Friday 11 November 2016

विमौद्रीकरण-I: पांच सौ और हज़ार के नोटों की वापसी

        पांच सौ और हज़ार के नोटों का विमौद्रीकरण
पार्ट वन: विमौद्रीकरण की पृष्ठभूमि
पार्ट टू:   राजनीतिक सन्दर्भ
पार्ट थ्री:   प्रभाव और मूल्यांकन
          Part One: विमौद्रीकरण की पृष्ठभूमि 
भारत सरकार ने नौ नवम्बर से 500 रुपये की पुरानी करेंसी को वापस लेने और 1000 की करेंसी को बंद करने का निर्णय लिया है. ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार का यह निर्णय अत्यंत साहसिक है. सरकार के इस अभियान को कालाधन के खिलाफ चलने वाले अभियान से जोड़कर देखा जा रहा है. भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसने उच्च मूल्य वाली मुद्राओं को वापस लेने का निर्णय लिया. मई,2016 में पेरिस आतंकी हमले के बाद मनी लॉन्डरिंग और आतंकवाद के वित्तीयन को लेकर बढ़ती चिंताओं के मद्देनज़र यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने अप्रैल,2018 से 500 यूरो की करेंसी को वापस लेने का निर्णय लिया.
पृष्ठभूमि:
सरकार की इस पहल के पीछे भ्रष्टाचार, नकली मुद्रा के कारोबार, आतंकी गतिविधियों की फंडिंग, मादक पदार्थों एवं हथियारों की तस्करी और कालाधन के बीच विकसित हो चुके अंतर्संबंध को तोड़ने की इच्छाशक्ति मौजूद है. विश्व बैंक के आकलन के हिसाब से 2007 में भारत में समानांतर अर्थव्यवस्था का आकार भारतीय जीडीपी के 23.2% के आस-पास आँका गया. रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के मुताबिक वर्तमान में इसका आकार करीब-करीब 479 बिलियन अमेरिकी डॉलर के आस-पास होगा. अर्थशास्त्रियों के अनुसार भारत में सन् 2000 के आस-पास कालाधन जीडीपी के  40%  के स्तर पर था, जो सन् 2015 में घटकर सकल घरेलु उत्पाद(GDP) के लगभग 20% के स्तर पर पहुँच गया. 2015 में भारत का सकल घरेलु उत्पाद लगभग 150 लाख करोड़ था. इस हिसाब से 2015 में देश में 30 लाख करोड़ रूपये का कालाधन सृजित हुआ। कालेधन की इस भारी मात्रा और उच्च मूल्य वर्ग की मुद्राओं के व्यापक इस्तेमाल ने मुद्रास्फीतिक दबाव को बढ़ने का काम किया है.
सरकार का मानना है कि पांच सौ और हजार रुपए के 80% से अधिक नोट कालेधन के रूप में छिपाए गए हैं। लेकिन, अबतक कालेधन को बाहर लाने के लिए लाए गए स्कीमों के प्रति सरकार को जैसी प्रतिक्रिया की उम्मीद थी, वैसी प्रतिक्रिया नहीं मिली। इसी आलोक में सरकार ने 500  रूपये और 1000 रुपये के नोट को बंद करने का निर्णय लिया जो कोई मामूली फैसला नहीं है। सरकार की तरफ से कहा गया है कि इससे काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था खत्म होगी।
कालाधन के अलावा आर्थिक एवं आतंरिक सुरक्षा से सम्बद्ध चुनौतियों ने भी सरकार को इस दिशा में पहल के लिए विवश किया. बांग्लादेश और नेपाल के रास्ते पकिस्तान और उसकी ख़ुफ़िया संस्था आईएसआई द्वारा भारत में भेजे जाने वाले नकली नोटों ने न केवल भारत की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न किया, वरन् हथियारों एवं मादक पदार्थों की तस्करी के साथ मिलकर इसने आतंकी गतिविधियों के लिए फंडिंग को आसान बनाते हुए भारत की आतंरिक सुरक्षा के समक्ष मौजूद चुनौतियों को गहराने का काम भी किया. इस काम में फर्जी निर्यातों और इस सन्दर्भ में की जाने वाली ओवर-व्यासिंग (Over Voicing) ने भी कहीं कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभायी. इन चुनौतियों से उबार पाने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा था. इसके अलावा भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की स्थितियों और राजनीतिक परिस्थितियों ने भी इस पहल की पृष्ठभूमि  तैयार की.
