असम-समस्या
असम को भाषाई समस्या औपनिवेशिक सत्ता
और भारत-विभाजन की विरासत के रूप में मिली, और बाद के वर्षों, विशेषकर 1971 के
बांग्लादेश मुक्ति-संग्राम के दौरान और इसके बाद होने वाले आव्रजन के कारण गहराती
चली गयी। वर्त्तमान में बांग्लादेश बॉर्डर से लगे अधिकांश भारतीय इलाके अवैध
बंगलादेशी आव्रजन की समस्या से जूझ रहे हैं और इसके कारण स्थानीय लोगों में असंतोष
है। कारण यह कि इस अवैध आव्रजन के कारण न केवल स्थानीय लोगों को बुनियादी सुविधाओं
एवं रोजगार के लिए अनुचित प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है, वरन् उनकी भाषिक
एवं सांस्कृतिक अस्मिता भी खतरे में है। वैसे तो यह समस्या बांग्लादेश के बॉर्डर
से लगे समस्त भारतीय इलाकों में है, पर असम में यह समस्या कहीं अधिक गंभीर है। असमी
मूल के लोगों को लगता है कि बांग्लाभाषी मुसलमानों और हिंदुओं से उनकी अस्मिता को
खतरा है क्योंकि अवैध घुसपैठियों की वजह से बहुत जल्द वे अल्पसंख्यक में तब्दील हो
जायेंगे।
उनकी इस आशंका को जनांकिकीय आँकड़े भी
बल प्रदान कर रहे हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार असम में 34 फीसदी मुसलमान
आबादी है, जबकि सन् 1951 में यह 24 फीसदी थी। असमी भाषा बोलने वाले 48.3 फीसदी हैं
और बांग्ला बोलने वाले 24 फीसदी। असमी लोगों का मानना है कि मुसलमानों और
बांग्लाभाषियों की बढ़ती इस आबादी के मूल में अवैध बंगलादेशी आव्रजन है, इससे इनकार
भी नहीं किया जा सकता है। लेकिन, इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिससे भी इन्कार नहीं
किया जा सकता है। इसी दिशा में संकेत करते हुए गुवाहाटी विश्वविद्यालय के रिटायर्ड
प्रोफेसर अब्दुल मन्नान कहते हैं कि असम में उच्च मुस्लिम आबादी वृद्धि-दर के लिए
उनकी गरीबी और अशिक्षा जिम्मेवार है। उनका इशारा इस ओर है कि असम में 57 फीसदी
मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं जिसके कारण उनके बीच जनसंख्या-वृद्धि दर है
और ग्रामीण इलाकों में तो हालात और भी खराब हैं। इसीलिए हाल के दिनों में यह एक
अत्यंत संवेदनशील मसले के रूप में उभरकर सामने आया है और इसे राजनीतिक रूप से
भुनाने की कोशिश की है भाजपा ने, जिसका रुझान दक्षिणपंथी हिंदुत्व की ओर है।
औपनिवेशिक विरासत के रूप में भाषाई समस्या:
औपनिवेशिक
शासन के दौरान अंग्रेजों ने असम में चाय की खेती को प्रोत्साहन दिया और इसके लिए
बांग्लाभाषियों को यहाँ असम की चाय-बागानों में काम करने के लिए यहाँ पर आकर बसने
के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसी दौरान असमियों और बंगालियों के बीच भाषिक टकराहट के
बीज औपनिवेशिक काल में ही बोये गये, जब सन् 1825 में असम को ब्रिटिश भारत का
हिस्सा बनाने के बाद अपनी सुविधा के हिसाब से न्यायालय एवं स्कूलों की भाषा के रूप
में बांग्ला भाषा थोपने की कोशिश की गयी। काफी
बाद जब असमी को पुनर्बहाल करने की कोशिश शुरू हुई और 1960 में असमी को राजभाषा
घोषित करने के लिए विधायी पहल की गयी, तो बंगाली बुद्धिजीवियों ने इसकी तीखी
आलोचना की और फिर दंगे भड़क पड़े। तब
से लेकर अबतक असमियों और बांग्लाभाषियों के बीच कटुता बढ़ती चली गयी और अब उसी की
फसल को काटने की तैयारियाँ सभी राजनीतिक दलों के द्वारा अपने-अपने तरीके से की जा
रही है। लेकिन, असम के मूल निवासियों और बांग्लाभाषी
मुस्लिम अप्रवासियों के बीच के बीच के इन मतभेदों को पाटने में दशकों लग गए और
उनकी आशंकाओं को निरस्त करने के लिए मुस्लिम आप्रवासियों ने असमी भाषा के स्कूलों
को अपनाना शुरू किया।
काँग्रेस का रुख: असम-समस्या का राजनीतिकरण:
आरम्भ
में काँग्रेस ने असमी मध्य-वर्ग को अपना मित्र बनाते हुए
राज्य-सत्ता पर अपना नियंत्रण बनाये रखा।
लेकिन, सन् 1970 में आकर इस नीति में बदलाव परिलक्षित हुआ, जब इंदिरा गाँधी ने
बांग्लाभाषी मुस्लिम घुसपैठियों के साथ-साथ असमी अन्य पिछड़े वर्ग एवं जनजातियों को
साधने की कोशिश की और उन्हें संरक्षण देना शुरू किया। इतना ही नहीं,
उसने सीमा पर घुसपैठ को लेकर ढीला-ढ़ाला रवैया अपनाया
गया। स्पष्ट है कि काँग्रेस ने अपनी
