प्रस्तावित नागरिकता अधिनियम (संशोधन) विधेयक,2016
संशोधन की
पृष्ठभूमि:
नागरिकता अधिनियम में इस संशोधन की पृष्ठभूमि
चकमा शरणार्थियों के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्देश ने तैयार
की। सितम्बर,2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के चकमा
शरणार्थियों के लिए नागरिक अधिकारों से सम्बंधित समिति बनाम् अरुणाचल राज्य वाद
में केंद्र सरकार एवं अरुणाचल सरकार को यह निर्देश दिया कि इस समुदाय के अर्हत लोगों
को नागरिकता प्रदान करने की दिशा में पहल करे, ताकि उनके जीवन के अधिकार और उनकी
स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए उनके विरुद्ध होने वाले भेदभाव पर अंकुश लगाया जा
सके। इसीलिए अगर
प्रस्तावित बिल को पारित किया जाता है, तो कपतै डैम (Kaptai
Dam) के निर्माण के कारण विस्थापित चकमा और हजोंग्स
विस्थापितों को इसका लाभ मिलेगा जो पिछले 65 साल से रिफ्यूजी की स्थिति में जीने
को अभिशप्त हैं।
लम्बे समय से
देशीयकरण के द्वारा नागरिकता प्राप्त करने से सम्बंधित लंबित आवेदनों ने भी इस
अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता को जन्म दिया। ध्यातव्य है
कि अवैध आव्रजन की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के कई
भारतीय मूल के लोगों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया है, लेकिन उनके पास भारतीय मूल
के होने के सबूत उपलब्ध नहीं है। वे नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 5 के तहत् नागरिकता-प्राप्ति
हेतु आवेदन करने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए उनके द्वारा अधिनियम की धारा 6 के तहत्
देशीयकरण द्वारा नागरिकता-प्राप्ति हेतु आवेदन किया जा रहा है जिसके तहत् 11 वर्ष
की निवास-शर्त है।
सितम्बर,2015 में नागरिकता अधिनियम में
संशोधन हेतु अध्यादेश:
सितंबर,2015
को केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान
और बांग्लादेश से भारत आने वाले हिंदुओं, सिखों,
ईसाइयों, जैनियों,
पारसियों और बौद्धों को भारतीय नागरिकता देने का
फैसला किया। इसके लिए पासपोर्ट अधिनियम-1920, विदेशी
अधिनियम-1946 और विदेशी आर्डर-1948
को संशोधित करने की बात कही गई। इस अध्यादेश का
लाभ तत्संबंधित देशों के उन धार्मिक अल्पसंख्यकों को
मिलेगा, जो पासपोर्ट एवं अन्य वैध यात्रा-दस्तावेजों के बगैर भारत आये हैं, या फिर
जिनके पासपोर्ट और यात्रा-दस्तावेजों की
मियाद खत्म हो चुकी है। अब इन लोगों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त कर पाना संभव
हो सकेगा।
प्रस्तावित संशोधन:
जुलाई, 2016 में संसद में प्रस्तावित संशोधन
विधेयक के जरिये नागरिकता अधिनियम,1955 के प्रावधानों को अपडेट किया जाना है, ताकि
लम्बे समय से भारतीय नागरिकता के लिए लंबित आवेदनों को निपटाया जा सके और कुछ
पड़ोसी देशों से आनेवाले अवैध घुसपैठियों के लिए भारतीय नागरिकता सुनिश्चित की जा
सके। इसके जरिये ऐसे लोगों के लिए नागरिकता-प्रावधानों को उदार बनाया जाना है। साथ
ही, इसके जरिये भारतीय मूल के लोगों(PIO) और भारत के सीमापारीय नागरिकों(OCI) की
श्रेणी को एकसाथ मिलाया जाना है। इसके मद्देनज़र इसमें निम्न संशोधन प्रस्तावित है:
1. नागरिकता अधिनियम,1955 की धाराओं में प्रस्तावित संशोधन: प्रस्तावित
बिल मूल अधिनियम की तीसरी आनुसूची की धारा 2 और
धारा 7 में संशोधन का प्रस्ताव रखता है। साथ
ही, इस बिल के कारण असम समझौते के बाद इस अधिनियम में जोड़ी गयी धारा 6A में संशोधन करते हुए असम में नागरिकता
से सम्बंधित निर्धारित तिथि को 25 मार्च,1971 से बढ़ाकर 31 दिसम्बर,2014 करना होगा।
2. पड़ोसी देशों के गैर मुस्लिम शरणार्थियों के लिए नागरिकता प्रावधान
को उदार बनाया जाना: केंद्र सरकार मौजूदा प्रावधानों को बांग्लादेश,
