बेगूसराय-नामा भाग-3
गिरिराज की बेचैनी
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बेगूसराय में
त्रिकोणीय मुक़ाबला:
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आरंभ
में बेगूसराय का मुक़ाबला आसान माना जा रहा था क्योंकि अनुमान लगाये जा रहे थे कि
यहाँ पर महागठबंधन और एनडीए के बीच सीधा मुक़ाबला होगा। यह बहुत पहले स्पष्ट हो
चुका था कि सीपीआई की ओर से कन्हैया कुमार उम्मीदवार होंगे, और इसीलिए जब भाजपा ने
नवादा संसदीय क्षेत्र राजग-गठबंधन में शामिल राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति
पार्टी(LJP) के लिए छोड़ने का निर्णय लिया, तो
निर्वतमान भाजपा सांसद एवं केंद्रीय राज्य-मंत्री गिरिराज सिंह ने खुद को नवादा से
बेगूसराय शिफ़्ट किए जाने के निर्णय का हरसंभव। विरोध किया और तब तक हामी नहीं भरी
जबतक यह स्पष्ट नहीं हो गया कि महागठबंधन की ओर से तनवीर हसन राजद प्रत्याशी के
रूप में चुनाव-मैदान में भाजपा-प्रत्याशी और सीपीआई उम्मीदवार को चुनौती देंगे।
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एनडीए में घमासान:
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महागठबंधन
द्वारा बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में सीपीआई उम्मीदवार कन्हैया कुमार को समर्थन
देने से इनकार और तनवीर हसन के रूप में राजद उम्मीदवार के चुनाव लड़ने के संकेत के
साथ बेगूसराय का चुनाव रोचक मोड़ पर पहुँच चुका है। 23
मार्च को बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से एनडीए गठबंधन का उम्मीदवार घोषित किए जाने के
बाद ऐसा माना जा रहा था कि गिरिराज की नाराज़गी समाप्त हो चुकी है, पर केन्द्रीय मंत्री
गिरिराज सिंह अभी भी यहाँ से चुनाव लड़ने के लिए किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं हैं।
इसने बेगूसराय संसदीय सीट पर होने वाले चुनाव की रोचकता और बढ़ा दी है। अब क्षेत्र
के लोगों और विरोधियों के साथ-साथ भाजपा और राजग गठबंधन के सहयोगी दलों के बीच भी
यह प्रश्न बारंबार उठ रहा है कि बेगूसराय से एनडीए गठबंधन के उम्मीदवार गिरिराज ही
होंगे, या फिर एनडीए को अपना नया उम्मीदवार चुनना होगा।
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कन्हैया-ग्रंथि से उबर नहीं पा रहे गिरिराज:
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यद्यपि गिरिराज सिंह ने बेगूसराय से
चुनाव लड़ने के प्रश्न पर सीधे इनकार करने से परहेज किया, तथापि यह कहते हुए
उन्होंने बेगूसराय से चुनाव न लड़ने का संकेत भी दिया, “उनकी बातचीत शीर्ष नेतृत्व
से चल रही है।” उन्होंने यह भी कहा, “सीट का मामला नहीं है, मेरे ईगो का मामला है।
मेरी सीट बदली गई है।” भले ही, गिरिराज सिंह ने नवादा से शिफ़्टिंग को प्रतिष्ठा
का विषय बना लिया हो, पर इसने उनके विरोधियों को बैठे-बिठाए एक मसला ज़रूर थमा
दिया और वह यह कि वे चुनाव हारने से बचने के लिए बेगूसराय से चुनाव नहीं लड़ना
चाहते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि इसका प्रतिकूल असर उनके राजनीतिक
भविष्य पर पड़ सकता है। वामपंथी उम्मीदवार कन्हैया कुमार की राष्ट्रीय स्तर पर
