Wednesday 2 November 2016

भोपाल जेल-ब्रेक से एनकाउंटर तक:सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के आलोक में

               भोपाल जेल-ब्रेक से एनकाउंटर तक
                       पार्ट वन
भोपाल सेंट्रल जेल-ब्रेक और वहाँ बंद सिमी से सम्बद्ध आठ विचाराधीन कैदियों, जिन पर आतंकी गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप हैं, का निकल भागना तथा महज़ आठ घंटे के अन्दर उन आठों भागे हुए कैदियों का नाटकीय तरीके से एक ही स्थल पर मारा जाना एक ना सुलझने वाली रहस्यमय गुत्थी में तब्दील हो गया है. इस घटनाक्रम के ठीक बाद जो अपुष्ट विडियो सामने आये और जिस तरीके से पुलिस-प्रशासन से लेकर राज्य सर्कार के प्रतिनिधियों के विरोधाभासी बयान सामने आये, उसने इस मुठभेड़ की वास्तविकता को प्रश्न के घेड़े में लाकर खड़ा कर दिया. फिर, जिस तरीके से इस मसले का राजनीतिकरण हुआ, बची-खुची कसर इसने पूरी कर दी.
इस प्रकरण को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रुरत है:
1.     किन परिस्थितियों में ये आरोपी आठों कैदी, जो तीन भिन्न सेल में रह रहे थे, वे एक ही साथ और एक ही समय पर भागने में सफल रहे; तब जबकि भोपाल सेंट्रल जेल सबसे सुरक्षित जेलों में से एक माना जाता है? प्रश्न जेल की सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर भी उठता है.
2.     शहीद रमाशंकर यादव की ह्त्या का मसला अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और इसकी जितनी भी निंदा की जाय, वह कम है. हमें किसी भी अगर-मगर के बिना शहीद यादव और उनके परिवार के साथ खड़ा होना चाहिए और हम हैं. इस मसले पर मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं है.
3.     लेकिन, सवाल यह उठता है कि इस हत्या के लिए कौन जिम्मेवार है: जेल-प्रशासन और सरकार या फिर सिर्फ वे भागे हुए कैदी, जिन्होंने इनकी ह्त्या की? इस सन्दर्भ में सरकार और पुलिस-प्रशासन द्वारा दिया गया तर्क गले के नीचे नहीं उतरने वाला है.
4.     ये आठों भागे हुए कैदी संदेहास्पद चरित्र वाले हैं और ये कई घटनाओं में आरोपी हैं. इनका ट्रैक रिकॉर्ड भी साफ़-सुथरा नहीं है. ये सभी क़ैदी प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य थे. इनके ख़िलाफ़ अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग अदालतों में गंभीर मामले चल रहे थे. इससे पूर्व भी इनमें से तीन क़ैदी अक्टूबर,2013 में मध्यप्रदेश की खांडवा जेल से भी भाग चुके थे.
5.     लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम इन्हें आतंकी घोषित कर दें. ये आरोपी हैं और इन्हें इसी रूप में देखा एवं प्रस्तुत किया जाना चाहिए. न इससे कम और न ही इससे ज्यादा.
6.     अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि ये आतंकी हैं, तो इससे यह कहाँ साबित होता है कि इन्हें जान से मारने का अधिकार पुलिस और राज्य को मिल जाता है? अगर अपराधियों और अपराध से निबटने का यही तरीका है, तो फिर राज्य एवं असामाजिक आतंकी तत्वों में अंतर क्या रह जाएगा?
7.     क्या इस हत्या के आधार पर इन आठों आरोपियों के एनकाउंटर को जस्टिफाई किया जा सकता है? अगर हाँ, तो फिर सितम्बर,2014 में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश का क्या औचित्य है? विधि के शासन के क्या मायने रह जायेंगे?
8.     इसका मतलब यह नहीं कि इनके संदेहास्पद एनकाउंटर को लेकर प्रश्न नहीं किया जाय. भारत न तो पुलिस-स्टेट है और न ही सैनिक राज्य. इसे ऐसा बनाने की कोशिश भी नहीं कीजिये. फर्जी एनकाउंटरों को लेकर पहले भी प्रश्न उठते रहे हैं और आगे भी उठते रहेंगे. देशभक्ति और राष्ट्रवाद का मजाक न बनायें.
9.     अब तो आतंक-निरोधी दस्ता के प्रमुख ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि इन भागे हुए कैदियों के पास से कोई हथियार बरामद नहीं हुआ है. परिस्थितयां इस ओर इशारा कर रहीं हैं कि इन्हें जीवित गिरफ्तार किया जा सकता था.
10. जब वे चारों तरफ से घिर चुके थे और आत्म-समर्पण करना चाहते थे, तो फिर उन्हें आत्म-समर्पण का मौका क्यों नहीं दिया गया? क्यों उनका एनकाउंटर किया गया?
11. इन एनकाउंटरों पर प्रश्न उठाने वाले को ज़लील करना उतना ही निंदनीय है जितना निंदनीय है शहीद रामशंकर की हत्या और राज्य एवं पुलिस-जन्य आतंक.
अब इन्हीं प्रश्नों को सितम्बर,2014 में फर्जी मुठभेड़ों पर सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के आलोक में देखे जाने की ज़रुरत है.
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                  पार्ट टू: सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश

1980 के दशक में पंजाब से लेकर मुंबई, कश्मीर और मणिपुर तक फर्जी मुठभेड़ मामलों में न सिर्फ पुलिस की, बल्कि कई मामलों में तो पुलिस के साथ-साथ राज्य सरकारों की संलिप्तता भी सामने आई है. यह सचमुच बहुत ही चिंता का विषय है कि जिन पुलिसकर्मियों को कानून को कायम रखने वाला और आवाम की हिफाजत करने वाला माना जाता है, वे ही क़ानून अपने हाथ में लेने लगें और उनसे ही जनता में असुरक्षा का अहसास गहराने लगे. स्पष्ट है कि यह स्थानीय पुलिस को राजनीतिक नेतृत्व का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन है जिसने इस तरह की घटनाओं पर अंकुश नहीं लगने दिया है.
फर्जी मुठभेड़ों का एक महत्वपूर्ण कारण सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून(AFSPA) भी है, जिसके तहत सुरक्षा बलों को दंड-मुक्ति के आश्वासन के साथ किसी भी हद तक जाने की छूट हासिल है. उनके खिलाफ केंद्र की इजाजत के बगैर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। ऐसा माना जाता है कि  अफस्पा-प्रदत्त यह निरंकुशता भी कश्मीर और पूर्वोत्तर में फर्जी मुठभेड़ की घटनाओं की जड़ रही है।
मणिपुर के गुमशुदा लोगों के परिजनों के संगठन की फर्जी मुठभेड़ों से सम्बंधित शिकायत पर सर्वोच्च न्यायालय ने जिन चुनिन्दा छह मामलों की जांच के लिए न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में समिति गठित की, समिति ने उन सभी छह मुठभेड़ों को झूठा पाया। लेकिन, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ज़रिये राज्य सरकारें अक्सर फर्जी मुठभेड़ों की बात को झुठलाने की कोशिश करती हैं.
ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाते हुए दी गई बारम्बार चेतावनी के बावजूद न तो पुलिस की क्रियाप्रणाली में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन होता दिखाई पड़ रहा है और न ही  कार्यपालिका के रवैये में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन. पुलिस-सुधारों के प्रति राज्य की अनिच्छा इसी दिशा में संकेत करती है.

