लैंड लीजिंग पर नीति आयोग की रिपोर्ट
पृष्ठभूमि:
भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया जिस तरह से विवादास्पद होने के
कारण जटिल एवं विलंबनकारी होती जा रही है, वह इसके अन्य विकल्पों की तलाश की आवश्यकता की ओर इशारा कर रही है, ताकि भूमि-संबंधी ज़रूरतें
भी पूरी हो जायें और ज़मीन के मालिकों की चिंताओं का समाधान भी मिल सके। साथ ही, किसानों की बढ़ती आत्महत्या ने विशेष रूप से बँटाईदारी सुधार की
आवश्यकता का अहसास भी कराया जिसका
सम्बन्ध कृषि क्षेत्र की उत्पादकता और लाभदायकता के साथ-साथ समावेशन एवं
गरीबी-उन्मूलन से जाकर जुड़ता है. साथ ही, कॉर्पोरेट फार्मिंग और कॉन्ट्रैक्ट
फार्मिंग की दिशा में पहल ने भी लैंड लीजिंग से सम्बंधित प्रावधानों में बदलाव की
आवश्यकता को जन्म दिया.
लैंड लीजिंग पर
विशेषज्ञ पैनल का गठन:
इसी आलोक में
नीति आयोग ने टी. हक़ की अध्यक्षता में लैंड लीजिंग पर एक ग्यारह सदस्यीय विशेषज्ञ
पैनल का गठन किया। इस पैनल को विद्यमान कृषि काश्तकारी अधिनियम की समीक्षा करते हुए लैंड लीजिंग की
प्रक्रिया को उदारीकृत और वैधानिक स्वरूप प्रदान करने के लिए अपेक्षित सुझाव देने
थे। सितम्बर,2015 में गठित इस समिति को कृषि-दक्षता,
साम्यता, पेशागत विविधता और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तीव्र रूपांतरण के प्रश्न पर
भी विचार और उपयुक्त सुझाव के लिए अधिकृत किया गया. साथ ही, एग्रीकल्चरल लैंड लीजिंग अधिनियम तैयार करने की ज़िम्मेवारी भी सौंपी गई। इस पैनल ने मार्च, 2016 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। विशेषज्ञ पैनल का यह मानना है कि चूँकि लैंड लीजिंग पर
आरोपित वैधानिक प्रतिबंधों के कारण कृषि दक्षता पर प्रतिकूल असर पड़ा है, इसीलिए
लैंड लीजिंग की प्रक्रिया को वैधानिक स्वरुप प्रदान करते हुए इसके उदारीकरण की
अविलम्ब अरूरत है. चीन से लेकर विएतनाम तक समाजवादी देशों ने लैंड लीजिंग की
प्रक्रिया को उदारीकृत करते हुए आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ साम्यता के मोर्चे पर
महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है. नीति आयोग के चेयरमैन अरविन्द पनगारिया ने ज़मीन के गैर-कृषि, विशेषकर औद्योगिक
इस्तेमाल के लिए भविष्य में इसी तरह के लैंड लीजिंग एक्ट का संकेत दिया और राज्य
सरकार से इस दिशा में पहल की अपेक्षा भी व्यक्त की.
विशेषज्ञ पैनल के पर्यवेक्षण:
वर्तमान में भारत में ज़मीनों की लेन-देन को पंजीकरण
अधिनियम,1908 के अंतर्गत मान्यता दी जाती है. लेकिन, यह अधिनियम केवल ज़मीन की
खरीद-बिक्री को रिकॉर्ड करता है, न कि मालिकाना का संकेत देता है. साथ ही, लैंड लीजिंग क़ानूनों के संदर्भ में राज्यों के स्तर पर भिन्नता दिखाई पड़ती है। साथ ही, अधिकांश राज्यों ने एग्रीकल्चरल लैंड लीजिंग को या तो पूरी तरह
से रोक लगा रखी है या फिर उस पर विभिन्न प्रतिबंध
आरोपित कर रखे हैं. कुछ राज्यों में लीजिंग
अवैध है और लीजिंग की स्थिति में ज़मीन के मालिक अपना मालिकाना हक खो देंगे. कुछ
राज्यों में एक साल की बँटाईदरी के बाद सरकार ज़मीन का मालिकाना हक बँटाईदार को
सौंप देती है. इसके कारण ज़मीन के मालिक लीजिंग से परहेज़ करते हैं.
