नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) से सम्बंधित विवाद
नागरिकों
के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) से आशय:
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC)
असम में रहने वाले ‘वैध’ भारतीय नागरिकों का एक रिकॉर्ड है, जिसका
इस्तेमाल असम के नागरिकों की पहचान और उन्हें बाहरी लोगों से अलगाने के लिए किया
जा रहा है। इसे सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नागरिकता अधिनियम,1955 और अन्य नियमों के
प्रावधानों के अनुसार 1951 के बाद पहली बार अपडेट किया जा रहा है। इस रजिस्टर से यह
अपेक्षा की गयी कि इस रजिस्टर के अपडेशन से 1971 की
निर्धारित तिथि के बाद असम में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले बंगलादेशी घुसपैठियों
की पहचान संभव हो सकेगी। इसे किसी व्यक्ति की नागरिकता की स्थिति की पड़ताल के लिए
संदर्भ-बिन्दु के रूप में इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
असमिया मूल के लोग हों, या फिर
बांग्लाभाषी हिन्दू एवं मुसलमान, दोनों ही ‘नागरिकों के लिए राष्ट्रीय
रजिस्टर(NRC)’ के अपडेशन के निर्णय का स्वागत कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है
कि यह लम्बे समय से चले आ रहे भाषा-विवाद को विराम देगा और उनकी नागरिकता को लेकर
व्यक्त शंकाओं का भी समाधान होगा, लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और है। जिस तरीके से
NRC के द्वारा अपने काम को अंजाम दिया जा रहा है और इस क्रम में जो लापरवाही बरती
जा रही है, वह चिंतित करती है। साथ ही, इस प्रक्रिया के राजनीतिकरण ने इसे विवादास्पद बना दिया है और
आज यह बांग्लाभाषी अल्पसंख्यक मुसलमानों के उत्पीड़न के साधन में तब्दील होता दिखाई
पद रहा है।
राष्ट्रीय
नागरिक रजिस्टर(NRC) का अपडेशन:
असम भारत का एकमात्र राज्य है जहाँ एनआरसी, जिसे पहली बार सन् 1951 में
प्रकाशित किया गया था, की व्यवस्था है। उस वक्त असम में 80 लाख
नागरिक थे। बाद में सन्
1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन(AASU) ने असम में अवैध प्रवासियों की पहचान को
लेकर आन्दोलन शुरू
किया जिसकी परिणति 1985 के असम समझौते के रूप में हुई। सन् 2005 में ऑल असम
स्टूडेंट्स यूनियन (आसू)
की सहमति से काँग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार ने
एनआरसी को अपडेट करने
की दिशा में पहल की। आरम्भ में इस काम को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया, लेकिन इस वक़्त
यह सूची गहन छानबीन करके तैयार की जा रही है। इसके तहत् 24 मार्च,1971 से पहले
बांग्लादेश से यहाँ आए लोगों को स्थानीय नागरिक माना जाएगा। इसी आलोक में हर
ज़िले के डीसी ऑफिस को निर्देश दिए गए कि वह लोगों को वर्ष 1951 से लेकर 1971 तक
की मतदाता-सूची मुहैया करवाए।
इस
रजिस्टर के अपडेशन के संदर्भ में नीति, गाइडलाइन्स
और फ़ंड केन्द्र के द्वारा उपलब्ध करवाया जा रहा है, जबकि
अपडेशन की प्रक्रिया भारत के रजिस्ट्रार जनरल के निर्देशन में राज्य के द्वारा
पूरी की जानी है। राज्य सरकार ने इसके लिए समय-बद्ध प्रक्रिया को अपनाया है। कुल 2500 से
अधिक NRC सेवा केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जिसका काम लोगों
को नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेजों के साथ आमंत्रित करना और उनकी पहचान
सुनिश्चित करना है। यहाँ पर कोई भी व्यक्ति 1952-1971 के दौरान अपने पूर्वजों के नाम मतदाता सूची में तलाश सकता है।
