे वहाँ की राजनीति एवं
राजनीतिज्ञों का प्रभावित होना अस्वाभाविक नहीं है। यह संभावना तो तब और भी बढ़
जाती है जब वहाँ का 'प्रधानमंत्री’ ही कह रहा हो कि भारत उन्हें सत्ता से
बेदख़ल करने की साज़िश रच रहा है।
बहुत ही उम्दा लेख सर,हर पहलु की सम्यक जानकारी मिली।
ReplyDeleteबेहतरीन लेख sir जी
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