अबतक के लैंड लीजिंग लॉ ने भारत के विभिन्न
हिस्सों में अनौपचारिक बँटाईदारी को प्रोत्साहन दिया है. ऐसा माना जाता है कि अनौपचारिक
काश्तकार सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं क्योंकि उन्हें यह पता नहीं होता है कि जिस
ज़मीन पर वे खेती कर रहे हैं, वो ज़मीन कबतक उनके पास रहेगी. ज़मीन के मालिक भी
मालिकाना हक छिनने की आशंका में बँटाईदारों को किसी ज़मीन पर लम्बे समय तक टिकने नहीं
देते हैं. उन्हें इस बात का डर होता है कि राज्य के कानूनों का हवाला देकर कहीं
लम्बे समय तक ज़मीन के किसी टुकड़े पर नियंत्रण को आधार बनाकर वे उसपर मालिकाना हक
का दावा न कर दें. यह उत्पादकता में वृद्धि हेतु काश्तकार द्वारा किए जाने वाली
निवेश-संभावनाओं को हतोत्साहित करता है जिसका उत्पादन और उत्पादकता से लेकर
काश्तकारों की आय एवं उनके संरक्षण तक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.
अबतक लैंड
लीजिंग हेतु सुविधा-प्रदायन करनेवाले मज़बूत संस्थागत फ्रेमवर्क की अनुपस्थिति को
कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के रास्ते में एक बड़े अवरोध के रूप में देखा जा रहा
था. इस स्थिति में कृषि-समर्थन सेवाओं का लाभ उन लोगों को नहीं मिल पा रहा है जो
वास्तव में खेती करते हैं. इसकी तुलना में इसका लाभ मुख्यतः ज़मीन के मालिकों को
कहीं अधिक मिल रहां है. इसने कृषि लोन में डिफ़ॉल्ट की स्थिति को भी जन्म दिया है
और इसकी परिणति किसानों की बढती हुई आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है.
स्पष्ट है कि प्रतिबंधित लैंड
लीजिंग अनौपचारिक बँटाईदारी को प्रोत्साहन देने के कारण गरीब-विरोधी साबित हुई है.
इसके कारण न केवल संस्थागत साख, बीमा सुविधा. आपदा राहत और अन्य समर्थन सुविधाओं
तक पहुँच बाधित हुई है और सरकार द्वारा प्रदत्त संरक्षण-सुविधाओं से उन्हें वंचित
होना पड़ा है, वरन जो लोग कृषि क्षेत्र से बाहर अपेक्षाकृत अधिक उत्पादक
रोजगार-संभावनाओं की पड़ताल कर रहे हैं, मालिकाना हक की चिंताओं के कारण अपने ज़मीन
से चिपके रहते हैं जिससे उनकी पेशागत-गतिशीलता प्रभावित हुई है. इसने ज़मीन के न्यून
उपयोग की सम्भव बनाया और इसने कृषि-उत्पादकता भी प्रतिकूलतः प्रभावित हुई है.
यहाँ पर इस बात
को ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि वर्तमान में बँटाई पर खेती करने वाले किसानों
में 36%
भूमिहीन हैं, जबकि 56% सीमांत किसानों की
श्रेणी में आते हैं जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। वर्तमान में 64% ग्रामीण श्रमशक्ति कृषि पर निर्भर है।
अधिकांश ग्रामीण आबादी की कृषि पर निर्भरता, जिसे बनाये रखने में वर्तमान लैंड
लीजिंग कानून सहायक है, ही जोत के छोटे आकार और परिमाणत: निम्न प्रति
व्यक्ति कृषि-आय के लिए ज़िम्मेवार है। इसके कारण समावेशन की
प्रक्रिया भी बाधित हो रही है.
मॉडल अधिनियम की विशेषताएँ:
1.