अगर कोई व्यक्ति इस रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करवाना चाहता है, तो
उसे निर्धारित चौदह दस्तावेज़ों में किसी एक दस्तावेज़ को प्रस्तुत करना होगा। कुल
1220 करोड़ रुपये के इस प्रॉजेक्ट में 50,000 कर्मचारी और स्वयं सेवी लगे हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट का
निर्देश:
अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों और इनके
कारण बढ़ते सामाजिक-सांस्कृतिक टकराव के उत्पन्न होने से कानून एवं व्यवस्था के
गहराते संकट और आतंरिक सुरक्षा के समक्ष मौजूद चुनौतियों की बढ़ती जटिलता के
मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न(NRC),1951 को अपडेट करने का
निर्देश दिया, ताकि राज्य में अवैध तरीके से रहने वाले लोगों की पहचान कर उन्हें
वापस भेजा जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया में
हस्तक्षेप करते हुए समय-सीमा निर्धारित करने का निर्देश दिया। इस निर्देश के आलोक
में सरकार ने NRC
ड्राफ़्ट के प्रकाशन के लिए अक्टूबर,2015 और
अंतिम रूप में NRC
के प्रकाशन के लिए जनवरी,2016 की
समय-सीमा निर्धारित की है, यद्यपि इसे निर्धारित समय-सीमा में नहीं पेश किया जा
सका। इसी आलोक में दिसंबर,2013 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इस
रजिस्टर के अपडेशन का काम शुरू हुआ। लेकिन, इसके ड्राफ्ट अंततः 2017-18 की मध्य रात्रि में ही जाकर जारी किये
जा सके। इसका फाइनल ड्राफ्ट जुलाई,2018 के अंततक जारी किये जाने की उम्मीद है।
अपडेशन के सन्दर्भ में
वर्तमान स्थिति:
इसी आलोक में बांग्लादेश से सटे असम
में अवैध प्रवासियों की पहचान के मकसद से इसका पहला मसौदा दिसंबर,2017-जनवरी,2018 की मध्य रात्रि
में प्रकाशित हुआ। जून,2018 की निर्धारित
समय-सीमा तक असम में 3.29 करोड़ लोगों के द्वारा अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने
के लिए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) के समक्ष उपयुक्त
दस्तावेज जमा किए गए, लेकिन नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC)
ने हाल ही में कानूनी वैध नागरिकों के रूप में केवल 1.9 करोड़ लोगों
की एक सूची प्रकाशित की है, जिसका मतलब यह है कि असम के 1.39 करोड़ लोगों की वैध
नागरिकता खतरे में हैं।
नागरिकों के राष्ट्रीय
रजिस्टर (NRC) से
सम्बंधित आदेश:
इसी आलोक में मई,2017 में राष्ट्रीय
नागरिक रजिस्टर(NRC) के द्वारा जारी निर्देश के अनुसार जिनकी पहचान संदेहास्पद
मतदाता के रूप में की गयी है, उनके लिए पुलिस अधीक्षक और फ़ॉरेनर्स ट्राइब्युनल के
समक्ष अपने भाइयों, बहनों एवं अन्य परिजनों से जुड़ी जानकारियाँ उपलब्ध करवानी
होगी, अन्यथा इन जानकारियों के बिना उन्हें राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(NRC) की सूची
में शामिल नहीं किया जायेगा।
आगे चलकर मई,2018 में घोषित विदेशियों
के परिजनों को भी संदिग्ध मतदाताओं की सूची में रखे जाने के निर्देश दिए गए। इस
सन्दर्भ में नागरिक रजिस्टर के स्थानीय रजिस्ट्रार (LRCR) को यह
निर्देश दिया गया कि वे अंतिम निर्णय हो जाने तक संदेहास्पद-मतदाताओं (Doubtful
Voter) के समान ही उनकी भारतीय नागरिकता को भी लंबित
स्थिति में बनाये रखें।
मई,2018 को पारित NRC राज्य
समन्वयक के बेतुके आदेश के अनुसार, असम के विभिन्न जिलों के सभी डिप्टी कमिश्नरों
को, हर तथाकथित “घोषित विदेशी” (Declared Foreigner) के
भाई-बहनों और अन्य परिवार के सदस्यों का नाम भी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(NRC) से
