भारतीय अर्थव्यवस्था:
प्रमुख आयाम
1. कोरोना: आर्थिक
प्रभाव
a. कोरोना-पूर्व भारत
के आर्थिक हालत
b. गहराते आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि
c. रोजगार एवं आय पर प्रतिकूल असर
d. श्रम-बाजार: बिगड़ता माँग-आपूर्ति संतुलन
e. मध्य वर्ग का संकट
f.
कर-राजस्व
और सार्वजानिक वित्त पर असर
g. निर्यात एवं विदेशी मुद्रा के प्रवाह पर असर
h. मन्दी की ओर तेजी से
अग्रसर भारतीय अर्थव्यवस्था
i.
विसंगतिपूर्ण
आर्थिक नीति जिम्मेवार
2. भविष्य की संभावनाएँ:
a. अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की चुनौती
b. वैश्विक अर्थव्यवस्था से उम्मीद नहीं
c. आर्थिक रिकवरी को
प्रभावित करने वाले कारक
d. प्रणब सेन का विश्लेषण: ‘आइडियाज फॉर इण्डिया’
3. आत्मनिर्भर भारत और आर्थिक रिकवरी
a. आत्मनिर्भर भारत के
सन्दर्भ में इसके निहितार्थ
b. चीन-विरोधी भावनाएँ और भारत
c. आर्थिक राष्ट्रवाद
पर निर्भरता
d. आत्मनिर्भर भारत का
सच
4. ‘न्याय’ समय की माँग
आर्थिक विशेषज्ञों का यह मानना है कि भारतीय
अर्थव्यवस्था सन् 2008-09 की आर्थिक मन्दी के प्रभाव में हिचकोले खा रही थी और अभी
इस प्रभाव से बाहर निकली भी नहीं थी कि नवम्बर,2016 में बिना किसी होमवर्क के
अचानक नोटबन्दी को लागू करने की घोषणा और फिर अभी नोटबन्दी का प्रभाव सामने आना ही
शुरू हुआ था कि जुलाई,2017 में आधी-अधूरी तैयारी के साथ वस्तु एवं सेवा कर (GST)
को लागू करने की घोषणा भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती साबित हुई। इसने विशेष रूप से इनफॉर्मल सेक्टर को प्रभावित
करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसा झटका दिया जिसने स्लोडाउन को रिसेशन में
तब्दील कर दिया। और फिर, पिछले तीन दशकों के दौरान अपनी कामयाबी
का परचम लहराने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था फिसलती चली गयी। अब आलम यह है कि इसकी पृष्ठभूमि में कोरोना ने भारतीय अर्थव्यवस्था
को ऐसे दुष्चक्र में फँसा दिया है जिससे बाहर निकलना उसके लिए आसान नहीं होने जा
रहा है।
कोरोना-पूर्व भारत के आर्थिक हालत:
कोविड-19 संकट आने के पहले भारतीय अर्थव्यवस्था नॉमिनल जीडीपी
के आधार पर 45 साल के न्यूनतम स्तर पर थी और रियल जीडीपी के
आधार पर 11 साल के न्यूनतम स्तर पर। बेरोजगारी की दर पिछले 45
साल में सबसे अधिक थी और ग्रामीण माँग पिछले 40 साल के सबसे न्यूनतम स्तर पर। स्पष्ट है कि वर्तमान जारी आर्थिक संकट से
पहले ही भारत में एक बड़ी 'माँग-आधारित आर्थिक सुस्ती'
आ चुकी थी और अब यह माँग के साथ-साथ आपूर्ति-आधारित सुस्ती का रूप
धारण कर चुकी है। इसकी पुष्टि लाइव मिंट के उस
विश्लेषण से भी होती है जिसमें उसने सन् 2019 में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय
(NSO) के द्वारा जारी उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण से सम्बन्धित रिपोर्ट को आधार बनाकर
किया है। इस विश्लेषण में कहा गया है कि
सन् (2011-12) और सन् (2017-18) के बीच ग्रामीण गरीबी 4 प्रतिशत की वृद्धि के साथ
30 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गया, जबकि शहरी गरीबी 9 प्रतिशत से गिरकर 5 प्रतिशत
रह गयी इसके परिणामस्वरूप देश में गरीबी 21.9 प्रतिशत से बढ़कर 22.9 प्रतिशत के
स्तर पर पहुँच गयी और पिछले छह वर्षों के दौरान कुल गरीबों की संख्या में करीब 3
करोड़ की वृद्धि हुई। दरअसल इस गिरावट के मूल में वैश्विक आर्थिक मन्दी के
प्रभाव में भारतीय अर्थव्यवस्था में मन्द होती आर्थिक संवृद्धि दर और इसे
नोटबन्दी-जीएसटी द्वारा दिया गया झटका है जिसने भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और
इसके माध्यम से इस पर निर्भर आबादी को प्रतिकूलतः प्रभावित किया।
गहराते आर्थिक संकट की
पृष्ठभूमि:
कोरोना की चुनौती से निबटने
के क्रम में मार्च,2020 के दूसरे सप्ताह में कई राज्य सरकारों ने लॉकडाउन की दिशा
में पहल की और 24 मार्च से सम्पूर्ण देश में लॉकडाउन की घोषणा की गयी। आंशिक छूटों
के साथ यह लॉकडाउन करीब मई,2020 के पहले सप्ताह तक चला। इस तरह जून,2020 के पहले
सप्ताह से अनलॉकडाउन की प्रक्रिया शुरू हुई। 76 दिनों के इस लॉकडाउन के दौरान दवाई
और राशन की दुकानों को अपवादस्वरुप छोड़कर अन्य तमाम आर्थिक गतिविधियाँ लगभग ठप्प
रहीं, और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि लॉकडाउन खुलने के बाद सब कुछ सामान्य हो
जाएगा।
मार्च,2020 में आरोपित लॉकडाउन भारतीय अर्थव्यवस्था के
ज़बर्दस्त झटका साबित हुआ। इस दौरान समस्त उत्पादन-गतिविधियाँ ठप्प पड़ गयी। साथ ही, लॉकडाउन ने रेलवे और हवाई मार्ग से
लेकर सड़क मार्ग तक पूरे परिवहन-तंत्र को भी ठप्प कर दिया जिसके परिणामस्वरूप आपूर्ति-श्रृंखला
ध्वस्त हो गयी। आपूर्ति-श्रृंखला के
अवरुद्ध होने के कारण औषधि, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं ऑटोमोबाइल्स क्षेत्र कहीं अधिक
प्रभावित हुआ है, और वर्तमान हालात में इन क्षेत्रों में रिकवरी सम्भावना धूमिल ही
लगती है। इसका परिणाम यह हुआ कि इसके कारण वित्तीय ढाँचे के समक्ष भी चुनौती उत्पन्न हुई और डिफ़ॉल्ट की