कृष्य भूमि की लीजिंग को अनुमति:
a. मॉडल अधिनियम कृष्य भूमि की लीजिंग को
वैधानिक अनुमति प्रदान करता हुआ न केवल ज़मीन के मालिकों की मालिकाना हक संबंधी चिंताओं
को दूर करता है, बल्कि लीज़ पीरियड के दौरान बँटाईदारों के अधिकारों को भी संरक्षण प्रदान करता है।
b. इसके अनुसार लीजिंग की शर्तों का निर्धारण दोनों पक्षों द्वारा आपसी सहमति से किया जाएगा।
2. लीजिंग समझौते
का स्वरुप एवं दायरा:
a. लीजिंग समझौते में लीज़ पर ली जाने वाली भूमि
का रकबा(area),
लोकेशन, लीज़ की अवधि, लीज़ की राशि,
देय तिथि और
लीज़ के पुनर्नवीकरण की शर्तों का उल्लेख होगा।
b. लीज एग्रीमेंट पंजीकृत भी हो सकता है और
अपंजीकृत भी।
c. यह ज़मीन के मालिकों को उनके मालिकाना हक़ की
गारंटी प्रदान करता है। इसका उल्लेख भूस्वामित्व अधिकारों से संबंधित किसी दस्तावेज़ में रिकार्ड नहीं
किया जाएगा।
d. यह काश्तकारों को किसी प्रकार का संरक्षित
काश्तकारी अधिकार नहीं प्रदान करता है।
3. क्रियान्वयन-मैकेनिज्म:
इसके अनुसार लीज एग्रीमेंट को लागू करने की
जिम्मेवारी तहसीलदार या फिर उसके समकक्ष रैंक के राजस्व अधिकारी पर होगी. उसी के
द्वारा लीज़ की शर्तों को लागू किया जाएगा और लीज़-अवधि समाप्त होने के बाद लीज्ड-ज़मीन
की वापसी के लिए सुनिश्चित की जायेगी. इस सन्दर्भ में वह सुविधा-प्रदायक की भूमिका
निभाएगा।
4. जमीन-मालिक के
अधिकार एवं दायित्व:
a. लीज की अवधि शुरू होने के साथ ज़मीन का मालिक
ज़मीन को इस्तेमाल के लिए बँटाईदार को सौंप देगा.
b. लीज-अवधि समाप्त होते ही उस ज़मीन पर उसके
वास्तविक भूस्वामी का मालिकाना हक स्वत: स्थापित होगा।
c. भूस्वामी लीज पर दी गई ज़मीन की बिक्री, गिरवी रखने और उपहार के रूप में देने के लिए
स्वतंत्र होगा,
लेकिन इस क्रम
में लीज-अवधि के दौरान काश्तकारों के अधिकार पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
d. भूस्वामी ज़मीन पर सभी करों और उपकरों के
भुगतान के लिए उत्तरदायी होगा।
5. काश्तकारों के
अधिकार और दायित्व:
a. काश्तकारों के पास लीज पर ली गई ज़मीन पर अबाधित अधिकार होगा और वह कृषि एवं सम्बद्ध
गतिविधियों के लिए इस ज़मीन के इस्तेमाल के लिए स्वतंत्र होगा।
b. मॉडल अधिनियम काश्तकार के रूप में लीज्ड अवधि
के लिए जमीन पर उनके अधिकार और उनकी पहचान को मान्यता प्रदान करता है. इससे अपेक्षित उत्पादों के एवज में उनके लिए बैंक क्रेडिट
और बैंक बीमा सुविधा की उपलब्धता संभव हो सकेगी.
c. लेकिन, उन्हें न तो लीज्ड जमीन की सब-लीजिंग की अनुमति होगी और न ही उन्हें गिरवी
रखने की।
d. यह लीज-अवधि समाप्त होने पर भूस्वामी से अपने निवेश के
अप्रयुक्त वैल्यू को वापस पाने के लिए काश्तकारों को अधिकृत करता है जिससे उन्हें
भूमि-सुधार में निवेश के लिए प्रोत्साहन मिलेगा.