आत्मरक्षा का अधिकार और पुलिस एवं सैन्य-बल:
भारत का कानून आत्मरक्षा का अधिकार प्रदान करता है. यह अधिक्कर आम आदमी को भी है और पुलिस को भी। आम आदमी द्वारा आत्मरक्षा के क्रम में हत्या की स्थिति में अनिवार्यतः प्राथमिक सूचना रिपोर्ट (FIR) एफआईआर दर्ज किया जाता है. लेकिन, पुलिस के सन्दर्भ में हिन् स्थिति है. पुलिस यदि  आत्मरक्षा के क्रम में किसी को मारती है, तो उसे मुठभेड़ कहा जाता है और उस पर कोई एफआईआर दर्ज करने की जरूरत नहीं समझी जाती है। सामान्यतः इनकाउंटर के इन मामलों को धारा 307 के अंतर्गत मृत व्यक्ति के विरूद्ध हत्या के प्रयास का मामला बताकर मुठभेड़ को जरूरी बताते हुए फाइल को  बंद करदिया जाता है।
पुलिस के पास पहले से गिरफ्तार करने, हथियार रखने, जांच करने आदि के अधिकार हैं। पुलिस के इन अधिकारों में और किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्मरक्षा हेतु पुलिस के लिए आम आदमी की तुलना में विशेष अधिकारों की मांग उचित नहीं है क्योंकि यह उसे निरंकुशता की ओर ले जा सकता है। कुछ ऐसी ही स्थिति सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून(AFSPA) की भी है जो उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में तैनात सैन्य-बलों को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि यदि उन्हें अपने ऊपर हमले की आशंका है, तो वे महज इस आशंका के आधार पर उपद्रवी तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई कर सकते हैं. ऐसी स्थिति में होने वाली हत्याओं के लिए उन्हें दण्डित नहीं किया जाएगा. स्पष्ट है कि इसके तहत सुरक्षा बलों को दंड-मुक्ति के आश्वासन के साथ किसी भी हद तक जाने की छूट हासिल है. उनके खिलाफ केंद्र की इजाजत के बगैर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।
फर्जी मुठभेड़ों का बढ़ता हुआ सिलसिला:
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक साल 2002 से 2008 के बीच देश भर में फर्जी मुठभेड़ों की 440 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जबकि 2009-10 से फरवरी 2013 के बीच संदिग्ध फर्जी मुठभेड़ों के 555 मामले दर्ज किए गए. अदालतों की तमाम फटकार और दिशानिर्देशों के बाद भी देश में फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है. अकेले वर्ष 2013 में पुलिस फायरिंग की घटनाओं में करीब 103 नागरिक मारे गए तथा 213 घायल हुए.
फर्जी मुठभेड़ों को लेकर चिंतित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने समय-समय पर इसके बारे में दिशा-निर्देश जारी किए हैं। सबसे पहले 5 नवंबर 1996 को फर्जी मुठभेड़ों के सन्दर्भ में आंध्र प्रदेश सरकार के विरुद्ध की गई शिकायत पर उसने एक आदेश पारित किया था। शोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ मामले में गुजरात सरकार ने स्वयं माना कि उसकी हत्या नकली मुठभेड़ में की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस तरह की शिकायतों को गंभीरता से लेते हुए कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई। मुंबई में भी पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने पुलिस की कई मुठभेड़ों के फर्जी होने संबंध में उच्च न्यायालय में केस दाखिल किया था। इसमें यद्यपि कोर्ट ने उन मुठभेड़ों के फर्जी होने या नहीं होने पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया था, पर कुछ एनकाउंटरों के संबंध में पुलिस के लिए मार्ग निर्देश के मद्देनज़र एक कमेटी का गठन भी किया था। लेकिन, इतना सब कुछ होने के बाद भी अबतक फर्जी मुठभेड़ों के संबंध में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं थे.