समस्या गहराती चली गयी। अब, आलम यह है कि वर्तमान आर्थिक हालात में माँग में
वृद्धि की संभावना लगभग धूमिल है और इस कारण निवेश-माँग में वृद्धि की
सम्भावना भी सीमित है। साथ ही, चूँकि कोविड एवं लॉकडाउन ने सीधे-सीधे लोगों की आय
और इसके जरिये बचत को प्रभावित किया जिसके कारण आने वाले समय में निवेश हेतु
संसाधनों की उपलब्धता भी सीमित रहने की संभावना है।
रोजगार एवं आय पर प्रतिकूल
असर:
यह संकट वैश्विक है। इस संकट ने दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं को
और पूरी-की-पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्रक को
प्रभावित किया है। इसने न केवल आपूर्ति-श्रृंखला को अवरुद्ध किया है, वरन्
रोजगार-संभावनाओं को प्रतिकूलतः और यहाँ तक कि उपलब्ध रोजगारों को भी छीनने का काम
किया है। इतना ही नहीं, जो लोग रोजगाररत भी हैं, अब चाहे वे सार्वजानिक क्षेत्र से
सम्बद्ध हों या फिर निजी क्षेत्र से, उनकी भी आय पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है।
उन्हें विभिन्न प्रकार के भत्तों के साथ-साथ वेतन में भी कटौती का सामना करना पड़
रहा है।
जब ये हालात औपचारिक क्षेत्र के हैं, तो अनौपचारिक क्षेत्र की तो
बात ही छोड़ दें। उसे तो पहले से ही नोटबन्दी और जीएसटी ने तबाह कर रखा था, पर जो
थोड़ी-बहुत कसर रह गयी थी, उसे इस लॉकडाउन ने पूरा कर दिया। संकट कितना गहरा है,
इसका अन्दाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में केवल पाँच प्रतिशत
कंपनियों के पास छह महीने तक वेतन देने के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं, अर्थात्
95 लगभग प्रतिशत कम्पनियाँ ऐसी हैं जिनके पास इतने वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं हैं
कि वे अगले छह महीने के दौरान अपने कर्मचारियों को वेतन तक दे सकें।
जहाँ तक असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों और छोटे-मोटे स्तर
पर अपना रोजगार करने वालों का प्रश्न है, तो नोटबन्दी और जीएसटी के बाद कोरोना इस वर्ग के लिए सबसे बड़ा एवं
निर्णायक झटका साबित होने जा रहा है।
श्रम-बाजार: बिगड़ता माँग-आपूर्ति
संतुलन
कोरोना-संकट की पृष्ठभूमि में आरोपित
लॉकडाउन ने निम्न वर्ग और विशेषकर प्रवासी
श्रमिकों को सबसे अधिक प्रभावित किया। उत्पादन-गतिविधियाँ
ठप्प होने के कारण उन्हें घर बैठना पड़ा और उनके सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल
मुँह बाए खड़ी हुई। उनके नियोक्ताओं ने उनके साथ खड़ा होने से इनकार कर दिया। वेतन
में कटौती और छँटनी की प्रक्रिया शुरू हुई जिसके कारण उनके मन में भविष्य की आशंकाएँ
को गहराने लगी। उनके सामने सर्वाइवल का प्रश्न उपस्थित हुआ और इसने अस्तित्व के संकट
को जन्म दिया। वे जिस समाज में रहते थे, उस समाज ने भी उन्हें दुत्कार दिया, उनके
साथ खड़ा होने से इनकार किया। फलतः उनके सामने भोजन से लेकर रेंट तक ऐसी समस्या
उपस्थित हुई जिसका उनके पास कोई हल नहीं था और न ही लॉकडाउन होने के कारण सरकार
उन्हें वापस उनके घर जाने देने के लिए तैयार हुई। परिणामतः वे फ्रस्ट्रेट होने लगे
और इसके कारण उनका शहरी जीवन से मोहभंग होने लगा। फिर उन्हें रोक पाना मुश्किल हो
गया और इसने रिवर्स माइग्रेशन की सम्भावनाओं को बल प्रदान करते हुए प्रवासी
श्रमिकों के संकट को जन्म दिया।
अब प्रश्न यह उठता है कि रिवर्स माइग्रेशन
की इस प्रक्रिया के आर्थिक निहितार्थ क्या हैं? निश्चय ही रिवर्स माइग्रेशन की यह
प्रक्रिया ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए एक अवसर है, बशर्ते ग्रामीण अर्थव्यवस्था
इसे चुनौती के रूप में लेते हुए इन प्रवासी श्रमिकों को समायोजित करने की कोशिश
करे और इस समायोजन के जरिये उनके कौशल में अन्तर्निहित संभावनाओं का अपने लिए दोहन
कर सके। यहाँ पर इस बात को ध्यान ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि शहर से लौटे अधिकांश
मजदूरों को कुशल और अर्द्ध-कुशल कामगारों की श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन,
समस्या यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस स्थिति में नहीं थी कि वह अपने दम पर
इन्हें समायोजित कर सके और राज्य सरकारों के पास न तो इन्हें समायोजित करने वाली रणनीति
थी और न ही उन्होंने इसके लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को संसाधन उपलब्ध करवाने की
कोशिश की।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने
की ज़रुरत है कि ग्रामीण भारत का आज का परिदृश्य सन् 2008-09 के परिदृश्य से भिन्न
है। उस समय भारत-निर्माण, मनरेगा, किसानों की कर्ज-माफी, न्यूनतम समर्थन मूल्य में
निरन्तर तीव्र वृद्धि और सरकार द्वारा दिए गए राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के कारण
ग्रामीण अर्थव्यवस्था नवीन संभावनाओं से लैश थी। कुछ तो इसके आकर्षण के कारण और
कुछ शहरी अर्थव्यवस्था पर आर्थिक मन्दी के दबाव के कारण ये प्रवासी श्रमिक अपनी
बचत के साथ नवीन संभावनाओं से लैश होकर वापस अपने घरों की ओर लौटे। उन्होंने
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के रूपांतरण एवं इसके जरिये गैर-कृषि गतिविधियों में रोजगार