e. वह लीज की शर्तों के अनुसार निर्धारित
समयावधि में ज़मीन भूस्वामी को लौटा सकेगा।
6. लीज की समाप्ति:
a. अगर तीन महीने के ग्रेस पीरियड के बावजूद
काश्तकार समय पर लीज की राशि का भुगतान कर पाने में असमर्थ रहता है या
b. अन्य उद्देश्यों से लीज की हुई भूमि के
इस्तेमाल,
सब-लीजिंग या
किसी भी तरह से ज़मीन को क्षतिग्रस्त किया जाता है,
तो लीज को रद्द (Terminate)
किया जा सकता
है।
7. विवाद-निपटारा:
a. यदि लीज को लेकर कोई भी विवाद उभरता है, तो तीसरे पक्ष या ग्राम पंचायत या ग्रामसभा
की मध्यस्थता से इसे सुलझाया जा सकता है।
b. यदि तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से विवाद नहीं
सुलझता है,
तो तहसीलदार या
उसके समकक्ष राजस्व अधिकारी के समक्ष दोनों में से किसी भी पक्ष के द्वारा अपील की
जा सकती है जो चार सप्ताह के भीतर विवाद का निपटारा करेगा।
c. ऐसे मामलों में ज़िला अधिकारी के समक्ष भी अपील की जा सकती है।
8. विशेष लैंड
ट्रिब्यूनल का गठन:
a. मॉडल ऐक्ट राज्य सरकार से अपेक्षा करता है कि
वह विशेष लैंड ट्रिब्युनल का गठन करे.
b. इस ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता उच्च न्यायालय के
रिटायर्ड न्यायाधीश या ज़िला न्यायालय के न्यायाधीश करेंगे.
c. ऐसे विवादों का अंतिम रूप से निपटारा इसी के
द्वारा किया जाएगा। इस संदर्भ में किसी भी सिविल कोर्ट की कोई अधिकारिता नहीं
होगी।
9. प्रभावकारिता:
a. यह मॉडल अधिनियम जिन दिन से प्रभावी होगा, उस दिन से यह उन सभी क़ानूनों का स्थान लेगा, जो इस संदर्भ में अबतक प्रभावी हैं।
b. यह पिछली तिथि से प्रभावी नहीं होगा।
c. लंबित मामलों की सुनवाई उसी क़ानून के अनुसार
होगी,
जिसके तहत्
उन्हें पंजीकृत किया गया है।
विश्लेषण:
मॉडल एक्ट लैंड लीज मार्केट के हस्तक्षेप-मुक्त
प्रकार्यण में बाधक विभिन्न राज्यों में विद्यमान ज़मीन के एडवर्स पोजीशन से
सम्बंधित प्रावधान को भी दूर करेगा. इसमें लीज अवधि की समाप्ति के बाद भूमि के
स्वतः पुनर्ग्रहण के प्रावधान के ज़रिये कुछ राज्यों में विद्यमान उस प्रावधान को
समाप्त करता है जो लीज की अवधि की समाप्ति के बाद भी बँटाईदार के पास न्यूनतम
मात्रा में भूमि छोड़े जाने का प्रावधान करता है. यह ज़मीन के मालिकाना हक या
अनिच्छा के बावजूद बँटाईदार के पास ज़मीन छोड़ने की मजबूरी या फिर ज़मीन पर बँटाईदार
के किसी अनुचित दावे से सम्बंधित आशंकाओं का निवारण करता हुआ ज़मीन के मालिकों को
आश्वस्त करता है. इसीलिए इसे व्यावहारिक रूप दिए जाने की स्थिति में बड़े भूस्वामी
मालिकाना हक की चिंता से मुक्त होकर अपनी ज़मीन लीज पर उपलब्ध करा सकेंगे और पेशागत
विविधता एवं तीव्र ग्रामीण रूपांतरण के
लिए आवश्यक उचित पूंजीगत एवं तकनीकी समर्थन के साथ गैर-कृषि उद्यमों में निवेश कर
सकेंगे. इससे कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों को स्वरोजगार या फिर मजदूरी पर आधारित
रोजगार (Wage Employment) की ओर प्रेरित किया जा सकेगा. अब अपेक्षाकृत अधिक
उत्पादक रोजगारों में उनकी भागीदारी संभव हो सकेगी. इससे कृषि पर जनसंख्या का दबाव
भी कम होगा और कृषि आय में वृद्धि भी संभव हो सकेगी. इस तरह यह पेशागत विविधीकरण और ग्रामीण संवृद्धि में भी सहायक होगा. इसी प्रकार कई छोटे और सीमान्त किसान भी अपनी आर्थिक
दृष्टि से अलाभकारी जोतों को लीज पर देकर खुद को अपेक्षाकृत अधिक उत्पादक
गतिविधियों से जोड़ना सकेंगे. प्रस्तावित मॉडल एक्ट उन्हें भी विकल्प उपलब्ध
करवाएगा.