पाकिस्तान और अफगानिस्तान, इन तीन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक गैर-मुस्लिम शरणार्थियों
के सन्दर्भ में उदार बनाना चाहती है, ताकि वहाँ से आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध,
जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों तो भारतीय नागरिकता पा सकें, इसके लिए चाहे उनके पास जरूरी वैध दस्तावेज हों अथवा नहीं। अब इन्हें अवैध
घुसपैठिया नहीं माना जाएगा। लेकिन, यह सुविधा इन देशों से आने वाले मुस्लिम शरणार्थियों के लिए उपलब्ध नहीं होगी।
3. इसका लाभ उन लोगों, विशेषकर हिन्दुओं, को भी
मिलेगा जिन्होंने बिना पासपोर्ट एवं वीजा के भारत में प्रवेश किया है और उनको भी,
जिनके वीजा एवं/अथवा पासपोर्ट की वैधता-अवधि समाप्त हो चुकी है, या फिर जो धार्मिक अल्पसंख्यक धार्मिक अत्याचार
के भय से भागकर भारत आये हैं। अबतक नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों के तहत्
इन्हें अवैध प्रवासी माना जाता था, इसीलिए ये भारतीय नागरिकता हेतु आवेदन नहीं कर
सकते थे। लेकिन, इस विधेयक के प्रावधानों के तहत् पड़ोसी देशों
के अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बंधित लोगों को इसके अपवाद की श्रेणी में रखा जाना है,
इसीलिए ये
भारतीय नागरिकता हेतु आवेदन के पात्र होंगे।
4. विदेशी अधिनियम,1946 और पासपोर्ट अधिनियम,1920 के प्रावधानों से
रियायत: इससे पहले 2015 और 2016 में सरकार ने दो अधिसूचना जारी कर इन शरणार्थियों
को विदेशी अधिनियम,1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम,1920 के उन प्रावधानों
से रियायत दे दी, जिनके तहत् उनको देश से निकाला जा सकता था। इस तरह इन संशोधनों
के जरिये 31 दिसम्बर,2014 से पहले आए ऐसे शरणार्थियों को भारत में रहने का अधिकार
दे दिया।
5. देशीयकरण के द्वारा प्राप्त नागरिकता के लिए समय-सीमा को 11 साल से
घटाकर 6 साल किया जाना: प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से नागरिकता
अधिनियम,1955 की
अनुसूची 3 में संशोधन का प्रस्ताव किया गया, ताकि वे 11 वर्ष के बजाय 6 वर्ष पूरा करने पर देशीयकरण द्वारा नागरिकता (Natural
Citizenship) के पात्र हो
सकें; अर्थात् अब इन्हें पिछले 14 सालों में छह साल के वास की शर्तों को ही
पूरा करना होगा। मौजूदा प्रावधानों के अनुसार यदि कोई शरणार्थी पिछले 14 सालों में
से 11 सालों तक भारत में रहा हो और आवेदन करने से पहले 12 महीने तक भारत मे रह रहा
हो, तो उसे देश की नागरिकता मिल सकती है। साथ
ही, इस सन्दर्भ में पंजीकरण शुल्क को (3000-15000) रुपये से घटाकर 100 रूपये कर
दिया गया है।
6. ओसीआई कार्डधारक के पंजीकरण रद्द
करने से सम्बंधित प्रावधान:
प्रस्तावित विधेयक भारतीय विधि के उल्लंघन की स्थिति में ओवरसीज सिटीजन्स ऑफ़
इंडिया(OCI) कार्ड-धारक विदेशी नागरिक के पंजीकरण को समाप्त करने के लिए अधिनियम
की धारा 7(d) में भी संशोधन का प्रावधान करता है। वर्तमान में यह अधिनियम निम्न आधारों पर इनके
पंजीकरण को रद्द करने का प्रावधान करता है:
a. यदि उसने धोखाधड़ी के ज़रिये ओवरसीज सिटीजन्स ऑफ़
इंडिया(OCI) कार्ड हासिल किया है, या फिर
b. यदि ऐसे कार्डधारक को किसी अपराध के जुर्म में
पंजीकरण के पाँच
साल के भीतर दो साल या उससे अधिक की सज़ा सुनायी गयी है, या फिर
c. यदि भारत की सुरक्षा एवं संप्रभुता के मद्देनज़र
ऐसा करना आवश्यक हो गया है।
ब्रह्मपुत्र
घाटी और बराक घाटी के विभाजन का गहराना:
मई, 2018 में प्रस्तावित विधेयक पर आम
लोगों की राय जानने के लिए भाजपा सांसद राजेन्द्र अग्रवाल की अगुवाई वाली 16
सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति के असम और मेघालय दौरे के साथ यह मसला गरमाता चला