अवसरों के सृजन को संभव बनाया। लेकिन, इस बार प्रवासी मजदूर ऐसे समय में अपने घर
की ओर लौट रहे हैं जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था बदहाली के कगार पर खड़ी है और विभिन्न
प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रही है। साथ ही, इस बार ये अपनी सारी बचत गँवाकर
लौटे हैं और यहाँ तक कि उन्हें घर वापस लौटने के लिए कर्ज तक लेना पड़ा है, अपनी
जमीनें या जेवरात गिरवी रखने पड़े हैं। साथ ही, इनकी ऊर्जा भी चूक गयी है और इनके
हौसले पस्त हैं। ऐसी स्थिति में ये ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए बोझ बन चुके हैं।
उधर इनको ऐसे समय में वापस लाने की प्रक्रिया शुरू की गयी, जब लॉकडाउन
खोला जा रहा है और ठप्प पड़ी उत्पादन-गतिविधियों को रिवाइव करने की कोशिश हो रही है।
ऐसे समय में शहरी उत्पादन-केन्द्रों पर श्रमिकों की ज़रुरत है, पर श्रम-बाज़ार में
माँग एवं आपूर्ति का संतुलन बिगड़ा हुआ है और वहाँ पर श्रमिकों की उपलब्धता को लेकर
समस्या आ रही है। साथ ही, समस्या यह भी है कि शहर से लौटे इन श्रमिकों की आय और परिणामतः
इनकी क्रय-क्षमता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। ऐसी स्थिति में आनेवाले समय में माँग
को रिवाइव करना मुश्किल है और ऐसा किये बिना इकॉनोमिक रिवाइवल मुश्किल। मध्य वर्ग का संकट:
लेकिन, समस्या सिर्फ निम्न वर्ग और श्रमिकों तक ही सीमित नहीं है। हाल
में, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने
अपनी रिपोर्ट में भारतीय मध्य वर्ग के सिकुड़ते
आकार का उल्लेख किया है। ध्यातव्य है कि 1990 के दशक में उदारीकरण,
निजीकरण एवं वैश्वीकरण की जिस रणनीति को अपनाया गया, उसका परिणाम था विशाल मध्य
वर्ग का मजबूती से उभार और इसकी पृष्ठभूमि में भारत की बाज़ार-संभावनाओं का विस्तार,
जिसने विकसित देशों की नज़रों में विशाल भारतीय बाज़ार के आकर्षण को जन्म दिया।
लेकिन, आज यही मध्यवर्ग संकट में है क्योंकि सामान्यतः यह वर्ग हर संकट में
सुभेद्य साबित होता है और हर संकट इसे थोडा और भी कमजोर कर जाता है। कारण यह कि न
तो मध्य वर्ग की जरूरत को कोई समझता है और न ही यह वर्ग अपने अहम् के कारण अपनी
समस्या किसी के सामने प्रकट कर सकता है। साथ ही, इसकी ज़रूरतें भी बड़ी होती हैं
जिसके कारण न तो सरकार इसकी मदद के लिए हिम्मत जुटा पाती है और न ही सिविल सोसाइटी।
इसके विपरीत, निम्न वर्ग की ज़रुरत को सभी
समझते हैं और उनकी ज़रूरतें भी छोटी होती हैं, इसीलिए उनकी मदद में सरकार भी आते
हैं और सिविल सोसाइटी भी आती है।
यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था
की बुनियाद भले ही कृषि-क्षेत्र हो, लेकिन, पिछले तीन दशकों के दौरान मध्यवर्ग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में
सामने आया है और इसी की बदौलत भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दस सबसे बड़ी
अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब रही है। भारतीय
अर्थव्यवस्था में किसान और किसानी तो पहले से तबाह हो रहे हैं, लेकिन कोविद-19 ने
इसकी रीढ़ बनकर उभरने वाले मध्यवर्ग को भी तबाही के कगार पर पहुँचा दिया है। आशंका
व्यक्त की जा रही है कि जैसे-जैसे कोरोना संकट लम्बा खिंचेगा, मध्य वर्ग की स्थिति
बिगड़ती चली जायेगी और इसी के अनुरूप मन्दी से भारतीय अर्थव्यवस्था की जल्दी रिकवरी
की संभावना भी धूमिल पड़ती चली जायेगी।
कर-राजस्व और सार्वजानिक
वित्त पर असर:
आर्थिक संवृद्धि दर में कोई भी गिरावट सरकारी राजस्व-संग्रहण को
सीधे-सीधे प्रभावित करती है और इसका प्रतिकूल असर सरकार की राजकोषीय स्थिति पर
पड़ता है। यह स्थिति कोरोना संकट के
कारण भी उत्पन्न होती हुई दिखाई पड़ती है जिसने सरकार पर खर्च के दबाव को बढ़ाया और
आय के स्रोत को प्रतिकूलतः प्रभावित किया। निकट भविष्य में आर्थिक संकुचन की
संभावना के कारण आय के स्रोत के और भी संकुचित होने कई सम्भावना है जिसके कारण
सरकार की राजकोषीय स्थिति तेजी से बिगड़ेगी। परिणामतः सरकार पर संसाधनों के सृजन हेतु दबाव
लगातार बढ़ रहा है।
आलम यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों के गिरावट
के बावजूद पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में निरंतर वृद्धि का सिलसिला जारी है, ताकि
सरकारी राजस्व में वृद्धि को सुनिश्चित की जा सके और इसके बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे
को कम किया जा सके। आने वाले समय में सरकार
को कोरोना के साथ-साथ आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए खर्च के दबाव के बढ़ने
की संभावना है जिसके मद्देनज़र अपेक्षाकृत अधिक संसाधनों की ज़रुरत होगी। वित्त-वर्ष 2021 के
लिए भारत का राजकोषीय घाटा 3.8 प्रतिशत होने का अनुमान है जो
5 प्रतिशत तक भी पहुँच सकता है। इसके मद्देनज़र आने वाले समय में जीएसटी सहित अन्य
करों पर दबाव बढ़ने की संभावना है जो स्फीतिकारी दबाव को बढ़ने वाला साबित होगा और
इसका बोझ आम जनता को ही वाहन करना होगा, वो भी उस स्थिति में जब उसके रोजगार एवं
कमाई के आसार अच्छे नहीं हैं। मतलब यह कि आनेवाले समय में मध्य वर्ग और