1978 की पहल से तुलना:
यह पहली बार नहीं है जब भारत की अर्थव्यवस्था में प्रचलित नोटों को वापस लेने का फैसला हुआ है. जनवरी 1946 में भी 1,000 और 10,000 के नोटों को अवैध घोषित किया गया था. उसके बाद 1978 में मोरारजी देसाई की सरकार में भी 1000, 5000 और 10,000 के नोटों को 16 जनवरी की मध्यरात्रि से रद्द करने का निर्णय लिया था. उस समय भी वह कदम काले धन और इसकी वजह से चल रही समानांतर अर्थव्यवस्था को रोकने के लिए उठाया गया था। उन दिनों 1000 रुपए बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. आम लोग तो कई बार इस नोट की शक्ल ही नहीं देख पाते थे. इसलिए देसाई सरकार के इस कदम से आम आदमी को परेशानी नहीं हुई. उस समय न तो भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार इतना बड़ा था और न ही कालेधन की ही इतनी पहुँच थी. इसलिये उस समय विमौद्रीकरण ने ऐसी अफरा-तफरी के माहौल को नहीं सृजित किया था. 
1978 में जिन करेंसियों को वापस लिया गया, उनकी प्रचलित करेंसी में हिस्सेदारी महज 2% के स्तर  पर थी, जबकि आज देश में कुल 17 लाख करोड़ की करेंसी में 8.2 लाख करोड़ (500 के नोट) और 6.7 लाख करोड़ (1000 के नोट) पूरी करेंसी का 86 फीसदी हैं, जो अब प्रचलन से बाहर हो गए हैं. उस समय इन परेशानियों से धनी एवं समृद्ध लोगों को जूझना पड़ा था,  किन्तु आज इसका असर धनी एवं समृद्ध लोगों की तुलना में मध्य वर्ग एवं व्यापारी वर्ग पर अधिक है। साथ ही, इसके कारण आम लोगों को भी परेशानी उठाना पड़ रही है।  दूसरी बात यह कि पिछली बार उच्च मूल्य वर्ग की करेंसी को वापस तो लिया गया था, पर उच्च मूल्य वर्ग की नई करेंसी नहीं जारी की गई। इस बार न केवल उस मूल्य वर्ग की नई करेंसी जारी की जा रही है, वरन् 2009 रूपए के मूल्य वर्ग की नई करेंसी भी जारी की जा रही है। इसलिए 1978 के प्रयोग की असफलता के आलोक में कहा जा सकता है कि विमौद्रीकरण के इस प्रयास को कालेधन के संदर्भ में अपेक्षित सफलता मिल पाएगी, इसमें संदेह है।
अबतक होने वाली पहलों की ही अगली कड़ी:
ऐसा नहीं कि इस दिशा में पहल एक झटके में अचानक की गयी. इसके लिए पहले से ही प्रयास हो रहे थे. यह उन्हीं प्रयासों की अगली कड़ी है. सबसे पहले मई,2014 में कालेधन के खिलाफ अभियान के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आलोक में विशेष जांच दल (SIT) का गठन पहला महत्वपूर्ण कदम था. फिर देश के बाहर पड़े कालेधन को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में वापस लाने के लिए कालाधन (अघोषित विदेशी आय एवं परिसंपत्ति) एवं करारोपण अधिनियम,2015 लाया गया. इसके जरिये जुलाई-सितम्बर, 2015 के दौरान कोई भी व्यक्ति साठ प्रतिशत की दर से कर चुकाकर विदेशों में विद्यमान कालेधन और काली कमाई से अर्जित परिसंपत्ति की घोषणा कर सकता था. फिर पनामा पेपर लीक के आलोक में सरकार के द्वारा मल्टी-एजेंसी ग्रुप (MAG) का गठन किया गया. जुलाई, 2015 में बेनामी संपत्ति के लेन-देन को प्रतिबंधित करने की दिशा में वैधानिक पहल की गयी जिसका उद्देश्य बेनामी संपत्ति की ज़ब्ती और इसमें शामिल लोगों को दण्डित करने के लिए अधिकृत करना था. इसी आलोक में भारत ने अमेरिका सहित कई देशों के साथ बैंकिंग सूचनाओं के आदान-प्रदान से सम्बंधित समझौतों को संपन्न किया. 