गया और इसके विरोध एवं समर्थन में धरना-प्रदर्शन का सिलसिला चल पड़ा। इसने भौगोलिक
रूप से बराक घाटी एवं ब्रह्मपुत्र घाटी में विभाजित असम के बीच के अंतराल को
गहराने का काम किया। इसीलिए प्रस्तावित बिल को विभाजन के लम्बे समय से चले आ रहे अनुभवों, जो
ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी में अलग-अलग रहे, के सापेक्ष देखा जाना चाहिए।
प्रस्तावित विधेयक ने असम को भौगोलिक आधार
पर विभाजित करते हुए एक ऐसा माहौल तैयार किया है जिसमें बराक घाटी के लोग इसके
समर्थन में खड़े हैं, तो ब्रह्मपुत्र घाटी के लोग इसके विरोध में। दरअसल बराक घाटी
और ब्रह्मपुत्र घाटी की आबादी के बीच भाषायी विभाजन की प्रक्रिया देश के विभाजन और
आज़ादी के बाद ही हो गयी थी, जब एक अंचल को छोड़कर सिलहट के अधिकांश बंगलाभाषी अंचल
पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से बने और शेष रह गया अंचल भारत में बराक घाटी का हिस्सा
बना। इसके कारण बराक घाटी में बांग्लाभाषी हिन्दू भाषाई अल्पसंख्यक में तब्दील
होकर रह गए। इसलिए बंगाली हिन्दुओं को लगता है कि प्रस्तावित संशोधन संख्या-बल की
दृष्टि से उनकी स्थिति को मज़बूत करता हुआ उनके अलगाव को कम करने में सहायक साबित
होगा और इससे उनके साथ न्याय संभव हो पाएगा। समर्थकों का तर्क है कि विभाजन एवं
विस्थापन की त्रासदी के शिकार लोगों को मर्यादा के साथ जीने का हक मिलना चाहिए। इसीलिए
ये नागरिकता देने के लिए भारत में 6 साल तक रहने की प्रस्तावित शर्त को घटा कर 6
महीने करने के पक्ष में दबाव बना रहे हैं।
इसके विपरीत ब्रह्मपुत्र घाटी में अपनी
असमी पहचान को लेकर सजग एवं आग्रहशील विधेयक के विरोधियों का यह मानना है कि प्रस्तावित
संशोधन गैर-मुस्लिमों के घुसपैठ की प्रक्रिया को तीव्र करेगा, जिससे असम में बांग्लादेश
से घुसपैठ की समस्या और गंभीर हो जाएगी। विरोधियों का कहना है कि पहले से ही 1971
से असम में लगभग 20 लाख हिन्दू बांग्लादेशी गैर-कानूनी तरीके से रह रहे हैं। अगर
प्रस्तावित संशोधनों को मंजूरी मिलती है, तो बांग्लादेशी हिन्दुओं के आव्रजन और
तत्पश्चात् नागरिकता लेने की प्रक्रिया तेज़ हो जायेगी और फिर दिसम्बर,2014 की
समय-सीमा समय के साथ अप्रासंगिक होती चली जायेगी। ऐसी स्थिति में उनकी असमी पहचान
खतरे में पड़ जायेगी क्योंकि सन् 2015 की जनगणना के अनुसार बांग्लादेश में हिन्दुओं
की आबादी करीब-करीब 1.70 करोड़ है। उनका यह भी कहना है कि सन् 2008 के बाद शेख हसीना के नेतृत्व के
अंतर्गत बंगलादेश में धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक आधार पर शोषण एवं उत्पीड़न
उतना बड़ा मसला नहीं रहा है जितना बड़ा मसला पहले था। यही कारण है कि आव्रजन एवं नागरिकता
को लेकर दोनों जगहों के लोगों ने भिन्न-भिन्न रुख अपनाया है और असम आन्दोलन से
जुड़े लोग इस बिल के प्रखर आलोचक रहे हैं।
आलोचना
का आधार:
प्रस्तावित बिल किसी को
नागरिकता प्रदान नहीं करता है, वरन् सन् 1971 के बाद आने वाले गैर-मुस्लिम
आव्रजकों को देशीयकरण के द्वारा नागरिकता प्रदान करने का विधायी उपबंध करता है। लेकिन, इस उपबंध के बावजूद भविष्य
में सरकारें नागरिकता अधिनियम की धारा 14 के अंतर्गत नागरिकता प्रदान करने से
इन्कार कर सकती हैं। इस बिल के विभिन्न पहलू इसे विवादास्पद बनाते हैं जिसके
कारण इसकी आलोचना की जा रही है। इन आलोचनाओं को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा
सकता है:
1. असम समझौते के मूल प्रावधानों के प्रतिकूल: प्रस्तावित
संशोधनों को 1985 के असम समझौते की मूल भावना के भी खिलाफ माना जा रहा है, जिसमें असम
को बांग्लादेशी घुसपैठियों से मुक्त करवाने की बात कही गई थी। इस
समझौते में प्रावधान किया गया था कि 24 मार्च
1971 के बाद असम में आए किसी भी