‘पेंडिंग’ याने फ़िलहाल बाहर रखने को कहा गया है। इसलिए अब भले ही परिवार से एक
व्यक्ति घोषित विदेशी (DF) है, परिवार के
हर सदस्य का नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(NRC) से फ़िलहाल बाहर रखा जाएगा। हालाँकि,
इसके राज्य समन्वयक ने यह स्पष्ट किया कि घोषित विदेशियों के परिजनों के नाम तब तक
‘पेंडिंग’ नहीं रखे जाएँ जब तक बॉर्डर पुलिस की रिपोर्ट यह नहीं कहती कि उनके बारे
में फ़ॉरेनर्स ट्राइब्युनल को सूचित किया गया है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC)
के इस आदेश के कारण 2 लाख से अधिक भारतीयों के नाम नागरिकों के
रजिस्टर से हटाए जा सकते हैं। इसका उद्देश्य ‘अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों’ की
पहचान को सुनिश्चित करते हुए जिनका नाम इस रजिस्टर में नहीं है, उन्हें देश से बाहर
निकालते हुए उनकी बांग्लादेश वापसी को सुनिश्चित करना है।
इस आदेश से सम्बद्ध समस्याएँ:
लेकिन, यह आदेश समस्याजनक है। अगर 25
मार्च,1971 के बाद वास्तव में अवैध रूप से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले
व्यक्ति को ट्रिब्यूनल द्वारा “विदेशी” घोषित किया गया है और फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल
के इस आदेश के तहत् उसके भाई-बहन को भी संदेहास्पद मतदाताओं की सूची में डाला जा
सकता है, इस तथ्य के बावजूद कि वे निर्दिष्ट तारीख से पहले भारत में प्रवेश कर
चुके हैं। इसलिए मई,2018 का आदेश नागरिकता अधिनियम,1955 के प्रावधानों से टकराता
है क्योंकि इस अधिनियम की धारा 3(1)(a) के अनुसार जनवरी,1950 के 26 वें दिन या
उसके बाद और 1 जुलाई, 1987 से पहले भारत में पैदा हुआ हर व्यक्ति, जन्म से भारत का
नागरिक होगा। साथ ही, इसकी धारा 6(a) के अनुसार, वे
“विदेशी” नहीं हो सकते हैं।
एनआरसी से जुड़े
समस्याजनक पहलू:
दरअसल एनआरसी सर्वेक्षण के जरिये ही
असम में ग़ैरक़ानूनी तरीके से रह रहे बांग्लादेशी लोगों का सही आँकड़ा सामने आएगा,
लेकिन, समस्या यह है कि राजनीतिक दबाव के कारण एनआरसी का सही तरीके से काम करना
संभव नहीं हो पा रहा है। कोशिश यह है कि एनआरसी को विवाद के घेरे में लाया जाए,
ताकि इसकी क्रियाप्रणाली पर सवालिया निशान लगे और राजनीतिक हितों को साधा जा सके। इसके
अतिरिक्त इससे सम्बद्ध वैधानिक समस्याएँ भी हैं जिन्हें निम्न परिप्रेक्ष्य में
देखा जा सकता है:
1. नागरिकता साबित करने की जिम्मेवारी तत्संबंधित व्यक्ति पर: असम
समेत पूरे भारत में फॉरनर्स एक्ट-1946 लागू
है, फॉरनर्स एक्ट के सेक्शन 9 के
अनुसार असम में अगर किसी भी नागरिक की नागरिकता पर शक़ है, तो उसे खुद साबित करना
होगा कि वह भारत का नागरिक है। यह राज्य की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
2. असम के सन्दर्भ में विशेष नागरिकता-प्रावधान: असम
समझौते के प्रावधानों के अनुरूप नागरिकता अधिनियम,1955
में संशोधन करते हुए धारा 6A जोड़ी गयी, जो सिर्फ असम के लिए है। इसके
तहत पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से 24 मार्च, 1971 के बाद से गैर कानूनी
तरीक़े से आए लोगों को वापस जाना होगा।
3. फॉरनर्स ट्रिब्यूनल का गठन: असम में नागरिकता-संबंधी
कोई भी विवाद उभरने की स्थिति में इसके समाधान के लिए ट्रिब्यूनल
ऑर्डर,1964 के तहत् फॉरनर्स ट्रिब्यूनल का गठन किया गया है। इस वक़्त यहाँ
100 फॉरनर्स ट्रिब्यूनल हैं। इसके समक्ष चुनाव आयोग के द्वारा संदेहास्पद मतदाताओं