इस क्रम में मॉरिशस और सायप्रस सहित अन्य देशों के साथ दोहरे करारोपण से परिहार समझौते (DTAA) की समीक्षा और पी-नोट्स की व्यवस्था की समीक्षा करते हुए वहां पर भी केवाईसी (Know Your Client) नॉर्म्स को लागू करने की दिशा में भी पहल की गयी. सूचनाओं के स्वतः आदान-प्रदान से सम्बंधित बहुपक्षीय सक्षम प्राधिकारी समझौते (Multilateral Competent Authority Agreement) में शामिल होते हुए  भारत ने कर-वंचना की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने और कालाधन पर अंकुश लगाने के होनेवाले वैश्विक प्रयासों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की. ऐसा ही एक समझौता स्विट्ज़रलैंड  के साथ भी किया गया ताकि वहां के बैंकों में विद्यमान भारतीयों खातों से सम्बंधित सूचनाओं को हासिल किया जा सके. इसी आलोक में विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA) में संशोधन करते हुए फेमा के उल्लंघन के ज़रिये विदेशों में संपत्ति बनाने वाले के खिलाफ सख्त कार्यवाही हेतु विदेशों में मौजूद गैर-कानूनी अचल संपत्ति एवं विदेशी मुद्रा को ज़ब्त करने के प्रावधान किये गए. इसी प्रकार मनी-लॉन्डरिंग अधिनियम में संशोधन करते हुए उन लोगों के हितों को संरक्षित करने का प्रयास किया गया जिनके हितों को हवाला के कारण नुकसान पहुंचता है. इस संशोधन के जरिये यह प्रावधान किया गया कि विशेष अदालत के आदेश पर ज़ब्त संपत्ति को उसके कानूनी दावेदारों को सौंपा जाएगा. जून,2016 में आय घोषणा स्कीम (IDS) के तहत देश के भीतर मौजूद कालेधन को बाहर निकालने के प्रयास किये गए. इस क्रम में लगभग 1.25 लाख करोड़ के कालेधन की घोषणा की गयी.

भारतीय वित्तीय संरचना में संक्रमण:
वित्तीय समावेशन के मद्देनज़र प्रधानमंत्री जन-धन स्कीम के तहत करीब-करीब साढ़े पच्चीस करोड़ लोगों को बैंकों से जोड़ने की कोशिश की गयी और फिर उनके बैंक खातों को आधार से सम्बद्ध किया गया. इसी आलोक में जनधन-आधार-मोबाइल ट्रिनिटी की दिशा में पहल करते हुए सब्सिडी, पेंशन, स्कालरशिप, बीमा एवं मुआवजे के सन्दर्भ में प्रत्यक्ष नकदी अंतरण (DBT) के जरिये पारदर्शिता को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया ताकि लीकेज, भ्रष्टाचार और कालेधन के सृजन पर अंकुश लगाया जा सके. इसी क्रम में यूनिफाइड पेमेंट इंटरफ़ेस के जरिये एम-भुगतान और एम-ट्रान्सफर की दिशा में पहल की गयी. ध्यातव्य है कि 2012-16 के दौरान बैंकों के ज़रिये ई-भुगतान में तीन गुनी वृद्धि हुई, जबकि एम-बैंकिंग लेन-देन में सात गुनी वृद्धि, जो भारतीय वित्तीय व्यवस्था में निकट भविष्य में होने वाले उन संरचनात्मक बदलावों की ओर संकेत करते हैं जिनके ज़रिये भारतीय अर्थव्यवस्था को नकदी-रहित अर्थव्यवस्था का रूप देते हुए एक ओर कर-वंचना की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जा सकेगा, दूसरी ओर कालेधन की भूमिका को भी सीमित किया जा सकेगा है.




            Part Two: राजनीतिक निहितार्थ
राजनीतिक पृष्ठभूमि: सरकार की नकारात्मक होती छवि
पिछले कुछ समय से समाजवादी पार्टी में जो प्रायोजित राजनीतिक नाटक चला, इस नाटक के ज़रिये उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश की छवि को जिस तरीके से चमकाने की कोशिश मुलायम सिंह के द्वारा की गयी और इसने अखिलेश के प्रति जिस सहानुभूति को जन्म देते हुए जाति एवं धर्म से पड़े हटकर उनके प्रति युवा वर्ग के रुझानों को सुनिश्चित किया, उसने निश्चय ही उत्तर प्रदेश में भाजपा की राजनीतिक संभावनाओं को प्रतिकूलतः प्रभावित किया.