फर्जी मुठभेड़ों पर दिशानिर्देश जारी करने हेतु याचिका:
गैर-सरकारी संगठन पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) और अन्य ने मुंबई हाईकोर्ट के फरवरी 1999 में दिए गए फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की थी. याचिका में मुंबई में 1995 से 1997 के दौरान 99 मुठभेड़ों में 135 लोगों के मारे जाने की घटनाओं का हवाला देते हुए अदालत से ऐसे मामलों के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने का अनुरोध किया गया था.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशानिर्देश:
इसी आलोक में सितंबर, 2014 में इस याचिका पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा और न्यायमूर्ति रोहिंटन नैरियन की एक खंडपीठ ने इस हकीकत को स्वीकार किया कि पुलिस को आतंकवादियों, जघन्य अपराधियों और संगठित अपराध के गिरोहों से मुकाबला करना पड़ता है और अपने लिए खतरा उठा कर इनके विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ती है। पर, इसे पुलिस कर्त्तव्य का हिस्सा मानते हुए उसने फर्जी मुठभेड़ों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस की. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय में ओम प्रकाश बनाम झारखंड वाद,2012 में दिए गए अपने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस अधिकारी सिर्फ इस आधार पर किसी की हत्या नहीं कर सकते कि वह एक दुर्दांत अपराधी है। अपराधियों को गिरफ्तार कर न्यायिक ट्रायल के लिए उन्हें सौंपा जाना पुलिस की जिम्मेवारी है। कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि नकली मुठभेड़ दिखाकर अपराधियों की हत्या करना राज्य-प्रायोजित आतंकवाद है।
इसी बाबत उसने फर्जी मुठभेड़ों पर लगाम लगाने के लिए कुल सोलह दिशानिर्देश तय किए हैं, जिनमें मामला दर्ज होने से लेकर जांच पूरी होने और दोषी के खिलाफ कार्रवाई की प्रक्रिया बताई गई है. यह पहला मौका है जब सर्वोच्च अदालत ने पुलिस-मुठभेड़ों की बाबत दिशा-निर्देश जारी करते हुए पुलिस को उन निर्देशों के अनिवार्यतः पालन का आदेश दिया है।
प्रमुख दिशानिर्देश:
1.     पुलिस को किसी आपराधिक गतिविधि या गंभीर अपराध होने की सूचना मिलेगी, वह उसे केस डायरी में लिखित या फिर किसी इलेक्ट्रानिक माध्यम में दर्ज करेगी. हलांकि, उसमें संदिग्ध का ब्यौरा या जगह का उल्लेख करना जरूरी नहीं होगा.
2.     अगर खुफिया सूचना पर मुठभेड़ होती है और पुलिस की गोली से कोई मौत होती है, तो उस घटना की आपराधिक जांच के लिए प्राथमिकी(FIR) दर्ज की जाएगी और उसे अदालत के पास भेजा जाएगा. साथ ही, पोस्टमार्टम की पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी करवाई जायेगी.
3.     पीड़ित घायल या अपराधी के लिए अविलम्ब मेडिकल सुविधा सुनिश्चित की जाय और  मजिस्ट्रेट उसके बयान दर्ज करे।
4.     पुलिस अधिकारी को जांच के लिए मुठभेड़ में प्रयुक्त हथियार सौंपने होंगे।
5.     मुठभेड़ में मरने वाले या घायल अपराधी या पीड़ित के परिवार को सूचित किया जाएगा.
6.     मुठभेड़ से सम्बंधित सूचना दोषी पुलिस अधिकारी के परिवार को भी दी जाय. साथ ही, उनके लिए वकील एवं काउंसलर की सुविधा उपलब्ध करवाई जाय।
7.     सर्वोच्च न्यायालय ने  पुरस्कार या पदोन्नति के लोभ को फर्जी मुठभेड़ों का कारण मानते हुए यह निर्देश दिया कि जबतक यह साबित नहीं हो जाता है कि मुठभेड़ वास्तविक थी, तबतक न तो बिना बारी के पदोन्नति का लाभ दिया जाए और न ही पुरस्कार।
8.     हर पुलिस मुठभेड़ में मौत की अनिवार्यतः मजिस्ट्रेट जांच होगी. मुठभेड़ की जांच सीआइडी या दूसरे थाने की पुलिस टीम करेगी और जांच टीम की निगरानी करने वाला पुलिस अधिकारी, मुठभेड़ टीम का नेतृत्व करने वाले अधिकारी से वरिष्ठ होगा.
9.     प्राथमिक सूचना रिपोर्ट(FIR) तथा पुलिस डायरी को बिना देरी किए कोर्ट में पेश किया जाय। इससे सम्बंधित जांच शीघ्रातिशीघ्र पूरा करते हुए संबंधित अदालत में रिपोर्ट दाखिल किया जाए।
10. अगर जांच के बाद मुठभेड़ फर्जी साबित होती है, तो संबंधित पुलिस अधिकारी के खिलाफ तत्परता से विभागीय कार्रवाई की जाए. साथ ही,  संबंधित अधिकारी के खिलाफ ट्रायल भी शीघ्रातिशीघ्र पूरा किया जाए.
11. अगर कोई फर्जी मुठभेड़ का मामला हो, तो मारे गए व्यक्ति के परिजन मुकदमा दायर कर सकते हैं। साथ ही, फर्जी मुठभेड़ की स्थिति में मृतकों के संबंधियों के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता,1973 के अंतर्गत मुआवज़े को सुनिश्चित किया जाए।
12. अगर इन दिशा-निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है या फिर पीड़ित परिवार जांच से संतुष्ट नहीं है, तो पीड़ित सत्र-अदालत में अपनी शिकायत दाखिल कर सकता है जो इसका संज्ञान अवश्य लेंगे.
13. पुलिस से यह अपेक्षा की गई है कि इनकाउंटर में हुई मौत के संबंध में बिना किसी देरी के तत्काल मानवाधिकार आयोग(NHRC/SHRC) को सूचित किया जाय। लेकिन, जब तक जांच की निष्पक्षता पर गंभीर संदेह न हो, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कोई दखल नहीं देगा. राज्य के डीजीपी मुठभेड़ों की छमाही रिपोर्ट राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग(NHRC) के पास भेजेंगे. साथ ही, इनकाउंटरों में हुई मौत का द्विवार्षिक विवरण सही तिथि और फॉर्मेट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य आयोग को भेजें.

दिशानिर्देश के तर्काधार:
अदालत का यह मानना है कि अनुच्छेद 21 देश के हर नागरिक को गरिमामय जीवन का अधिकार प्रदान करता है. सुप्रीम कोर्ट की नज़रों में हर आदमी की जान महत्वपूर्ण है, चाहे वह अच्छा आदमी हो या बुरा। इन दिशानिर्देशों को जारी करते हुए अदालत ने पुलिस पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि  समाज कानून के शासन से शासित होता है. ऐसी स्थिति में जरूरी है कि न्यायेतर हत्याओं की ठीक तरीके से जांच की जाए ताकि पीड़ितों के साथ इंसाफ किया जा सके.यही वजह है कि अदालत को निर्देश देना पड़ा है कि कानून अपने हाथ में लेने वालों को उनके अपराध के लिए इंसाफ के कठघरे में लाया जाए और पुलिस बल में जनता का यकीन बहाल किया जाए. लेकिन, इन संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद पुलिस मुठभेड़ों में मौतों का सिलसिला रुका नहीं है. 