इसके कारण लाखों हेक्टेयर की परती भूमि का
इस्तेमाल भी संभव हो सकेगा जिससे भूमिहीन एवं सीमान्त किसानों के लिए भूमि की
उपलब्धता बढ़ेगी और उनकी कृष्य-भूमि तक आसान पहुँच संभव हो सकेगी. साथ ही, चूँकि यह बँटाई पर खेती करने
वाले किसानों की पहचान को मान्यता प्रदान करता है, इसीलिए संस्थागत ऋणों, बीमा एवं
आपदा सहायता सहित अन्य समर्थन सुविधाओं तक
इनकी पहुँच संभव हो सकेगी। इससे बँटाईदारी के अनौपचारिक स्वरुप और इसके कारण उत्पन्न होनेवाली समस्याओं
से देश को निजात पाना भी संभव हो सकेगा.साथ ही, इससे बंटाईदारी पर निर्भर भूमिहीन एवं सीमान्त किसानों की एक बड़ी आबादी के लिए
जीविका का अपेक्षाकृत अधिक उत्पादक साधन उपलब्ध करवाना भी संभव हो सकेगा और उनके हितों
का बेहतर संरक्षण भी सुनिश्चित किया जा सकेगा. इससे बेहतर आय और अनुकूल निवेश
वातावरण के कारण निवेश में वृद्धि संभव हो सकेगी जो उत्पादकता में सुधार की ओर ले
जाएगा. यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रूपांतरण की प्रक्रिया को भी तेज़ करेगा. इससे
समावेशन की प्रक्रिया भी तेज हो सकेगी जो गरीबी-उन्मूलन की दृष्टि से प्रभावी
होगी. यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि भारत में गरीबी का एक
महत्वपूर्ण कारण कृषि पर जनसंख्या की अधिक निर्भरता और कृषि क्षेत्र की निम्न
उत्पादकता है.
इससे भूमि के विखंडन और छोटी जोतों की समस्या का
समाधान भी संभव हो सकेगा. यह वैकल्पिक तरीके से चकबंदी की अवरुद्ध प्रक्रिया को
आगे बढ़ने में सहायक होगा. साथ ही, चूँकि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को कई राज्यों में
अनुमति मिल चुकी है, इसीलिए बँटाईदार अनुबंध समझौते, विशेषकर विपणन, में शामिल
होकर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लाभों को उठा सकेंगे. इससे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और
कॉर्पोरेट फार्मिंग को भी गति मिलने की सम्भावना है. यह ज़मीन एवं श्रम के अधिकतम
उपयोग को संभव बनाएगा जिसकी इसकी परिणति कृषि-उत्पादकता में वृद्धि के रूप में
होगी.
मॉडल अधिनियम की सीमायें:
1. किसान और कृषक संगठन इस अधिनियम का विरोध करते हुए मांग
कर रहे हैं कि कॉर्पोरेट हाउस के लिए कृष्य-भूमि की लीजिंग को प्रतिबंधित किया
जाय. इसे हाउसहोल्ड के स्तर पर भूमिहीन किसानों, खेतिहर मजदूरों और बेरोजगार लोगों
इसके मद्देनज़र उनके द्वारा लीजिंग- सीमा के निर्धारण की भी मांग की जा रही है.
उनकी यह भी मांग है कि चारागाह को परती भूमि के नाम पर लीजिंग की अनुमति न मिले.