चुनावी संभावनाओं को मजबूती प्रदान करने के लिए वोटबैंक की राजनीति करते हुए इन
बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति नरम रुख अपनाया और उन्हें भारत की नागरिकता हासिल
करने, मताधिकार प्रदान करने और राज्य के द्वारा उपलब्ध करवायी जाने वाली सुविधाओं तक
उनकी पहुँच सुनिश्चित करने में उनकी मदद की। इसके कारण असमी
मध्यवर्ग और असमिया मूल के लोगों में भी उसके प्रति
नाराजगी बढ़ी और बांग्लाभाषी भारतीय नागरिकों में भी, क्योंकि इसके कारण हर
बांग्लाभाषी को बांग्लादेशी घुसपैठिए के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति पनपी। अंततः
इस असंतोष की परिणति असम-आन्दोलन के रूप में हुई।
बांग्लादेशियों के विरोध में असमिया आन्दोलन:
इसी
की पृष्ठभूमि में सन् 1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन(AASU) के नेतृत्व
में असम में बांग्लादेशियों के विरोध में आन्दोलन
शुरू हुआ। इसी के परिणामस्वरूप सन् 1983 के चुनावों का
बहिष्कार किया गया और अंततः इसकी परिणति असम समझौते के रूप में हुई।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें असम गण परिषद् का जन्म हुआ और असम-समस्या की संभावना
को बल मिला। लेकिन, प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व वाली असम गण परिषद्(AGP) की सरकार ने
विकास एवं रोजगार जैसे जनता से जुड़े मुद्दों की उपेक्षा की जिसने अंततः असमी लोगों
को निराश किया और इसके परिणामस्वरूप असम
में एक बार फिर से काँग्रेस की वापसी का मार्ग प्रशस्त हुआ।
यह सच है कि प्रफुल्ल कुमार महंत के
नेतृत्व वाली सरकार असम समझौते को लागू करवा पाने में असफल रही, लेकिन इसका कारण
सरकार की असफलता की तुलना में IMDT अधिनियम,1983 की मौजूदगी और इसके कारण राज्य
सरकारों के बँधे हाथ रहे हैं। आगे चलकर सन् 2005 में इस बात को सुप्रीम कोर्ट
ने भी स्वीकार किया। सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि
IMDT अधिनियम ने सरकार के लिए असम में अवैध घुसपैठियों की पहचान के काम को अत्यंत
आसान बना दिया क्योंकि इसने बांग्लादेश से असम की ओर बड़े पैमाने पर सामूहिक अवैध
घुसपैठ प्रोत्साहित किया।
असम
आन्दोलन की प्रकृति में परिवर्तन:
असमिया लोग नहीं चाहते कि बांग्लाभाषी
वहाँ रहें। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि 1980
के दशक के आरम्भ में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध ऑल असम स्टूडेंट यूनियन(AASU)
के नेतृत्व में असमिया लोगों का शुरू हुआ आन्दोलन जल्द ही बांग्लाभाषियों के
विरुद्ध आन्दोलन में तब्दील हो गया। इसी प्रकार उल्फा का गठन भी बांग्लादेशी
घुसपैठियों के विरुद्ध ही हुआ था, पर आगे चलकर इसके निशाने पर गैर-असमिया आ गए और
इसने हिन्दी-भाषियों एवं बांग्लाभाषियों को अपने निशाने पर लेना शुरू किया ।
असम-समस्या
का साम्प्रदायीकरण:
लेकिन,
पिछले दशक के दौरान भाजपा ने पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी
मजबूत एवं प्रभावी उपस्थिति सुनिश्चित करने की दिशा में पहल की।
इसके लिए उसने असम के भाषाई विवाद का राजनीतिक लाभ उठाने की रणनीति अपनायी और भाषाई
विवाद को सांप्रदायिक एंगल देने का प्रयास किया, ताकि हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण हो
सके और उसे इसका लाभ मिल सके। इस
क्रम में पिछले कुछ समय से संगठित रूप से इस विवाद को सांप्रदायिक रूप देने की
कोशिश हो रही है। आज ऐसा करना आसान भी है क्योंकि:
1. यद्यपि
यहाँ आनेवाले बांग्लाभाषी घुसपैठिये हिन्दू एवं मुसलमान दोनों हैं, पर उनमें अधिकांश
घुसपैठिये मुसलमान हैं।
2. पिछले
कुछ समय से भाजपा एवं संघ इसे बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम पर इसे बांग्लाभाषी मुसलमानों
तक सीमित करना चाह रही है और इसकी आड़ में मतदाताओं के हिंदुत्व-आधारित ध्रुवीकरण
को साधने की कोशिश कर रही है।
लेकिन, उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट
है कि असम में विवाद हिंदू-मुसलमान के बजाय असमी और बांग्लाभाषी लोगों के
बीच है।
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