"विद्रोही तुम"
विद्रोही चिंता है तुमको
रामायण के धोबन की,
इसीलिए लिखते हो तुम:
" लेकिन, उस धोबन का पता नहीं चलता,
जिसके कारण सारा काण्ड हुआ था।
धोबी ने धोबन को रक्खा कि छोड़ा,
पंचायत ने दण्ड ठोंका, कि माफ़ किया ,
क्या कोई होगा बचा, उसके भी वंश खूँट में!"
पता नहीं , सीता थी भी या नहीं,
धोबन भी थी अथवा नहीं,
संभव है वह कोरी कल्पना हो वाल्मीकि की।
तुम्हें बहुत चिंता है उसकी,
शायद बौद्धिक हो तुम,
और बौद्धिकों की भी अजीब बीमारी है,
कल्पना लोक में विचरण करना
और विचारों की दुनिया में खोये रहना।
मैं न तो बौद्धिक हूँ
और न मेरी संवेदना ही देती है मुझे इजाज़त
उतनी दूर जाने की।
मैं तो एक अदद इन्सान हूँ,
ख़ुद में उलझा हुआ,
ख़ुद में खोया हुआ।
मैं न तो सीता की पीड़ा महसूस कर सकता
और न ही उस धोबन की पीड़ा को;
न तो मुझे सीता की चिन्ता सताती है
और न ही उस धोबन की।
मेरी चिंता तो
हाड़-माँस के उस जीव की है,
जिसे मैं अपने ही भीतर महसूस करता हूँ,
मेरी महसूसने की क्षमता अत्यंत सीमित है,
ख़ुद की पीड़ा को महसूसने से मुझे फ़ुर्सत कहाँ?
जानते हो विद्रोही,
क्या फ़र्क़ है तुझमें और मुझमें:
तुम ज़िन्दा हो,
और मैं ज़िन्दा होने के अहसास को
जिलाए रखने के लिए संघर्षरत्;
तुम या तो बेफ़िक्र हो
या फिर उबर चुके हो अपनी पीड़ा से,
और मैं अपनी पीड़ा से उबरने को प्रयासरत्।
शायद इसीलिए मुझे
सीता या धोबन की पीड़ा से
अधिक प्यारी है
अपनी पीड़ा,
शायद उस पीड़ा को भी
अपने भीतर समाहित करता जा रहा;
पर तुमने तो
अपनी पीड़ा उड़ेलने की कोशिश की
धोबन की पीड़ा में,
पर शायद
धोबन की पीड़ा को
अपने में घुलाते,
तो बेहतर होता!
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