सपा-परिवार के इस नाटक के अलावा पिछले कुछ दिन सत्तारूढ़ दल के अच्छे नहीं रहे. पहले सर्जिकल स्ट्राइक और फिर भोपाल एनकाउंटर के ज़रिये जो अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने का प्रयास किया गया, उन प्रयासों पर सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर उत्पन्न राजनीतिक विवादों और सीमावर्ती इलाकों में सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों की बढ़ती हुई कैजुअलिटी ने बहुत हद तक पानी फेरने का काम किया. रहा-सहा काम रिटायर्ड सैनिक राम कृष्ण ग्रेवाल के द्वारा ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के मसले पर की गयी आत्महत्या और इस प्रश्न के राजनीतिकरण ने पूरा कर दिया. इस क्रम में जिस तरीके से राहुल गाँधी एवं अरविन्द केजरीवाल सहित विरोधी दल के नेताओं को ग्रेवाल के परिजनों से मिलने से रोका गया, ग्रेवाल के परिजनों के साथ इस क्रम में पुलिस के द्वारा जो बदसलूकी की गयी, जेएनयू के लापता छात्र नजीब के मसले पर जेएनयू के वाईस चांसलर एवं दिल्ली पुलिस का जो रवैया रहा, लापता छात्र की मान और बहन के साथ जो बदसलूकी की गयी तथा भोपाल एनकाउंटर के राजनीतिकरण एवं इससे जुड़े जो विवाद उठ खड़े हुए, निश्चय ही इसने सत्तारूढ़ दल भाजपा को बैकफुट पर धकेला. इसी क्रम में NDTV बैन को लेकर उत्पन्न विवादों और इसके कारण होने वाली फ़ज़ीहत से बचने के लिए अंतिम समय में सरकार द्वारा इस बैन पर अस्थायी रोक ने जहाँ विरोधियों के हौसले को बुलंद किया, वहीं सरकार की एक नकारात्मक छवि भी बनी और सरकार के समर्थकों का मनोबल भी गिरा. स्पष्ट है कि इन राजनीतिक घटनाक्रमों ने भाजपा को नयी रणनीति के जरिये नयी ज़मीन तलाशने को विवश किया.
सरकार और प्रधानमंत्री की छवि को दुरुस्त करने का प्रयास:
सरकार के इस कदम का उद्देश्य सरकार की बन रही नकारात्मक छवि को दुरुस्त करना भी है. इस छवि को दुरुस्त करना दो कारणों से आवश्यक हो गया है: एक तो 2017 के आरम्भ में पांच राज्यों में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दल की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, दूसरे अपना आधा कार्यकाल पूरा कर चुकने के पश्चात् अब सरकार के पास काम करने के लिए केवल डेढ़ साल शेष रह गए हैं. बाद के एक साल तो फिर चुनावी मोड में ही निकल जायेंगे. ऐसी स्थिति में सरकार के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव हेतु खुद को तैयार करने का समय आ चुका है. इस नज़रिए से उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं पंजाब सहित पांच राज्यों में चुनाव सतारूढ़ दल और उसके नेतृत्व के लिए अपनी विश्वसनीयता और अपनी जीत सकने की क्षमता के प्रदर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और उनके नेतृत्व क्कौशल का प्रदर्शन भी. इसलिए भी कि इन चुनावों में भाजपा को या तो क्षेत्रीय दलों का सामना करना है या फिर खुद सत्तारूढ़ होने के कारण उसके सामने एंटी-इनकमबेंसी की चुनौतियाँ मौजूद हैं.
शायद यही कारण है कि विमौद्रीकरण के इस पूरे प्रकरण में प्रधानमंत्री मोदी ने आरबीआई के गवर्नर या वित्त मंत्री की बजाय खुद को आगे रखकर मतदाताओं के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा में पहल की.  उनके इस कदम ने एक ओर मीडिया को व्यापक कवरेज के लिए विवश किया, दूसरी ओर उनकी छवि को चमकाते हुए इस बात का भी संकेत दिया कि आनेवाले समय में भाजपा उत्तर प्रदेश का चुनाव भी प्रधानमंत्री मोदी की इमेज को आगे करके लड़ेगी. शायद यही कारण है कि भाजपा ने अबतक उत्तर प्रदेश के लिए अपनी ओर से किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया है.