सर्वोच्च न्यायालय ने इन दिशानिर्देशों को संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत कानून का दर्जा देते हुए मुठभेड़ के हर मामले में सभी राज्यों की पुलिस को इन दिशानिर्देशों का अनिवार्य तौर पर पालन करने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार यह माना है कि यदि पुलिस के साथ मुठभेड़ में किसी भी आदमी की जान जाती है या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है, तो उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। आत्मरक्षा के बहाने पुलिस को किसी की जान लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती है और न ही ऐसे मामले को जाँच के दायरे से बाहर रखने की अनुमति दी जा सकती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह गाइडलाइन्स उन सभी मामलों पर लागू होगा जो संदिग्ध परिस्थितियों में किसी नागरिक की मौत या उसके गंभीर रूप से घायल होने से सम्बंधित हैं। ये गाइडलाइन्स जेलों में होनेवाली मौत पर भी लागू होंगे। अब पुलिस को इस तरह के इनकाउंटर की वैधता कोर्ट में साबित करनी होगी। इन दिशानिर्देशों का प्रभाव यह होगा कि पुलिस अपराधी को पकड़ कर कानूनी प्रक्रिया के हवाले करने को पहले से कहीं अधिक प्राथमिकता देगी. वह गोली तभी चलाएगी जब अपने बचाव या विवशता में ऐसा करना जरूरी हो। इससे इस बात की उम्मीद बंधी है कि नए दिशानिर्देश भारतीय पुलिस को प्रोफेशनल एवं नागरिक अधिकारों के प्रति और भी ज्यादा संवेदनशील बनाएंगे.

 दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर वेद मारवाह इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि इनकाउंटर करने पर तत्काल पदोन्नति और पुरस्कार न मिलने  की स्थिति में पुलिसकर्मी इनकाउंटर नहीं करेंगे। उनका मानना है कि इसमें होने वाले जान-माल के नुकसान का ध्यान रखना आवश्यक है। असल में इन दिशा-निर्देश के बाद पुलिस ज्यादा सावधानी बरतेगी। इसी प्रकार यह कहना कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अपराधियों का मनोबल बढाने वाला और अपराध को प्रोत्साहन देनेवाला है, उचित नहीं प्रतीत होता है. दरअसल ये दिशानिर्देश पुलिस को नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील बढ़ने में सहायक हैं. यहाँ इस बात को समझे जाने की ज़रुरत है कि ये फर्जी इनकाउंटर हैं जो समाज में ऐसे अपराधियों के प्रति सहानुभूति को जन्म देते हैं और अपराध को बढ़ावा देते हैं. अगर इन पर रोक लगाई जाती है, तो इससे पुलिस में आम नागरिकों का विश्वास बढेगा जो पुलिस और नागरिकों के बीच संवाद को संभव बनता हुआ दोनों के बीच की दूरियों को कम करेगा.


4 comments:

  1. सटीक विश्लेषण

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  2. Sir, There is different meaning of registering a FIR against Police personal and general public

    Government of India must withdraw power to keep dangerous weapons with police personals , if they could not use it forthe safety of themselves or general public
    Head constable Sahid ho Gaya aur aur apni safety me encounter karne wala gunahgar
    To Handle a critical situation and Intellectual discussion Both are different things
    Sabke human right hone chahiye security forces ke Nahi.... for this there must be amendment in constitution


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  3. Sir, There is different meaning of registering a FIR against Police personal and general public

    Government of India must withdraw power to keep dangerous weapons with police personals , if they could not use it forthe safety of themselves or general public
    Head constable Sahid ho Gaya aur aur apni safety me encounter karne wala gunahgar
    To Handle a critical situation and Intellectual discussion Both are different things
    Sabke human right hone chahiye security forces ke Nahi.... for this there must be amendment in constitution


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  4. Sir, There is different meaning of registering a FIR against Police personal and general public

    Government of India must withdraw power to keep dangerous weapons with police personals , if they could not use it forthe safety of themselves or general public
    Head constable Sahid ho Gaya aur aur apni safety me encounter karne wala gunahgar
    To Handle a critical situation and Intellectual discussion Both are different things
    Sabke human right hone chahiye security forces ke Nahi.... for this there must be amendment in constitution


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