Thursday, 28 March 2019

बेगूसराय-नामा भाग-1 बेगूसराय को लेकर भ्रामक रिपोर्टिंग


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बेगूसराय-नामा भाग-1
बेगूसराय को लेकर भ्रामक रिपोर्टिंग
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भारतीय पत्रकारिता के पतन के इस दौर में भी कुछ लोग एनडीटीवी को सामाजिक प्रतिबद्धता वाली पत्रकारिता के मानदंड के रूप में देखते हैं, परएनडीटीवी की पत्रकारिताका आलमप्रभात उपाध्याय की इस रिपोर्ट में देखिए, जिसमें कम्युनिस्टों के गढ़ के रूप में बेगूसराय, जो लम्बे समय तक बिहार के लेनिनग्राद और मास्को के रूप में लोकप्रिय रहा, की अहमियत यह कहते हुए ख़ारिज करने की कोशिश की गयी कि अबतक इस क्षेत्र से वामपंथ को केवल एक बार जीत हासिल हुई है। इससे पहले भी कई मीडिया-समूह के द्वारा ऐसी ही रिपोर्टिंग देखने की गयी, जबकि यह अर्द्ध-सत्य है।
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हमेशा से वामपंथ का गढ़ रहा है बेगूसराय:
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दरअसल जिसे आज बेगूसराय संसदीय क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, कल तक उसका अधिकांश हिस्सा बलिया संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आता था। सन् 2008 पहले तक बेगूसराय में दो संसदीय क्षेत्र थे: बेगूसराय और बलिया। बेगूसराय संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत बेगूसराय ज़िला के अंतर्गत आने वाला केवल एक विधान-सभा क्षेत्र(बेगूसराय) आता था। बेगूसराय ज़िला के अन्यविधान-सभा क्षेत्र बलिया संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आते थे। लेकिन, सन् 2008 में चुनावी परिसीमन के बाद बेगूसराय और मटिहानी विधान-सभा क्षेत्र को बलिया के अंतर्गत शामिल कर लिया गया और खगड़िया ज़िला के अलौली विधान-सभा क्षेत्र को बाहर कर दिया गया। इस प्रकारबलिया संसदीय क्षेत्र का पुनर्गठन करते हुए उसे बेगूसराय का नाम दिया गया।बलिया संसदीय क्षेत्र समाप्त हो गयाऔर अब बेगूसराय ज़िला के अंतर्गत केवल एक संसदीय क्षेत्र बेगूसराय के रूप में शेष रह गया।इस संसदीय क्षेत्र में कुल सात विधानभा सीटें हैं:चेरिया-बरियारपुर, मटिहानी, बखरी, बछवाड़ा, साहेबपुर कमाल, तेघरा और बेगूसराय। अब जिस बेगूसराय संसदीय क्षेत्र की बात की जा रही है, उसके अंतर्गत बेगूसराय जिले के दो विधान-सभा क्षेत्र: मटिहानी और बेगूसराय आते थे। इसके अलावा शेखपुरा जिला का शेखपुरा एवं बरबीघा, जमुई ज़िला का सिकंदरा और लखीसराय ज़िला का लखीसराय विधान-सभा क्षेत्र आते थे।बलिया संसदीय क्षेत्र का गठन 1977 में हुआ और तब से 2004 तक यहाँ से तीन बार:सन् 1980, सन्1989 और सन् 1991में कॉमरेड सूर्य नारायण सिंह, जिन्हें इस क्षेत्र के लोग आज भी  प्यार एवं सम्मान से सूरजदा के नाम से पुकारते हैं, और सन् 1996 मेंकॉमरेड शत्रुघ्न प्रसाद सिंहसांसद निर्वाचित हुए। मुझे आज भी याद है कि जब मैं अपने यौवन की दहलीज़ पर क़दम रख रहा होऊँगा, तब सूरज दा के नेतृत्व में भाकपा ने इस जिले की सातों विधान-सभा सीट पर सफलता हासिल की थी। उस समय इस क्षेत्र में यह नारा लगा था: ‘बछवाड़ा से बखरी लाले-लाल’।इसीलिए यह कहना कि बेगूसराय से केवल एक बार: सन् 1967 में योगेन्द्र शर्मा के रूप में वामपंथी उम्मीदवार को जीत हासिल हुईऔर इसीलिए इसे वामपंथ का गढ़ कहना उचित नहीं है, व्यावहारिक रूप से गलत है। दरअसल ऐसा इस क्षेत्र और इस क्षेत्र में वामपंथ की अहमियत को ख़ारिज करने के उद्देश्य से किया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि बलिया को छोड़ भी दें, तो बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से भी वामपंथ को दो बार जीत मिली है:सन् 1967 में कॉमरेड योगेन्द्र शर्मा को, और सन् 1996 में कॉमरेड रमेन्द्र कुमार को, जिन्हें तकनीकी कारणों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव-चिह्न हँसुआ-गेहूँ की बाली नहीं मिल पाया था जिसके परिणामस्वरूप उन्होंनेसेब चुनाव-चिह्न पर चुनाव लड़ते हुए सफलता हासिल की थी।
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बेगूसराय एक बार फिर से राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र:
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वामपंथ बेगूसराय का गौरव है, जिसे चुनावी राजनीति से परे हटकर देखने और समझने की ज़रूरत है। यह राष्ट्र-कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ही धरती नहीं है, वरन् यह कॉमरेड चन्द्रशेखर सिंह, रामेश्वर काका और सूरज दा भी धरती है। इस धरती ने डॉ. राम शरण शर्मा और डॉ. राधाकृष्ण चौधरीजैसे इतिहास-वेत्ताओं की धरती भी है।जो भी प्रशासनिक अधिकारी बेगूसराय आते हैं, वे यहाँ की बौद्धिक सक्रियता और सांस्कृतिक चेतना को ताउम्र याद करते हैं। शायद बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से इतना प्रबुद्ध एवं सक्रिय कोई दूसरा ज़िला कम-से-कम बिहार में नहीं है। यह वामपंथ की बेगूसराय की धरती को सबसे बड़ी देन है जिसे इस धरती ने पिछले दो दशकों के दौरान तब भी सँजो कर रखा है जब इसने वामपंथ को ख़ारिज कर दिया। और, सच तो यह है कि बेगूसराय की इस धरती ने वामपंथ को ख़ारिज नहीं किया है, वरन् वामपंथ अपने अंतर्विरोधों के कारण इस धरती से ख़ारिज होता हुआ मरनासन्न अवस्था में पहुँच गया। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रूरत है कि यहाँ की मिट्टी, पानी और हवा में नशा है जो अक्सर आम लोगों के पक्ष में हस्तक्षेप के लिए उकसाता है, जो कभी 1960 के दशक में केदार नाथ सिंह को राजद्रोह क़ानून के ख़िलाफ़ बिगुल बजाने के लिए उकसाता है और कभी कन्हैया कुमार को; कभी यह कॉमरेड चन्द्रशेखर को भूमिहीनों के पक्ष में विद्रोह के लिए उकसाता है, तो कभी कॉमरेड सूरज दा और कॉमरेड रामेश्वर का को। आज इसी धरती की उपज कन्हैया कुमार एक बार फिर से देश के युवाओं की आवाज़ बनकर प्रतिरोधी शक्तियों के प्रतीक में तब्दील हो चुका है, और उसके बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने के कारण बेगूसराय एक बार फिर से राष्ट्रीय क्षितिज पर छा चुका है और नेशनल मीडिया में इस सीट को लेकर लगातार विमर्श जारी है।
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