उनके इस कदम की तुलना 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा राजनीतिक दलों की कॉर्पोरेट फंडिंग पर रोक से की जा रही है. ध्यातव्य है कि 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक दलों के लिए कॉर्पोरेट फंडिंग पर रोक लगाया था. इसके कारण उन्हें भी परेशानी हो सकती थी, पर उन्हें विश्वास था कि वे अन्य स्रोतों से अपने लिए फंडों की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकेगी और उन्होंने किया भी. इस सन्दर्भ में देखा जाय, तो या तो भाजपा ने पहले तैयारी कर ली है, या फिर उसे विश्वास है कि वह आगामी विधानसभा चुनाव के लिए संसाधनों का प्रबंधन कर लेगी. भाजपा के पास विविध स्रोतों से फण्ड आते हैं. साथ ही, कॉर्पोरेट जगत से नजदीकी सम्बन्ध के कारण वह इसमें कहीं अधिक सक्षम है. भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दल स्थानीय स्तर पर मिलने वाले चंदों पर उस तरह निर्भर नहीं है जिस तरह सपा और बसपा. लेकिन, सत्तारूढ़ दल का यह कदम उसके लिए भारी भी पड़ सकता है.



उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों के चुनावों पर इसका असर:
स्पष्ट है कि भाजपा ने अपने इस निर्णय के ज़रिये उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में अपने राजनीतिक विरोधियों को बैकफुट पर धकेला है. कम-से-कम अभी तो ऐसा ही लग रहा है. उसने इस कदम के ज़रिये अपनी गिरती छवि को भी सँभालने की कोशिश की है, और अपने विरोधियों, विशेष रूप से मायावती के नेतृत्व वाली बसपा को ऐसा झटका दिया है जिससे सँभालने में उसे वक़्त लगेगा क्योंकि ऐसा मन जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और पंजाब में धनबल महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभाने जा रहे हैं. अब बदली हुई परिस्थितियों में उन्हें नयी रणनीति अपनानी होगी जिसमें सत्ता में होने के कारण सपा को तो विशेष दिक्कत नहीं आयेगी, पर बसपा के लिए मुश्किलें बढेंगी जिसे राजनीतिक विश्लेषकों के द्वारा ‘अंडरडॉग’ के रूप में देखा जा रहा है.
प्रधानमंत्री के द्वारा की गयी इस पहल का आगामी चुनावों में भाजपा की राजनीतिक संभावनाओं पर कितना असर पडेगा, इस सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से अभी कुछ कहना खतरे से खाली नहीं है. यह दो बातों पर निर्भर करता है:
1.  इसके लिए केंद्र सरकार की तैयारी कैसी है और वह अपनी रणनीति को ज़मीनी धरातल पर उतरने में कहाँ तक सफल रहती है?
2.  इस कदम के कारण भाजपा आम लोगों को कहाँ तक अपनी तरफ खींच पाती है?
अगर केंद्र सरकार इस कदम के कारण जनता को होने वाली परेशानियों को अपने बेहतर प्रबंधन-कौशल के ज़रिये कम करने में सफल रहती है और जल्द-से-जल्द आम जन-जीवन में स्वाभाविक स्थिति को बहाल करने में सफल रहती है, तो आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को इस कदम का राजनीतिक लाभ मिले, इसकी पूरी सम्भावना है. लेकिन, यदि वह इसमें असफल रहती है और विमौद्रीकरण के कारण उत्पन्न अव्यवस्था लम्बी खिंचती है, तो उसके राजनीतिक विरोधी इसका हर संभव लाभ उठाने से परहेज़ नहीं करेंगे और ऐसी स्थिति में उसकी परेशानियाँ बढेंगी. दूसरी बात यह कि सरकार के इस कदम से सबसे ज़्यादा प्रभावित वे मँझोले एवं छोटे व्यापारी तथा उभरते मध्य वर्ग के लोग होंगे जो भाजपा के वोटबैंक हैं और जिनकी नाराज़गी प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में भाजपा को भारी पड़ सकती है। ऐसा लगता है कि भाजपा ने इस सन्दर्भ में जोखिम कवर करते हुए आमलोगों के ज़रिए इस घाटे की भरपाई करने की रणनीति तैयार की है।
लेकिन, अगर इसके कारण उत्पन्न परेशानियाँ लंबी खिंचती हैं, तो सारा गणित बिगड़ सकता है और मध्य वर्ग एवं शहरी ग़रीब की नाराज़गी के रूप में भाजपा को इसकी क़ीमत चुकाना पड़ सकती है। तीसरी बात, इस बात की सम्भावना ज्यादा है कि आगामी चुनावों में धर्म एवं राजनीति के साथ-साथ अन्य समीकरण चुनाव-परिणामों को निर्धारित करने में कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं, ऐसी स्थिति में इस कदम के सफल होने की स्थिति में भी भाजपा के लिए राजनीतिक लाभ की संभावना सीमित होगी.
