Wednesday, 29 October 2025

सामाजिक न्याय की समावेशी राजनीति पर प्रश्नचिह्न: बिहार में मुस्लिम प्रतिनिधित्व और भागीदारी

 


समावेशी लोकतान्त्रिक राजनीति और मुसलमान:

========================

लोकतन्त्र की संकल्पना मूलतः प्रतिनिधित्व और भागीदारी पर आधारित है। यही प्रतिनिधित्व और भागीदारीलोकतान्त्रिक राजनीति को समावेशी बनाता हुआ निर्वाचित सरकारों के उत्तरदायित्व एवं जवाबदेही कोसुनिश्चित करता है। इस तरह से समावेशी विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। यही वहबिन्दु है जहाँ भारतीय मुसलमानों के बहिष्करण का आधार तैयार होता है। यह बहिष्करण चौतरफा हैसामाजिकआर्थिक एवं राजनीतिक। 

पिछला दशकमुसलमानों के राजनीतिक बहिष्करण की प्रक्रिया का तेज़ होना

=======================

पिछले साढ़े तीन दशकों के भाजपा के राजनीतिक उभार के दशक की संज्ञा दी जाएतो अतिशयोक्ति नहींहोगी। इस दौरान उत्तर भारत से लेकर पश्चिम भारत तक भाजपा का  केवल राजनीतिक उभार हुआवरन् इसनेखुद को मुख्यधारा की राजनीति में इतनी मज़बूती से स्थापित कियाकि धीरे-धीरे मुख्यधारा में पहले सेस्थापित राजनीतिक दलों के मार्जिनलाइजेशन की प्रक्रिया तेज होती चली गयी। विशेष रूप से उत्तर भारत मेंइसे सामाजिक न्याय की राजनीति से मुक़ाबला करना पड़ा और उसकी चुनौती का सामना करना इसके लिएआसान नहीं रहा। लेकिनइसने सामाजिक न्याय की राजनीति से मुक़ाबला करते हुए उसके अन्तर्विरोधों कालाभ उठाया और और उनकी क़ीमत पर अपनी पॉलिटिकल मेनस्ट्रीमिंग सुनिश्चित की। इस क्रम में नरेन्द्र मोदीका उभार संभव हुआ और उनके नेतृत्व में भारतीय राजनीति में उग्र एवं आक्रामक हिन्दुत्व की राजनीति का दौरशुरू हुआ जिसने सामाजिक न्याय की लोकतान्त्रिक राजनीति को पुनर्परिभाषित किया। औरअब देशबहुसंख्यकों के वर्चस्व वाली दक्षिणपंथी हिन्दुत्व की विभाजनकारी राजनीति की चुनौतियाँ का सामना कर रहाहै। इसलिए देश की राजनीति में पिछले दशकों को अगर बीजेपी के उभारों वाले दशक की संज्ञा दी दी जाएतोअतिशयोक्ति नहीं होगी। 


वर्ष 2013-14 में नरेन्द्र मोदी ने जिस बहुसंख्यक वर्चस्ववादी राजनीति की ठोस जमीन तैयार कीउसनेमुसलमानों के राजनीतिक बहिष्करण का आधार तैयार किया और इसका परिणाम मुसलमानों के प्रतिनिधित्वएवं भागीदारी में कमी के रूप में सामने आया। इसने  केवल 'सबका साथसबका विकासके भारतीयप्रधानमन्त्री के दावे की असलियत को सामने लाते हुए उन्हें बेनकाब किया और यह बतलाया कि इस 'सबकेदायरे में और चाहे जिसके लिए जगह होमुसलमानों के लिए जगह नहीं हैं। प्रमाण है पिछले एक दशक केदौरान संसदीय राजनीति से लेकर प्रान्तीय विधायी राजनीति तक में मुसलमानों की कम होती भागीदारी। इसकीपुष्टि बिहार की राजनीति से भी होती है।

बिहारमुस्लिम आबादी का संकेन्द्रण:

=======================

जातिगत  जनगणना, 2022-23 के अनुसारबिहार में मुसलमानों की आबादी करीब 2.32 करोड़ है। बिहारमें जहाँ सीमांचल के ज़िलोंकिशनगंजकटिहार और अररिया में मुसलमानों की आबादी 42 प्रतिशत सेअधिक हैवहीं पूर्णिया में यह क़रीब 38.5 प्रतिशत के स्तर पर। मिथिलांचल के विभिन्न ज़िलों और चम्पारणमें भी मुसलमानों की आबादी क़रीब 20 प्रतिशत से अधिक के स्तर पर है। इस प्रकार राज्य के विभिन्न हिस्सों मेंक़रीब 32 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है। 

बिहार की प्रान्तीय विधायिका और मुसलमान (1990-2020) 