वेतनभोगी लोगों पर कर-राजस्व का दबाव और अधिक बढ़ेगा।
निर्यात एवं विदेशी मुद्रा
के प्रवाह पर असर:
भारत ही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी
अर्थव्यवस्थाएँ, चाहे वह अमेरिका की अर्थव्यवस्था हो या चीन एवं पश्चिमी यूरोपीय
देशों की, इस संकट से बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं। इसने वैश्विक
आपूर्ति-श्रृंखला को पंगु बनाया है, हवाई यात्राओं के माध्यम से उड्डयन-क्षेत्र
बुरी तरह प्रभावित हुआ है और इसने बाज़ार को संकुचित किया है। वैश्विक
आपूर्ति-श्रृंखला के अवरुद्ध होने के कारण आयात में भी गिरावट आयी है जिसने
उन उद्योगों के विकास को प्रतिकूलतः प्रभावित किया जो आयातित कच्चे माल को
प्रसंस्करित कर और उसे विनिर्मित उत्पाद में तब्दील कर उसका पुनर्निर्यात करते हैं।
फलतः पुनर्निर्यात की संभावनाओं को भी झटका लगा है। ऐसी स्थिति में
आनेवाले समय में वैश्विक मन्दी के कारण निर्यात, जो पहले से ही ठहराव की चुनौती से
जूझ रहा है, में कमी की संभावना है और यह संभावना रिकवरी की प्रक्रिया अवरुद्ध
करेगी। समस्या सिर्फ निर्यात एवं पुनर्निर्यात तक सीमित नहीं है। इसके कारण बाह्य वित्त-प्रेषण (Remittances)
का प्रवाह भी अवरुद्ध हुआ है और इन सबके परिणामस्वरूप विदेशी-मुद्रा आय प्रवाह
भी बाधित हुआ है। इतना ही नहीं, विदेशी निवेशक भी जोखिमों के मद्देनज़र भारत में नए
सिरे से निवेश से परहेज़ करेंगे।
इतना ही नहीं, इस संकट के कारण अप्रवासी भारतीयों की वापसी की
प्रक्रिया भी तेज होगी। इसी आलोक में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका
में इमीग्रेशन रोकने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए है। अब आने वाले कुछ दिनों
तक अमेरिका में किसी बाहरी व्यक्ति को रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं होंगे क्योंकि
बेरोजगारी के बढ़ते हुए दबाव के कारण अमेरिकी सरकार अब इनकी जगह स्थानीय लोगों को
रोजगार देगी। इसके कारण न केवल देशी संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा, वरन् बाह्य
वित्त-प्रेषण की प्रक्रिया भी अवरुद्ध होगी जो संसाधनों की उपलब्धता को भी
प्रभावित करेगी। इसीलिए दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में स्लोडाउन या रिसेशन
वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है क्योंकि भारत उनसे
विशेष उम्मीद नहीं पाल सकता है।
मन्दी की ओर अग्रसर भारतीय
अर्थव्यवस्था:
स्पष्ट है कि दशकों बाद भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी
से स्लोडाउन से रिसेशन की ओर अग्रसर है, अब यह बात अलग है कि भारत सरकार इसे
स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन, जून,2020 में वॉशिंगटन में जारी विश्व आर्थिक आउटलुक अपडेट में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF)
की अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने भारतीय अर्थव्यवस्था की मंदी
की घोषणा करते हुए कहा कि साल 2020 में भारतीय अर्थव्यवस्था 4.5 प्रतिशत की नकारात्मक वृद्धि दर्ज करेगी। इससे पहले अप्रैल
के अपडेट में आईएमएफ़ ने भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर शून्य प्रतिशत होने का
अनुमान लगाया था। इसका कारण लम्बे
लॉकडाउन और कोरोना महामारी को लेकर विद्यमान अनिश्चितता को बतलाया गया है जिसके
कारण अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव की संभावना है। इस अपडेट में वैश्विक
अर्थव्यवस्था के साथ-साथ दुनिया की अधिकांश
बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के सन्दर्भ में आर्थिक संकुचन का संकेत भी दिया गया है जो
भारत के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है। जून,2020 में
जारी रिपोर्ट में विश्व बैंक ने चालू वर्ष में प्रति व्यक्ति आय में 3.6 प्रतिशत
की गिरावट का अनुमान लगाया है। विश्व बैंक समूह के
उपाध्यक्ष सेला पेज़रबाशियालू ने कहा, "यह एक चिंताजनक बात है,
क्योंकि कोरोना-संकट का असर लंबे समय तक रहेगा और हमें वैश्विक स्तर
पर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।" इससे पहले, मई,2020 में अंतर्राष्ट्रीय
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग को कम करते हुए यह अनुमान
लगाया कि भारत की विकास दर एक लंबे समय तक के लिए कम रहेगी, सरकार
की राजकोषीय स्थिति बिगड़ेगी और इसके वित्तीय क्षेत्र में अनिश्चितता बनी रहेगी।
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ ही नहीं, अब तो
राष्ट्रीय संस्थाएँ भी भारत के आर्थिक मन्दी के दुष्चक्र में फँसने की बात
स्वीकारने लगी हैं। अप्रैल,2020 में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत
दास ने स्वीकार किया कि वित्त-वर्ष (2020-21) में भारत की सकल घरेलू
उत्पाद (GDP) में नकारात्मक वृद्धि की उम्मीद है। मई,2020 में मौद्रिक
नीति कमिटी (MPC) ने माँग में
व्यापक कमी को ध्यान में रखते हुए अपने प्रस्ताव में यह कहा, “कोरोना-संकट के
कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा था, उसका आरम्भ में जितना अनुमान लगाया
गया था, उससे वह कहीं अधिक व्यापक एवं गहरा है। इसकी भरपाई करने में वर्षों लग जायेंगे।” कमिटी के अनुसार, कोविड-19
