=============================
बछवाड़ा विधानसभा: महागठबंधन में राड़
वामपंथी दावेदारी का औचित्य
=============================
बिहार विधानसभा चुनाव,2025 में बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र मुझे लोकसभा चुनाव,2019 के बेगूसराय संसदीय क्षेत्र की याद दिला रहा है। इस चुनाव में जब भी महागठबंधन की चर्चा होगी, बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर चर्चा के बिना उस चर्चा के मुकम्मल होने की कल्पना नहीं की जा सकती, कुछ इसलिए भी कि पिछले दो विधानसभा चुनावों के दौरान सीपीआई ने हरलाखी के साथ इस सीट को हासिल करने पूरे बिहार में अपनी राजनीतिक संभावनाओं को दाँव पर लगाया है जिसके कारण बछवाड़ा सीपीआई के लिए दुखती हुई रग बन चुका है। राजद और उसके नेतृत्व ने उसे बड़ी चालाकी से काँग्रेस के साथ भिड़ाकर इसकी एवज में लेफ्ट के खाते से न केवल मटिहानी सीट छीनी, वरन् मटिहानी के बहाने पूरे लेफ्ट राजनीति के तर्कजाल को ध्वस्त करते हुए वैचारिक राजनीति के मोर्चे पर उसे उसकी बढ़त से वंचित कर दिया।
बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र का रोचक इतिहास:
==============================
आजादी के बाद 1952 से अबतक होने वाले 17 विधानसभा चुनावों में काँग्रेस ने आठ बार जीत हासिल की है, तो सीपीआई ने चार बार। इसके अलावा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, राजद और भाजपा ने एक-एक बार सफलता पायी है, जबकि एक बार निर्दलीय विधायक के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय को सफलता मिली है। इस दृष्टि से देखा जाय, तो बछवाड़ा विधानसभा अपने सीमा पर अवस्थित बरौनी/तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र और दलसिंह सराय/ उजियारपुर विधानसभा के रुझानों से भिन्न मिश्रित राजनीतिक रुझानों को प्रदर्शित करता रहा है।
महागठबंधन में राड़ की वजह:
===================
दरअसल बछवाड़ा सीट पर सीपीआई भी दावा करती है और काँग्रेस भी। सीपीआई जहाँ इस सीट को अपना परम्परागत सीट मानती है और काँग्रेस के दावे को ख़ारिज करती है, वहीं काँग्रेस सीपीआई के इस दावे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। सीपीआई के नेताओं और समर्थकों का काँग्रेस पर यह आरोप है कि काँग्रेस गठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रही है। उनके अनुसार, कायदे से उसे बछवाड़ा ही नहीं, जहाँ भी गठबंधन के सहयोगी दल मौजूद हैं, गठबंधन धर्म का पालन करते हुए काँग्रेस को वहाँ से अपनी दावेदारी वापस लेनी चाहिए।
यदि इन दावों और प्रति-दावों के बीच उनके औचित्य के प्रश्न पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के परिणामों के सन्दर्भ में विचार करें, तो जहाँ काँग्रेस को यहाँ से आठ बार जीत हासिल हुई है और एक बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय ने जीत हासिल की है, वहीं सीपीआई को चार बार। इस सीट पर पहली बार सीपीआई को सन् 1985 में जीत मिली जब सीपीआई के उम्मीदवार अयोध्या प्रसाद सिंह इस क्षेत्र में लाल परचम लहराया, और उसके बाद 1990 एवं 1995 में अवधेश राय को जीत हासिल हुई है। इस तरह सीपीआई ने लगातार तीन बार जीत हासिल की। बाद में, विधानस चुनाव, 2010 में एक बार फिर से अवधेश राय ने जीत हासिल की, लेकिन तब से अबतक सीपीआई इस क्षेत्र में जीत हासिल करने के लिए तरसती रही है।
