Friday, 11 December 2015

कविता और मैं

"कविता क्या है?"
विकट प्रश्न है यह
मेरे लिए............
वर्ड्सवर्थ से शेली तक,
पंत से आचार्य शुक्ल तक,
सबने परिभाषा दी इसकी,
अपनी-अपनी तरह से।
तुमने भी कहा इसे
"फ़्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति",
"मेरे फ़्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति"।
मैं तुमसे असहमत नहीं,
पर इसे सहज तरीक़े से
स्वीकार नहीं पाता;
क्योंकि
रह-रहकर
एक प्रश्न कौंधता है
कि कवि ही फ्रस्ट्रेट क्यों होता है,
क्यों होता है वह विद्रोही, 
कौन बनाता है उसे कुंठित?
आख़िर, शुरू से ही तो
ऐसा नहीं होगा वह।
जवाब मिलता है:
क्योंकि ज़िन्दा है वह, 
ज़िन्दा रहने का अहसास है उसे,
उसकी आत्मा अब भी जीवित है,
अपने ज़मीर को बेचा नहीं है उसने,
उसकी संवेदनायें मरी नहीं हैं अभी।
वह ख़ुद तो तिल-तिलकर मर रहा है,
पर अपनी अनुभूतियों के सहारे
कोशिश कर रहा है वह,
ज़िन्दा रखने की 
अपनी संवेदनाओं को।
और, जितनी ही वह 
करता है कोशिश
अपनी संवेदनाओं को बचाने की,
छिटककर उतनी ही दूर 
पड़ती चली जाती है संवेदना उसकी।
फिर, संवेदनाओं के 
चटकने और छिटकने का अहसास 
हर पल 
गहराता चला जाता है।
कविता 
इन्हीं चटकती और छिटकती
संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है
मेरे लिए।
जानना चाहोगे तुम,
कि कविता क्या है मेरे लिए?
कविता ढाल है;
हाँ,ढाल है मेरे लिए,
अपने को टूटने से बचाने का;
कविता ज़रिया है 
आत्माभिव्यक्ति का,
उस आत्माभिव्यक्ति का
जो मेरा पुनर्सृजन करती है
और जिस पुनर्सृजन के ज़रिए
जनता हूँ मैं ख़ुद को
हर उस क्षण में,
और बचाए रखता हूँ मैं
अपने अहसासों को,
अपनी संवेदनाओं को
और उससे जुड़ी अनुभूतियों को।
तुम्हारे लिए
यह एक कविता भर है,
पर,मेरे लिए 
यह एक उपक्रम है
ज़िन्दा रहने के अहसास को महसूसने का,
यह मेरी ऊर्जा है,
शक्ति है मेरी,
साधना और आराधना भी।
मैं हूँ जबतक,
तबतक मेरी कविता भी रहेगी;
नहीं, जबतक मेरी कविता रहेगी
तबतक मैं भी रहूँगा
और मेरी संवेदनाएँ भी रहेंगीं।
कविता नहीं,
तो मैं भी नहीं,
मेरी संवेदनाएँ भी नहीं
और मेरे जीने का अहसास भी नहीं।
मैं और कविता,
कविता और मैं,
मैं-कविता, या फिर 
कविता-मैं!
27th January,2011

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