धर्म के विदेशी को रहने का अधिकार नहीं होगा और इसी के अनुरूप इसमें 24
मार्च,1971 की आधी रात के बाद असम आए सभी घुसपैठियों को विदेशी मानकर बहिष्कृत किये
जाने का उल्लेख किया गया। इसके लिए नागरिकता अधिनियम में अनुच्छेद 6A के तहत् अलग
से प्रावधान जोड़ा गया, लेकिन यह बिल इस तिथि को 2014 तक विस्तार देता
है। इसीलिए अगर
यह पारित होता है, तो इसे असम समझौते में संशोधन समझा जाएगा। इसलिए बांग्लादेश से घुसपैठ एवं असम सहित
बांग्लादेश की सीमा से लगे पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में मौजूद अवैध
आव्रजन(Immigration) की समस्या को देखते
हुए इस विधेयक पर विचार किये जाने की जरूरत है। ध्यातव्य है कि
2. संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावनाओं और विभिन्न उपबंधों के प्रतिकूल:
इस विधेयक में नागरिकता-पात्रता और समय
से जुड़े जिन
विषयों का उल्लेख किया गया है, उसमें कुछ
विसंगतियाँ
हैं। प्रस्तावित विधेयक अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के बहुसंख्यक मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है।
इसीलिए यह बिल धार्मिक समुदाय विशेष के लोगों को लक्षित करता हुआ
संविधान के अनुच्छेद 14-15,
अनु. 19, अनु. 21
और अनु. 29 का
उल्लंघन करता है। मुसलमानों और यहूदियों को जानबूझकर इस बिल के दायरे से बाहर रखा गया
है और जिन छह धर्मों के लोगों को इसके दायरे में रखा गया है, उनमें चार धर्म के
लोग हिन्दू पर्सनल लॉ के दायरे में आते हैं। इसलिए
इस बिल में विदेशियों का किया गया वर्गीकरण अयुक्तियुक्त (Unreasonable) है। साथ
ही, अगर इस विधेयक को पारित किया गया, तो संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावनाओं के
प्रतिकूल होने के कारण यह न्यायिक
समीक्षा के अधीन होगा और इस बात की सम्भावना कहीं अधिक है कि उच्चतम न्यायालय इसे
निरस्त कर दे।
3. धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों की भी उपेक्षा:
प्रश्न यह भी उठता है कि क्यों नहीं इस बिल के जरिये भारत के पड़ोसी देशों के उन
सभी अल्पसंख्यकों (पकिस्तान में अहमदिया, म्यांमार में रोहिंग्या और श्रीलंका में भारतीय
मूल के तमिल) के लिए स्पेस सृजित किया गया जो अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न के
शिकार हैं और जिन्होंने भारत को अपना घर बनाया है? दूसरे शब्दों में कहें, तो यह
बिल तमिलनाडु के विभिन्न इलाकों में रह रहे उन
तमिलों के प्रति भी असंवेदनशील है जो जातीय उत्पीड़न के शिकार होकर पलायन
के लिए विवश हुए। यहाँ तक कि
सुन्नी के प्रभुत्व वाले पाकिस्तान में शिया और
अहमदिया सम्प्रदाय के लोग भी धार्मिक-उत्पीड़न के शिकार हैं, पर
प्रस्तावित संशोधन उनके प्रति उदासीन है। इसके अतिरिक्त म्याँमार के रोहिंग्या मुसलमानों की भी इसमें उपेक्षा की
गयी है।
4. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन: यह बिल सुप्रीम कोर्ट के उस
रुख की भी अवहेलना करता है जिसमें उसने बांग्लादेश से अबाधित आव्रजन की मात्रा को
देखते हुए उसे असम के सन्दर्भ में बाह्य आक्रमण के समान करार दिया और दिसम्बर,2014
में अवैध घुसपैठियों की बांग्लादेश-वापसी की प्रक्रिया शुरू करने सम्बंधित केंद्र
सरकार को निर्देश दिए। साथ ही, अगर यह विधेयक
पारित होता है, तो इससे उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का उल्लंघन होगा,
जिनमें कहा जा चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 14
और अनुच्छेद 25 के
अनुसार धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जा सकती।
5. नागरिकता की अस्पष्ट स्थिति: इस बिल के
जरिये ओसीआई और पीआईओ की श्रेणी का विलय तो कर दिया गया है, पर भारत के नागरिक के