जहाँ तक काँग्रेस का प्रश्न है, तो फ़रवरी, 2005 में तीन बार के विधायक रामदेव राय को एक लम्बे अन्तराल के बाद यहाँ से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत मिली, तो नवम्बर,2005 में काँग्रेस उम्मीदवार के रूप में। वर्ष 2015 में रामदेव राय ने एक बार फिर से महागठबंधन (काँग्रेस) के उम्मीदवार के रूप चुनावी जीत हासिल की। इस प्रकार वर्ष 2000 से अबतक रामदेव राय ने दो बार काँग्रेस उम्मीदवार के रूप में और एक बार निर्दलीय के रूप में इस विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की है।
इस तरह अगर विधानसभा चुनाव,1985, जब पहली बार यह सीट सीपीआई के कब्जे में आयी, से अबतक की बात की जाए, तो यह सीट चार बार सीपीआई के कब्जे में रही है, जबकि तीन बार काँग्रेसी रामदेव राय के क़ब्ज़े में रही है, जबकि एक-एक बार राजद और भाजपा के क़ब्ज़े में।
अगर विधानसभा चुनाव, 2000 से अबतक की बात की जाए, तो यह सीट तीन बार काँग्रेसी रामदेव राय के क़ब्ज़े में रही है, जबकि एक-एक बार राजद, सीपीआई और भाजपा के क़ब्ज़े में।
इस दृष्टि से देखा जाए, तो बछवाड़ा के सन्दर्भ में दावेदारी के मसले पर सीपीआई और काँग्रेस दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं और इस स्थिति को निश्चित तौर पर दोनों को स्वीकारना चाहिए। इस क्षेत्र से गरीब दास के पिताजी रामदेव राय सर्वाधिक छह बार विधायक निर्वाचित हुए, जबकि अवधेश राय तीन बार विधायक निर्वाचित हो चुके हैं। हाँ, बड़े दल के रूप में काँग्रेस से उदारता और सदाशयता की अपेक्षा जाती है और यह अपेक्षा वाज़िब भी है, पर काँग्रेस की अपनी मजबूरियाँ हैं। अगर काँग्रेस सीपीआई के दावे को स्वीकार करती है, तो उसे गरीबदास को खोना पड़ेगा जो उसके लिए दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में घाटे का सौदा होगा जिसके लिए काँग्रेस अभी तैयार नहीं हैं और न ही वह अभी इस स्थिति में हैं कि वह किसी अन्य तरीक़े से गरीबदास को कम्पनसेट करते हुए उन्हें कहीं और एडजस्ट कर सकें या इंगेज़ कर सके। इस ख़तरे का आभास उसे वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में मिल चुका है। इसीलिए सीपीआई को भी काँग्रेस की इस मजबूरी को समझना होगा, अन्यथा दोनों को इसकी क़ीमत चुकानी होगी।
जहाँ तक गठबंधन धर्म के पालन का प्रश्न है, तो इसकी अपेक्षा काँग्रेस से ही क्यों? क्या महागठबंधन के अन्य सहयोगी दल, चाहे वे राजद हों या सीपीआई, गठबंधन धर्म का पालन कर रहे हैं। सीपीआई को महागठबंधन में 6 सीटें दी गयी, जबकि उसने 9 विधानसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार दिए हैं। अब जब आप खुद गठबन्धन धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं, तो आपको क्या हक़ है कि आप कांग्रेस पर प्रश्न उठायें? इसीलिए मैंने यह कहा कि बछवाड़ा की वस्तुस्थिति को स्वीकार कर उसे अवधेश राय और गरीबदास के हवाले कर दें और वहाँ से आगे बढ़ें। यहाँ से बाहर महागठबंधन को मजबूती दें।
सीपीआई: गहराते आन्तरिक मतभेद:
========================
