त्रिकोणीय/चतुष्कोणीय मुक़ाबले में उलझा बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र:
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बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र का रोचक इतिहास:
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आजादी के बाद 1952 से अबतक होने वाले 17 विधानसभा चुनावों में काँग्रेस ने आठ बार जीत हासिल की है, तो सीपीआई ने चार बार। इसके अलावा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, राजद और भाजपा ने एक-एक बार सफलता पायी है, जबकि एक बार निर्दलीय विधायक के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय को सफलता मिली है। इस दृष्टि से देखा जाय, तो बछवाड़ा विधानसभा अपने सीमा पर अवस्थित बरौनी/तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र और दलसिंह सराय/ उजियारपुर विधानसभा के रुझानों से भिन्न मिश्रित राजनीतिक रुझानों को प्रदर्शित करता रहा है।
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यादवों के राजनीतिक वर्चस्व वाला क्षेत्र:
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पिछले 12 विधानसभा चुनावों में से 11 चुनावों में यहाँ की जनता ने अपने प्रतिनिधियों रूप में यादव उम्मीदवार को चुना है। पिछले बार भी अगर भाजपा को सफलता मिली और वो भी की मार्जिनल लीड के साथ, तो इसीलिए कि विपक्ष के साथ-साथ यादव वोट भी अवधेश राय और गरीब दास के बीच बँटे। सन् 1972 से अबतक के इतिहास में सन् 2020 में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी गैर-यदुवंशी प्रत्याशी को इस क्षेत्र का नेतृत्व करने का मौका मिला। और, ऐसा भी पहली बार ही हुआ, जब दक्षिणपंथी राजनीतिक दल जनसंघ/भाजपा को इस विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सफलता मिली।
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भविष्य की संभावना:
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अब सवाल यह उठता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में क्या इस क्षेत्र के मतदाता अवधेश राय या गरीबदास के नाम पर अन्तिम रूप से मुहर लगाकर इस बात की पुष्टि करेंगे कि इस विधानसभा क्षेत्र में यादवों का राजनीतिक दबदबा कायम रहेगा, या फिर इस बात पर मुहर लगेगी कि विधानसभा चुनाव, 2020 में इस क्षेत्र के मतदाता नई करवट ले चुके हैं और यादवों के राजनीतिक वर्चस्व के दिन अब लद चुके हैं। ये तमाम सवाल अभी भविष्य के गर्भ में हैं, और इनके जवाब के लिए हमें 14 नवम्बर का इंतजार करना होगा।
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क्या इतिहास खुद को दोहराएगा:
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बछवाड़ा विधानसभा के इतिहास बड़ा रोचक रहा है और उतना ही रोचक रहा है वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता का चुनावी राजनीति का इतिहास। पिछले छह विधानसभा चुनावों के दौरान इसने कई अपने विधायक को दुबारा मौक़ा नहीं दिया है। चुनावी राजनीति में कुछ ऐसा ही इतिहास वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता का भी रहा है। हार और जीत का एक सतत क्रम चला आ रहा है। इस दृष्टि से दोनों ही ट्रेंड इस बात का संकेत देते हैं कि सुरेन्द्र मेहता इस बार विधानसभा चुनाव हारने जा रहे हैं। पर, ट्रेंड तो बनते ही टूटने के लिए। फिर सवाल यह उठता है कि क्या सुरेन्द्र मेहता नये सिरे से इतिहास लिख पायेंगे, या फिर इतिहास अपने को दुहरायेगा, यह तो आने वाला समय बतलायेगा।
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डेमोग्राफी डिटेल्स: वोटबैंक