से सम्बंधित मामले भेजे जाते हैं जिसके द्वारा मतदाता सूची के पुनरीक्षण का अभियान
चलाया जा रहा है और इस क्रम में संदिग्ध मतदाताओं की पहचान की जा रही है।
मतदाता-सूची से नामों
की डीलिस्टिंग:
स्पष्ट है कि एनआरसी इस समस्या का
सम्बन्ध चुनाव आयोग के द्वारा मतदाता-सूची से मतदाताओं के नामों की
डीलिस्टिंग के लिए चलाये जा रहे अभियान से भी जाकर जुड़ता है। 1997 में भारत के
निर्वाचन आयोग ने संदिग्ध मतदाताओं की पहचान के लिए मतदाता-सूची की जाँच के लिए
विशेष अभियान चलाया। इस अभियान के तहत् मतदाता-सूची में उन लोगों की पहचान की गयी,
जिनके पास पर्याप्त नागरिकता दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं और इन्हें ‘संदिग्ध‘ मतदाता
(D-Voter) के रूप में चिह्नित करते हुए उन्हें तबतक के लिए मतदान के अधिकार से
वंचित किया गया, जबतक वे यह साबित न कर दें कि वे भारत के नागरिक हैं। स्पष्ट है
कि चुनाव आयोग की सूची के अनुसार डी वोटर करार लोगों का मामला जब तक फॉरनर्स
ट्रिब्यूनल में हल नहीं होता है, तब तक उनका स्टेट्स होल्ड पर रखा जाएगा। इतना ही
नहीं, ऐसा साबित होने तक भारतीय नागरिक होने के नाते उसके तमाम अधिकार भी छीन लिए
जाते हैं। इन संदिग्ध मतदाताओं से यह अपेक्षा की गयी कि वे मतदाता-सूची में से नाम
कटने के बाद जिला पुलिस अधीक्षक (SP) के ऑफिस में निर्दिष्ट फॉर्म भरें और उसमें अपने
बारे में विस्तृत विवरण दें।
चुनाव आयोग की एकतरफा एवं
मनमानी कार्यवाही:
समस्या यहीं से शुरू हुई क्योंकि
चुनाव आयोग की यह कार्यवाही एकतरफा और मनमानी रही, यद्यपि चुनाव आयोग ने आरंभिक
जाँच का दावा किया। समस्या तब कहीं अधिक गंभीर रूप लेने लगी, जब चुनाव आयोग के इस
निर्णय को लोगों को परोक्षतः राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(NRC) से बाहर रखने का आधार
बना लिया गया। इतना ही नहीं, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने मई,2017 के आदेश के आलोक
में समुचित जाँच की आवश्यकता पर बल देते हुए उचित प्रक्रिया के पालन का निर्देश तो
दिया है, पर वह संदिग्ध मतदाताओं की पहचान और इस सन्दर्भ में आरंभिक जाँच से
सम्बंधित चुनाव आयोग के तर्क से सहमति प्रदर्शित की, इस तथ्य के बावजूद कि
नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) के द्वारा पूछताछ और समुचित जाँच की प्रक्रिया
को अपनाये बिना संदिग्ध मतदाताओं और घोषित विदेशी(DF) के
परिवार के सदस्यों को एकसमान समझा जा रहा है।
डीलिस्टिंग की
प्रक्रिया का राजनीतिकरण:
समस्या सिर्फ चुनाव आयोग की एकतरफा
एवं मनमानी कार्रवाई नहीं है, समस्या डीलिस्टिंग की इस प्रक्रिया के
राजनीतिकरण की भी है। कहीं-न-कहीं इस समस्या का सम्बंध वोट-बैंक की राजनीति से जुड़
गया है। आरोप यह है कि अक्सर इस पूरी
प्रक्रिया को राजनीतिक दबाव में अंजाम दिया जाता है और इस क्रम में बांग्लाभाषी
अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव होता है। इनका आरोप है कि पूरी राज्य-मशीनरी असमी
अस्मिता के नाम पर बंगाला-भाषी हिन्दुओं और मुसलमानों के खिलाफ काम कर रही है। इसके
लिए समुचित तरीके से जाँच करने के बजाय ‘बड़ी तादाद में मुस्लिम मतदाताओं को
संदेहास्पद मतदाता के रूप में लक्षित करते हुए उनके नाम मतदाता-सूची से हटाने के
लिए साज़िश रची जा रही है। जब मसला फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में जाता है, तो ट्रिब्यूनल
का कहना होता है कि यह पीड़ित की ज़िम्मेदारी है कि वह साबित करे कि वह दस्तावेज