और इससे मुकाबले के लिए लागू किये गए लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ
बुनियादी जीवनयापन, आर्थिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और भरोसे को उससे कहीं ज्यादा झटका
दिया है जिसका अनुमान लगाया गया है। भारत
के पूर्व मुख्य सांख्यिक प्रणब सेन चालू
वित्त-वर्ष के दौरान (-)12 प्रतिशत के आर्थिक संकुचन के बाद अगले वित्त वर्ष के
दौरान भी (-)9 प्रतिशत के आर्थिक संकुचन का अनुमान लगा रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ
कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश को पहली बार आर्थिक मन्दी का सामना करना पड़ेगा।
विसंगतिपूर्ण आर्थिक नीति
जिम्मेवार:
आज भारतीय अर्थव्यवस्था जिस
मोड़ पर पहुँच चुकी है, उसके लिए सिर्फ कोरोना-संकट जिम्मेवार नहीं है। इसके लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार
के अंतिम चार वर्षों के दौरान नीतिगत पंगुता की स्थिति भी जिम्मेवार है और वर्तमान
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(NDA) सरकार के पिछले छह वर्षों का व्यापक
आर्थिक-कुप्रबंधन भी। इसके अलावा, इसने कोरोना की चुनौती से मुकाबले की जो रणनीति
निर्धारित की, वह भी इस स्थिति के लिए कहीं कम जिम्मेवार नहीं है। इसके अलावा, इस
स्थिति के लिए वह आर्थिक मॉडल और वे आर्थिक नीतियाँ भी जिम्मेवार हैं, जिन्हें पिछले तीन दशकों के दौरान अपनाया गया और जिसने हर समस्या का हल ‘एलपीजी’ में निकाला। इस मॉडल ने प्रो-कॉर्पोरेट नीतियों को अपनाते हुए पूँजी
एवं पूँजीपतियों को, निवेश एवं निवेशकों को अधिकाधिक रियायत दी। साथ ही, इसके
जरिये आपूर्ति को बढ़ाते हुए उपभोग की संस्कृति को बढ़ावा दिया गया और पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित की गयीं। परिणामतः सार्वजनिक
तंत्र ध्वस्त होता चला गया, या फिर यह कह
लें कि एक रणनीति के तहत् उसे ध्वस्त किया गया और ध्वस्त होने दिया गया। इसकी परिणति
असमान सामाजिक—आर्थिक विकास के रूप में हुई और कोरोना-संकट ने
निजीकरण की इसी रणनीति की पोल खोली है और
उसके तर्कशास्त्र को ध्वस्त कर दिया है।
स्पष्ट है कि वर्तमान संकट
के मूल में पिछले तीन दशकों के दौरान अपनाई गयी वे नीतियाँ जिम्मेवार हैं
जिन्होंने सार्वजनिक शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के तंत्र को ही ध्वस्त नहीं
किया, वरन् निजीकरण में सारी समस्याओं का हल तलाशते हुए जॉबलेस ग्रोथ की स्थिति को
भी जन्म दिया। इस कारण भारतीय बाज़ार के विस्तार की प्रक्रिया अवरुद्ध हुई। फलत: माँग
एवं आपूर्ति का संतुलन बिगड़ा। आज एक बार फिर से, देश की अर्थव्यवस्था उस मोड़ पर
पहुँची है जहाँ रोजगार-सृजन और इसके माध्यम से आय में वृद्धि के जरिये माँगें
सृजित करनी होगी, इसके बिना विद्यमान चुनौतियों से निबटना संभव हो पाएगा, इसमें
सन्देह है।
भविष्य
की संभावनाएँ
अर्थव्यवस्था को वापस पटरी
पर लाने की चुनौती:
अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि भारतीय
अर्थव्यवस्था को वापस विकास की पटरी पर लाना आसान नहीं होने जा रहा है क्योंकि बन्दी-बाद के परिदृश्य में चुनौतियाँ जटिल होने जा
रही हैं और संसाधन सीमित। इसका कारण यह है कि:
1. देश बेरोजगारी एवं भुखमरी की
गंभीर चुनौती का सामना करेगा और इस
चुनौतियों से निबटने के लिए सरकार को अधिक संसाधनों की ज़रुरत होगी, पर
2. सरकार की आय के स्रोत संकुचित
होंगे,
3. जनता की बचत की क्षमता घटी हुई
होगी,
4. उद्योगों के पास निवेश हेतु पूँजी
का अभाव होगा, और
5. विदेशी निवेशक अनिश्चितता भरे वातावरण
में उच्च निवेश-जोखिमों के कारण निवेश से परहेज़ करेंगे।
ऐसी स्थिति में सरकार के लिए माँग
एवं आपूर्ति, दोनों को बढ़ाने की चुनौती से निबटना आसान नहीं होने जा रहा है। यहाँ
पर एक समस्या यह भी है कि कोरोना को लेकर अनिश्चितता की जो स्थिति अब भी बनी हुई
है, उसमें आय बढ़ने की स्थिति में भी उस अनुपात में माँग में वृद्धि की सम्भावना
अपेक्षाकृत कम है क्योंकि यह अनिश्चितता भविष्य की दुश्वारियों के मद्देनज़र उन्हें
खर्च करने से रोकेगी, और सरकार का अबतक का रवैया आश्वस्त करने की बजाय इस
अनिश्चितता को बढ़ाने में कहीं अधिक सहायक है। और, रही-सही कसर चीन के साथ सीमा पर
उत्पन्न विवाद ने पूरी कर दी जिसके बाद सरकार के लिए अपनी ऊर्जा और अपने संसाधन कोरोना-बाद
की चुनौतियों को फोकस करना मुश्किल होगा। इसलिए सरकार को बड़ी सावधानी से अपने कदम
आगे बढ़ाने होंगे और इसके लिए न केवल उपयुक्त नीतिगत फैसले लेने होंगे, वरन् तदनुरूप
कार्यक्रम निर्धारित करते हुए उनका जमीनी धरातल पर क्रियान्वयन सुनिश्चित करना
होगा।
वैश्विक अर्थव्यवस्था से उम्मीद
नहीं:
यह चुनौती इसलिए भी
गहन है कि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था से विशेष उम्मीद नहीं कर सकता है। जून,2020 में
वॉशिंगटन में जारी विश्व आर्थिक आउटलुक अपडेट में अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष (IMF) ने दुनिया की अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के सन्दर्भ