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बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में तकरीबन 3,10,463 वोटर्स हैं। इनमें यादवों के वोट करीब 46 हजार (15%) हैं, जबकि कोइरी, कुर्मी एवं धानुक मतदाताओं की संख्या करीब 40 हज़ार (13%) है। भूमिहार मतदाता करीब 36 हजार (12%) हैं, तो मुस्लिम मतदाता तकरीबन 30 हजार (9%)। दलितों की आबादी करीब 52 हजार (17%) है जिनमें करीब 22-24 हजार पासवान (7-8%) हैं। इसके अलावा, 11 प्रतिशत वैश्य, (2.5-3)% ब्राह्मण, 2% राजपूत, 2% माँझी और तकरीबन 15 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियाँ हैं।
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सुरेन्द्र मेहता: बड़े रोड़े हैं इस राह पे:
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भाजपा के लिए इस बार इस सीट को निकलना आसान नहीं होगा क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी जीत 500 से भी कम वोटों से हुई थी। भाजपा-सह-एनडीए उम्मीदवार सुरेन्द्र मेहता, बिहार सरकार में खेल मंत्री, धानुक जाति से आते हैं, जबकि यह क्षेत्र यादवों के वर्चस्व वाला क्षेत्र है।
इसके अलावा, इस चुनाव में उनके समक्ष कई अन्य चुनौतियाँ भी हैं:
1. वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता के प्रति क्षेत्र में गहरा आक्रोश है। उनकी कार्यशैली से लोगों में उनके प्रति गहरी नाराजगी है।
2. इस नाराज़गी की झलक वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में मिल चुकी है। जहाँ 2019 में गिरिराज सिंह को बेगूसराय के अन्य विधान सभा क्षेत्रों की तरह बछवाड़ा में भी भारी बढ़त मिली थी, वहीं लोकसभा चुनाव, 2024 में बछवाड़ा एकमात्र विधानसभा क्षेत्र था जहाँ वे सीपीआई उम्मीदवार अवधेश राय से करीब साढ़े 4 हज़ार वोटों से पीछे रहे।
3. शहरी मतदाताओं की संख्या सिर्फ 1.20 प्रतिशत है, जिससे यह स्पष्ट है कि बछवाड़ा एक ग्रामीण बहुल क्षेत्र है। ध्यातव्य है कि भाजपा की जितनी पकड़ शहरी मतदाताओं पर है, उतनी ग्रामीण मतदाताओं पर नहीं।
4. पिछले चुनाव में सुरेन्द्र मेहता को सीपीएम के रामोद कुँवर का साथ था, और इस साथ ने उनकी जीत में निर्णायक भूमिका निभायी थी।
5. इस बार सुरेन्द्र मेहता को भाजपा के असंतुष्ट समूह की चुनौती का सामना भी करना पड़ रहा है। भारतीय जनता युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष राममूर्ति चौधरी खुलकर शत्रुघ्न कुमार के पक्ष में मैदान में उतरे हुए हैं और वो सीधे सुरेन्द्र मेहता को डैमेज कर रहे हैं।
6. वर्तमान विधायक की छवि भी अच्छी नहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि इस क्षेत्र के आपराधिक तत्वों और शराब माफिया को वर्तमान विधायक का संरक्षण है और उन लोगों के साथ इनकी साँठ-गाँठ है।
7. यद्यपि इस बार उन्हें अरविन्द कुमार सिंह का समर्थन मिल रहा है जिनकी पत्नी को पिछले चुनाव में करीब 10 हजार वोट मिले थे, पर रामोद कुँवर इस एडवांटेज को न्यूट्रलाइज कर दे रहे हैं। एक तो वे इस क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, और दूसरे, वे भाजपा के वोटबैंक भूमिहार जाति के मतदाताओं में सेंध लगा पाने की स्थिति में हैं।
इसके अलावा, उनके दोनों विरोधी: अवधेश राय और गरीबदास की इस क्षेत्र में सक्रियता लगातार बनी रहे है। लोकसभा चुनाव के दौरान अवधेश राय स्वयं बेगूसराय लोकसभा से सीपीआई के उम्मीदवार थे और उस चुनाव में गरीबदास ने खुलकर सीपीआई उम्मीदवार का साथ दिया था। इतना ही नहीं, पिछले पाँच वर्षों के दौरान गरीबदास ने क्षेत्र में अपनी सक्रियता बनाए रखी है।
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सीपीआई: गहराते आन्तरिक मतभेद:
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संगठन और नेतृत्व में रहने के क्या फ़ायदे हैं, इसे समझना हो, तो अवधेश राय की राजनीतिक यात्रा को देखिए। लगातार हार के बावजूद वे न केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपने लिए कम्युनिस्ट पार्टी और महागठबंधन की टिकट सुनिश्चित करने की स्थिति में हैं, वरन् इसके लिए उन्होंने बिहार राज्य में सीपीआई के राजनीतिक भविष्य को भी दाँव पर लगाने से परहेज़ नहीं किया है। परिणाम यह कि बछवाड़ा होल्ड करने के चक्कर में पिछली बार सीपीआई को महज़ छह सीटों पर संतोष करना पड़ा और इस बार भी कमोबेश वैसी ही स्थिति है। आगामी चुनाव में महागठबंधन में सीपीआई के हिस्से छह सीटें आयीं, जबकि सीपीआई 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, काँग्रेस पर इस आरोप के साथ कि उसने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है, उसका उल्लंघन किया है। यहाँ तक कि उनके लिए पार्टी ने न केवल पचहत्तर साल की उम्र-सीमा को दरकिनार किया है , वरन् संगठन में रहने के बावजूद उन्हें चुनावी राजनीति में शामिल होने की अनुमति दी है।
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चौतरफ़ा घिरे अवधेश राय:
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अवधेश राय की उम्मीदवारी के प्रति सीपीआई के भीतर एक समूह में गहरा असंतोष है। उसका कहना है कि आख़िर लोकसभा से लेकर विधानसभा तक सीपीआई अवधेश राय से आगे बढ़कर क्यों नहीं सोच पा रही है और देख पा रही है? आख़िर क्यों नहीं नवीन संभावनाओं की तलाश की जा रही है? भाकपा राज्य-सचिव के पद पर कॉमरेड राम नरेश पाण्डेय की ताजपोशी और तेघड़ा एवं बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से क्रमशः राम रतन सिंह एवं अवधेश राय की उम्मीदवारी ने सीपीआई के सन्दर्भ में इस पारम्परिक धारणा को मज़बूती प्रदान की है कि वह बुजुर्गों की पार्टी है जहाँ युवाओं के लिए कोई स्थान नहीं हैँ। इसके उलट, आज की युवा पीढ़ी में ज़बर्दस्त महत्वाकांक्षा है, लेकिन उसमें धैर्य का नितान्त अभाव है। वह प्रतीक्षा करना नहीं जानती है। यह स्थिति वामपंथी दलों के भविष्य के लिए अच्छी और सुखद नहीं कही जा सकती है।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उनकी उम्मीदवारी के फ़ाइनल होने के पहले से ही उनकी कार्यशैली और उनके रवैये को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं, और इसकी प्रतिक्रिया में युवा वामपंथियों में ग़रीबदास के प्रति गहरा आकर्षण और गहरी सहानुभूति देखी जा रही है। भले ही वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं, पर उनमें अन्दर-ही-अन्दर अवधेश राय के प्रति आक्रोश और गरीबदास के प्रति सॉफ़्टनेस महसूसा जा सकता है।
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सीपीआई की बढ़ती मुश्किलें:
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वर्ष 2024 में पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान अवधेश राय की सक्रियता और बछवाड़ा विधानसभा से उनकी बढ़त उनके लिए राहत की बात है, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान गरीबदास के खुले समर्थन के बावजूद उनकी बढ़त का मार्जिन महज साढ़े चार हज़ार का होना माथे की सिलवटों को बढ़ाने के लिए काफ़ी है, जबकि क़ायदे से यह मार्जिन बढ़ा होना चाहिए था क्योंकि एक तो गृह-विधानसभा क्षेत्र होने का फ़ायदा उन्हें मिलना चाहिए था और दूसरे, पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान क़रीब चालीस हज़ार वोट हासिल करने वाले गरीबदास का खुला समर्थन उन्हें हासिल था। इतना ही नहीं, सीपीआई उम्मीदवार को कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है:
1. संसाधनों की किल्लत: अवधेश राय के समक्ष बड़ी चुनौती संसाधनों के मोर्चे पर है। वे संसाधनों के दम पर सुरेन्द्र मेहता का मुक़ाबला कर पायेंगे, इसमें सन्देह है। उनकी तुलना गरीबदास इस मोर्चे पर कहीं बेहतर स्थिति में हैं।
2. कन्हैया फैक्टर: कन्हैया कुमार के सीपीआई को छोड़ने और काँग्रेस में शामिल होने के बाद बेगूसराय में ही नहीं, वरन् बिहार में सीपीआई की मुश्किलें बढ़ी हैं और उनके समक्ष नई चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं। कन्हैया कुमार युवा वामपंथियों को और विशेष रूप से अपने पैरेंट ऑर्गेनाइज़ेशन एआईएसएफ के साथियों को अपने साथ ले जाने में कामयाब हुए हैं। इतना ही नहीं, जो सीपीआई में बचे रह गये हैं, उनके मन में कन्हैया कुमार के प्रति गहरा आकर्षण है, और इसीलिए कन्हैया कुमार उन्हें प्रभावित करने की स्थिति में हैं।