======================= कुल जनसंख्या में मुस्लिम आबादी का शेयर 17.7 प्रतिशत हैऔर कायदे से बिहार विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 43 होना चाहिए। लेकिनपिछले साढ़े तीनदशकों के दौरान  सम्पन्न आठ विधानसभा चुनावों में मुस्लिम विधायकों की औसत हिस्सेदारी लगभग 8 प्रतिशत के स्तर पर रही है। यह 1990 के चुनाव में न्यूनतम 5.5 प्रतिशत रहीतो 2015 के चुनाव मेंअधिकतम 9.87 प्रतिशत। 

फ़रवरी, 2005 में सम्पन्न विधानसभा चुनाव के दौरान सर्वाधिक 24 मुस्लिम विधायक (9.8 प्रतिशत निर्वाचित हुएलेकिन इस बार किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति मेंनवम्बर,2005 में एक बार फिर से नए सिरे से विधानसभा चुनाव करवाए गए। इस चुनाव में भाजपा और जनतादल (युनाइटेडद्वारा निर्मित राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (National Democratic Alliance: NDA) को स्पष्ट बहुमत मिलालेकिन निर्वाचित  मुस्लिम विधायकों की संख्या 24 से कम होकर 18 रह गयी। इनमेंएनडीए गठबन्धन से कुल 5 मुस्लिम विधायक (4 जदयू और 1 भाजपानिर्वाचित हुएजबकि गैर-एनडीएगठबन्धन से 11 विधायक (1 निर्दलीय सहित) 


वर्ष 2010 में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में कुल 19 मुस्लिम विधायक (7.81%) निर्वाचित हुए। इनमें जदयू सेऔर भाजपा से 1 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। उधरराजद से 6, काँग्रेस से 3 और लोजपा से 2 मुस्लिमविधायक निर्वाचित हुए। 

विधानसभा चुनाव,2015 में जदयू राजद और काँग्रेस के साथ महागठबन्धन का हिस्सा बना। इस बार एक बारफिर से सर्वाधिक 24 मुस्लिम विधायक (9.81%) निर्वाचित हुए। इस चुनाव में राजद से 12, काँग्रेस से 6, जदयू से 5 और भाकपा माले से 1 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। 

लेकिनविधानसभा चुनाव,2020 में एक बार फिर से जदयू ने भाजपा के साथ चुनावी गठजोड़ किया। इस बारजदयू ने 11 उम्मीदवार खड़े किएलेकिन ये सारे उम्मीदवार चुनाव हार गए। इस बार कुल 19 मुस्लिम विधायक(7.81%) चुन कर आए। इनमें राजद से 8, एआईएमआईएम से 5, काँग्रेस से 4, भाकपा माले से 1 और बसपासे 1 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। ध्यातव्य है कि इस बार भाजपा दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप मेंउभर कर सामने आयीं। मतलब यह कि चाहे भारतीय संसद की बात करें या बिहार विधानसभा कीउसमेंमुसलमानों का प्रतिनिधित्व एवं उनकी भागीदारी सीधे-सीधे धर्मनिरपेक्ष दलों के राजनीतिक प्रदर्शन केसमानुपाती और दक्षिणपंथी राजनीतिक दल भाजपा के राजनीतिक प्रदर्शन के व्युत्क्रमानुपाती है।


विधानसभा चुनाव,2025 और मुसलमानों की उम्मीदवारी:

========================

विधानसभा चुनाव,2025 में दोनों गठबंधनों में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या में 2020 की तुलना में गिरावटआयी। 

जहाँ महागठबंधन ने 30 मुस्लिम उम्मीदवारों (12. प्रतिशतको मैदान में उतारा हैवहीं एनडीए ने पाँच मुस्लिमउम्मीदवारों को। एनडीए के घटक दलों में भाजपा (101), हम (8) और राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चा (6) नेकिसी किसी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया हैवहीं जनता दल युनाइटेड (101) ने 4 मुसलमानोंको अपना उम्मीदवार बनाया है और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास: 29) ने 1 मुसलमान को। 

जहाँ तक महागठबंधन की बता हैतो पिछले विधानसभा चुनाव में उसने 33 मुसलमानों को अपना उम्मीदवारबनाया थाजबकि इस बार 30 मुसलमानों को। राजद ने पिछली बार की तरह इस बार भी 18 मुसलमानों कोउम्मीदवार बनाया हैजबकि काँग्रेस ने 12 की जगह 10 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया हैयद्यपि काँग्रेस इसबार सत्तर की बजाय 60 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। भाकपा माले ने 3 की जगह 2 मुसलमानों को हीउम्मीदवार बनाया हैजबकि माले और राजददोनों ही पिछली विधानसभा चुनाव की तुलना में अधिक सीटों परचुनाव लड़ रहे हैं। मुकेश सहनी की विकासशील इन्सान पार्टीसीपीआई (9) और आईपीगुप्ता की इण्डियनइंक्लूसिव पार्टी(IIP:3) ने किसी मुसलमान को उम्मीदवार नहीं बनाया है। 