में आर्थिक संकुचन का संकेत देते हुए कहा कि इस दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था के भी (-)4.9 प्रतिशत
की दर से बढ़ने की संभावना है। इनमें बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में केवल चीन की अर्थव्यवस्था है जिसमें 1
प्रतिशत की वृद्धि की सम्भावना है।
राहत की बात सिर्फ यह है कि जिस आपूर्ति-श्रृंखला
की शुरुआत चीन से होती है, भारत उसमें मुख्य भागीदार नहीं है और दूसरे, कच्चे तेल
की कीमतों में गिरावट के कारण भारत को थोड़ी-सी राहत महसूस होगी। लेकिन, जो भारतीय उद्योग अपने इनपुट के लिए चीन
पर निर्भर हैं, भारत-चीन सीमा-विवाद और बायकॉट चाइना द्वारा सृजित परिस्थितियों के
कारण उनके ग्रोथ के प्रतिकूलतः प्रभावित होने की आशंका है। इसीलिए सरकार को यह
सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे उद्योगों पर समुचित ध्यान दिया जाए और उन्हें सरकार की
ओर से समर्थन मिले।
आर्थिक
रिकवरी को प्रभावित करने वाले कारक:
जून,2020 में इंडियन
एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख ‘स्पीकिंग :
व्हेन एंड हाउ विल इंडियन इकॉनोमी रिकवर, व्हाट द शेप ऑफ़ इट्स रिकवरी विल बी?’ (8
जून) में उदित मिश्रा ने इस
प्रश्न पर विस्तार से विचार करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था में लम्बे ‘U’ रिकवरी का
अनुमान लगाया। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘V’ शेप या
‘Z’ शेप रिकवरी की संभावनाओं को खारिज किया। उनका
कहना है कि जिस तरह अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने मई,2020 में 2.5 मिलियन रोजगार सृजन
के साथ ‘V’ शेप में रिकवरी का संकेत दिया जिसके आधार पर अमेरिकी राष्ट्रपति
डोनाल्ड ट्रम्प ने यह दावा किया कि अपेक्षाकृत धीमी इकॉनोमिक रिकवरी की धारणा
भ्रामक है, उस तरह की ‘V’ शेप रिकवरी भारतीय अर्थव्यवस्था में देखने को मिलेगी,
इसमें सन्देह है। इस सन्देह का कारण है कोरोना-संकट में
प्रवेश करते वक़्त भारतीय आर्थिक परिदृश्य और इस चुनौती से मुकाबले के क्रम में दिए
गए राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज का नाकाफी होना अर्थव्यवस्था। यहाँ पर इस बात को
ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आर्थिक रिकवरी की गति निम्न बैटन पर निर्भर करती है:
1. संकट में प्रवेश के समय आर्थिक
परिदृश्य: अगर यह सामान्य होगा, तो रिकवरी की गति
तेज होगी; और अगर यह असामान्य होगा, तो रिकवरी मुश्किल होगी।
2. महामारी का समग्र जीवन-काल: भारत के सन्दर्भ में देखें, तो सारे अनुमानों को
झुठलाते हुए जिस तरह से इसका पीक विलंबित हो रहा है, वह इस ओर इशारा करता है कि
इकॉनोमिक रिकवरी की राह मुश्किल होगी। भारत में लॉकडाउन 76 दिनों तक चला और इस
दौरान सभी प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ; जरूरी और गैर-जरूरी ठप्प पड़ गयीं।
3. रोजगार एवं आय पर इसका असर: 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के जारी आँकड़ों के अनुसार, “कोरोना संकट से पहले भारत में कुल रोजगाररत आबादी
40.4 करोड़ थी, जो इस संकट के बाद घटकर 28.5 करोड़ हो चुकी है। इस प्रकार लॉकडाउन की वजह से कुल 12 करोड़ नौकरियाँ चली गई हैं।” इसका प्रतिकूल असर
भारतीयों की आय पर पड़ा और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बचत पर उनकी निर्भरता
बढती चली गयी। मतलब यह कि इसने रोजगार एवं आय-संभावनाओं को
प्रतिकूलतः प्रभावित करते हुए माँग-संकट की स्थिति उत्पन्न की, जबकि समुचित
होमवर्क और बिना किसी पूर्व-तैयारी के लॉकडाउन को लागू करने के कारण
आपूर्ति-श्रृंखला ध्वस्त हो गयी।
4. फिस्कल स्टिमुलस का आकार और इसकी
प्रकृति: इस चुनौती से मुकाबले के लिए भारत ने 20 लाख करोड़ रुपये (जीडीपी के
करीब 10 प्रतिशत के बराबर) के फिस्कल स्टिमुलस पैकेज की घोषणा की। एक तो यह राशि अपेक्षा से कम है, और दूसरे यह
आपूर्ति पक्ष को फोकस करता हुआ माँग-पक्ष से जुड़ी समस्याओं की अनदेखी करता है।
इतना ही नहीं, इनमें से अधिकांश राशि या तो बजट और पहले कोरोना-पैकेज के माध्यम से
आवंटित की जा चुकी है, या फिर बाज़ार में तरलता बढ़ाने के लिए रिज़र्व बैंक के द्वारा
किये गए पहलों के हिस्से थे। इस तरह
से पैकेज में नए सिरे से आवंटित फण्ड महज जीडीपी के 2 प्रतिशत के आसपास थे।
उपरोक्त बिन्दुओं के आलोक में उदित मिश्र भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करते हुए इस
निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसे दुष्चक्र में फँसती दिखाई
पड़ रही है जिससे बाहर निकल पाना इसके लिए आसान नहीं होने जा रहा है। उन्होंने यह
संभावना व्यक्त की है कि भारत में इकॉनोमिक रिकवरी की प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी
होगी और इसमें अपेक्षाकृत अधिक समय लगने की संभावना है। उनका अनुमान है कि आरंभिक
गिरावट के बाद भारत के ‘U’ शेप वाली इकॉनोमिक रिकवरी की ओर बढ़ने की सम्भावना
अपेक्षाकृत ज्यादा है, और उसमें भी अपेक्षाकृत लम्बे ‘U’ शेप वाली इकॉनोमिक रिकवरी।
यह भी संभव है कि भारत ‘L’ शेप इकॉनोमिक रिकवरी की ओर बढ़े जिसमें एक बार