उसी का है। इस वक्त फॉरनर्स ट्रिब्यूनल में इस तरह के तीन लाख केस लंबित हैं। ध्यातव्य
है कि संदेहास्पद स्थिति फॉरेन ट्राइब्युनल के द्वारा प्रदान की जाती है। ऐसा देखा
गया है कि कई बार लोगों के नाम सूची से कुछ मामूली विसंगतियों के कारण हटा दिए
जाते हैं।
फ़ॉरेनर्स ट्राइब्युनल का
मनमाना तरीका:
1985 से अब तक विदेशियों के लिए गठित
न्यायाधिकरण ने अवैध रूप से असम में प्रवेश करने वाले 38186 बंगलादेशी
घुसपैठियों को विदेशी घोषित किया, पर इनमें से केवल 2448 बांग्लादेशियों
को वापस बंगलादेश भेजा जा चुका है। शेष लोगों में कुछ मर चुके होंगे और अधिकांश
लापता हैं। वर्तमान में इस न्यायाधिकरण के पास एक लाख से अधिक मामले लंबित हैं और
उम्मीद की जा रही है कि इनमें अच्छे-खासे लोगों को विदेशी घोषित किये जाने की संभावना
है।
लेकिन, समस्या यह है कि फ़ॉरेनर्स
ट्राइब्युनल की क्रियाप्रणाली के सन्दर्भ में अबतक का अनुभव निराश करने वाला रहा
है। इसमें निचले स्तर पर कर्मचारियों के द्वारा लापरवाही बरती गयी। फ़ॉरेनर्स
ट्राइब्युनल के द्वारा मनमाने तरीके से एकतरफा आदेश जारी किये गए हैं जिनमें से कई
आदेश (लगभग 1/5) विभिन्न न्यायिक मंचों के द्वारा रद्द किये जा चुके हैं। सन् 1985
से अबतक लगभग एक लाख लोगों को विदेशी घोषित किया चुका है। इसलिए इसकी
क्रियाप्रणाली के कारण कहीं-न-कहीं उन लोगों को भी परेशानी हो रही है जो बांग्लाभाषी
भारतीय नागरिक तो हैं, पर विस्थापन के कारण या फिर अन्य कारणों से जिनके पास अपनी
नागरिकता को पुष्ट करने के लिए वैध दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं।
राष्ट्रीय नागरिकता
रजिस्टर (NRC) निदेशालय का तर्क:
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) निदेशालय
का तर्क है कि उसने इंटरनेट के ज़रिये जनता को वक़्त पर नोटिस भेजे हैं,
लेकिन या तो ये नोटिस गरीब एवं निरक्षर जनता तक पहुँचे ही नहीं, या फिर समय पर
नहीं पहुँचे, जिसके कारण वे समय पर अपेक्षित दस्तावेजों के साथ फॉरेन ट्रिब्यूनल्स
तक नहीं पहुँच सके। इसी आधार पर एनआरसी ने अपनी आधी-अधूरी सूची तैयार की और फॉरनर्स
ट्रिब्यूनल के पास भेज दी। इसी आधी-अधूरी सूची के आलोक में फॉरनर्स ट्रिब्यूनल ने उन
लोगों के विरुद्ध एक्स पार्टी जजमेंट देते हुए उन्हें विदेशी करार दिया, जो न तो
ट्रिब्यूनल के सामने उपस्थित हुए और जिन्होंने न ही नोटिस का जवाब दिया। इसका पता
भी उन्हें तब चला, जब उन्हें या तो गिरफ्तार किया गया, या फिर वोट नहीं देने दिया
गया।
निदेशालय के तर्क
संतोषजनक नहीं:
सवाल यह उठता है कि इंटरनेट की सीमित
पहुँच और अपेक्षाकृत निम्न साक्षरता के बावजूद डिजिटल माध्यम से नोटिस भेजा जाना कहाँ
तक उचित है। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि
सरकारी नौकरी में रहे लोगों और पेंशनधारकों को सरकार द्वारा दिए गए वरिष्ठ नागरिक
प्रमाण-पत्र और नागरिकता प्रमाण-पत्र तक को प्रमाणिक दस्तावेज़ के रूप में नहीं
स्वीकार जा रहा है और प्रभावितों को अदालत भी उपचार देने के लिए तैयार नहीं है।
व्यावहारिक समस्या:
जागरूकता एवं जानकारी का अभाव:
इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण
समस्या यह है कि अशिक्षा एवं जागरूकता के अभाव के कारण उन्हें यह ही पता नहीं है
कि यदि उनकी नागरिकता को लेकर कोई विवाद उठता है, तो वे इस विवाद के निराकरण के
लिए कहाँ जाएँ और किन दस्तावेजों के सहारे इस विवाद का निराकरण संभव है? साथ ही,
यदि इसमें गड़बड़ी है, तो यह गड़बड़ी कहाँ से ठीक होगी और इसके लिए क्या करना होगा?