रूप में उनकी स्थिति को अस्पष्ट ही छोड़ देता है। इससे
पूर्व अधिसूचना के जरिये जनवरी,2015 में सभी पीआईओ कार्डहोल्डरों को ओसीआई कार्डहोल्डर
मान लिया गया। इसके अतिरिक्त समस्या यह भी है कि संशोधन
के पश्चात् भारतीय विधि का उल्लंघन करनेवाले मामूली अपराध की स्थिति में भी इनकी
नागरिकता रद्द की जा सकती है और इनसे यह दर्ज़ा छीना जा सकता है।
इसके अतिरिक्त यह बिल असमियों को भी आशंकित कर
रहा है और असम के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले बांग्लाभाषी भारतीय नागरिकों को
भी। इन आशंकाओं को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा
सकता है:
1. बांग्लाभाषी भारतीय नागरिकों के हितों का प्रतिकूलतः प्रभावित
होना: असमिया लोगों के लिए धार्मिक विभेद से परे सभी
बांग्लाभाषी बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं और उनकी इस सोच के कारण वे बांग्लाभाषी, जो
बांग्लादेशी नहीं हैं, उनके लिए भी जीने की परिस्थितियाँ मुश्किल होती चली गयी।
यह बिल कहीं-न-कहीं बांग्लाभाषी भारतीय मुसलमानों की परेशानियों को बढ़ानेवाला
साबित होगा क्योंकि बड़ी आसानी से उन पर भी बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का आरोप
चस्पा किया जा सकता है और उसके बाद अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेवारी उन पर
होगी, जो संस्थाओं के भेदभावपूर्ण नज़रिए के कारण मुश्किल होगा।
2. असमी भाषा एवं संस्कृति का खतरे
में पड़ना: भले ही इस कानून
का कोई विपरीत प्रभाव देश के दूसरे राज्यों पर नहीं पड़ेगा, लेकिन
इस विधेयक को कानून का दर्जा देने की वजह से बांग्लादेशी
हिंदुओं के असम में बसने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा जिससे असम की जनसंख्या का ताना-बाना बिखर कर रह जाएगा।
उनका तर्क है कि
पहले से ही राज्य में सत्तर लाख बांग्लादेशी बसे हुए हैं और असम नए सिरे से अब और
भी बांग्लादेशियों का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है। ऐसी
स्थिति में उन्हें यह भय
सता रहा है कि जिस तरह त्रिपुरा के मूल निवासी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन कर
जीने के लिए विवश हो गए,
उसी तरह वे भी
अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन सकते हैं। इससे
उनकी भाषा-संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी।
यहाँ तक कि असमिया भाषा से राजभाषा का औपचारिक दर्ज़ा भी छीना जा सकता है और फिर यह
शिक्षा का माध्यम भी नहीं रह जाएगा। ऐसी स्थिति में राज्य की जनजातियों की
भाषा-संस्कृति नष्ट हो सकती है।
3. विचार-विमर्श की प्रक्रिया में असमी लोगों को शामिल नहीं किया
जाना: इस प्रश्न पर विचार-विमर्श हेतु देश के जिन सत्ताईस
संगठनों को अपना पक्ष रखने के लिए आमंत्रित किया गया, उनमें असम से भी पाँच
संगठनों को बुलाया गया। लेकिन, असम के जो पाँच संगठन विचार-विमर्श की प्रक्रिया
में शामिल हैं, वे मूल असमिया लोगों के बजाय हिंदू बांग्लादेशियों का प्रतिनिधित्व
करते हैं। इन्होने स्वाभाविक रूप से हिंदू बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता
देने का ही समर्थन किया। स्पष्ट है कि समिति की रुचि न तो स्थानीय असमिया मूल के
लोगों की चिंताओं को समझने में है और न उनकी चिंताओं से उनका कोई वास्ता है। वह
महज विचार-विमर्श की खानापूर्ति करने की कोशिश में लगी है।
4. भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र के प्रतिकूल: असम
के लोगों की नाराज़गी इस बात से भी है कि असम-समझौते के प्रावधान से परिचित होने और
अपने चुनावी घोषणा-पत्र में इसके सम्मान के वादे के बावजूद वर्तमान सरकार ने
लोकसभा में नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पेश