चुनावों में धन-बल की भूमिका पर असर:
काला धन ख़त्म होने का सबसे बड़ा इंडिकेटर यानी सूचक चुनाव है. राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में प्राप्त होने वाली बीस हज़ार से कम की राशि के स्रोतों की जानकारी नहीं देनी पड़ती है. इसलिए चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत हलफनामे में राजनीतिक दल अपने अस्सी फीसदी चंदे बीस हज़ार से कम की राशि में प्राप्त किया जाना दर्शाते हैं.
ध्यातव्य है कि 2012 में पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान बारह करोड़ की नक़दी ज़ब्त की गई थी, जबकि उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान 37.46 करोड़ की। 2012 में अकेले उत्तर प्रदेश से पाँच चुनाव वाले राज्यों से ज़ब्त कुल नक़दी का 72% ज़ब्त किया गया। इसी आलोक में निर्वाचन आयोग ने चुनाव के दौरान इधर-से-उधर होने वाले पैसों पर रोक लगाने के लिए ढाई लाख की सीमा निर्धारित की जिसका असर तमिलनाडु चुनाव के समय दिखा. लेकिन, यह काफी नहीं था. बाद में गुजरात-चुनाव के दौरान दायर जनहित याचिका में इस सीमा को चुनौती दी गयी. वर्तमान में हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ चुनाव आयोग की अपील सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अगर राजनीति से पैसे का यह खेल खत्म हो जाए, तो स्वाभाविक रूप से राजनीतिक ढांचा भी बदल जाएगा। इस सन्दर्भ में जगदीप छोकर ने  हाईकोर्ट में राजनीतिक दलों को यह निर्देश देने के लिए याचिका डाली है  कि राजनीतिक दल चुनाव की तारिख से एक साल पहले तक के आय-व्यय का ब्यौरा प्रस्तुत करें क्योंकि चुनावी खर्च का बड़ा हिस्सा आचार-संहिता के लागू होने से बहुत पहले ख़र्च होने लगता है.

इसी पृष्ठभूमि में यह उम्मीद की जा रही है कि केन्द्र सरकार की इस पहल और इस पहल की टाइमिंग से चुनावों में धनबल की भूमिका पर अंकुश हेतु चुनाव आयोग द्वारा की गई पहल को गति मिल सकती है क्योंकि पाँच सौ- हज़ार के नोट की वापसी नकदी की उपलब्धता को प्रभावित करेगी और इस स्थिति में चुनाव की पूर्व संध्या पर नकदी का वितरण प्रभावित होगा. साथ ही, स्थानीय एवं क्षेत्रीय दलों के लिए फंडिंग करने वाले छोटे उद्यमी एवं बिल्डर्स के सामने भी मुश्किलें खड़ी हो गयी हैं. इस बात की सम्भावना है कि अब वे नकद के रूप में फण्ड उपलब्ध कराने की बजाय पार्टी की ओर से भुगतान करना शुरू करें. इसी प्रकार अब राजनीति दल भी मतदाताओं को नकदी उपलब्ध करने की बजाय सामान और सेवाएं उपलब्ध करने की दिशा में पहल करें.
अब आवश्यकता इस बात की है कि चुनावों में धन बल की भूमिका पर अंकुश लगाने और कालेधन की भूमिका को सीमित करने के लिए केंद्रीय सूचना आयुक्त के फ़ैसले के अनुरूप राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाया जाय. है.
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