गिरावट के बाद अर्थव्यवस्था लम्बे समय तक रिकवर कर पाने में असमर्थ रहती है, या
इन्हीं बातों को दूसरे शब्दों में कहें, तो अर्थव्यवस्था को रिकवर करने में वर्षों
लग जाते हैं। यह एक तरह से अर्थव्यवस्था की उत्पादन
कर पाने की क्षमता का स्थायी रूप से क्षरण है।
प्रणब सेन का विश्लेषण: ‘आइडियाज फॉर इण्डिया’
भारत के सन्दर्भ में
बात करें, तो अधिकांश अर्थशास्त्री चालू वित्त-वर्ष में आर्थिक संकुचन (Economic
Contraction) की बात से सहमत हैं। उनके
बीच अगर मतभेद है, तो इस बात को लेकर कि यह संकुचन कितना होगा: (-)4 प्रतिशत, या
(-)14 प्रतिशत, या फिर इन दोनों के बीच। अनुमान है कि चालू वित्त-वर्ष में भारतीय
अर्थव्यवस्था आर्थिक संकुचन के पश्चात् अगले वित्त-वर्ष (2021-22) में रिकवर करना
शुरू करेगी। लेकिन, भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकी-विद प्रणब सेन चालू वित्त-वर्ष के दौरान (-)12 प्रतिशत के आर्थिक
संकुचन के बाद अगले वित्त वर्ष के दौरान भी (-)9 प्रतिशत के आर्थिक संकुचन का
अनुमान लगा रहे हैं, और वह भी तब जब चीजें सही दिशा में बढ़ती हैं और सरकार अगले
वित्त-वर्ष में भी अपने सार्वजानिक व्यय को चालू वित्त-वर्ष के स्तर पर बनाए रखती
है। इसका मतलब यह हुआ कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश को पहली बार आर्थिक
मन्दी का सामना करना पडेगा। ‘आइडियाज फॉर इण्डिया’ के नाम से प्रकाशित अपनी
रिपोर्ट में उन्होंने अनुमान लगाया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वित्त-वर्ष
(2023-24) तक भी 2019-20 की निरपेक्ष जीडीपी के स्तर को हासिल करने के लिए संघर्ष
करना पड़ेगा। उनके अनुसार वित्त-वर्ष (2019-20) के प्री-कोविड फेज में जीडीपी
वृद्धि की दर 5 प्रतिशत के स्तर पर थी, जो पोस्ट-कोविड फेज में घटकर 3 प्रतिशत रह
गयी और दो साल के लगातार आर्थिक संकुचन के बाद इसके वित्त-वर्ष (2022-23) और
वित्त-वर्ष (2023-24) के दौरान 6 प्रतिशत के स्तर पर वापस लौटने की संभावना है।
आर्थिक
रिकवरी और आत्मनिर्भर भारत
आत्मनिर्भर
भारत के सन्दर्भ में इसके निहितार्थ:
भारतीय प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने देश को आश्वस्त किया कि अर्थव्यवस्था के मूल तत्व मज़बूत हैं और
इसलिए भारत किसी बड़े नुक़सान के बिना कोरोना से पैदा हुए आर्थिक संकट से बाहर
निकल जाएगा। सरपंचों के सम्मलेन को सम्बोधित करते हुए भारतीय
प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण में
स्थानीय संस्थाओं की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा, "मज़बूत
पंचायतें आत्मनिर्भर गाँवों का भी आधार हैं। इसलिए पंचायत की व्यवस्था जितनी मज़बूत होगी, उतना ही लोकतंत्र भी
मज़बूत होगा और उतना ही विकास का लाभ उस आख़िरी छोर पर बैठे सामान्य व्यक्ति को भी
होगा।" इससे पहले, कोरोना-संकट के
आरंभिक दिनों में ही वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री
पीयूष गोयल ने 5 ट्रिलियन डॉलर इकॉनोमी के लक्ष्य को साकार करने के
लिए घरेलू उद्योग को अधिक आत्मनिर्भर बनाने और राष्ट्रवाद की भावना को आत्मसात करते
हुए स्वदेशी का आह्वान किया था। सड़क-परिवहन और राज-मार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने
हाल में ये आशा जताई कि कोरोना संकट के बाद चीन से नाराज़ विदेशी कंपनियाँ वहाँ से
अपनी फैक्ट्रियाँ हटाकर भारत में लगाना चाहेंगीं।
चीन-विरोधी भावनाएँ और भारत:
ध्यातव्य है कि
कोरोना-संकट में चीन की संदिग्ध भूमिका सामने आने के बाद से ही ऐसा माहौल सृजित
किया जा रहा है कि वे कम्पनियाँ जिन्होंने चीन में निवेश कर रखा था, अब अपने निवेश
को वापस लेकर भारत की और रुख करेंगी जिससे भारत में विदेशी निवेश द्वारा
उत्प्रेरित आर्थिक विकास को बल मिलेगा। इस
पृष्ठभूमि में आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना के जरिये इस माहौल को भारत के पक्ष
में भुनाने की कोशिश की जा रही है।
लेकिन, समस्या
यह है कि भारत अभी बुनियादी ढाँचों और हाई टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत चीन से
बहुत पीछे है। साथ ही, एक तो चीन बड़े पैमाने पर उत्पादन
करता है और दूसरे, वह अपनी टेक्नोलॉजी को लगातार अपग्रेड करते रहता है और ये दोनों
ही चीजें चीन को भारत से भिन्न एवं विशिष्ट बनाती हैं। इसीलिए इतना तो स्पष्ट है कि भारत चीन का विकल्प तो नहीं हो सकता है। फ़ोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, दिल्ली में
इंडो-पैसिफिक मसलों के विशेषज्ञ फ़ैसल अहमद
असहमति प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि इसी तरह की अटकलें इंडो-यूएस ट्रेड वार
के समय भी लगाई जा रही थीं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
आर्थिक
राष्ट्रवाद पर निर्भरता:
ऐसा माहौल सृजित
किया जा रहा है जिसमें इस सोच को बल मिला है कि कोरोना-महामारी के बाद ‘आर्थिक
राष्ट्रवाद’ की भावना का तेजी से प्रचार-प्रसार होगा और इसके बहाने ‘आत्मनिर्भर
अर्थव्यवस्था’ को मजबूती मिलेगी। लेकिन, यह ‘आत्मनिर्भर भारत’ का
कमजोर पहलू भी है। इन्हीं
पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इसके लिए आयातित