3. रामोद कुँवर की चुनौती: इस बार सीपीएस के रामोद कुँवर भी मैदान में डटे हुए हैं। इसके कारण लेफ़्ट माइंडेड वोट के बँटने का ख़तरा मँडरा रहा है, जो पिछले विधानसभा चुनाव में वैचारिक कारणों से रामोद कुँवर द्वारा सुरेन्द्र मेहता को समर्थन के बावजूद अवधेश राय को मिला था। ध्यातव्य है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भी सुरेन्द्र मेहता की जीत और अवधेश राय की हार में लेफ्ट बैकग्राउंड से आने वाले रामोद कुँवर (CPM) ने अहम् भूमिका निभायी थीं, और अबतक जैसी सूचना मुझे मिल पा रही है, रामोद कुँवर अवधेश राय को सुरेन्द्र मेहता से कहीं अधिक और उससे ज़्यादा डैमेज कर रहे हैं जिसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसीलिए रामोद कुँवर को हल्के में लेना सीपीआई को भारी पड़ सकता है।
4. गरीबदास का काँग्रेस उम्मीदवार होना: पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान वे महागठबंधन के एकमात्र उम्मीदवार थे, जबकि गरीबदास निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। काँग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया था। इस बार गरीबदास काँग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार हैं। युवाओं में उनके प्रति गहरा आकर्षण है और वे बदलाव के प्रतीक के रूप में देखे जा रहे हैं। साथ ही, उन्हें महागठबंधन के अन्य घटक दलों और उनके समर्थकों का भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन मिल रहा हैं।
इन तमाम चुनौतियों के बावजूद सीपीआई और अवधेश राय की दावेदारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अवधेश राय के पास न केवल लम्बा राजनीतिक अनुभव है, वरन् वे संगठन के आदमी हैं और संगठन पर उनकी मज़बूत पकड़ भी है। इतना ही नहीं, वे अपने प्रति सहानुभूति पैदा कर पाने में भी समर्थ हैं। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि परम्परागत वोटों में बिखराव के बावजूद वे पिछले विधानसभा चुनाव में महज़ साढ़े चार सौ वोटों से हारे थे और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में तमाम समीकरणों के बावजूद इस विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने गिरिराज सिंह पर बढ़त हासिल की।
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माहौल गरीबदास के पक्ष में:
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जहाँ तक गरीबदास की बात है, तो उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। तीनों प्रमुख उम्मीदवारों में मोमेंटम उनके पक्ष में दिखता है। वे युवा, उत्साही एवं ऊर्जावान हैं। क्षेत्र में उन्होंने अपनी सक्रियता लगातार बनाए रखी है। लोकसभा चुनाव को भी उन्होंने अवसर के रूप में भुनाया है और उसके माध्यम से जनता तक अपनी बेहतर पहुँच को सुनिश्चित करने की कोशिश की है। इस कारण से भी लोगों के मन में उनके प्रति एक सहानुभूति है। लोगों को लगता है कि जिस तरीके से उन्होंने लोकसभा चुनाव के समय अवधेश राय को सहयोग दिया और उनके लिए क्षेत्र में काम किया, इसका लाभ उन्हें मिलना चाहिए। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें वो विक्टिम नजर आते हैं और लोगों को लगता है कि अवधेश राय को उनके राह का रोड़ा बनने की बजाय उनकी मदद करनी चाहिए। बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में गरीबदास के पक्ष में इस परसेप्शन को देखा एवं महसूसा जा सकता है। और, राजनीति में परसेप्शन बहुत मायने रखता है। दरअसल राजनीति परस्पेशन का ही खेल है।