2. आशंका व्यक्त की जा रही है कि यह बड़े पैमाने पर कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट हाउस के प्रवेश को संभव
बनाएगा. अगर कॉर्पोरेट्स के द्वारा लीज पर ली गई भूमि का इस्तेमाल कृष्य-फसलों की
खेती के लिए किया जाता है, तो इसमें समस्या नहीं है क्योंकि यह कृषि क्षेत्र में
निवेश को बढ़ने वाला साबित होगा. लेकिन, यदि यह लाभ से प्रेरित है, तो यह देश में
खाद्य-सुरक्षा को प्रभावित करने वाला हो सकता है. दूसरी बात यह कि ये कॉर्पोरेट्स कृषक समुदाय को
प्रतिस्थापित करेंगे. साथ ही, समस्या किसानों के बिखराव को लेकर भी है जिसके कारण अनुबंध की शर्तें
इनके प्रतिकूल होंगी और इन्हें बहुत कुछ बंधुआ मजदूर की स्थिति में तब्दील कर
देंगी.
3. अगर इस मॉडल अधिनियम को इसी रूप में स्वीकार किया जाता
है, तो इससे खाद्यान्नों की खेती (Crop Cultivation) बागानी फसलों, पशुपालन और
डेयरी उद्योग के लिए कृष्य भूमि की लीजिंग को अनुमति मिलने के कारण खाद्यान्नों की
खेती से वाणिज्यिक उपयोग की ओर उनके डायवर्जन को बढ़ावा मिलेगा. इससे भूमि-उपयोग
पैटर्न में बदलाव के कारण खाद्यान्न-सुरक्षा
प्रतिकूलतः प्रभावित हो सकती है.
4. इसमें बँटाईदार
कृषक (lessee cultivator) की दी गई परिभाषा अस्पष्ट है. इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि वे कॉर्पोरेट और अनुपस्थित
भूस्वामी भी बँटाईदार कृषक की परिभाषा के दायरे में आयेंगे जो अपने कर्मचारियों या
प्रतिनिधियों के माध्यम से खेती का प्रबंधन करते हैं या फिर लीजिंग भूमिहीन श्रमिक
सहित किसानों और कृषक समूहों तक सीमित होगा.
5. इसके अलावा लीज की न्यूनतम या अधिकतम अवधि निर्धारण से
सरकार के इनकार और अनिश्चित अवधि के लिए लीज
अनुबंध की अनुमति देना भी चिंताजनक है. यह लीज पर ज़मीन देने वाले पर लम्बी
लीज अवधि के लिए दबाव बनाने वाला साबित होगा. साथ ही, ऐसी स्थिति में लीजकर्ता के
उत्तराधिकारी के लिए लीज पर ज़मीन लेने वाले प्रभावशाली लोगों से लीज्ड ज़मीन की
वापसी को मुश्किल बनाएगा.
6. मॉडल एक्ट लीज्ड ज़मीन की क्षतिग्रस्तता को अनुबंध रद्द
करने का प्रमुख आधार बतलाता है, परन्तु इसमें ‘मृदा-स्वास्थ्य
को होने वाली हानि’ (Damage to Soil Health) को स्पष्टतः परिभाषित नहीं किया गया है. इसीलिए यह आनेवाले समय में लीज में शामिल
दोनों पक्षों के बीच विवाद को जन्म देगा.
मॉडल अधिनियम लीजधारक को लीजकर्ता की अनुमति से लीज्ड जमीन
पर संरचना बनाने की अनुमति प्रदान करता है. यह बँटाईदार के लिए भूमि की उत्पादकता में
सुधार और निवेश बढाने हेतु प्रोत्साहन को कम करेगा तथा अन्य उद्देश्यों से लीज्ड भूमि के उपयोग को बढ़ावा मिलेगा.
7. मॉडल अधिनियम इस
शर्त के साथ स्वामित्व में परिवर्तन को अनुमति प्रदान करता है कि इस लीज्ड
अवधि के दौरान लीज्ड जमीन के उपयोग का अधिकार प्रभावित नहीं होगा. लेकिन, यह
प्रावधान भूस्वामी के साथ-साथ बँटाईदार किसानों
के हितों के विपरीत है क्योंकि एक बार गिफ्ट या बिक्री के कारन
भूस्वामित्व में परिवर्तन आता है, तो लीज समझौते को समाप्त किया जा सकता है, अगर
शेष अवधि के लिए नया भूस्वामी लीजिंग हेतु तैयार न हो.
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ReplyDeleteThank you Sir !
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