उत्पादों पर आयात-शुल्क में वृद्धि की जायेगी और घरेलू उत्पादों को खरीदने के लिए
देशी उपभोक्ताओं पर प्रत्यक्षतः-परोक्षतः दबाव डाला जा सकता है। इस बात की संभावना इसलिए भी
प्रबल है कि वर्तमान में भारत में आयात-शुल्क की दर औसतन 14 प्रतिशत के स्तर पर है
जो विश्व व्यापार संगठन के द्वारा निर्धारित 48.5 प्रतिशत के स्तर से बहुत कम है। लेकिन, यह स्थिति भारतीय
उत्पादों और भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रतिकूलतः प्रभावित
करेगी, और इसका प्रतिकूल असर भारतीय निर्यात पर सकता है। मतलब यह कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ आर्थिक संरक्षणवाद के
खतरों को समाहित करता है और अगर ऐसा है, तो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए इसकी बड़ी
कीमत हो सकती है। जिनेवा इंस्टीट्यूट ऑफ जिओपॉलिटिकल स्टडीज़ (GIGPS) के प्रो. अलेक्जेंडर लैंबर्ट कहते हैं, “अगर
भारत आत्मनिर्भरता हासिल करना चाहता है, तो उसे अपने औद्योगिक आधार को मज़बूत करने
के लिए एक विशाल और आधुनिक बुनियादी ढाँचा तैयार करना होगा।”
आत्मनिर्भर
भारत का सच:
यद्यपि भारत जनांकिकीय
लाभांश और उद्यमशीलता की बदौलत आत्मनिर्भरता हासिल करने में सक्षम है, पर ‘आत्मनिर्भर
भारत’ के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक मज़बूत आर्थिक रणनीति, जिसमें छोटे उपभोक्ताओं के बीच माँग के सृजन के जरिये घरेलू
बाज़ार के विस्तार और निवेश की माँग को समुचित एवं पर्याप्त महत्व दिया जाए, और
उसके ज़मीनी धरातल पर क्रियान्वयन की ज़रुरत है जो कम-से-कम अबतक तो नदारद है। लेकिन, ‘आत्मनिर्भर भारत’ और इसके लिए ‘वोकल फॉर
लोकल’ अभियान को लेकर सरकार खुद कितनी गंभीर है, उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा
सकता है कि इसके लिए सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये (जीडीपी के करीब 10 प्रतिशत के
बराबर) के जिस पैकेज की घोषणा की है, उनमें से अधिकांश या तो बजट और पहले
कोरोना-पैकेज के माध्यम से आवंटित किये जा चुके थे, या फिर बाज़ार में तरलता बढ़ाने
के लिए रिज़र्व बैंक के द्वारा किये गए पहलों के हिस्से थे। पैकेज में नए सिरे से आवंटित फण्ड महज जीडीपी के 2 प्रतिशत के आसपास
थे। यह इस बात का संकेत देता है कि सरकार की रूचि जितनी आँकड़ों की कलाबाजी में है,
उतनी विद्यमान आर्थिक चुनौतियों से अर्थव्यवस्था को बाहर निकलने में नहीं। इतना ही
नहीं, बिना समुचित तैयारी के एक झटके में निर्णय लेने की प्रवृत्ति अर्थव्यवस्था
पर भारी पड़ रही है और आने वाले समय में देश को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
सरकार ने जिस तरीके
से प्रवासी मजदूरों के संकट को हैंडल
किया है और जिस तरीके से कोरोना-संकट के दौरान अस्तित्व के संकट से जूझ रहे
नियोक्ताओं और उनके स्वामित्व वाली इकाइयों की चिनातों से बेखबर रही है या उसके
प्रति बेरुखी प्रदर्शित की है, वह इस बात का संकेत देने के लिए काफी है कि सरकार
‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान को लेकर कितनी गंभीर है। एक ओर अनलॉकडाउन की प्रक्रिया को शुरू करना, ताकि
ठप्प पड़ी आर्थिक गतिविधियाँ शुरू की जा सकें, दूसरी ओर प्रवासी मजदूरों को वापस
उनके घर भेजे जाने का प्रबंध: यह स्थिति अपने आप में दृष्टिहीनता का प्रमाण है।
कम-से-कम इस तरीके से तो ‘आत्मनिर्भर भारत’ का निर्माण संभव नहीं है।
इस अभियान की इस
आधार पर भी आलोचना की जा रही है कि इसके लिए 20 लाख करोड़ का जो पैकेज दिया जा रहा
है, उसमें से अधिकांश के जरिये बैंकिंग और क़र्ज़ देने वाली संस्थाओं में तरलता को
बढ़ाकर आपूर्ति पक्ष को दुरुस्त करने की कोशिश की जा रही है, जबकि आनेवाले समय में
मूल समस्या माँग पक्ष पर आने जा रही है।
न्याय
(NyAY) समय की माँग:
इसके मद्देनज़र, आवश्यकता
इस बात की है कि इन सब चिंताओं से मुक्त होकर सरकार समाज के हाशिये पर के समूह को
लक्षित करते हुए ‘न्याय’ (Nyoontam Aay Yojana) जैसी नकदी आय-अंतरण योजना के सहारे
ज़रूरतमंद लोगों तक अगले छः माह तक नकदी पहुँचाने की कोशिश करे। अजीत दयाल ने यह सुझाव
दिया है कि यदि सरकार समाज के सर्वाधिक ज़रूरतमंद 15 करोड़ लोगों तक अगले छह महीने
के लिए 10 हज़ार रुपए प्रति माह पहुँचाने की कोशिश करती है,
तो इसके कारण जीडीपी पर लगभग चार प्रतिशत (9 लाख करोड़ रुपए)
के वित्तीय बोझ सृजित होंगे, पर इससे माँग-सृजन के जरिये आर्थिक रिकवरी को सुनिश्चित
करने में मदद मिलेगी। लेकिन, ऐसा माना जा रहा है कि सरकार संसाधनों की कमी और
अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के द्वारा क्रेडिट रेटिंग में गिरावट, जिसके
कारण वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ से मिलने वाला लोन मँहगा हो जाएगा, को लेकर कहीं अधिक
चिंतित है। यही कारण है कि उपभोक्ताओं
के हाथों में नकदी की पहुँच सुनिश्चित करते हुए माँग में वृद्धि की कोशिश से सरकार
के द्वारा अबतक परहेज़ किया जाता रहा है।
Sir very informative and comprehensive explanation
ReplyDeleteSir realy helpful and insightful....Detailed analysis...
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