Thursday 7 March 2019

हाँ, तुम औरत हो!

मैं पुरूष, और
तुम हो नारी!
मेरी नज़रें टिकी हैं
तुम्हारे वक्ष-स्थल पर,
तुम्हारी योनि पर;
और तुम्हारा सौन्दर्य छिपा है
इन दोनों के बीच,
जिनमें मानव-सृष्टि आकार ग्रहण करती है।
तुम्हारा वक्ष
समाहित करता है
हिमालय की उत्तुंग ऊँचाइयों को,
तुम्हारी योनि की गहराई
समुद्र से भी ज्यादा,
जो समाहित करती है सम्पूर्ण सृष्टि को
अपने भीतर,
जिसमें पनाह तलाशता है दिग्भ्रमित मन
और उसका बिखराव;
जो समेटता है उस बिखराव को, और संयोजित करता है उसे।
इन दोनों के बीच
सन्तुलन साधती तुम्हारी आँखें
बहुत कुछ कहती हैं,
विशेष कर अनकहा,
विशेष कर अनजाना!
*****************
हाँ, तुम औरत हो!
वक्ष और योनि तक सिमटी हुई औरत,
जहाँ तक हमारी पहुँच है,
जहाँ तक हम पहुँचना चाहते हैं।
न हमारी तुम्हारी रूह तक पहुँच है,
न तुम्हारी ऊह तक पहुँच,
न हम तुम्हारे हृदय में उतरना चाहते हैं,
न हम तुम्हारी आँखों को समझना चाहते हैं।
तुम्हारी आँखों का आकर्षण तो दिखता है मुझे,
पर आँखों का अवकर्षण नहीं।
इन आँखों में छुपी है
स्त्री होने की नियति,
मादा होने की पीड़ा,
अधूरे अरमानों की त्रासदी, और
छुपे हैं
बिखरे हुए स्वप्न,
टूटते अरमान;
और छुपा है वह हौसला,
जो इन सबसे पार ले जाता है,
छुपी है
इन सबसे उबरने की तड़प!
इन आँखों ने समेट रखा है अपने भीतर
एक छोटा-सा संसार,
जिनमें सपने हैं,
जिनमें अपने हैं, और
जिनमें तपने हैं!
**************
हाँ, तुम औरत हो,
हाँ, तुम उफनती हुई नदी हो,
तुम्हारे हृदय में है हहराता सागर,
तुम्हारे आँखों में है अरमानों की मचलन!
पर, मुझे क्या,
इन सबकी हमारे लिए कोई अहमियत नहीं,
क्योंकि,
क्योंकि
मेरे लिए तो तुम महज़ औरत हो,
हाँ, वह औरत,
जिसके सपने हमें रौंदने हैं।
हाँ, तुम अभिशप्त हो ‘स्त्री’ होने के लिए,
और ‘मादा’ में संक्रमित होकर रह जाने के लिए।
तुम विवश हो
स्त्री’ होने के लिए, वहाँ
जहाँ तुम ‘मादा’ होना चाहती;
और ‘मादा’ होने के लिए
जहाँ तुम ‘स्त्री’ होना चाहती!
यही तुम्हारी पीड़ा है,
यही तुम्हारी वेदना है,
जिसे न तो हम समझना चाहते हैं, और
न कभी समझेंगे!
हाँ, जिसे हम कभी नहीं समझेंगे,
चाहे कितने भी महिला दिवस गुज़र जाएँ।
यही तो है पुरूष होने की त्रासदी।

No comments:

Post a Comment