कर दिया। ध्यातव्य है कि भाजपा ने असम विधानसभा चुनाव के दौरान वहाँ के लोगों को यह आश्वस्त किया था कि सत्ता
में आने पर वह असम समझौते की धारा 6 के
प्रावधानों को लागू करते हुए उनके संवैधानिक, सामाजिक,
आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा
सुनिश्चित करेगी, लेकिन अब वह अपने वादे से मुकर रही है।
5. बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति
दोहरा रवैया: बांग्लादेशी
घुसपैठियों के प्रति भाजपा का रवैया दोहरा है। ध्यातव्य है कि संघ परिवार के
साथ-साथ भाजपा बांग्लादेश से भारतीय
सीमा में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले हिन्दुओं को ‘अप्रवासी’ मानती
है और मुसलमानों को ‘घुसपैठिया’। भाजपा
इसके माध्यम से:
a. एक
तो असम में सांप्रदायिक धरातल पर वोटों के ध्रुवीकरण को सुनिश्चित करना चाहती है
और
b. दूसरे,
हिन्दू राष्ट्र के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए यह सन्देश देना चाहती है कि भारत
दुनिया भर के हिन्दुओं के लिए शरण-स्थली है।
इसीलिए वह असमिया लोगों को यह समझाने में लगी
हुई है कि बांग्लाभाषी हिन्दू असम के उन नौ जिलों में मुसलमानों की
राजनीतिक-आर्थिक आक्रामकता से संरक्षण प्रदान करने में सहायक होंगे, जो
बांग्लाभाषी मुस्लिम-बहुल इलाके हैं।
6. हिन्दू-तुष्टिकरण की नीति: केंद्र सरकार के इस कदम को
हिन्दू-तुष्टिकरण की उसकी नीति से सम्बद्ध करके देखा जा रहा है क्योंकि इस बिल के
प्रावधान से मुख्य रूप से इन देशों के अल्पसंख्यक हिन्दू लाभान्वित होंगे। चूँकि केवल हिन्दुओं के लिए
नागरिकता का प्रावधान विभेदकारी होता और न्यायिक प्रक्रिया में उसका टिक पाना
मुश्किल होता, इसीलिए सरकार ने इसके दायरे में अन्य अल्पसंख्यक समूहों को भी शामिल
किया है।
7. हिंदुत्व-आधारित वोटबैंक की राजनीति: इस बिल के जरिये प्रस्तावित संशोधनों
का सम्बन्ध असम में भाषाई एवं नृजातीय विभाजन से परे जाकर हिन्दू
वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीति से जाकर जुड़ता है।
असम की बराक घाटी और धुबुरी जिले में हिंदू बांग्लादेशियों की तादाद सबसे ज्यादा
है। बराक घाटी के तीन जिले कछार, हैलाकांदी
और करीमगंज के पंद्रह विधानसभा क्षेत्रों में से बारह विधानसभा क्षेत्रों में
हिंदू बंगाली बहुसंख्यक हैं। इसके अलावा ऐसे कई विधानसभा क्षेत्र हैं जहाँ पहले से
ही हिंदू बंगाली मौजूद हैं। इन क्षेत्रों में हिंदू बांग्लादेशियों को बसाये जाने
की स्थिति में उनकी चुनावी भूमिका निर्णायक हो जायेगी और फिर उसे चुनौती दे पाना किसी
भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं रह जाएगा। इसीलिए भाजपा इन बांग्लादेशी हिन्दुओं
को बराक घाटी और निचले असम के कुछ खास विधानसभा क्षेत्रों में बसाने की योजना बना
चुकी है। ऐसा करते हुए यह सुनिश्चित किया जाएगा कि प्रत्येक जिले में मतदाता के
रूप में हिंदू बांग्लादेशी निर्णायक भूमिका निभा सकें।
प्रस्तावित
संशोधन का राजनीतिकरण:
हालात यहाँ तक पहुँच चुकी है कि
केंद्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा यह कहते हुए प्रस्तावित संशोधनों के पक्ष में
खड़ी है कि बराक घाटी में ऐसे बांग्लादेशी हिन्दुओं की तादाद बमुश्किल 10-15 लाख होगी,
जिन्हें इसके प्रावधानों के तहत् भारत की नागरिकता मिल सकेगी, लेकिन असम में उसकी
गठबंधन सरकार की सहयोगी असम गण परिषद् इसके विरोध में है। मेघालय सरकार ने भी विधेयक
के विरोध का निर्णय लिया।
उधर ब्रह्मपुत्र घाटी में काँग्रेस और
बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट(AIUDF) प्रस्तावित
संशोधनों को देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के प्रतिकूल और अल्पसंख्यक मुसलमानों
के लिए भेदभावकारी मान रहकर इसका विरोध कर रहा है। काँग्रेस इन्हें रिफ्यूजी का दर्ज़ा देने पर तो