दैनिक मजदूरी पर आश्रित ये लोग इतने गरीब हैं कि स्थानीय पुलिस थाने के बाद
गुवाहाटी हाईकोर्ट तक जाने और वकीलों के खर्च उठाने में ये सक्षम नहीं हैं, फिर भी घर, परिवार और रोज़गार छोड़कर ये बांग्लाभाषी
लोग इसी में लगे हैं कि इनका नाम एनआरसी में छूट न जाए।
राष्ट्रीय
नागरिक रजिस्टर(NRC) को लेकर विभिन्न संगठनों का रुख:
इस
रजिस्टर के निर्माण का जहाँ ऑल असम माइनरिटी स्टूडेंट यूनियन(AAMSU) के द्वारा
विरोध किया जा रहा है, जबकि ऑल असम माइनरिटी स्टूडेंट यूनियन (AASU) का मानना है कि यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में पूरी
की जानी चाहिए। साथ ही, आसू की दृष्टि में NRC अपडेशन
बंगलादेशी घुसपैठियों की पहचान का सबसे बेहतर तरीक़ा नहीं है। उपमन्यु हज़ारिका का
मानना है कि NRC
अपडेशन हज़ारों बंगलादेशी घुसपैठियों
को वैधानिकता प्रदान करने का काम करेगा। उधर, काँग्रेस और ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट
बंगलादेश से अवैध आव्रजन की समस्या उतनी गंभीर नहीं है जितनी भाजपा और आसू के
द्वारा दावा किया जा रहा है।
केंद्र सरकार के द्वारा अनियमितता के दावों का खंडन:
असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण
(एनआरसी) के प्रकाशन से पहले गृह मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया है कि “30 जुलाई
को प्रकाशित होने जा रहा एनआरसी सिर्फ एक मसौदा है और मसौदे के प्रकाशन के बाद
दावों और आपत्तियों के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाया जाएगा और सभी दावों और
आपत्तियों का उचित रूप से परीक्षण किया जाएगा। इसके बाद ही अंतिम एनआरसी प्रकाशित
किया जाएगा।” केंद्रीय
गृह मंत्री कहा कि एनआरसी, जिसमें असम के
नागरिकों की सूची है, को 15 अगस्त,
1985 को हस्ताक्षरित असम समझौते के अनुरूप प्रकाशित किया जा रहा है। उन्होंने इसमें अनियमितता की बात को
ख़ारिज करते हुए कहा कि “एनआरसी के प्रकाशन की पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की
निगरानी में निष्पक्ष, पारदर्शी
और प्रभावी तरीके से कानून के मुताबिक चल रही है और इस क्रम में सुप्रीम कोर्ट
के निर्देशों का पूरा पालन किया जा रहा है।” गृह-मंत्री का यह भी कहना है कि “नागरिकता नियम के अनुसार दावों और
आपत्तियों के नतीजे से असंतुष्ट लोग विदेशी न्यायाधिकरण में अपील कर सकते हैं।
इसलिए एनआरसी के प्रकाशन के बाद किसी को हिरासत केंद्र में रखने का सवाल ही नहीं
है।”
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि ऐसे नागरिकों, जिनकी
नागरिकता खतरे में है, में बड़ी संख्या केवल उन मुसलमानों की ही नहीं है, जिन पर
आरोप लगाया जा रहा है कि वे या तो रोहिंग्या हैं, या फिर बांग्लादेशी; वरन् इसकी
ज़द में वे बांग्लाभाषी भारतीय नागरिक भी हैं, जिनके पास विस्थापन के कारण या फिर
अन्य कारणों से अपनी नागरिकता को पुष्ट करने के लिए वैध दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं।
यह समस्या इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि सत्ता-प्रतिष्ठानों के द्वारा इस
अपडेशन का इस्तेमाल केवल बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान के लिए ही नहीं हो रहा
है, वरन् हर ऐसे मुस्लिम नागरिकों के खिलाफ इसके इस्तेमाल की आशंका है जिनके पास
उचित कागजात नहीं हैं। इसीलिए अतिरिक्त सावधानी बरते जाने की ज़रुरत है, अन्यथा
आनेवाले समय में यह कहीं अधिक बड़ी समस्या को जन्म देगा।
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