Thursday, 28 March 2019

बेगूसराय-नामा भाग 2 गिरिराज के लिए बेगूसराय: इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है!


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बेगूसराय-नामा भाग 2
गिरिराज के लिए बेगूसराय:
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है!
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राजग-गठबंधन की कन्हैया-ग्रंथि:
ज़िन्दगी की भी अजीब विडम्बना है! सन् 2014 के लोकसभा-चुनाव में जो गिरिराजबेगूसराय से चुनाव लड़ने को बेचैन थे और भाजपा द्वारा भोला सिंह को उम्मीदवार बनाए जाने से क्षुब्ध थे, वही गिरिराज नवादा सीट लोजपा के हिस्से में जाने और खुद को बेगूसराय शिफ़्ट किए जाने के कारण बेचैन हैं। और, उनकी बेचैनी का आलम यह है कि शीर्ष नेतृत्व और संगठन के स्तर पर तमाम दबावों के बावजूद गिरिराज मानने के लिए तैयार होते नहीं दिखायी पड़ रहे हैं। दरअसल ‘कन्हैया-ग्रंथि’ ने राजग-गठबंधन को बेचैन कर रखा है; अन्यथा पूर्ववर्ती बलिया लोकसभा, जिसमें बेगूसराय एवं मटिहानी विधान-सभा क्षेत्र के अलावा बेगूसराय संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सारे संसदीय क्षेत्र आते हैं, का प्रतिनिधित्व करने वाले सूरजभान अपनी पत्नी वीणा देवी के लिए नवादा की सुरक्षित सीट की तलाश नहीं करते और न ही गिरिराज नवादा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवारी को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बनाते। दरअसल बेगूसराय का वामपंथ-प्रेम और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद बेगूसराय के साथ-साथ कन्हैया की बढ़ती हुई लोकप्रियता एवं क़द ने राजग-गठबंधन ही नहीं, खुद यूपीए गठबंधन, विशेषकर राजद एवं तेजस्वी के भीतर भी भय को जन्म दिया है। इसी भय के कारण यदि वीणा देवी से लेकर गिरिराज सिंह तक बेगूसराय से चुनाव लड़ने से बचना चाहते हैं। मतलब यह कि वर्तमान परिदृश्य में मनोवैज्ञानिक बढ़त कन्हैया कुमारके पास है, अब यह बात अलग है कि कन्हैया कुमार आने वाले चालीस दिनों में इस मनोवैज्ञानिक बढ़त को कहाँ तक बनाए रख पाते हैं और कहाँ तक खोते हैं, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। पर, इतना तो स्पष्ट है कि:
मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीत।
और इस ही दूसरे शब्दों में कहें, तो:
If you think that you can, then you certainly will do; If you think that you can’t, than you never!
मतलब यह कि अगर तुम सोचते हो कि तुम इस काम को कर सकते हो, तो तुम निश्चित करोगे; अगर तुम यह सोचते हो कि शायद यह तुमसे संभव नहीं हो पायेगा, तो तुमसे ऐसा संभव नहीं होगा। शायद यही कारण है कि गिरिराज सिंह बेगूसराय से चुनाव लड़ने की बजाए राज्यसभा के रास्ते संसद तक की दूरी तय करने की चाह रखते हैं।
पिछले लोकसभा-चुनाव का परिदृश्य:
गिरिराजसिंहइस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि सन् 2019 का बेगूसराय सन् 2014 के बेगूसराय से भिन्न है, और वे भोला सिंह नहीं है। सन् 2014 में बेगूसराय में कम्युनिस्ट पार्टी शत्रुघ्न प्रसाद सिंह की अनदेखी करते हुए राजेन्द्र प्रसाद सिंह को उम्मीदवार बनाये जाने के कारण दो फाड़ हो गयी थी, और कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकांश कैडर पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार से असंतुष्ट थे। उन्होंने पार्टी के इस निर्णय के विरूद्ध बग़ावत किया और इसका सीधा लाभ भोला सिंह को मिला। इसका कारण एक तो यह है कि भोला सिंह की अपील दलगत राजनीति से परे थी जिसके कारण उन्हें ऐसे लोगों के भी वोट मिले जो प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किसी भी रूप में न तो भाजपा से जुड़े थे और न ही भाजप के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति रखते थे; और दूसरे उन्हें अपेक्षाकृत उदार होने का भी लाभ मिला। तीसरी बात यह कि जो लोग तनवीर हसन को जीतते हुए नहीं देखना चाहते थे, कुछ तो पूर्व सांसद मोनाजिर हसन की जनता के बीच नकारात्मक छवि के कारण और कुछ मुसलमान होने के कारण,उन्होंनेभोला सिंह को जिताने की हरसंभव कोशिश की, और अंतत: भोला बाबू विजयी रहे। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि बेगूसराय भूमिहार-बहुल संसदीय क्षेत्र है, और अक्सर यहाँ के भूमिहारों ने अपने प्रतिनिधित्व को लेकर सजगता प्रदर्शित की है। यहाँ से किसी दूसरी जाति के प्रतिनिधि को तभी जीत मिली है जब भूमिहार वोट विभाजित हुआ है। संक्षेप में कहें, तो सन् 2014 के लोकसभा के चुनाव में मोदी-लहर की पृष्ठभूमि में मोमेंटम भाजपा के पक्ष में रहा और भोला बाबू इस मोमेंटम को अपने पक्ष में भुनाने में सफल रहे। लेकिन, अनुकूल राजनीतिक वातावरण के बावजूद भाजपा की जीत का मार्जिन महज़ पचास हज़ार वोटों का रहा, जो इस बात को दर्शाता है कि भाजपा के लिए बेगूसराय के रास्ते संसद की राह आसान नहीं रही।
बहुत कठिन है डगर पनघट की:
अब वापस लौटते हैं, सन् 2019 के लोकसभा-चुनाव पर। यद्यपि अबतक भाजपा ने औपचारिक रूप से गिरिराज सिंह को बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है, पर यह लगभग तय माना जा रहा है कि गिरिराज ही भाजपा के उम्मीदवार होंगे। उन्हें इसके लिए मनाने की हरसंभव कोशिश हो रही है, और यदि अंतिम समय में कोई बड़ा उलट-फेर नहीं होता है, तो गिरिराज का लड़ना तय है। लेकिन, समस्या यह है कि विधान-पार्षद रजनीश कुमार बग़ावत पर आमदा हैं, और इस बार उनको सँभालना मुश्किल हो रहा है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि रजनीश ने पिछले लोकसभा-चुनाव के दौरान भी भोला बाबू के लिए परेशानियाँ उत्पन्न की थीं।
बाहरी बनाम् स्थानीय’ का नारा:
गिरिराज की उम्मीदवारी से आशंकित भाजपा के स्थानीय नेतृत्व ने खुद ‘बाहरी बनाम् स्थानीय’ का नारा बुलन्द किया है, और अब इस नारे को कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना लिया है। पूरे क्षेत्र मेंपूर्व सांसद मोनाजिर हसन और तेघरा विधान-सभा क्षेत्र के वर्तमान राजद विधायक वीरेन्द्र कुमार, जिन्हें देखने के लिए लोग तरश गये, की याद दिलाते हुए बड़े ज़ोर-शोर से‘बाहरी बनाम् स्थानीय नेतृत्व’ का नारा लगाया जा रहा है और इसीलिए स्थानीय लोगगिरिराज सिंह को बाहरी उम्मीदवार के रूप में देख रहे हैं और उनकी उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं।
बेगूसराय का उदार सांस्कृतिक एवं बौद्धिक वातावरण:
सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से सजग एवं सक्रिय बेगूसराय के लोगों के लिए गिरिराज सिंह की कट्टर हिन्दू वाली छवि को पचा पाना भी आसान नहीं होने जा रहा है। हाल में इस क्षेत्र के लोगों ने साम्प्रदायिक तनाव एवं हिंसा को सीमित स्तर पर ही सही, पर करीब से झेला है। गिरिराज सिंह के बेगूसराय से चुनाव लड़ने के कारण स्थानीय लोग आशंकित हैं कि कहीं गिरिराज सिंह खुद की हार करीब देख साम्प्रदायिक कार्ड न खेलें, और इसके कारण बेगूसराय की हिन्द-इस्लामी तहज़ीब, जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के पिछले तीन दशकों के दौरान लगभग संरक्षित रही और जिसके कारण बेगूसराय साम्प्रदायिक-धार्मिक सौहार्द्र की मिसाल पेश करता रहा, ख़तरे में न पड़ जाए। इसलिए बेगूसराय के जनता के लिए गिरिराज की कट्टर हिन्दुवादी छवि को स्वीकार कर पाना आसान नहीं होने जा रहा है।
कम्युनिस्टों में नई ऊर्जा का संचार:
जहाँ गिरिराज का मनोबल गिर चुका है, वहीं बिहार के लेनिनग्राद एवं मास्को में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा सीपीआई बढ़े हुए मनोबल के साथ पूरी दृढ़ता से कन्हैया कुमार के लिए खड़ा है क्योंकि उसे पता है कि कन्हैया बेगूसराय में ही नहीं, वरन् पूरे बिहार में मृतप्राय सीपीआई के लिए संजीवनी का काम कर सकता है। यही कारण है कि उसके कार्यकर्ता उत्साहित हैं और उनके तेवर बदले हुए हैं। दरअसल कन्हैया दो तरीक़े से भाजपा को सीधे डैमेज कर रहा है: एक तो उसने उन स्थानीय युवाओं को अपनी ओर खींचते हुए कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ा है जो पिछले चुनाव तक दृढ़ता के साथ भाजपा के साथ दिखते थे और इसीलिए यह भाजपा के लिए दोहरा घाटा है; और दूसरे, गिरिराज के बाहरी होने, कन्हैया के प्रति विक्टिमहुड के कारण सहानुभूति और उसकी अपार लोकप्रियता की पृष्ठभूमिमें राष्ट्रीय स्तर पर निर्मित होती उसकी छवि के साथ-साथ ‘घर के बेटे’ होने वाले भावके कारण इस बार वह मोमेंटम कन्हैया के साथ है जो पिछले लोकसभा-चुनाव के समय भोला बाबू के साथ था। वह राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिरोधी शक्तियों के प्रतीक में तब्दील हो चुका है। संभव है कि आमने-सामने की लड़ाई में इसका लाभ कन्हैया को मिले। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि महागठबंधन की स्थिति में कन्हैया को न केवल सीपीआई के कैडर-वोटों का लाभ मिलेगा, वरन् पिछड़े वर्ग और मुसलमानों का एकमुश्त वोट भी मिलेगा और भूमिहारों का भी अच्छा ख़ासा समर्थन मिलेगा, जो भाजपा के वोट-बैंक में सेंध साबित होगा, और फिर गिरिराज की चुनावी जीत दूर की कौड़ी साबित होगी।
त्रिकोणीय मुक़ाबला बढ़ा सकता है मुश्किलें:
ऐसे परिदृश्य में यदि राजद अंत-अंत तक बेगूसराय सीट को लेकर अड़ी रहती है और तनवीर हसन को उम्मीदवार बनाती है, तो संभव है कि भूमिहार वोटों का ध्रुवीकरण कन्हैया के पक्ष में हो और इसका सीधा लाभ कन्हैया को मिले। ऐसी स्थिति में बेगूसराय में काँटे की टक्कर देखने को मिलेगी, और फिर यह बतला पाना मुश्किल होगा कि चुनावी समर में अंतिम रूप से जीत किसे मिलेगी; पर संभव है कि कन्हैया की राह थोड़ी मुश्किल हो, तनवीर हसन के लिए कमोबेश पिछले वर्ष वाली ही स्थिति हो, और गिरिराज तीसरे नम्बर पर चले जाएँ, इसलिए भी कि इस बार कम-से-कम उन्हें मोदी-लहर जैसी किसी चीज़ का लाभ नहीं मिलने वाला है। कुल-मिलाकर कहा जाए, तो गिरिराज की राह आसान नहीं होने जा रही है, और यही उनकी चिन्ता का मूल विषय है।

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