संगठन और नेतृत्व में रहने के क्या फ़ायदे हैं, इसे समझना हो, तो अवधेश राय की राजनीतिक यात्रा को देखिए। लगातार हार के बावजूद वे न केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपने लिए कम्युनिस्ट पार्टी और महागठबंधन की टिकट सुनिश्चित करने की स्थिति में हैं, वरन् इसके लिए उन्होंने बिहार राज्य में सीपीआई के राजनीतिक भविष्य को भी दाँव पर लगाने से परहेज़ नहीं किया है। परिणाम यह कि बछवाड़ा होल्ड करने के चक्कर में पिछली बार सीपीआई को महज़ छह सीटों पर संतोष करना पड़ा और इस बार भी कमोबेश वैसी ही स्थिति है। आगामी चुनाव में महागठबंधन में सीपीआई के हिस्से छह सीटें आयीं, जबकि सीपीआई 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, काँग्रेस पर इस आरोप के साथ कि उसने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है, उसका उल्लंघन किया है। यहाँ तक कि उनके लिए पार्टी ने न केवल पचहत्तर साल की उम्र-सीमा को दरकिनार किया है , वरन् संगठन में रहने के बावजूद उन्हें चुनावी राजनीति में शामिल होने की अनुमति दी है।
=====================
सीपीआई के आन्तरिक मतभेद:
=====================
अवधेश राय की उम्मीदवारी के प्रति सीपीआई के भीतर एक समूह में गहरा असंतोष है। उसका कहना है कि आख़िर लोकसभा से लेकर विधानसभा तक सीपीआई अवधेश राय से आगे बढ़कर क्यों नहीं सोच पा रही है और देख पा रही है? आख़िर क्यों नहीं नवीन संभावनाओं की तलाश की जा रही है? भाकपा राज्य-सचिव के पद पर कॉमरेड राम नरेश पाण्डेय की ताजपोशी और तेघड़ा एवं बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से क्रमशः राम रतन सिंह एवं अवधेश राय की उम्मीदवारी ने सीपीआई के सन्दर्भ में इस पारम्परिक धारणा को मज़बूती प्रदान की है कि वह बुजुर्गों की पार्टी है जहाँ युवाओं के लिए कोई स्थान नहीं हैँ। इसके उलट, आज की युवा पीढ़ी में ज़बर्दस्त महत्वाकांक्षा है, लेकिन उसमें धैर्य का नितान्त अभाव है। वह प्रतीक्षा करना नहीं जानती है। यह स्थिति वामपंथी दलों के भविष्य के लिए अच्छी और सुखद नहीं कही जा सकती है।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उनकी उम्मीदवारी के फ़ाइनल होने के पहले से ही उनकी कार्यशैली और उनके रवैये को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं, और इसकी प्रतिक्रिया में युवा वामपंथियों में ग़रीबदास के प्रति गहरा आकर्षण और गहरी सहानुभूति देखी जा रही है। भले ही वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं, पर उनमें अन्दर-ही-अन्दर अवधेश राय के प्रति आक्रोश और गरीबदास के प्रति सॉफ़्टनेस महसूसा जा सकता है।
सभी पक्षों के लिए खुला है परिणाम:
======================
मुख्तसर यह कि बछवाड़ा के काँटे के त्रिकोणीय मुकाबले, जिसे रामोद कुँवर चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, में ऊँट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगा पाना राजनीतिक पण्डितों के लिए आसान नहीं होने जा रहा है। और, अगर सीपीआई और काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व एवं उत्साही समर्थकों ने बछवाड़ा की राजनीतिक लड़ाई को बछवाड़ा तक सीमित नहीं रखा और उसे बेगूसराय के अन्य विधानसभा क्षेत्रों तक ले जाने की कोशिश की, तो बेगूसराय में इसका प्रतिकूल असर महागठबंधन के साथ-साथ उसके दोनो प्रमुख राजनीतिक दलों: सीपीआई और काँग्रेस की राजनीतिक संभावनाओं पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में बछवाड़ा के साथ-साथ तेघड़ा, बखरी और बेगूसराय विधानसभा क्षेत्रों पर भी पड़ेगा। विशेष रूप से इनमें से दो सीटें महागठबंधन की जीती हुई सीटें हैं और दोनों ही सीटें सीपीआई के जिम्मे हैं। इसीलिए बछवाड़ा विधानसभा सीपीआई और काँग्रेस, दोनों के लिए खतरे की घंटी बनकर सामने आ रही है जिसे समय रहते मैनेज करने की जरूरत है।
No comments:
Post a Comment