सहमत है, पर इन्हें नागरिकता दिए जाने के प्रावधानों के विरुद्ध है। विरोध
में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि यह संविधान के उस प्रावधान का उल्लंघन करता है,
जिसमें धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करने की बात कही गई है। यहाँ तक कि
प्रस्तावित संशोधनों को लेकर राजनीतिक दलों के भीतर भी भौगोलिक विभाजन को स्पष्टतः
देखा जा सकता है। राज्य सरकार का यह कहना है कि यदि वह असम के लोगों के हितों की
रक्षा करने में नाकाम रही, तो वह त्यागपत्र दे देगी। राज्य में एनआरसी के प्रकाशन
का काम पूरा होने पर सरकार अपना पक्ष स्पष्ट करेगी। विरोधियों का यह भी कहना है कि
इसके जरिये एनआरसी को निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की जा रही है।
भारत
की रिफ्यूजी-नीति में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु:
यद्यपि भारत ने
रिफ्यूजी पर अंतर्राष्ट्रीय संविदा पर हस्ताक्षर नहीं किया है, पर सन् 1959 में
भारतीय संसद में तिब्बती शरणार्थियों के सन्दर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर
लाल नेहरु ने जो बाते कहीं, उससे तीन बातें सामने आती हैं:
1. रिफ्यूजी के
प्रति मानवीय नज़रिया अपनाया जाएगा और उसी के अनुरूप उनका स्वागत किया जाएगा।
2. रिफ्यूजी-समस्या
द्विपक्षीय समस्या है।
3. सामान्य स्थिति
की पुनर्बहाली के पश्चात् रिफ्यूजियों को वापस अपने मूल देश लौट जाना चाहिए।
इस
परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह बिल भारत की रिफ्यूजी-नीति में महत्वपूर्ण बदलावों
की ओर इशारा करता हुआ रिफ्यूजी के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है और उसके
संरक्षण को सुनिश्चित करता है। लेकिन, बेहतर यह होता कि बिल में अल्पसंख्यकों
के बजाय पीड़ित समूह की चर्चा होती, चाहे उनका सम्बन्ध अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े
या बहुसंख्यक समुदाय से। जैसे अहमदिया को पाकिस्तान में मुसलमान ही नहीं माना जाता है और वे
वहाँ विभेद के शिकार हैं। यही स्थिति म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की है। यह स्थिति भारतीय संविधान की मूल
भावनाओं के भी अनुरूप होती, जो धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के हितों के
संरक्षण का आश्वासन देता है।
भारतीय
मूल के तमिलों के प्रश्न की अनदेखी:
श्रीलंका से आये भारतीय तमिलों के सन्दर्भ में
यह जानना महत्वपूर्ण है कि उन्हें चाय-बागानों में श्रमिकों की ज़रूरतों के
मद्देनज़र इस वादे के साथ अंग्रेजों के द्वारा श्रीलंका ले जाया गया कि वहाँ पर
उनके साथ उसी प्रकार का व्यवहार किया जाएगा और वे सारे अधिकार उपलब्ध होंगे जो
श्रीलंकाई तमिलों को उपलब्ध हैं। लेकिन,
श्रीलंका के आजाद होते ही विधायी पहलों के जरिये
उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया गया और राज्य-विहीन बना दिया गया।
भारतीय मूल के इन तमिलों (मलैहा तमिल या पहाड़ी तमिल) के प्रश्न पर
नेहरु का यह मानना था कि जिन्होंने स्वैच्छिक रूप से भारतीय नागरिकता ग्रहण की है,
उनको छोड़कर शेष तमिल श्रीलंका की जिम्मेवारी हैं, जबकि श्रीलंका का यह मानना था कि
श्रीलंकाई नागरिकता की कठोर शर्तों को पूरा करने वाले लोगों को छोड़कर शेष लोग भारत
की जिम्मेवारी हैं। लेकिन लाल
बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व-काल में भारत की नीति में
परिवर्तन आया और तमिलनाडु के स्थानीय नेतृत्व को विश्वास में लिए बिना भारत सरकार
ने इस सैद्धांतिक रुख में बदलाव लाते हुए सन् 1964 और 1974
में श्रीलंका के साथ दो समझौते किये। इन समझौतों के
अंतर्गत नई दिल्ली 6 लाख भारतीय मूल के तमिलों को वापस लेने के प्रश्न पर रजामंदी