वर्तमान राजनीतिक परिदृश्यमुस्लिम-प्रतिनिधित्व की विडम्बना

========================

दक्षिणपंथी हिन्दुत्व की ओर रूझान रखने वाली भाजपा बहुसंख्यकवाद की राजनीति करती है। विशेष रूप सेमई,2014 के बाद भाजपा की राजनीति में मुसलमानों के सांकेतिक प्रतिनिधित्व के लिए भी स्पेस नहीं रह गयाहै। साम्प्रदायिक ध्रुवीकृत की राजनीति और कम्यूनल एजेंडे के कारण  तो वह मुसलमानों को टिकट देती हैऔर  ही मुसलमान उसके लिए वोट करते हैं। फिरजब प्रतिनिधित्व ही नहींतो सरकार में भागीदारी कैसेसंभव होगीबिहार में भीजहाँ 32 विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक हैभाजपा के एक भी विधायक मुसलमान नहीं हैं। औरमई,2014 के बाद जैसे-जैसे भाजपा मज़बूत हुईबिहारमें भी एनडीए के आन्तरिक समीकरण बदले और धीरे-धीर बिहार का गठबंधन भाजपा की शर्तों परपुनर्परिभाषित होने लगा। इसकी क़ीमत जेडीयू को भी चुकानी पड़ी। मुस्लिम वोटरों पर उसकी पकड़ ढ़ीली पड़नेलगी और उसका परिणाम यह हुआ कि पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए से एक भी मुस्लिम विधायक चुनकरनहीं आयेयहाँ तक कि जदयू ने 11 मुसलमानों को उम्मीदवार बनायालेकिन उन सबको महागठबंधन केउम्मीदवारों के हाथों शिकस्त मिली। 

उधरमहागठबंधन की दुविधा यह है कि उसे मुसलमानों के वोट तो चाहिएलेकिन उसे मुसलमानों कोउम्मीदवार बनाने से परहेज़ होता। कारण यह कि उससे कोर ग़ैर-मुस्लिम वोटर का एक हिस्सा अक्सरमुसलमान उम्मीदवार की स्थिति में अपनी जातिगत पहचान को छोड़कर हिन्दू के रूप में वोट करते हैं झुलतालाभ सीधे-सीधे भाजपा उम्मीदवार को मिलता है और महागठबंधन के उम्मीदवार के जीतने की संभावना कम होजाती है। प्रमाण है मिथिलांचल क्षेत्र में पिछले विधानसभा चुनाव का परिणामजहाँ अगर महागठबंधन केपरम्परागत वोटरों का बिखराव नहीं होतातो राजद और महागठबंधन बढ़त की स्थिति में होता और फिरसरकार महागठबंधन की ही बनती। अतबेहतर जीत-प्रत्याशा के लिए महागठबंधन के दल भी मुसलमानों कोउम्मीदवार बनाने से परहेज़ करते हैं। इसका अपवाद कुछ हद तक काँग्रेस को माना जा सकता है जिसने  केवलमुसलमानों को उम्मीदवार बनाने में उदारता बरती हैवरन् मुस्लिम एजेंडों पर स्टैंड लेकर सेक्यूलरिज्म के प्रतिअपनी प्रतिबद्धता भी प्रदर्शित की है। अब समस्या यह है कि चुनावी राजनीति में जीत और हार मायने रखती हैसारी क़वायद ही इसी के लिए होती है जिसके कारण जीतने की प्रत्याशा वाले पहलू की अनदेखी नहीं की जासकती है। परसवाल विधायिका से लेकर सरकार तक मुस्लिम प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी का हैइसकी भी तोअनदेखी नहीं की जा सकती है क्योंकि संसदीय राजनीति से मुसलमानों का मार्जिनलाइजेशन एवं बहिष्करण केवल ओवैसी और एआईएमआईएम जैसे दक्षिणपंथी मुस्लिम राजनीतिक दलों के लिए स्पेस क्रिएट करेगावरन् दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में कई जटिल समस्याओं को जन्म देगाजिसकी बड़ी क़ीमत हो सकती है। इसपहलू पर महागठबंधन या फिर इण्डिया गठबंधन में शामिल दलों को भी विचार करना चाहिए और भाजपा कोभीजिसका आने वाले दशकों में मुख्यधारा की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बने रहने की संभावना है।   मुसलमानों की समुचित एवं पर्याप्त राजनीतिक भागीदारी को कैसे सुनिश्चित किया जाएउनकी सरकार मेंभागीदारी कैसे सुनिश्चित किया जाएनेशनल एजेंडे में कैसे उनकी चिन्ताओं को समाहित करते हुए उसकीसमाधान प्रस्तुत किया जाए और उन्हें डरभय एवं असुरक्षा की मनोदशा से बाहर निकालकर कैसे उनमें सेंसऑफ सेफ़्टी एंड सिक्योरिटी को डेवलप किया जाएये ऐसे प्रश्न हैं जिनका सम्बंध राष्ट्रीय एकता एवंअखण्डता से हैइस प्रश्न पर भी गम्भीरता से वैचारिक मंथन की आवश्यकता है। 


No comments:

Post a Comment