लोकप्रियता और बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में होने वाले चुनाव में इसके फ़ायदे ने
गिरिराज को आशंकित कर रखा है जिसके कारण उनके प्रतिद्वंद्वी मनोवैज्ञानिक बढ़त की
स्थिति में हैं और इस मनोवैज्ञानिक बढ़त ने वामपंथ, कन्हैया और उसके समर्थकों को
उस मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक आघात से उबारने का काम किया है जो महागठबंधन का
समर्थन नहीं मिल पाने के कारण उसे लगा था। अब मुश्किल यह है कि अगर भाजपा गिरिराज
की जगह किसी दूसरे को बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाती भी है, तो उसे
बैकफ़ुट पर रहकर खेलना होगा। वैसे भी, बिहार की राजनीति में गिरिराज सिंह की
एकमात्र पहचान हिन्दुत्व एवं राष्ट्रवाद के मसले पर उनकी कट्टरवादी छवि के कारण है
जिसकी बेगूसराय में स्वीकार्यता को लेकर आशंकाएँ विद्यमान हैं।
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बेगूसराय का जातीय समीकरण
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बेगूसराय
का जातीय समीकरण, अबतक के चुनाव-परिणाम और पिछले चुनाव के दौरान राजद के तनवीर हसन
का प्रदर्शन भीगिरिराज की चिन्ताओं को बढ़ा रहा है। इस संसदीय क्षेत्र में अमूमन 19 लाख से
अधिक मतदाता हैं जिनमें करीब 3.8 लाख भूमिहार मतदाता, 2.84 लाख मुस्लिम मतदाता, 2.25 लाख यादव
मतदाता, 1.4 लाख कुर्सी मतदाता, 1.25 लाख कुशवाहा मतदाता, 80 हज़ार ब्राह्मण मतदाता, 75 हज़ार राजपूत
और 50 हज़ार कायस्थ मतदाता हैं। भले ही यह क्षेत्र भूमिहार-बहुल क्षेत्र है,
पर यहाँ पर (पूर्व बलिया संसदीय क्षेत्र) राजद के भी सांसद दो बार निर्वाचित हो
चुके हैं और पिछले बार भी भोला सिंह की अपार लोकप्रियता, सीपीआई में उम्मीदवारी को
लेकर मतभेदों के कारण होने वाले सीधे लाभ एवं मोदी-लहर के बावजूद राजद उम्मीदवार
तनवीर हसन ने भाजपा उम्मीदवार को कड़ी टक्कर दी जिसके कारण उनकी जीत का मार्जिन
सिमट कर 59 हज़ार वोटों का रह गया। यहाँ तक कि अगर सीपीआई भी इस क्षेत्र से जीतती
रही, तो इसमें उसके निम्न जातीय वोट-बैंक एवं उसके समर्थन की भूमिका महत्वपूर्ण
एवं निर्णायक रही। यह गिरिराज के डर का मूल कारण हैक्योंकि कन्हैया कुमार की युवाओं और ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छी
पकड़ है और पिछले कुछ महीनों के दौरान उन्होंने बेगूसराय के पिछड़ा-बहुल
इलाक़े में अच्छी-खाँसी मिहनत की है क्योंकि उन्हें मालूम था कि एनडीए गठबंधन के
द्वारा भूमिहार उम्मीदवार दिए जाने की स्थिति में उन्हें भूमिहार का एकमुश्त वोट
मिल पायेगा, इसमें सन्देह है। इसकी तुलना में उनके लिए पिछड़ों के वोट हासिल कर
पाना अपेक्षाकृत आसान है, यद्यपि राजद की मौजूदगी वहाँ भी समस्या उत्पन्न करेगी।
पर, कन्हैया अपनी अपार लोकप्रियता, धुर मोदी-विरोधी छवि और अपने वक्तृत्व-कौशल की
बदौलत राजद के परम्परागत वोट-बैंक और माय-समीकरण (मुस्लिम-यादव) समीकरण में भी
थोड़ा-बहुत सेंध लगा पाने की स्थिति में होगा, लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखा
जाना चाहिए कि इस बार राजद को कुशवाहा, मल्लाह और मुसहर मतदाताओं का भी साथ मिलने
की संभावना है। ऐसी स्थिति में अगर गिरिराज अपनी कट्टर हिन्दुत्ववादी छवि को भुना