ऐसा नहीं है कि युवा होने के कारण गरीबदास अनुभवहीन हैं। उनके पास पर्याप्त संसाधन भी है और पर्याप्त अनुभव भी। एक तो स्वर्गीय पिता रामदेव राय की राजनीतिक विरासत के रूप में नेटवर्क और संगठन उन्हें मिला है और दूसरे, अनुभव भी। ध्यातव्य है कि पिता की विधायकी अन्तिम दौर में गरीबदास ही परोक्षतः उनकी सारी राजनीतिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते थे। इसीलिए वे पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले चुनाव में अपने प्रदर्शन के सहारे उन्होंने अपनी पार्टी और उसके नेतृत्व के भरोसे को भी हासिल किया है। शायद इसीलिए उन्हें केवल पार्टी संगठन का ही साथ नहीं मिल रहा है, वरन् उनकी अपील अक्रॉस द पार्टी लाइन है और इसका उन्हें फायदा भी मिल रहा है। इसीलिए जहाँ राजनीतिक दल के रूप में राजद सीपीआई उम्मीदवार के साथ खड़ी है, वहीं व्यक्तिगत स्तर पर राजद के स्थानीय नेतृत्व का एक तबका गरीबदास के साथ खड़ा है। इसमें संसाधनों की उपलब्धता भी अहम् भूमिका निभा रही है।
स्पष्ट है कि वर्तमान में इस विधानसभा क्षेत्र का माहौल गरीबदास के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है, लेकिन ऐसा कब तक बना रहेगा, यह बतला पाना अत्यन्त मुश्किल है। ये तो आने वाला समय बतायेगा। पर, इसका मतलब यह नहीं है कि गरीबदास के लिए आगे का रास्ता आसान होने जा रहा है। विशेष रूप से युवा जोश एवं उत्साह में बहने की बजाय उन्हें संयम से काम लेना होगा, अन्यथा उस माहौल को बदलते समय नहीं लगेगा जो अभी उनके पक्ष में लग रहा है। इसके लिए उन्हें अनावश्यक बयानबाजी और आक्रामकता से परहेज़ करना होगा, जो बढ़ते हुए राजनीतिक तापमान के कारण उनके लिए और उनके समर्थकों के लिए आसान नहीं होगा। इसीलिए उन्हें अपने समर्थकों को नियंत्रित करना होगा और उनकी उच्छृंखलता पर अंकुश लगाना ही होगा।
कारण यह कि भाजपा-विरोधी वोटों के अवधेश राय और गरीबदास के बीच बँटने के कारण एक खतरा तो अन्त-अन्त तक बना रहेगा कि कहीं इसका फायदा पिछली बार की तरह एक बार फिर से सुरेन्द्र मेहता को न मिल जाए। लेकिन, इसके लिए भाजपा को अपने अंतर्विरोधो से बाहर निकलना होगा और उस नकारात्मक माहौल से बचना होगा, जो निर्मित होता दिख रहा है। इसकी झलक 25 अक्टूबर को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के बेगूसराय दौरे में भी मिलती है जिसने भाजपा की आन्तरिक गुटबंदी को तेज करते हुए उसके अन्तर्विरोधों को सतह पर ला दिया। इसका प्रतिकूल असर बेगूसराय में भाजपा के साथ-साथ एनडीए की राजनीतिक संभावनाओं पर भी पड़ सकता है।
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सभी पक्षों के लिए खुला है परिणाम:
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मुख्तसर यह कि बछवाड़ा के काँटे के त्रिकोणीय मुकाबले, जिसे रामोद कुँवर चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, में ऊँट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगा पाना राजनीतिक पण्डितों के लिए आसान नहीं होने जा रहा है। और, अगर सीपीआई और काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व एवं उत्साही समर्थकों ने बछवाड़ा की राजनीतिक लड़ाई को बछवाड़ा तक सीमित नहीं रखा और उसे बेगूसराय के अन्य विधानसभा क्षेत्रों तक ले जाने की कोशिश की, तो बेगूसराय में इसका प्रतिकूल असर महागठबंधन के साथ-साथ उसके दोनो प्रमुख राजनीतिक दलों: सीपीआई और काँग्रेस की राजनीतिक संभावनाओं पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में बछवाड़ा के साथ-साथ तेघड़ा, बखरी और बेगूसराय विधानसभा क्षेत्रों पर भी पड़ेगा। विशेष रूप से इनमें से दो सीटें महागठबंधन की जीती हुई सीटें हैं और दोनों ही सीटें सीपीआई के जिम्मे हैं। इसीलिए बछवाड़ा विधानसभा सीपीआई और काँग्रेस, दोनों के लिए खतरे की घंटी बनकर सामने आ रही है जिसे समय रहते मैनेज करने की जरूरत है।
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