जतायी और श्रीलंका 3.75 लाख लोगों को श्रीलंकाई नागरिकता प्रदान करने पर सहमत हुआ। लेकिन, तमिलनाडु का स्थानीय नेतृत्व इस मसले पर
कभी राजी नहीं हुआ। बाद में, तमिलों के विरुद्ध जातीय हिंसा के विभिन्न चरणों में तमिल
शरणार्थियों की संख्या बढाती चली गयी, इस आशा के साथ उन्हें भारत की नागरिकता मिल
सकेगी और वे सामान्य जिन्दगी जी सकेंगे। वर्तमान में तमिलनाडु के विभिन्न कैम्पों में रह रहे ऐसे लोगों की
संख्या करीब 30 हज़ार है। इनमें से अधिकांश दलित हैं। ये सभी रिफ्यूजी नागरिकता
अधिनियम,1955 की धारा 5 के अंतर्गत भारतीय नागरिकता के लिए अर्हत हैं, लेकिन उनके
आवेदन को केंद्र सरकार के उस सर्कुलर के आलोक में ठुकरा दिया गया कि जिसमें
श्रीलंकाई रिफ्यूजियों को भारतीय नागरिकता के निर्रह (अयोग्य) ठहराया गया। लेकिन, उपरोक्त बिल को अगर आगे
बढाया जाता है, तो उसकी मूल भावनाओं के आलोक में इस निर्देश को वापस लिए जाने और
भारतीय मूल के तमिलों को भी इस बिल के दायरे में लाये जाने की ज़रुरत है।
इसकी पुष्टि चकमा शरणार्थियों से सम्बंधित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग(NHRC) बनाम्
अरुणाचल राज्य मामले से भी होती है। इस मामले में
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जिन्हें अवैध अप्रवासी के रूप में रेखांकित
किया जाता है, उन्हें भी विधि के समान संरक्षण और अनु. 21 के तहत् प्रदत्त अधिकार
का लाभ मिलना चाहिए।
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि नागरिकता अधिनियम,1955 में प्रस्तावित संशोधन समस्या के
समाधान के बजाय उसे कहीं अधिक जटिल बनाते हैं और भाषिक समस्या में सांप्रदायिक
एंगल जोड़ते हैं। इतना ही नहीं, ये संशोधन अधिनियम की कमियों को दूर करने में सहायक
हो सकते थे, पर ऐसा नहीं हुआ है। यह अपेक्षा की जा रही थी कि इस संशोधन के जरिये नागरिकता
के प्रावधानों को स्पष्ट किया जायेगा, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका। इसीलिए यह बिल निराश
करता है। ध्यातव्य हसी कि वर्तमान में भारतीय नागरिकता का निर्धारण दो विधानों के
अंतर्गत होता है:
1. भारतीय
संविधान के भाग 2 में उल्लिखित नागरिकता-संबंधी प्रावधान के अंतर्गत, और
2. नागरिकता
अधिनियम,1955 के प्रावधानों के अंतर्गत।
लेकिन, इनमें से
किसी में नागरिकता को स्पष्टतः परिभाषित करने की कोशिश नहीं की गयी है। इसमें
सिर्फ यह बतलाया गया है कि सामान्य व्यक्ति के लिए भारतीय नागरिकता हासिल करने की
शर्तें क्या हैं। इतना ही नहीं, धार्मिक अधर पर भेदभावकारी होने के कारण इसके
निहितार्थ कहीं गंभीर होंगे और इसका प्रभाव केवल असम तक सीमित नहीं रहेगा। ऐसा
प्रतीत हो रहा है कि वर्तमान में केंद्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा उसी रास्ते
पर बढ़ती हुई दिखाई पद रही है जिस रस्ते पर कभी काँग्रेस बढ़ रही थी और उसे भी उसी
तरह कीमत चुकानी पड़ेगी जिस तरह आज काँग्रेस को चुकानी पड़ रही है। इसका अहसास अब संघ
और भाजपा को भी होने लगा है, तभी तो वे अब इस बिल को लेकर नरम रवैया अख्तियार कर रहे
हैं। अगर इस बिल को पारित किया जाता है, तो इससे असम की स्थिति कहीं अधिक
बिगड़ेगी और इसके राजनीतिक परिणाम भी कहीं अधिक गंभीर होंगे। यहाँ तक कि ब्रह्मपुत्र घाटी में भाजपा की चुनावी संभावनाएँ भी प्रतिकूलतः
प्रभावित होंगी, यद्यपि बंगालियों के प्रभुत्व वाली बराक घाटी में उसे इसका फायदा
भी होगा। शायद इसीलिए संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष ने इस बात का संकेत दिया है
कि मानसून-सत्र,2018 में रिपोर्ट सौंपे जाने की सम्भावना नहीं है इसके बजाय समिति
विधि-विशेषज्ञों और संविधान के जानकारों से सलाह लेगी।
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