पाने में असफल रहे, तो मुख्य मुक़ाबला कन्हैया और तनवीर हसन के बीच सीमित होकर रह
जाए, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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भूमिहारों की भाजपा से नाराज़गी:
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गिरिराज
की चिन्ता का एक कारण यह भी है कि सवर्ण मतदाता एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के
ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने की दिशा में केन्द्र सरकार की पहल से भी
नाराज़ हैं और यह नाराज़गी बेगूसराय के भूमिहारों में भी देखी जा सकती है, यद्यपि
आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए दस प्रतिशत आरक्षण के केन्द्र सरकार के
निर्णय ने इस नाराज़गी को कुछ हद तक मैनेज भी किया है। लेकिन, टिकटों के वितरण के
क्रम में एनडीए गठबंधन और विशेषकर भाजपा के द्वारा भूमिहारो की उपेक्षा से भी भूमिहार
मतदाता भाजपा से ख़फ़ा हैं और इस बात की आशंका है कि कहीं इसकी क़ीमत भाजपा को न
चुकानी पर जाए। ध्यातव्य है कि भाजपा ने अपने खाते में आने वाली सत्रह में से नौ
सीटों पर राजपूतों को पाँच और ब्राह्मण को दो सीटें दी हैं, जबकि भूमिहारों के
खाते केवल एक सीट आई है और वह भी गिरिराज के रूप में, जो अपनी उपेक्षा एवं
तिरस्कार के कारण वर्तमान में पार्टी नेतृत्व से ख़फ़ा चल रहे हैं। उसके गठबंधन
सहयोगी जद(यू) ने भी अपनी सत्रह सीटों में महज़ एक सीट के लिए भूमिहार उम्मीदवार
को नामांकित किया है, जबकि सवर्ण और विशेष रूप से भूमिहार एनडीए गठबंधन
के प्रमुख वोटबैंक हैं।
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गिरिराज के नवादा-प्रेम की असलियत:
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गिरिराज
सिंह बेगूसराय से चुनाव लड़ने से बचना चाहते हैं क्योंकि एक तो सीपीआई उम्मीदवार
कन्हैया कुमार स्थानीय हैं; दूसरे, उनके स्वजातीय हैं; तीसरे, उनकी राष्ट्रीय छवि
है; चौथे, क्षेत्र में भी पिछले कुछ समय से सक्रिय हैं एवं कम्युनिस्ट पार्टी के
खोए हुए जनाधार को दुबारा वापिस हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं; और पाँचवें,
उन्हें आशंका है कि उनकी साम्प्रदायिक
राजनीति शायद बेगूसराय में सफल नहीं हो।और, वैसे भी बेगूसराय लोकसभा सीट को
भाजपा के लिए सुरक्षित नहीं माना जा सकता है क्योंकि एक तो यह कम्युनिस्टों के
प्रभाव वाला क्षेत्र है; और दूसरे, अबतक यहाँ से भाजपा को केवल एक बार जीत मिली है
और वह भी सन् 2014 में, जिसका श्रेय जितना भाजपा को जाता है, उससे कहीं अधिक भोला बाबू
और उनकी अपार लोकप्रियता को। इसके
विपरीत नवादा उनके लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्र है क्योंकि एक तो यह
भूमिहार-बहुल इलाक़ा है; और दूसरे, यहाँ की राजनीति भूमिहार बनाम् यादव की होती है
जिसमें अक्सर भूमिहार भारी पड़ते हैं। इसीलिए गिरिराज बेगूसराय आकर किसी भी प्रकार
का रिस्क नहीं लेना चाहते हैं और इसकी बजाय वे नवादा में ही ठहरना चाहते हैं, जबकि
वास्तविकता यह है कि नवादा में भी गिरिराज का विरोध हो रहा है।
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